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भूधर-शतक १५-से-२१

Author:
Language : Hindi
Rhythm:

Type: Bhudhar Shatak
Particulars: Paath
Created By: Shashank Shaha

१५- संसार का स्वरूप और समय की बहुमूल्यता- कवित्त मनहर

काहू घर पुत्र जायौ काहू के वियोग आयौ,
काहू राग-रंग काहू रोआ रोई करी है।
जहाँ भान ऊगत उछाह गीत गान देखे,
साँझ समै ताही थान हाय हाय परी है॥

ऐसी जगरीति को न देखि भयभीत होय,
हा हा नर मूढ़ ! तेरी मति कौनैं हरी है।
मानुषजनम पाय सोवत विहाय जाय,
खोवत करोरन की एक-एक घरी है॥२१॥

अन्वयार्थ: अहो! इस संसार की रीति बड़ी विचित्र और वैराग्योत्पादक है। यहाँ किसी के घर में पुत्र का जन्म होता है और किसी के घर में मरण होता है। किसी के राग-रंग होते हैं और किसी के रोया-रोई मची रहती है। यहाँ तक कि जिस स्थान पर प्रातःकाल उत्सव और नृत्य-गानादि दिखाई देते हैं,शाम को उसी स्थान पर ‘हाय! हाय!’ का करुण क्रन्दन मच जाता है। संसार के ऐसे स्वरूप को देखकर भी हे मूढ पुरुष ! तुम इससे डरते नहीं हो- विरक्त नहीं होते हो; पता नहीं, तुम्हारी बुद्धि किसने हर ली है? तथा जिसकी एक-एक घड़ी करोड़ों रुपयों से भी अधिक मूल्यवान है – ऐसे मनुष्य जन्म को पाकर भी तुम उसे प्रमाद और अज्ञान दशा में ही रहकर व्यर्थ खो रहे हो।

सोरठा

कर कर जिनगुन पाठ, जात अकारथ रे जिया।
आठ पहर मैं साठ, घरी घनेरे मोल की॥२२॥

अन्वयार्थ: हे जीव! (अथवा हे मेरे मन!) तू जिनेन्द्र के गुणों का स्तवन कर, अन्यथा तेरी प्रतिदिन आठों पहर की साठ-साठ घड़ियाँ व्यर्थ ही समाप्त होती जा रही हैं, जो कि अत्यधिक मूल्यवान हैं।

कानी कौड़ी काज, कोरिन को लिख देत खत।
ऐसे मूरखराज, जगवासी जिय देखिये॥२३॥

अन्वयार्थ: अहो! इस जगत् में ऐसे-ऐसे मूर्खराज (अज्ञानी प्राणी) दिखाई देते हैं, जो कानी कौड़ी के लिए करोड़ों का कागज लिख देते हैं। अर्थात् क्षणिक विषयसुख के लोभ में अपने अमूल्य मनुष्य भव को बरबाद कर घोर दुःख देने वाले प्रबल कर्मों का बन्ध कर लेते हैं।

दोहा

कानी कौड़ी विषयसुख, भवदुख करज अपार।
विना दियै नहिं छूटिहै, बेशक लेय उधार॥२४॥

अन्वयार्थ: हे भाई! ये विषय-सुख तो कानी कोड़ी के समान हैं परन्तु इन्हें प्राप्त करने पर संसार के अपार दु:खों का कर्ज सिर चढ़ता है जो कि पूरा-पूरा चुकाना ही पड़ता है, लेश मात्र भी बिना चुकाये नहीं रहता। ले-ले खूब उधार!

१६- शिक्षा- कवित्त मनहरराग: छप्पय

दश दिन विषय-विनोद फेर बहु विपति परंपर।
अशुचिगेह यह देह नेह जानत न आप जर।
मित्र बन्धु सम्बन्धि और परिजन जे अंगी।
अरे अंध सब धन्ध जान स्वारथ के संगी॥
परहित अकाज अपनौ न कर, मूढ़राज! अब समझ उर!
तजि लोकलाज निज काज कर, आज दाव है कहत गुर॥२५॥

