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भूधर-शतक ८-से-१४

Author:
Language : Hindi
Rhythm:

Type: Bhudhar Shatak
Particulars: Paath
Created By: Shashank Shaha

८- श्री साधु स्तुति- कवित्त मनहर

शीतरितु जोरैं अंग सब ही सकोरे तहाँ,
तन को न मोरैं नदीधौरैं धीर जे खरे।
जेठ की झकोरैं जहाँ अण्डा चील छोरैं,
पशु-पंछी छाँह लौरैं गिरिकोरैं तप वे धरें॥

घोर घन घोरैं घटा चहूँ ओर डोरैं ज्यों-ज्यौं,
चलत हिलारैं त्यौं-त्यौं फोरैं बल ये अरे।
देहनेह तोरैं परमारथ सौं प्रीति जोरैं,
ऐसे गुरु ओरैं हम हाथ अंजुली करें॥१३॥

अन्वयार्थ: जो धीर, जब सब लोग अपने शरीर को संकुचित किये रहते हैं ऐसी कड़ाके की सर्दी में, अपने शरीर को बिना कुछ भी मोड़े, नदी-किनारे खड़े रहते हैं, जब चील अंडा छोड़ दे और पशु-पक्षी छाया चाहते फिरें ऐसी जेठ माह की लूओं (गर्म हवाओं) वाली तेज गर्मी में पर्वत-शिखर पर तप करते हैं तथा गरजती हुई घनघोर घटाओं और प्रबल पवन के झोंकों में अपने पुरुषार्थ को अधिकाधिक स्फुरायमान करते हुए डटे रहते हैं, शरीर सम्बन्धी राग को तोड़कर परमार्थ से प्रीति जोड़ते हैं; उन गुरुओं को हम हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं॥१३॥

९- श्री जिनवाणी स्तुति- मत्तगयंद सवैया

वीर-हिमाचल तैं निकसी, गुरु-गौतम के मुख-कुण्ड ढरी है।
मोह-महाचल भेद चली, जग की जड़ता-तप दूर करी है।
ज्ञान-पयोनिधि माहिं रली, बहु भंग-तरंगनि सौं उछरी है।
ता शुचि-शारद गंगनदी प्रति, मैं अंजुरी करि शीश धरी है॥१४॥

अन्वयार्थ: जो भगवान महावीररूपी हिमालय पर्वत से निकली है, गौतम गणधर के मुखरूपी कुण्ड में ढली है, मोहरूपी विशाल पर्वतों का भेदन करती चल रही है, जगत्‌ की अज्ञानरूपी गर्मी को दूर कर रही है, ज्ञानसमुद्र में मिल गई है और जिसमें भंगों रूपी बहुत तरंगें उछल रही हैं; उस जिनवाणीरूपी पवित्र गंगा नदी को मैं हाथ जोड़कर और शीश झुकाकर प्रणाम करता हूँ॥१४॥

या जग-मन्दिर मैं अनिवार, अज्ञान-अंधेर छयौ अति भारी।
श्रीजिन की धुनि दीपशिखा-सम, जो नहिं होत प्रकाशनहारी॥
तो किस भांति पदारथ-पाँति, कहाँ लहते? रहते अविचारी।
या विधि सन्त कहैं धनि हैं, धनि हैं, जिनवैन बड़े उपगारी॥१५॥

अन्वयार्थ: ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि अहो! इस संसाररूपी भवन में अज्ञानरूपी अत्यधिक घना अन्धकार छाया हुआ है। उसमें यदि यह प्रकाश करने वाली जिनवाणीरूपी दीपशिखा नहीं होती तो हम वस्तु का स्वरूप किस प्रकार समझते, भेदज्ञान कैसे प्राप्त करते? तथा इसके बिना तो हम अविचारी- अज्ञानी ही रह जाते। अहो! धन्य है!! धन्य है!! जिनवचन परम उपकारक है॥१५॥

