2. B. आहारदान की निम्न आवश्यक पात्रतायें एवं निर्देश
3. C निरन्तराय आहार हेतु सावधानियाँ एवं आवश्यक निर्देश
4. D फल, साग की सही प्रासुक विधि एवं सावधानियाँ
5. E आहार सामग्री की शुद्धि भी आवश्यक
6. F आहार दान में विज्ञान
7. G भोमभूमि का सोपान-आहार दान
8. H आहारदान की महिमा
9. I कुएँ बन सकते हैं प्रत्येक घर में
10. J आहार दान ऐसे करें
11. K आहार दान की विसंगतियों
सुना जाता है कि आज से २००/३०० वर्ष पूर्व अपने क्षेत्रों में जैन साधुओं का अभाव सा था, कहीं दक्षिण भारत में एक-दो साधु देखे जाते थे, उस समय जो भी जैन विद्वान थे, वे दिगम्बर साधुओं के दर्शन के लिए तरसते ही रह गये। समय बीतता गया। इस सदी में एक सिंहवृत्ति के साधु हुए जिनका नाम था आचार्य शान्तिसागर जी महाराज। उनकी अनुकंपा से आज तक वह परम्परा सतत चल रही है। आज हमारे सौभाग्य से वर्तमान में ८००/९०० साधु व आर्यिका आधि भारत में यत्र-तत्र बिहार कर रहे हैं। तथा धर्म का प्रचार-प्रसार प्रचुरता से हो रहा है।
पहले साधुओं का अभाव होने के कारण गाँव एवं शहरों में साधुओं के दर्शन ही नहीं होते थे व हमें आहार विधि आदि का कोई ज्ञान नहीं था। यहीं कारण था कि आचार्य शांतिसागर जी महाराज ने दीक्षा लेने के उपरान्त कई वर्षों तक मात्र दूध व चावल ही लिया। जब इस संबंध में उनसे पूछा गया कि पूज्य आचार्यश्री ने बताया कि आहार दाताओं को शुद्धि विषयक ज्ञान हीं नहीं है, अन्य वस्तुएँ कैसे ग्रहण की जायें? आज भारत के हर १००/५० कि.मी. की दूरी पर कोई न कोई साधु संघ हमें मिल जाते हैं व हमारे शहर-गाँवों में पधारते रहते हैं। श्रावक जन अपना कर्तव्य समझकर साधुओं के लिए आहार बनाते हैं, पर ऐसा देखा जाता है कि आहार संबंधी शुद्धि का प्रवचन सुनकर व पुस्तकों को पढ़कर भी, आलस्य से भरा हुआ श्रावक, अपनी सुविधानुसार साधु को आहार देता है, न कि आगम व प्रवचनानुसार। क्योंकि मैं कई बार मुनि संघो के दर्शनार्थ जाता रहता हूँ व हमारे शहर में भी मुनि संघ आते रहते हैं। मैंने आहार शुद्धि के विषय में श्रावकों के चौकों का निरीक्षण किया व उनकी क्रियाओं को देखा एवं उनसे चर्चा की, मुझे वहाँ बहुत सी अशुद्धियाँ देखने-सुनने को मिलीं, जिससे चित्त में बड़ा संताप हुआ। तब यह लेख लिखने की भावना बनी है। हमें विचार करना है कि साधुओं को दिया जाने वाला आहार कहाँ तक आगम सम्मत है?