अन्वयार्थ:हे भाई! विषयों का विनोद तो बस कुछ ही दिन का है, उसके बाद तो विपत्तियों पर विपत्तियाँ आने वाली हैं। विषय-विनोद का साधन यह शरीर तो अशचिगृह है, अचेतन है, जीव द्वारा किये गये स्नेह को समझता तक नहीं है। मित्रजन, बन्धु-बांधव, कुटुम्बी आदि समस्त रिश्ते-नातेदारों के भी सारे व्यवहार अज्ञानजन्य और दुःखदायी हैं। वे सब तो स्वार्थ के साथी हैं। अत: हे मूढराज! तू दूसरों के लिए अपना नुकसान न कर। अब तो अपने हृदय में समझा गुरुवर कहते हैं कि आज तुझे अच्छा अवसर प्राप्त हुआ है, अतः लोकलाज का त्यागकर आत्मा का कल्याण कर ले।

जौलौं देह तेरी काहू रोग सौं न घेरी जौलौं,
जरा नाहिं नेरी जासौं पराधीन परि है।
जौलौं जमनामा वैरी देय ना दमामा जौलौं,
मानैं कान रामा बुद्धि जाइ ना बिगरि है।

तौलौं मित्र मेरे निज कारज सँवार ले रे,
पौरुष थकैंगे फेर पीछै कहा करिहै।
अहो आग आयैं जब झौंपरी जरन लागी,
कुआ के खुदायैं तब कौन काज सरिहै॥२६॥

अन्वयार्थ: हे मेरे प्रिय मित्र! जब तक तुम्हारे शरीर को कोई रोगादि नहीं घेर लेता है, पराधीन कर डालनेवाला बुढ़ापा जब तक तुम्हारे पास नहीं आ जाता है, प्रसिद्ध शत्रु यमराज का डंका जब तक नहीं बज जाता है। बुद्धि रूपी पत्नी जब तक तुम्हारी आज्ञा मानती है, बिगड़ नहीं जाती है; उससे पहले-पहले तुम आत्मकल्याण अवश्य कर लो, अन्यथा बाद में तुम्हारी शक्ति ही क्षीण हो जावेगी, तब क्या कर पाओगे? कुआँ आग लगने से पहले ही खोद लेना चाहिए। जब आग लग जाए और झोंपड़ी जलने लगे, तब कुआँ खुदाने से क्या लाभ?

सौ हि वरष आयु ताका लेखा करि देखा जब,
आधी तौ अकारथ ही सोवत विहाय रे।
आधी मैं अनेक रोग बाल-वृद्ध दशा भोग,
और हु सँयोग केते ऐसे बीत जाँय रे।

बाकी अब कहा रहीं ताहि तू विचार सही,
कारज की बात यही नीकै मन लाय रे।
खातिर मैं आवै तौ खलासी कर इतने मैं,
भावै फँसि फंद बीच दीनौं समुझाय रे॥२७॥

अन्वयार्थ: मनुष्य की आयु सामान्यतः सौ वर्ष बताई जाती है; परन्तु यदि इसका हिसाब लगाकर देखा जाये तो आधी आयु तो सोने में ही व्यर्थ चली जाती है। पचास वर्ष; जिसमें भी अनेक रोग होते हैं, नासमझ रूप बाल दशा होती है, असमर्थरूप वृद्ध दशा होती है, उन्मत्तरूप भोंग दशा होती है तथा और भी कितने ही ऐसे-वैसे अनेक संयोग बन जाते हैं। कितनी शेष रही? नहीं के बराबर। अतः हे भाई! भलीप्रकार विचारकर प्रयोजनभूत बात को अपने हृदय में अच्छी तरह उतार लो, इसी में लाभ है। तथा यदि तुम्हारे हमारी बात जंचती हो तो भवबन्धनों से मुक्त हो जाओ; अन्यथा तुम्हारी मर्जी, फँसे रहो भवबन्धनों में; हमने तो तुम्हें समझा दिया है।

१७- बुढ़ापा- कवित्त मनहर

बालपनैं बाल रह्यौ पीछे गृहभार वह्यौ,
लोकलाज काज बाँध्यौ पापन कौ ढेर है।
आपनौ अकाज कीनौं लोकन मैं जस लीनौं,
परभौ विसार दीनौं विषैवश जेर है।

ऐसे ही गई विहाय, अलप-सी रही आय,
नर-परजाय यह आँधे की बटेर है।
आये सेत भैया अब काल है अवैया अहो,
जानी रे सयानैं तेरे अजौं हू अँधेर है॥२८॥

