(J) आहार दान ऐसे करें- लेखक पं. श्री रतनलाल जी वैनाड़ा, आगरा
वर्तमान में दिगम्बर जैन साधु एवं आर्यिकाओं की संख्या में अत्यधिक वृद्धि देखने में आ रही है। पूरे देश के हर प्रांत में दिगम्बर जैन साधु एवं आर्यिकाओं का विहार निरन्तर होते देखा जा रहा है। प्रत्येक कस्बे या जिले में वर्ष में २-४ साधु संघ पधार ही जाते हैं। उनके पधारने पर उस स्थान के श्रावकों में आहार दान देने की प्रवृत्ति स्वभावतः देखी जाती है। प्रत्येक शहर या कस्बे में उस संघ की संख्या के आधार पर चौके लगाये जाते हैं। परन्तु अत्यन्त विचारणीय विषय यह है कि हम चौका तो लगाते हैं परन्तु तत्सम्बन्धी विभिन्न क्रियाओं की समुचित जानकारी के अभाव में उचित रूप से आहार दान नहीं देते हैं। विभिन्न स्थानों पर जब श्रावकों से इस संबंध में चर्चायें की गई तो देखा गया कि ये चौका तो लगा रहे हैं परन्तु प्रमाद के कारण कुछ आवश्यक बातों का ध्यान न रखते हुए पुण्य की जगह पाप का बंध कर रहे हैं। यद्यपि वर्तमान में आहार दान संबंधी बहुत सी पुस्तके या लेख छपते भी हैं परन्तु वे श्रावकगण आलस्यवशात् उनको पढ़ने की अथवा तदनुसार आवश्यक क्रिया करने पर गौर नहीं करते। जिसका परिणाम यह देखा जा रहा है कि वर्तमान में आहार दान देने में बहुत सारी विसंगतियाँ हो गई है। उनमें से कुछ पर यहाँ विचार करते हैं:
१. आहार के लिए कुएँ के पानी का प्रयोग होना चाहिए। हम पानी तो कुएँ से भरवा लेते हैं परन्तु उसकी जीवानी को उसी कुएँ में नहीं भेजते। जिसके कारण त्रस जीवों की हिसा का महान् पाप लगता है।
२. जिस दिन चौका लगाना होता है उस दिन सूर्य निकलने से पूर्व ही, रात्रि में, आहार बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ कर देते हैं। जबकि सूर्योदय से पूर्व बने आहार को देने से रात्रि भोजन का दोष लगता है।
३. आटा पीसने से पूर्व गेहूँ को धोने और सुखाने की पद्धति लगभग समाप्त सी हो गई है। जबकि आटा पीसने से पूर्व छने हुए जल से गेहूँ धुलने और सूखने चाहिए।
४. आहार में शुद्ध दूध देने की परंपरा भी लगभग समाप्त हो गई है। कोई मुनिसंघ या आर्यिका संघ जब किसी स्थान पर चातुर्मास आदि करते हैं, तब वहाँ लगने वाले चौकों के लिए दूध लाकर वितरित किया जाता है। इस प्रक्रिया में दूध निकालने से दूध गर्म होने तक कई घंटे लग जाते हैं। जिससे दूध में सम्मूर्च्छन त्रस जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। इस प्रक्रिया में अवश्य ही सुधार होना चाहिए। इसके लिए यह किया जाए कि जहाँ वितरण के लिए दूध निकाला जा रहा है, वहीं पर गैस का चूल्हा तथा छन्ना, भगौना रख दिया जाय। दूध दोहने के तुरंत बाद उस दूध को आग के ऊपर रखे भगोने में डालकर गर्म कर लेना चाहिए और वह गर्म दूध ही चौकों में वितरित करना चाहिये। यदि आप अपने चौके के लिए दूध ला रहे हैं, तो पूरी शुद्धि से दूध लायें और तुरंत ही गर्भ कर लें।