१. जल: आहार में जो जल उपयोग में लिया जाता है वह कुए का या किन्हीं संघों में हैण्डपंप का लिया जाता है। (हम इस विषय पर चर्चा नहीं करेंगे कि हैण्डपंप का जल उपयोग में लिया जाय या नहीं) श्रावक का कर्तव्य है कि पानी छानकर जिवानी को कुन्डेवाली बाल्टी द्वारा सीधे उसी कुए में क्षेपण करें जहाँ से पानी लाया गया हो। लेकिन वर्तमान में ऐसा बिल्कुल भी नहीं हो रहा है। श्रावक जो छन्ना पानी छानने में प्रयोग करता है वह पतला एवं छिरछिरा होता है। उससे पानी छानने की विधि बनती ही नहीं है। यदि छन्ना मोटा भी है तो उसकी जिवानी यथास्थान क्षेपण नहीं की जाती है। अधिकतर कुए घर से दूर होते हैं। वहाँ से पानी लाया जाता है और उसकी जिवानी को नाली में बहा दिया जाता है। हैण्डपंप के पानी की जिवानी को यथास्थान पहुंचाने का प्रश्न ही नहीं उठता। अतः त्रस जीवों की रक्षा नहीं हो पाती है व छन्ना पतला होने से साधु को दिये गये भोजन में त्रस हिसा का दोष लगता है एवं जीवों की घोर हिसा होती है।
२. दूध आज का श्रावक साधुओं के लिए शुद्ध दूध की व्यवस्था कर ही नहीं पाता है। मैंने कई संघों में जाकर देखा है कि लोग साधुओं को अशुद्ध दूध पिलाते हैं। एक क्षेत्र पर १५/२० साधुओं का संघ रुका हुआ था। वहाँ के क्षेत्र प्रबंधक तीन-चार किलोमीटर दूर से २५/३० लीटर दूध कढ़वाकर मंगवाते थे और दूध सारे चौकों में बाँटा जाता है। दूध का कढ़ना प्रातः ५.३० बजे शुरु हो जाता था और श्रावक के यहाँ पहुँचते-पहुँचते आठ बज जाते थे। ऐसे दूध को कैसे आहार के योग्य कहा जा सकता है? कच्चे दूध की मर्यादा मात्र अन्तर्मुहूर्त (48 मिनिट) की है। इतने समय में दूध गर्म हो जाना चाहिए। लेकिन जिस प्रकार दूध मँगाया जाता है उसमें मर्यादा का पालन नहीं होता। एक स्थान पर यह देखकर अत्यन्त दुख हुआ कि श्रावक डेयरी का थैलीवाला दूध ही गर्म करके आहार में दे रहे थे।
मैं समझता हूँ कि शुद्ध दूध प्राप्त करने की समस्या सही है, लेकिन यदि हम थोड़ा सा आलस्य छोड़ सकें तो दूध की शुद्धि बन सकती है। सर्वश्रेष्ठ तो यही है कि हर चौकेवाला स्वयं गर्म जल लेकर जाये एवं शुद्ध दूध कढ़वाकर लाये। एवं जहाँ पर पीछियों अधिक हों और क्षेत्र पर ठहरी हों और दूध कहीं अन्यत्र से सभी चौकों वालों के लिए लाना पड़ता हो, वहाँ प्रबन्धकों को चाहिए कि वे जहाँ दूध निकाला जा रहा हो, उसी स्थान पर बड़ा भगौना एवं एक बड़ा गैस का चूल्हा रखें। जैसे-जैसे दूध नपता जाए, उसे छानकर वहीं भगौने में गर्म कर लें और फिर श्रावकों को वितरित कर दें। ऐसा करने से दूध शुद्ध प्राप्त किया जा सकता है।
३. घी: शुद्ध घी का प्राप्त करना वर्तमान में एक दम असंभव है। चारित्रचकवर्ती ग्रंथ में पूज्य आचार्य शांतिसागर जी महाराज से यह प्रश्न किय गया कि घी शुद्ध नहीं मिलता। क्या करना चाहिए तो आचार्य श्री कहते हैं घी शुद्ध न मिले तो तेल का इंतजाम करना चाहिए। परन्तु न मालूम क्यों हम जैनभाइयों के दिमाग से यह बात अच्छी तरह जमी हुई है कि यदि साधुओं को घी नहीं दिया जायेगा, तो उन्हें संयम साधना करने के लिए शक्ति कैसे प्राप्त होगी? जबकि यह अकाट्य सत्य है कि दक्षिण भारत, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल आदि प्रदेशों में अधिकांश जनता ने तो धी का स्वाद चखा ही नहीं है। वे तेल पर आधारित हैं, और स्वस्थ एवं दीर्घायु हैं। जहाँ तक शुद्ध घी का प्रश्न है वह केवल उसी परिवार को प्राप्त हो सकता है, जिसके घर में स्वयं के पशु हो, लेकिन ऐसे घर वर्तमान में देखने में नहीं आते हैं। आज-कल जो घी इस्तेमाल होता है, वह कई प्रकार से प्राप्त किया हुआ होता है।