अन्वयार्थ: हे भाई! तुम बाल्यावस्था में नासमझ रहे, उसके बाद तुमने गृहस्थी का बोझा ढोया, लोकमर्यादाओं के खातिर बहुत-से पाप उपार्जित किये। अपना नुकसान करके भी लोकबड़ाई प्राप्त की, अगले जन्म तक को भूल गये- कभी यह विचार तक न किया कि अगले भव में मेरा क्या होगा, फँसे रहे विषयों के बन्धनों में। और इसप्रकार तुम्हारी इस अंधे की बटेर के समान महादुर्लभ मनुष्यपर्याय की आयु, जो वैसे ही थोड़ी-सी थी, व्यर्थ ही चली गई है। अब तो सफेद बाल आ गये हैं – बुढ़ापा आ गया है और तुम्हें मालूम भी है कि मृत्यु आने ही वाली है। परन्तु अहो! तुम अभी भी आत्मा का हित करने के लिए सचेत नहीं हुए हो। ज्ञात होता है, तुम्हारे अन्दर अभी भी अँधेरा है॥२८॥

बालपनै न संभार सक्यौ कछु, जानत नाहिं हिताहित ही को।
यौवन वैस वसी वनिता उर, कै नित राग रह्यौ लछमी को॥
यौं पन दोइ विगोइ दये नर, डारत क्यों नरकै निज जी को।
आये हैं सेत अजौं शठ चेत, गई सुगई अब राख रही को॥२९॥

अन्वयार्थ: हे मनुष्य! बचपन में तो तू हिताहित को समझता नहीं था, इसलिए तब अपने को नहीं संभाल सका, किन्तु युवावस्था में भी या तो तेरे हृदय में स्त्री बसी रही या तुझे निरन्तर धन-लक्ष्मी जोड़ने की अभिलाषा बनी रही और इस प्रकार तूने अपने जीवन के दो महत्त्वपूर्ण पन यों ही बिगाड़ दिये हैं। पता नहीं क्यों तुम इसप्रकार अपने आपको नरक में डाल रहे हो? अब तो सफेद बाल आ गये हैं- वृद्धावस्था आ गई है, अभी भी क्यों मूर्ख बने हो? अब तो चेतो! गई सो गई ; पर जो शेष रही है, उसे तो रखो। अर्थात् कम से कम अब तो आत्मा का हित करने के लिए सचेत होओ॥२९॥

सार नर देह सब कारज कौं जोग येह,
यह तौ विख्यात बात वेदन मैं बँचै है।
तामै तरुनाई धर्मसेवन कौ समै भाई,
सेये तब विषै जैसैं माखी मधु रचै है।

मोहमद भोये धन-रामा हित रोज रोये,
यौंही दिन खोये खाय कोदौं जिम मचै है।
अरे सुन बौरे! अब आये सीस धौरे अजौं,
सावधान हो रे नर नरक सौं बचे है॥३०॥

अन्वयार्थ: शास्त्रों में कही गई यह बात अत्यन्त प्रसिद्ध है कि मनुष्यदेह ही सर्वोत्तम है, यही समस्त अच्छे कार्यों के योग्य है; उसमें भी इसकी युवावस्था धर्मसेवन का सर्वश्रेष्ठ समय होता है; परन्तु हे भाई! ऐसे समय में तुम विषय-सेवन में इसप्रकार लिप्त रहे, मानों कोई मक्खी शहद में लिप्त हो। हे भाई! मोहरूपी मदिरा में डूबकर तुम निरन्तर कंचन और कामिनी के लिए रोते रहे – अपार कष्ट सहते रहे- और अपने अमूल्य दिनों को तुमने व्यर्थ ही इसप्रकार खो दिया, मानो कोदों खाकर मत्त हो रहे हो। अरे नादान ! सुनो, अब तो सिर में सफेद बाल आ गये हैं, अब तो सावधान होकर आत्मकल्याण कर लो, ताकि नरकादि कुगतियों से बच सको॥३०॥

बाय लगी कि बलाय लगी, मदमत्त भयौ नर भूलत त्यौं ही।
वृद्ध भये न भजै भगवान, विषै-विष खात अघात न क्यौं ही॥
सीस भयौ बगुला सम सेत, रह्यो उर अन्तर श्याम अजौं ही।
मानुषभौ मुकताफलहार, गँवार तगा हित तोरत यौं ही॥३१॥

