Jinasena (c. 9th century CE) was a monk and scholar in the Digambara tradition of Jainism. He was patronized by the Rashtrakuta king Amoghavarsha I. He was the author of Adipurana and Mahapurana.
Jinasena was the disciple of Acharya Virasena and he completed the commentary Dhavala on Ṣaṭkhaṅḍāgama, a revered text in the Digambara tradition. The name is shared by an earlier Acharya Jinasena who was the author of Harivamsa Purana
Acharya Jinasena was a 9th-century CE Jain scholar who belonged to the Panchastupanvaya.He was a disciple of Virasena. He claimed that Rishabhanatha first taught humanity how to extract sugarcane juice and that the fire by itself was not divine. Rastrakuta king Amoghavarsha was his disciple.
He wrote the encyclopedic Adipurana. Mahapurana includes Ādi purāṇa and Uttarapurana, the project was completed by his pupil Gunabhadra.
Mahapurana is the source of the famous quote, used by Carl Sagan and many others.
https://en.wikipedia.org/wiki/Jinasena
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Jinasena (c. 9th century CE) was a monk and scholar in the Digambara tradition of Jainism. He was patronized by the Rashtrakuta king Amoghavarsha I. He was the author of Adipurana and Mahapurana.
Jinasena was the disciple of Acharya Virasena and he completed the commentary Dhavala on Ṣaṭkhaṅḍāgama, a revered text in the Digambara tradition. The name is shared by an earlier Acharya Jinasena who was the author of Harivamsa Purana
जैन काव्यों की महनीय परम्परा में, आचार्य जिनसेन (द्वितीय) द्वारा प्रणीत ‘पार्श्वाभ्युदय’ काव्य की उपादेयता सर्वविदित है। आचार्य जिनसेन (द्वितीय), आचार्य नेमिचंद्र शास्त्री की ऐतिहासिक कृति ‘तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा’ (खंड २) के अनुसार श्रुतधर और प्रबुद्धाचार्यों के बीच की कड़ी थे। इनकी गणना सारस्वताचार्यों में होती है। यह अपनी अद्वितीय सारस्वत प्रतिभा और अपार कल्पना-शक्ति की महिमा से ‘भगवत् जिनसेनाचार्य’ कहे जाते थे। यह मूलग्रंथों के साथ ही टीका ग्रंथों के भी रचयिता थे। इनके द्वारा रचित चार ग्रंथ प्रसिद्ध हैं-जयधवला टीका का शेष भाग, ‘आदिपुराण’ या ‘महापुराण’, ‘पार्श्वाभ्युदय’ और ‘वर्धमान पुराण’। इनमें ‘वर्धमान पुराण’ या ‘वर्धमान चरित’ उपलब्ध नहीं है।
आचार्य जिनसेन (द्वितीय) ईसा की आठवीं-नवीं शती में वर्तमान थे। यह काव्य, व्याकरण, नाटक, दर्शन, अलंकार, आचारशास्त्र, कर्म सिद्धांत प्रभृति अनेक विषयों में बहुश्रुत विद्वान थे। यह अपने योग्य गुरु के योग्यतम शिष्य थे। जैन सिद्धांत के प्रख्यात ग्रंथ ‘षट्खंडागम’ तथा ‘कसायपाहुड’ के टीकाकार आचार्य वीरसेन (सन् ७९२ से ८२३ ई.) इनके गुरु थे। क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी द्वारा सम्पादित ‘जैनेन्द्र सिद्धांत कोश’ में भी उल्लेख है कि आचार्य जिनसेन, धवला टीका के कत्र्ता श्री वीरसेन स्वामी के शिष्य तथा उत्तरपुराण के कत्र्ता श्री गुणभद्र के गुरु थे और राष्ट्रकूट-नरेश जयतुंग एवं नृपतुंग, अपरनाम अमोघवर्ष (सन् ८१५ से ८७७ ई.) के समकालीन थे। राजा अमोघवर्ष की राजधानी मान्यखेट में उस समय विद्वानों का अच्छा समागम था।