५. दही जमाने की प्रक्रिया भी अक्सर दाता लोग नहीं जानते हैं। सही प्रक्रिया यह है कि शुद्ध दूध लेकर उसमें बादाम, नारियल का कड़ा भाग, लाल मिर्च, मारबल का पत्थर, मुनक्के आदि डालकर शुद्ध दही जमाना चाहिए। इसमें ध्यान यह रखना है कि बादाम या नारियल का खोपरा आदि दूध में डाला जाय वह विल्कुल सूखा हुआ होना चाहिए। नित्य नई लाल मिर्च या मुनक्के डालना सर्वश्रेष्ठ विधि है। यदि गीले बादाम या मारबल का टुकड़ा दही में रखा गया तो त्रस जीवों की उत्पत्ति हो जायेगी। यह प्रक्रिया अधिकांश चौकों में ठीक तरह से नहीं की जाती है। जामन से जमाया गया दही तो अशुद्ध ही है।
६. आहार में शुद्ध घी के प्रयोग करने का काम वर्तमान में सबसे ज्यादा जटिल हो गया है। जो लोग मलाई से घी बनाते हैं, उनमें दूध की शुद्धि का ध्यान नहीं रखते। दूध शुद्ध हो तो उसकी मलाई को दो, तीन, चार दिन तक इकट्ठा कर उसका घी बनाते हैं। ध्यान रखें मलाई को फ्रिज में रखकर २४ घण्टे के अंदर ही उसके बनाये घी को शुद्ध कहा जा सकता है। कुछ लोग तो केवल ‘शोध के घी’ के नाम पर आये हुए घी को खरीद लेते हैं, और उसे शुद्ध मान लेते हैं। यह भी बिल्कुल उचित नहीं है। बड़े दुःख की बात है कि विहार में मुनिसंघ के आहार की व्यवस्था करते समय बाजार के घी का प्रयोग खुल्लमखुल्ला होने लगा है। एक आर्यिका संघ के चातुर्मास अवसर पर जब वहाँ की व्यवस्था समिति से चर्चा की गई तब उन्होंने स्पष्ट बताया कि हम तो बाजार से घी लाते हैं। आजकल अधिकांश जगह यहीं हो रहा है, जो बिल्कुल गलत है। आहार में ऐसा घी प्रयोग करने से महान् पाप बंध होता है। हमें चाहिए कि शुद्ध दूध मंगाकर उसका विधिवत् दहीं जमाकर उससे निकाले घी का आहारदान में प्रयोग करें। इस संबंध में किसी पर भी विश्वास करना उचित न होगा।
७. आहार में कुछ फल या ककड़ी खीरा आदि भी दिये जाते हैं। उनको अचित करने की विधि अधिकांश श्रावक नहीं समझते। सबसे श्रेष्ठ तो यह है कि हमें जो भी फल आहार में देना हो उसकी सब्जी बना दें। जैसे सेब, अंगूर, अमरूद आदि को १५ मिनट तक गर्म पानी में रखके उसको अचित्त बनाकर ही आहार में दें। अक्सर लोग ये सोचते हैं कि ऐसा करने से सेब आदि का स्वाद ही बदल जाता है। उनसे निवेदन है कि मुनिराज वस्तु के स्वाद को नहीं देखते, वे तो जीव रहित वस्तु को स्वीकार करते हैं। पपीते या खीरा आदि को केवल गर्म पानी से धो लेने मात्र से वह अचित्त नहीं होता है।
८. कई संघ के साधु या आर्यिकाओं ने आजकल अशुद्ध वस्तुओं को लेना प्रारंभ किया है। जैसे कोई पत्तियों की चटनी लेने लगे हैं, कोई पत्ता गोभी लेने लगे हैं, कोई तरबूज लेते हैं आदि। ऐसे संघों के अपने शहर में आ जाने से श्रावकों का कर्तव्य होता है कि इन वस्तुओं को अपने चौकों में न बनायें। यदि उस संघ के ब्रह्मचारी भाई या बहने ऐसा कहें कि हमारे महाराज तो लेते हैं, तो उन्हें स्पष्ट समझायें कि ये वस्तुये अशुद्ध हैं, हम चौकों में नहीं बनायेंगे।
९. बहुत से चौकों में बाजार का पीसा हुआ नमक प्रयोग किया जाता है जो बिल्कुल गलत है। आहार बनाने में सिर्फ सैंधा नमक का ही प्रयोग किया जाना चाहिए और वह भी तुरंत पीसकर प्रयोग किया जाये।