अन्वयार्थ: यह मनुष्य इसप्रकार मदोन्मत्त होकर सब-कुछ भूला हुआ है, मानों उसे कोई वातरोग हुआ हो अथवा किसी प्रेतबाधा ने घेर रखा हो। यद्यपि इसकी वृद्धावस्था आ गई है, परन्तु अभी भी यह आत्मा और परमात्मा की आराधना नहीं करता है, अपितु विषतुल्य विषयों का ही सेवन कर रहा है और कभी उनसे अघाता ही नहीं है – उनसे कभी इसका मन भरता ही नहीं है। यद्यपि इसका सम्पूर्ण सिर बगुले की भाँति एकदम सफेद हो गया है, किन्तु इसका अन्तर्मन अभी भी काला हो रहा है- अत्यधिक वृद्धावस्था में भी इसने रागादि विकारों का त्याग नहीं किया है। अहो! यह मनुष्य-भव मोतियों का हार है, परन्तु यह अज्ञानी इसे मात्र धागे के लिए व्यर्थ ही तोड़े डाल रहा है॥३१॥

१८- संसारी जीव का चिंतवन- मत्तगयंद सवैया

चाहत है धन होय किसी विध, तौ सब काज सरैं जिय राजी।
गेह चिनाय करूँ गहना कछु, ब्याहि सुता, सुत बाँटिये भाजी॥
चिन्तत यौं दिन जाहिं चले, जम आनि अचानक देत दगा जी।
खेलत खेल खिलारि गये, रहि जाइ रुपी शतरंज की बाजी॥३२॥

अन्वयार्थ: संसारी प्राणी सोचता है कि यदि किसी तरह मेरे पास धन इकट्ठा हो जावे तो मेरे सारे काम सिद्ध हो जायें और मेरा मन पूरी तरह प्रसन्न हो जावे। धन होने पर मैं एक अच्छा-सा मकान बनाऊँ, थोड़ा-बहुत गहना (आभूषण) तैयार कराऊँ और बेटे-बेटियों का विवाह करके सारी समाज में मिठाइयाँ बँटवा दूँ। परन्तु इस प्रकार सोचते-सोचते ही सारा जीवन व्यतीत हो जाता है और अचानक यमराज हमला बोल देता है- शीघ्र मृत्यु आ जाती है। खिलाड़ी खेलते-खेलते ही चला जाता है और शतरंज की बाजी जहाँ की तहाँ जमी ही रह जाती है॥३२॥
भाजी= विवाहादि उत्सवों में जो मिष्ठान्न बाँटा जाता है, उसे भाजी कहते हैं

तेज तुरंग सुरंग भले रथ, मत्त मतंग उतंग खरे ही।
दास खवास अवास अटा, धन जोर करोरन कोश भरे ही॥
ऐसे बढ़े तो कहा भयौ हे नर! छोरि चले उठि अन्त छरे ही।
धाम खरे रहे काम परे रहे, दाम गरे रहे ठाम धरे ही॥३३॥

अन्वयार्थ: द्वार पर तीव्रगामी (स्वस्थ और फुर्तीले) घोड़े खड़े हो गये, सुन्दर-सुन्दर रथ आ गये, ऊँचे-ऊँचे मस्त हाथी खड़े हो गये, नौकर-चाकर इकट्ठे हो गये, बड़े-बड़े भवन और अटारियाँ बन गईं, धन भी अनाप-शनाप इकट्ठा हो गया, कोषों के कोष भर गये – करोड़ों खजाने भर गये। परन्तु हे भाई! ऐसी उन्नति से क्या होता है? अन्त समय तुम्हें ये सब यहीं छोड़कर अकेले ही चला जाना होगा। ये सारे भवन खड़े ही रह जायेंगे, काम पड़े ही रह जायेंगे, दाम (धन) गड़े ही रह जायेंगे; सब कुछ जहाँ का तहाँ धरा ही रह जाएगा।॥३३॥

१९- अभिमान-निषेध- कवित्त मनहर

कंचन-भंडार भरे मोतिन के पुंज परे,
घने लोग द्वार खरे मारग निहारते।
जान चढ़ि डोलत हैं झीने सुर बोलत हैं,
काहु की हू ओर नेक नीके ना चितारते॥