‘जैनेन्द्र सिद्धांत कोश’ के संदर्भानुसार आचार्य जिनसेन आगर्भ दिगम्बर थे; क्योंकि इन्होंने बचपन में आठ वर्ष की आयु तक लंगोटी पहनी ही नहीं और आठ वर्ष की आयु में ही दिगम्बरी दीक्षा ले ली। इन्होंने अपने गुरु आचार्य वीरसेन की, कर्मसिद्धांत-विषयक गं्रथ ‘षट्खंडागम’ की अधूरी ‘जयधवला’ टीका को, भाषा और विषय की समान्तर प्रतिपादन- शैली में पूरी किया था और इनके अधूरे ‘महापुराण’ या ‘आदिपुराण’ को (कुल ४७ पर्व) जो ‘महाभारत’ से भी बड़ा है, इनके शिष्य आचार्य गुणभद्र ने पूरा किया था। गुणसेन द्वारा पूरा किया गया अंश या शेषांश उत्तरपुराण नाम से प्रसिद्ध है। पंचस्तूपसंघ की गुर्वावलि के अनुसार वीरसेन के एक और शिष्य थे-विनयसेन। आचार्य जिनसेन (द्वितीय) ने दर्शन के क्षेत्र में जैसी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया है, वैसी ही अपूर्व मनीषा काव्य के क्षेत्र में भी प्रदर्शित की है। इस संदर्भ में इनकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व की संस्कृत काव्यकृति ‘पार्श्वाभ्युदय’ उल्लेखनीय है। प्रस्तुत काव्य के अंतिम दो श्लोकों से ज्ञात होता है कि उपर्युक्त राष्ट्रकूटवंशीय नरपति अमोघवर्ष के शासनकाल में इस विलक्षण कृति की रचना हुई।
आचार्य जिनसेन राजा अमोघवर्ष के गुरु थे, यह काव्य के प्रत्येक सर्ग की समाप्ति में, मूल काव्य और उसकी सुबोधिका व्याख्या की पुष्पिका में उल्लिखित है: ‘इत्यमोघवर्षपरमेश्वर-परमगुरु श्री जिनसेनाचार्य विरचित मेघदूतवेष्टितवेष्टिते पार्श्वाभ्युदय....!’ प्रसिद्ध जैन विद्वान् श्री पन्नालाल बाकलीवाल के अनुसार राष्ट्र वूâटवंशीय राजा अमोघवर्ष ७३६ शकाब्द में कर्णाटक और महाराष्ट्र का शासक था। इसने लगातार तिरसठ वर्षों तक राज्य किया। इसने अपनी राजधानी मलखेड या मान्यखेट में विद्या एवं सांस्कृतिक चेतना के प्रचुर प्रचार-प्रसार के कारण विपुल यश र्अिजत किया था। ऐतिहासिकों का कहना है कि इस राजा ने ‘कविराजमार्ग’ नामक अलंकार-ग्रंथ कन्नड-भाषा में लिखा था। इसके अतिरिक्त, ‘प्रश्नोत्तर रत्नमाला’ नामक एक लघुकाव्य की रचना संस्कृत में की थी। यह राजा आचार्य जिनसेन के चरणकमल के नमस्कार से अपने को बड़ा पवित्र मानता था।
‘पार्श्वाभ्युदय के अंत में सुबोधिका-टीका, जिसकी रचना आचार्य मल्लिनाथ की मेघदूत-टीका के अनुकरण पर हुई है, के कत्र्ता पंडिताचार्य योगिराट् की ओर से ‘काव्यावतर’ उपन्यस्त हुआ है, जिससे ‘पार्श्वाभ्युदय’ काव्य की रचना की एक मनोरंजक पृष्ठभूमि की सूचना मिलती है-
एक बार कालिदास नाम का कोई ओजस्वी कवि राजा अमोघवर्ष की सभा में आया और उसने स्वरचित ‘मेघदूत’ नामक काव्य को अनेक राजाओं के बीच, बड़े गर्व से, उपस्थित विद्वानों की अवहेलना करते हुए सुनाया। तब, आचार्य जिनसेन ने अपने सतीथ्र्य आचार्य विनयसेन के आग्रहवश उक्त कवि कालिदास के गर्व-शमन के उद्देश्य से सभा के समक्ष उसका परिहास करते हुए कहा कि यह काव्य (मेघदूत) किसी पुरानी कृति से चोरी करके लिखा गया है, इसीलिए इतना रमणीय बन पड़ा है। इस बात पर कालिदास बहुत रुष्ट हुआ और जिनसेन से कहा-‘यदि यही बात है, तो लिख डालो कोई ऐसी ही कृति।’ इस पर जिनसेन ने कहा-‘ऐसी काव्यकृति तो मैं लिख चुुका हूँ, किन्तु है वह यहाँ से दूर किसी दूसरे नगर में। यदि आठ दिनों की अवधि मिले तो उसे यहाँ लाकर सुना सकता हूूँ।