१. श्रावक अपने घर में जिस शुद्ध दूध का प्रयोग करता है, उसकी मलाई एकत्रित करता जाता है। जब मलाई ५-७ दिन की एकत्रित हो जाती है तब उसको गर्म करके घी निकालता है। घी निकालते समय अत्यन्त बढबू भी आती है, जो इस बात का लक्षण है कि मलाई सड़ चुकी है। फिर भी वह मलाई का घी निकालकर अपने को “यह शुद्ध घी महाराज के लिए ठीक है” ऐसा बतलाता हुआ प्रसन्न होता है। जो बिल्कुल गलत है। हो यदि शुद्ध दूध लाकर अन्तर्मुहूर्त में गर्म कर लिया गया हो, तो उसकी निकाली गयी मलाई की मर्यादा अधिक से अधिक २४ घंटे की है। इसके उपरान्त उसमें त्रस जीव उत्पन्न हो जायेंगे। सामान्यतः किसी भी श्रावक के घर में इतनी मलाई नहीं, निकल सकती, जिसका घी बनाया जा सके, अतः इस प्रकार शुद्ध घी बनाना संभव नहीं है।
२. कुछ लो घी वालों से (हमको शुद्ध घी चाहिए महाराज को आहार में देना है) ऐसा कहकर घी खरीद लाते हैं और उसे शुद्ध मानते हैं। उन दाताओं को सोचना चाहिए कि जिन घी वालों से आपने घी लिया है, वे आपकी धार्मिक सीमाओं को नहीं जानते। अतः उससे लाया हुआ घी शुद्ध कैसे हो सकता है? केवल घी वाले के यह कह देने से कि घी सोले का शुद्ध है, घी शुद्ध नहीं हुआ करता, वह यह नहीं जानता कि शुद्ध घी किसे कहते हैं, शुद्ध दहीं कैसे जमता है? अतः ऐसा घी आहार दान के योग्य नहीं होता।
३. कुछ लोग घी वालों से डेरी का या ग्लेक्सो आदि कम्पनी का घी खरीदकर आहार में देने लगे हैं। उनका कहना है कि अठपहरा घी तो, मिलता नहीं और महाराज को घी देना ही है तो क्या करें? एक स्थान पर तो चातुर्मास समिति वाले डेरी का निकला हुआ घी (अशुद्ध समझते हुए भी) पूरे चार माह तक संघ की आहार में शुद्ध कहकर खिलाते रहे। (यह मैं विल्कुल सत्य घटना खिल रहा हूँ) जो नितांत अशुद्ध है।
इस समस्या के तीन समाधान
१. सर्वोत्तम तो यही है कि बजाय घी के शुद्ध तेल अपने सामने किसी एक्सपेलर को धुलवा कर निकलवा लिया जाय, (एक बार का निकला हुआ तेल कई माह तक शुद्ध रहता है) और उसे ही आहार बनाने में प्रयुक्त किया जाए।
२. घी से ज्यादा शक्ति बादाम में बतायी जाती है। बजाय १०० ग्राम घी के यदि साधु को आहार में ५/७ बादाम घिसकर दे दिये जायें तो हर दृष्टि से श्रेष्ठ रहते हैं, तथा अशुद्धि का भी कोई प्रश्न नहीं उठता। ये बादाम दूध में मिलाकर दिये जा सकते हैं।
३. जैन समाज को एक ऐसी दुग्ध सोसायटी बनानी चाहिए जो शुद्ध घी (आगम की मर्यादा के अनुसार) बनाकर श्रावकों को आहार के लिये सप्लाई किया करे।
४. आटा: आहार के लिए जो आटा प्रयुक्त किया जाए उसका गेहूँ अच्छी तरह धुला एवं सूखा हुआ होना चाहिए। आज कल श्रावक मर्यादा का तो ध्यान रखते हैं पर गेहूँ धोने एवं सुखाने का ध्यान नहीं रखते। आज विज्ञान का युग है। सभी किसान खादों में कीटाणुनाशक दवाइयों का प्रचुरता से प्रयोग करने लगे हैं। बाजार से जो गेहूँ आता है, उसमे खाद तथा दवाइयों का अंश मौजूद रहता ही है, जो अशुद्ध एवं अभक्ष्य है, एवं वह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी है। इसलिए सभी डॉ. भी आज यहीं करने लगे हैं कि गेहूँ धोकर ही काम में लेना चाहिए। लेकिन आज का श्रावक इन कामों में बड़ा प्रमादी है, वह गेहूँ धोने व सुखाने के पचड़े में नहीं पड़ना चाहता है, यदि कुछ समझदारी भी है तो गेहूँ को गीले कपड़े से पोछ लेता है। जो कि बिल्कुल अनुचित है। ऐसा आटा आहार के कदापि योग्य नहीं होता।