कौलौं धन खांगे कोउ कहै यौं न लांगे,
तेई, फिरैं पाँय नांगे कांगे परपग झारते।
एते पै अयाने गरबाने रहैं विभौ पाय,
धिक है समझ ऐसी धर्म ना सँभारते॥३४॥

अन्वयार्थ: जिनके यहाँ सोने के भण्डार भरे हैं, मोतियों के ढेर पड़े हैं, बहुत से लोग उनके आने की राह देखते हुए दरवाजे पर खड़े रहते हैं, जो वाहनों पर चढ़कर घूमते हैं, झीनी आवाज में बोलते हैं, किसी की भी ओर जरा ठीक से देखते तक नहीं हैं, जिनके बारे में लोग कहते हैं कि इनके पास इतना धन है कि उसे ये न जाने कब तक खायेंगे, इनका धन तो ऐसे-वैसे कभी खत्म ही नहीं होने वाला है; वे ही एक दिन (पापकर्म का उदय आने पर) कंगाल होकर नंगे पैरों फिरते हैं और दूसरों के पैरों की मिट्टी झाड़ते रहते हैं – सेवा करते फिरते हैं। अहो! ऐसी स्थिति होने पर भी अज्ञानी जीव वैभव पाकर अभिमान करते हैं। धिक्कार है उनकी उल्टी समझ को, जो कि वे धर्म नहीं सँभालते हैं॥३४॥

देखो भरजोबन मैं पुत्र को वियोग आयौ,
तैसैं ही निहारी निज नारी कालमग मैं।
जे जे पुन्यवान जीव दीसत हे या मही पै,
रंक भये फिरैं तेऊ पनहीं न पग मैं॥

एते पै अभाग धन-जीतब सौं धरै राग,
होय न विराग जानै रहूँगौं अलग मैं।
आँखिन विलोकि अंध सूसे की अंधेरी करै,
ऐसे राजरोग को इलाज कहा जग मैं॥३५॥

अन्वयार्थ: अहो! इस संसार में लोगों को भरी जवानी में पुत्र का वियोग हो जाता है और साथ ही अपनी पत्नी भी मृत्यु के मार्ग में देखनी पड़ती है। तथा जो कोई पुण्यवान जीव दिखाई देते थे, वे भी एक दिन इस पृथ्वी पर इस तरह रंक होकर भटकते फिर कि उनके पाँवों में जूती तक नहीं रही। परन्तु अहो! ऐसी स्थिति होने पर भी अज्ञानी प्राणी धन और जीवन से राग करता है, उनसे विरक्त नहीं होता। सोचता है कि मैं तो अलग (सुरक्षित) रहूँगा- मेरे साथ ऐसा कुछ भी नहीं घटित होने वाला है। अपनी आँखों से देखता हुआ भी वह उस खरगोश की तरह अन्धा (अज्ञानी) बन रहा है जो अपनी आँखें बन्द करके समझता है कि सब जगह अंधेरा हो गया है, मुझे कोई नहीं देख रहा है, मुझ पर अब कोई आपत्ति आने वाली नहीं है। अहो! इस राजरोग का इलाज क्या है?॥३५॥
‘राजरोग’ का अर्थ यहाँ महारोग भी है और आम रोग (सार्वजनिक बीमारी) भी। महारोग तो इसलिए क्योंकि यह सबसे बड़ा रोग है, अन्य ज्वर-कैंसरादि रोग तो शरीर में ही होते हैं, उपचार से ठीक भी हो जाते हैं और यदि ठीक न हों तो भी एक ही जन्म की हानि करते हैं, परन्तु उक्त महारोग तो आत्मा में होता है, किसी बाह्य उपचार से ठीक भी नहीं होता है और जन्मजन्मांतरों में जीव की महाहानि करता है। और यह आम रोग इसलिए है, क्योंकि प्रायः सभी सांसारिक प्राणियों में पाया जाता है। यहाँ ‘दीसत हे या मही पै’ के स्थान पर किसी-किसी प्रति में ‘दीसत थे यान ही पै’- ऐसा पाठ भी मिलता है। उसे मानने पर अर्थ होगा- जो सदा वाहनों पर दिखाई देते थे

