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(H) आहारदान की महिमा:

दरिद्र रहना अच्छा है किन्तु वानहीन होकर जीना अच्छा नहीं है क्योंकि धन महा मोह का कारण है। दुष्परिणाम युक्त पाप का बीज है नरक का हेतु दुःखों की खान एवं दुर्गति देने में समर्थ है।

जिस प्रकार सब रत्नों में श्रेष्ठ वज्र (हीरा) हे पर्वतों में श्रेष्ठ सुमेरू पर्वत है, उसी प्रकार सभी दानों में श्रेष्ठ आहार दान जानना चाहिए। (भाव संग्रह देव सेनाचार्य)

जो पुरुष कभी न तो जिनेन्द्र भगवान की पूजा करते है न सुपात्रों को दान देते हैं वे अत्यन्त दीन दुर्गती के पात्र हो जाते हैं माँगने पर भी भीख नहीं मिलती। (भाव संग्रह देव सेनाचार्य)

कंजूस का संचित धन धर्म प्रभावना परोपकार व पात्र दान के लिए नहीं होता जैसे मधु मक्खियों द्वारा संचित मधु ही उनकी मृत्यु का कारण होती है तथा उसका भोग भी अन्य ही करते हैं। (भाव संग्रह देव सेनाचार्य)

अतिथी की पूजा न करते वाला व्यक्ति मृत्यु के समय में पछताए‌गा कि हाय, मैंने इतना धन संचय किया किन्तु वह कुछ काम नहीं आया। (कुरल काव्य)

जो मनुष्य अपनी रोटी दूसरों के साथ बाँटकर खाता है, उसे भूख की बीमारी कभी स्पर्श नहीं करती। (आ. तिरुवल्लुवर)

आचार-विचार की शुद्धि मन शुद्धि पर अवलम्बित है।

भोजन-शुद्धि में मर्यादा पर बहुत जोर दिया जाता है क्योंकि इससे साधना व स्वास्थ्य की रक्षा होती है।

जो श्रावक जैन व्रत को स्वीकार कर भाव सहित होते हुए पात्रों के लिए आहार, औषध, अभय और ज्ञान (शास्त्र) दान देते हैं वे धर्मात्मा, विद्याधर तथा चक्रवर्ती का पद एवं देवों की लक्ष्मी का उपभोग कर मोक्ष संबंधी अनुपम परमार्थ सुख को प्राप्त करते है। (स. श्लोक स.)

सत्पात्र को दान देने से मनुष्य धनाढ्‌य होता है। पुनः धन की अधिकता से पुण्य प्राप्त करता है। पुण्य का अधिकारी मनुष्य स्वर्ग में इन्द्र होता है वहाँ से आकर पुनः धनाढ्‌य होता है और पुनः दानी होता है। (स. श्लोक स.)

आहार दान से तीनों लोक की सम्पत्ति सुख आदिक मनुष्य भव, भोग भूमि तथा स्वर्गादिक, सम्पूर्ण विश्व कीर्ति और देव पूजा (देवों के द्वारा पूज्यता) प्राप्त होती है। (स. श्लोक स.)

अन्न (आहार) डाल से भार्या (स्त्री), पुत्र, यश, विद्या, सुख, ज्ञान, सुबुद्धि, लक्ष्मी, आभूषण और वस्त्र प्राप्त होते हैं। (स. श्लोक स.)

जिनके घर में महा पूज्य मुनिश्वर आहार हेतु आते है वे गृहस्थ, इन्द्र, चक्रवर्ती आदि द्वारा पूज्यता को प्राप्त हुए वे गृहस्थ ही पुण्यात्मा है। (स. श्लोक स.)

जो पूजादि दान से रहित होता हुआ मात्र धन की वृद्धि में लगा हुआ है ऐसे कृपण मनुष्य के जीवन व धन से लोक में क्या प्रयोजन? आगे चलकर उस पापी मनुष्य की बहुत रोग, शोक, संक्लेश आदि दुःखों से सहित कुगति नियम से होने वाली है। (सुभाषित रत्नावली)

अतिथि लाभ संभव न होने पर भी यदि मनुष्य भोजन के समय सदा अतिथियों की प्रतीक्षा करके ही भोजन करता है, तो भी वह दाता है, क्योकि सन्त पुरुषों ने दान देने के लिये किये गये मनुष्यों के प्रयत्न को ही सच्चा दान माना है। (जय धवला उट वी पुस्तक)

दान बिना गृहस्थ के चूल्हा चौका श्मशान के समान है, क्योंकि यत्नाचार करते हुए भी उसमें नित्य छह काय के हजारों जीव जलते हैं। अतएव आहार दान देने से गृहस्थ का चौका सफल है। (श्रावक धर्म संहिता)

अपनी दैनिक आय में से चतुर्थ भाग (25%), छठा भाग (17%) अथवा दसवें भाग (10%) का जो सत्पात्र दानादि में सदुपयोग किया जाता है। उसे यथा क्रम से उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य शक्ति जानना चाहिये। (श्री धर्म रत्नाकर पृ. 361)

सैकड़ों मनुष्यों में एक मनुष्य वीर होता है, हजारों में एक विद्वान पण्डित तथा लाखों में एक वक्ता और दाता करोड़ों में एक मिलता है।

दान, भोग, नाश, धन की ये तीन गतियाँ होती हैं, जो न भोग करता है, उसकी तीसरी गति होती है, अर्थात वह नष्ट हो जाता है।

आहार देते समय दाता को माँ के समान कहा गया है जैसे माँ बच्चे के हाव-भाव देखकर भोजन कराती है उसी प्रकार साधु के हाव-भाव देखकर दाता आहार करवाये।

  1. A पूजन एवं आहारदान संबंधी निर्देश

2. B. आहारदान की निम्न आवश्यक पात्रतायें एवं निर्देश

3. C निरन्तराय आहार हेतु सावधानियाँ एवं आवश्यक निर्देश

4. D फल, साग की सही प्रासुक विधि एवं सावधानियाँ

5. E आहार सामग्री की शुद्धि भी आवश्यक

6. F आहार दान में विज्ञान

7. G भोमभूमि का सोपान-आहार दान

8. H आहारदान की महिमा

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