आचार्य जिनसेन को राज्यसभा की ओर से यथाप्रार्थित अवधि दी गई और उन्होंने इसी बीच तीर्थंकर पापार्श्वथ की कथा के आधार पर ‘मेघदूत’ की पंक्तियों से आवेष्टित करके ‘पार्श्वाभ्युदय’ जैसी महार्घ काव्य रचना कर डाली और उसे सभा के समक्ष उपस्थित कर कवि कालिदास को परास्त कर दिया।
पार्श्वाभ्युदय’ का संक्षिप्त कथावतार इस प्रकार है-भरतक्षेत्र में सुरम्य नामक देश में पोदनपुर नाम का एक नगर था। वहाँ अरविन्द नाम का राजा राज्य करता था। उस राजा के कमठ और मरुभूति नाम के दो मंत्री थे, जो द्विजन्मा विश्वभूति तथा उसकी पत्नी अनुंधरी के पुत्र थे। कमठ की पत्नी का नाम वरुणा था और मरुभूति की पत्नी वसुन्धरा नाम की थी। एक बार छोटा भाई मरुभूति शत्रु-राजा वज्रवीर्य के विजय के लिए अपने स्वामी राजा अरविन्द के साथ युद्ध में गया। इस बीच मौका पाकर दुराचारी अग्रज कमठ ने अपनी पत्नी वरुणा की सहायता से भ्रातृ पत्नी वसुंधरा को अंगीकृत कर लिया। राजा अरविन्द जब शत्रु विजय करके वापस आया, तब उसे कमठ की दुर्वृत्ति की सूचना मिली। राजा ने मरुभूति के अभिप्रायानुसार नगर में प्रवेश करने के पूर्व ही अपने भृत्य के द्वारा कमठ के नगर-निर्वासन की आज्ञा घोषित कराई, क्योंकि राजा ने दुर्वृत्त कमठ का मुँह देखना भी गवारा नहीं किया। कमठ अपने अनुज पर क्रुद्ध होकर जंगल चला गया और वहाँ उसने तापस-वृत्ति स्वीकार कर ली । अपने अग्रज कमठ की निर्वेदात्मक स्थिति से जाने क्यों मरुभूति को बड़ा पश्चाताप हुआ। जंगल जाकर उसने अपने अग्रज कमठ को ढूँढ निकाला और वह उसके पैरों पर गिरकर क्षमा माँगने लगा। क्रोधान्ध कमठ ने पैरों पर गिरे हुए मरुभूति का सिर पत्थर मारकर फोड़ डाला, जिससे उसकी वहीं तत्क्षण मृत्यु हो गई।
इस प्रकार, अकालमृत्यु को प्राप्त मरुभूति आगे भी अनेक बार जन्म-मरण के चक्कर में पड़ता रहा। एक बार वह पुनर्भव के क्रम में काशी जनपद की वाराणसी नगरी में महाराज विश्वसेन और महारानी ब्राह्मी देवी के पुत्र-रूप में उत्पन्न हुआ और तपोबल से तीर्थंकर पापार्श्वथ बनकर पूजित हुआ। अभिनिष्क्रमण के बाद, एक दिन, तपस्या करते समय पापार्श्वथ को पुनर्भवों के प्रचंड में पड़े हुए संबर नाम के प्रसिद्ध कमठ ने देख लिया। देखते ही उसका पूर्व जन्म का वैर भाव जग पड़ा और उसने मुनीन्द्र पापार्श्वथ की तपस्या में विविध विघ्न उपस्थित किये। अंत में मुनीन्द्र के प्रभाव से कमठ को सद्गति प्राप्त हुई। जिज्ञासु जनों के लिए इस कथा का विस्तार जैन पुराणों में द्रष्टव्य है। मरुभूति का अपने भव से पापार्श्वथ के भव में प्रोन्नयन या अभ्युदय के कारण इस काव्यकृति का पार्श्वाभ्युदय नाम सार्थक है।
इस ‘पार्श्वाभ्युदय’ काव्य में कमठ यक्ष के रूप में कल्पित है और उसकी प्रेयसी भ्रातृपत्नी वसुन्धरा की यक्षिणी के रूप में कल्पना की गई है। राजा अरविन्द कुबेर है, जिसने कमठ का एक वर्ष के लिए नगर-निर्वासन का दण्ड दिया था। शेष अलकापुरी आदि की कल्पनाएँ ‘मेघदूत’ का ही अनुसरण-मात्र हैं।
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