दोहा

जैन वचन अंजनवटी, आँजैं सुगुरु प्रवीन।
रागतिमिर तोहु न मिटै, बड़ो रोग लख लीन॥३६॥

अन्वयार्थ: अहो! इस अज्ञानी जीव की आँखों में प्रवीण गुरुवर जिनेन्द्र भगवान के वचनों की अंजनगुटिका लगा रहे हैं, परन्तु फिर भी इसका रागरूपी अन्धकार नहीं मिट रहा है। लगता है, रोग बहुत बड़ा है॥३६॥
अंजनगुटिका एक प्रकार की औषधि होती है जिसे पानी में घिसकर रतौंधादि के लिए आँख में लगाया जाता है।

२०- निज अवस्था-वर्णन- कवित्त मनहर

जोई दिन कटै सोई आयु मैं अवसि घटै,
बूंद-बूंद बीतै जैसैं अंजुली को जल है।
देह नित झीन होत, नैन-तेज हीन होत,
जोबन मलीन होत, छीन होत बल है।

आवै जरा नेरी, तकै अंतक-अहेरी, आवै,
परभौ नजीक, जात नरभौ निफल है।
मिलकै मिलापी जन पूँछत कुशल मेरी,
ऐसी दशा माहीं मित्र! काहे की कुशल है॥३७॥

अन्वयार्थ: हे मित्र! मुझसे मेरे मिलने-जुलने वाले मेरी कुशलता के बारे में पूछते हैं; परन्तु तुम्हीं बताओ, कुशलता है कहाँ? दशा तो ऐसी हो रही है: जिस प्रकार अंजुलि का जल जैसे-जैसे उसमें से बूंद गिरती जाती है वैसेवैसे ही समाप्त होता जाता है; उसी प्रकार जैसे-जैसे दिन कटते जा रहे हैं वैसेवैसे ही यह आयु भी निश्चित रूप से घटती जा रही है, दिनों-दिन शरीर दुर्बल होता जा रहा है, आँखों की रोशनी कम होती जा रही है, युवावस्था बिगड़ती जा रही है, शक्ति क्षीण होती जा रही है, वृद्धावस्था पास आती जा रही है, मृत्युरूपी शिकारी इधर देखने लग गया है, परभव पास आता जा रहा है और अनुष्यभव व्यर्थ ही बीतता जा रहा है॥३७॥

२१- बुढ़ापा-

दृष्टि घटी पलटी तन की छबि, बंक भई गति लंक नई है।
रूस रही परनी घरनी अति, रंक भयौ परियंक लई है॥
काँपत नार बहै मुख लार, महामति संगति छाँरि गई है।
अंग उपंग पुराने परे, तिशना उर और नवीन भई है॥३८॥ मत्तगयंद सवैया

अन्वयार्थ: अहो! यद्यपि वृद्धावस्था के कारण इस प्राणी की आँखों की रोशनी कमजोर हो गई है, शरीर की शोभा समाप्त हो गई है, चाल भी टेढ़ी हो गई है, कमर भी झुक गई है, ब्याहता पत्नी भी इससे अप्रसन्न हो गई है, यह बिल्कुल अनाथ हो गया है, चारपाई पकड़ ली है, इसकी गर्दन काँपने लगी है, मुँह से लार बहने लगी है, बुद्धि इसका साथ छोड़कर चली गई है और अंग-उपांग भी पुराने पड़ गये हैं; तथापि हृदय में तृष्णा और अधिक नवीन हो गई है॥३८॥

रूप को न खोज रह्यौ तरु ज्यौं तुषार दह्यौ,
भयौ पतझार किधौं रही डार सूनी-सी।
कूबरी भई है कटि दूबरी भई है देह,
ऊबरी इतेक आयु सेर माहिं पूनी-सी॥

जोबन नैं विदा लीनी जरा नैं जुहार कीनी,
हीनी भई सुधि-बुधि सबै बात ऊनीसी।
तेज घट्यौ ताव घट्यौ जीतव को चाव घट्यौ,
और सब घट्यौ एक तिस्ना दिन दूनी-सी॥३९॥ कवित्त मनहर