५. मसाले आदि: भोजन में प्रयोग में लाये जाने वाले मसाले धुले एवे सूखे हुए होने चाहिए और इनकी मर्यादा आटे के बराबर है, इसका भी ध्यान रखना चाहिए। आजकल मसाला धोने का रिवाज विल्कुल उठ गया है, जो कि अनुचित है। उसकी शुद्धि का पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए। आहार के बाद जो मंजन किया जाता है वह भी अमर्यादित और अशुद्ध प्रयोग में लिया जाने लगा है, इसकी मर्यादा भी मसालों के बराबर ही है (यदि घर का बना मंजन है तो), बाजार का तो अशुद्ध ही है।
६. अचित्त फल: फलों का अचित करने का तरीका यह है कि फल पानी में १० मिनिट तक पड़ा रहने दिया जाए, तदुपरान्त उसको निकालकर फिर प्रयुक्त किया जाए। लेकिन यह विधि लोग काम में नहीं लाते। अवसर श्रावक जन केले, सेव आदि को गर्म पानी से धोकर इस्तेमाल करते हैं, या कुछ लोग फलों का छिलका हटाकर टुकड़े-टुकड़े करके एक-दो मिनिट आग के ऊपर रखकर शुद्ध मान लेते हैं, जो विधि आगम सम्मत नहीं है। फल १० मिनिट तक गर्म पानी में डालने के बाद ही अचित्त होता है। कुछ लोग कहते हैं कि गर्म पानी में डालने से फल मुलायम पड़ जाते हैं व उसमें स्वाद नहीं रहता, उनसे मेरा निवेदन है कि वे स्वाद को दृष्टि में न रखकर भोजन शुद्धि को दृष्टि में रखें। अन्यथा अहिंसा महाव्रत नहीं पल सकेगा।
७. वस्त्र शुद्धि संबंधी: आहार के लिये प्रयोग में लाये जाने वाले वस्त्र धुले हुए शुद्ध होने चाहिए। आजकल देखा जाता है कि जितने दान देने वाले हैं, वे अक्सर अपने पहने हुए वस्त्र उतारकर धोती-दुपट्टा पहिन लेते हैं, जो कि अनुचित है। हमें शरीर से सारे वस्त्र उतारकर गीले अँगोछे से शरीर पोछकर फिर शुद्ध कपडे पहनने चाहिए। एवं जिन कपड़ों से हम कभी भी लघुशंका आदि गये हों उन कपड़ों को पहनकर कभी आहार नहीं देना चाहिए।
एक बात और देखी जाती है. आहार बनाते समय माताएँ बहुत सारे व्यंजन जैसे गोलगप्पा, रसगुल्ला व विभिन्न प्रकार की मिठाइयों आदि गरिष्ठ भोजन अपने चौकों में बनाने लग जाती हैं, व बनाते समय हड़बड़ी करती हैं, जिससे अशुद्धियाँ होती हैं और आहार देते समय साधुओं को अक्सर अन्तराय आ जाता है। भोजन की कच्ची सामग्री की अशुद्धि को भी अनदेखा कर देते हैं, जिससे साधुओं की साधना में साधक सिद्ध न होकर उल्टा बाधक बन जाता है। हम अपने घरों में अपने लिए एक दाल, दो साग और सलाद बनाते हैं, लेकिन साधु को गरिष्ठ आहार कराते हैं व विभिन्न पकवान खिलाते हैं, जिससे कि साधु को आलस्य व प्रमाद घेर लेता है और वह आहार साधु के सामायिक, स्वास्थ्य आदि में बाधक सिद्ध हो जाता है। हमें चाहिए कि हम साधुओं को हल्का-फुल्का शुद्ध मर्यादित भोजन करावें, जो कि हमारे लिए पुण्योपार्जन में साधक हो तथा साधु को भी अपनी साधना में साधक हो।
निवेदन: विभिन्न संघों में निरन्तर जाते रहने से मेरे मन में भोजन की अशुद्धि को लेकर जो वेदना हुई है, मैंने यहाँ उसी का वर्णन किया है मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि श्रावकजन भोजन की शुद्धि का पूर्णरूपेण ध्यान रखने का प्रयास करेंगे। मैंने तो गुरुओं से यह सीखा है कि जो अशुद्ध वस्तु है, उसे न देना अच्छा है। यदि आहार देना है तो कम सामान बनायें, लेकिन शुद्ध बनावें और उपर्युक्त घी आदि वस्तुएँ शुद्ध हों तभी दें अन्यथा नहीं।
साभार: जिन भाषित मार्च २००२
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