१०- जिनवाणी और मिथ्यावाणी- कवित्त मनहर

कैसे करि केतकी-कनेर एक कहि जाय,
आकदूध-गाय दूध अन्तर घनेर है॥
पीरी होत रीरी पै न रीस करै कंचन की,
कहाँ काग-वानी कहाँ कोयल की टेर है॥

कहाँ भान भारौ कहाँ आगिया बिचारौ कहाँ,
पूनौ को उजारौ कहाँ मावस-अंधेर है॥
पच्छ छोरि पारखी निहारौ नेक नीके करि,
जैनबैन-औरबैन इतनौं ही फेर है॥१६॥

अन्वयार्थ: केतकी और कनेर को एक समान कैसे कहा जा सकता है? उन दोनों में तो बहुत अन्तर है। आक के दूध और गाय के दूध को एक समान कैसे कहा जा सकता है? उन दोनों में तो बहुत अन्तर है। इसीप्रकार यद्यपि पीतल भी पीला होता है, पर वह कंचन की समानता नहीं कर सकता है। हे भाई! जरा तुम ही विचारो! कहाँ कौए की आवाज और कहाँ कोयल की टेर! कहाँ दैदीप्यमान सूर्य और कहाँ बेचारा जुगनू! कहाँ पूर्णिमा का प्रकाश और कहाँ अमावस्या का अन्धकार! हे पारखी! अपना पक्ष (दुराग्रह) छोड़कर जरा सावधानीपूर्वक देखो, जिनवाणी और अन्यवाणी में उपर्युक्त उदाहरणों की भाँति बहुत अन्तर है। केतकी’ एक ऐसे वृक्ष विशेष का नाम है जिस पर अत्यन्त सुगन्धित पुष्प आते हैं और जिसे सामान्य भाषा में केवड़ा’ भी कहते हैं। तथा ‘कनेर’ यद्यपि देखने में केतकी’ जैसा ही लगता है, पर वस्तुतः वह एक विषवृक्ष होता है और उसके पुष्प सुगन्धादि गुणों से हीन होते हैं।

११- वैराग्य-कामना- कवित्त मनहर

कब गृहवास सौं उदास होय वन सेऊँ,
वेऊँ निजरूप गति रोकूँ मन-करी की।
रहि हौं अडोल एक आसन अचल अंग,
सहि हौं परीसा शीत-घाम-मेघझरी की॥

सारंग समाज खाज कबधौं खुजेहैं आनि,
ध्यान-दल-जोर जीतूं सेना मोह-अरी की।
एकलविहारी जथाजातलिंगधारी कब,
होऊँ इच्छाचारी बलिहारी हौं वा घरी की॥१७॥

अन्वयार्थ: अहो! वह घड़ी कब आयेगी, जब मैं गृहस्थदशा से विरक्त होकर वन में जाऊँगा, अपने मनरूपी हाथी को वश में करके निज आत्मस्वरूप का अनुभव करूँगा। एक आसन पर निश्चलतया स्थिर रहकर सर्दी, गर्मी, वर्षा के परीषहों को सहन करूँगा। मृगसमूह (मेरे निश्चल शरीर को पाषाण समझकर उससे) अपनी खाज (चर्मरोग) खुजायेंगे और मैं आत्मध्यानरूपी सेना के बल से मोहरूपी शत्रु की सेना को जीतुंगा? अहो! मैं ऐसी उस अपूर्व घड़ी की बलिहारी जाता हूँ, जब मैं एकल-विहारी होऊँगा, यथाजातलिंगधारी (पूरी तरह नग्न दिगम्बर) होऊँगा और पूर्णतः स्वाधीन वृत्तिवाला होऊँगा।

१२- राग और वैराग्य का अन्तर- कवित्त मनहर

राग-उदै भोग-भाव लागत सुहावने-से,
विना राग ऐसे लागैं जैसैं नाग कारे हैं।
राग ही सौं पाग रहे तन मैं सदीव जीव,
राग गये आवत गिलानि होत न्यारे हैं॥