१०. आटा व मसालों की मर्यादा का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। मसाले आदि भी बाजार के पिसे हुए कदापि प्रयोग न करें।
११. वस्त्र शुद्धि के मामले में बहुत शिथिलता दिखायी पड़ने लगी है। स्त्री एवं पुरुष ऊपर के वस्त्र तो धुले हुए पहन लेते हैं परंतु अंदर के वस्त्रों को नहीं बदलते, यह बिल्कुल गलत है। शरीर पर पहना हुआ प्रत्येक वस्त्र शुद्ध ही प्रयोग करना चाहिए।
१२. साधु को दिया जाने वाला आहार शुद्ध वस्त्र पहनकर महिलाओं को स्वयं अपने हाथों से बनाना चाहिए। बाहर के कार्यों में चाहे अन्य की मदद ली जाये परंतु आहार बनाने में नहीं। अजैन नौकरों से तो आहार कभी नहीं बनवाना चाहिए। उनको शुद्धि-अशुद्धि का ज्ञान नहीं होता है।
१३. आहार के अंत में दिये जाने वाले सौंफ का चूर्ण आदि वस्तुयें भी मर्यादित होनी चाहिए। नारियल के पानी को भी लौंग या सौंफ आदि डालकर अचित्त करने के पश्चात ही आहार में देना चाहिए।
१४. आहार में चीनी या चीनी से बना बूरा अथवा बाजार के गुड़ को गरम करके छना हुआ गुड़ नहीं देना चाहिए, ये सब अशुद्ध होते हैं। इसके लिए आहारजी, सिलवानी, इन्दौर आदि स्थानों पर जो शुद्ध गुइ मिलता है उसका ही प्रयोग किया जाना चाहिए।
१५. साधु संघ के लिए वर्तमान में बहुत सारी वैरायटी बनाने का रिवाज चालू हुआ है। आगम के अनुसार तो आज्ञा यह है कि जो आप स्वयं खाते है वहीं आहार में दें। परन्तु लोग क्या कहेंगे, ऐसा सोचकर हम बहुत सारी वैरायटी बनाने लगे हैं जो बिल्कुल उचित नहीं है। आहार दान की परंपरा दक्षिण भारत में सर्वश्रेष्ठ है। वहाँ वे स्वयं जो खाते हैं वहीं आहार में देते हैं। अधिक वैरायटी बनाने पर अशुद्ध घी आदि का प्रयोग, अधिक समय लगना, अधिक खर्च बैठना आदि विसंगतियाँ होती है।
१६. विभिन्न शहरों में देखा जा रहा है कि यदि दो त्यागी होते हैं तो एक या दो ही चौके लगाये जाते हैं। इससे अधिक की मना की जाती है या अधिक चौके लगाने की उपयोगिता नहीं समझी जाती। यह प्रक्रिया एकदम अनुचित है। अपने स्थान पर साधु संघ आने पर हमें उत्साहपूर्वक अत्यन्त भक्ति से आहार देने का सौभाग्य प्राप्त करना चाहिए। आचायों ने लिखा है जिस घर में साधुओं का आहार न हो वह घर श्मशान तुल्य है।
आशा है उपरोक्त सभी बातों को सभी श्रावकगण अच्छी तरह पढ़ेंगे, समझेंगे और भविष्य में जब भी आहार दान का सुअवसर प्राप्त होगा तब प्रमाद छोड़कर पूरी शुद्धि और भक्ति से आहार दान देकर सातिशय पुण्य का बंध करेंगे।
साभार- स्मारिका मदनगंज किशनगढ़ सन् २००७
2. B. आहारदान की निम्न आवश्यक पात्रतायें एवं निर्देश
3. C निरन्तराय आहार हेतु सावधानियाँ एवं आवश्यक निर्देश
4. D फल, साग की सही प्रासुक विधि एवं सावधानियाँ
5. E आहार सामग्री की शुद्धि भी आवश्यक
6. F आहार दान में विज्ञान
7. G भोमभूमि का सोपान-आहार दान
8. H आहारदान की महिमा
9. I कुएँ बन सकते हैं प्रत्येक घर में
10. J आहार दान ऐसे करें
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