राग ही सौं जगरीति झूठी सब साँची जाने,
राग मिटैं सूझत असार खेल सारे हैं।
रागी-विनरागी के विचार मैं बड़ौई भेद,
जैसे भटा पच काहू काहू को बयारे हैं॥१८॥

अन्वयार्थ: पंचेन्द्रिय के विषयभोग और उन्हें भोगने के भाव, राग (मिथ्यात्व) के उदय में सुहावने-से लगते हैं, परन्तु वैराग्य होने पर काले नाग के समान (दुःखदायी और हेय) प्रतीत होते हैं। राग ही के कारण अज्ञानी जीव शरीरादि में रम रहे हैं- एकत्वबुद्धि कर रहे हैं। राग समाप्त हो जाने पर तो शरीरादि से भेदज्ञान प्रकट होकर विरक्ति उत्पन्न हो जाती है। राग ही के कारण अज्ञानी जीव जगत् की समस्त झूठी स्थितियों को सच्ची मान रहा है; राग समाप्त हो जाने पर तो जगत् का सारा खेल असार दिखाई देता है। इसप्रकार रागी (मिथ्यादृष्टि) और विरागी. (सम्यग्दृष्टि) के विचार (मान्यता) में बड़ा भारी अन्तर होता है। बैंगन किसी को पच जाते हैं और किसी को बादी करते हैं- वायुवर्द्धक होते हैं।

१३- भोग-निषेध-मत्तगयंद सवैया- राग: भाग्य बिना कछु हाथ न आवे

तू नित चाहत भोग नए नर! पूरवपुन्य विना किम पैहै।
कर्मसँजोग मिले कहिं जोग, गहे तब रोग न भोग सकै है।
जो दिन चार को ब्योंत बन्यौं कहुँ, तौ परि दुर्गति मैं पछितैहै।
याहितैं यार सलाह यही कि, गई कर जाहु निबाह न ह्वै है॥१९॥

अन्वयार्थ: हे मित्र! तुम नित्य नये-नये भोगों की अभिलाषा करते हो, किन्तु यह तो सोचो कि तुम्हारे पुण्योदय के बिना वे तुम्हें मिल कैसे सकते हैं? और कदाचित् पुण्योदय से मिल भी गये तो हो सकता है, रोगादिक के कारण तुम उन्हें भोग ही नहीं सको। और, यदि किसी प्रकार चार दिन के लिए भोग भी लिये तो उससे क्या हुआ? दुर्गति में जाकर दुःख उठाने पड़ेंगे। इसलिए हे प्यारे मित्र! हमारी तो सलाह यही है कि तुम इनकी ओर से गई कर जाओ- उदास हो जाओ – इनकी उपेक्षा कर दो, अन्यथा पार नहीं पड़ेगी।

१४- देह-स्वरूप- मत्तगयंद सवैया

मात-पिता-रज-वीरज सौं, उपजी सब सात कुधात भरी है।
माँखिन के पर माफिक बाहर, चाम के बेठन बेढ़ धरी है।
नाहिं तौ आय लगैं अब ही बक, वायस जीव बचै न घरी है।
देहदशा यहै दीखत भ्रात ! घिनात नहीं किन बुद्धि हरी है॥२०॥

अन्वयार्थ: यह शरीर माता-पिता के रज-वीर्य से उत्पन्न हुआ है, और इसमें अत्यन्त अपवित्र सप्त धातुएँ (रस, रुधिर, मांस, चर्बी, हड्डी, मज्जा और वीर्य) भरी हुई हैं। वह तो इसके ऊपर मक्खी के पर के समान पतला-सा वेष्टन चढ़ा हुआ है। अन्यथा इस पर इसी वक्त बगुले-कौए आकर टूट पड़ें और यह देखते ही देखते साफ हो जाये, घड़ी भर भी न बचे। हे भाई! शरीर की ऐसी अपवित्र दशा को देखकर भी तुम इससे विरक्त क्यों नहीं होते हो? तुम्हारी बुद्धि किसने हर ली है?

Shashank Shaha added more details to update on 10 November 2024.

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