अन्वयार्थ: वृद्धावस्था के कारण अब शरीर में सुन्दरता का नामोनिशान भी नहीं रहा है; शरीर ऐसा हो गया है मानों कोई वृक्ष बर्फ (पाला पहने) से जल गया हो अथवा मानों पतझड़ होकर कोई डाल सूनी हो गई हो; कमर में कूब निकल आई है, देह दुर्बल हो गई है, आयु इतनी अल्प रह गई है मानों एक किलो रूई में से एक पूनी, युवावस्था ने अब विदाई ले ली है और वृद्धावस्था ने आकर जुहार (नमस्कार) कर ली है, सारी सुधि-बुधि कम हो गई है, सभी बातें उन्नीसी रह गई हैं, तेज भी घट गया है, ताव (उत्साह) भी घट गया है और जीने का चाव (अभिलाषा) भी घट गया है; सब कुछ घट गया है, किन्तु एक तृष्णा ही ऐसी है जो दिन-प्रतिदिन दूनी होती जा रही है॥३९॥

अहो इन आपने अभाग उदै नाहिं जानी,
वीतराग-वानी सार दयारस-भीनी है।
जोबन के जोर थिर-जंगम अनेक जीव,
जानि जे सताये कछ करुना न कीनी है।

तेई अब जीवराश आये परलोक पास,
लेंगे बैर देंगे दुख भई ना नवीनी है।
उनही के भय को भरोसौ जान काँपत है,
याही डर डोकरा ने लाठी हाथ लीनी है॥४०॥ कवित्त मनहर

अन्वयार्थ: अहो! इस जीव ने युवावस्था में अपने अशुभकर्म के उदय के कारण दयारस से भरी हुई श्रेष्ठ वीतराग-वाणी को नहीं समझा और जवानी के जोर में अनेक त्रस-स्थावर जीवों को जान-बूझकर बहुत सताया, उनके प्रति किंचित् भी दया नहीं की; अत: अब वृद्धावस्था में वे सभी प्राणी, जिनको इसने युवावस्था में सताया था, इकट्ठे होकर मानों इससे बदला लेने के लिए आये हैं। पहले इसने दुःख दिया था, सो अब वे इसे दुःख देंगे- यह निश्चित बात है, कोई नई बात नहीं। यही कारण है कि यह वृद्ध उनसे डर कर काँपने लगा है और इसी डर से इसने अपने हाथ में लाठी ले ली है॥४०॥

जाको इन्द्र चाहैं अहमिंद्र से उमाह जासौं,
जीव मुक्ति-माहैं जाय भौ-मल बहावै है।
ऐसौ नरजन्म पाय विषै-विष खाय खोयौ,
जैसैं काच साँ, मूढ़ मानक गमावै है।

मायानदी बूड़ भीजा काया-बल-तेज छीजा,
आया पन तीजा अब कहा बनि आवै है।
तातै निज सीस ढोलै नीचे नैन किये डोलै,
कहा बढ़ि बोलै वृद्ध बदन दुरावै है॥४१॥ कवित्त मनहर

अन्वयार्थ: अहो! जिसे इन्द्र और अहमिन्द्र भी उत्साहपूर्वक चाहते हैं और जिसे धारण कर जीव सर्व सांसारिक मलिनता को दूर कर मोक्ष में चला जाता है, ऐसे नरजन्म को पाकर भी इस अज्ञानी जीव ने विषयरूपी विष खाकर उसे ऐसे खो दिया है, जैसे कोई मूर्ख काँच के बदले माणिक खो देता है। तथा अब तो यह मायानदी में डूबकर इतना भीग गया है कि शरीर का सारा बल और तेज क्षीण हो गया है, तीसरापन आ गया है, अत: ऐसे में हो ही क्या सकता है? यही कारण है कि यह वृद्ध अपना सिर हिलाता हुआ नीची दृष्टि किये डोलता रहता है। अब बढ़-बढ़कर क्या बोले ? इसीलिए मुंह छुपाये रहता है॥४१॥

देखहु जोर जरा भट को, जमराज महीपति को अगवानी।
उज्जल केश निशान धरै, बहु रोगन की सँग फौज पलानी।
कायपुरी तजि भाजि चल्यौ जिहि, आवत जोबनभूप गुमानी।
लूट लई नगरी सगरी, दिन दोय मैं खोय है नाम निशानी॥४२॥ मत्तगयंद सरैया

अन्वयार्थ: इस बुढ़ापेरूपी योद्धा का प्रभाव तो देखिये! यह यमराज (मृत्यु) रूपी राजा के आगमन की सूचना है, सफेद बाल इसका चिह्न (ध्वज) है, ढेरों रोगों की सेना इसके साथ दौड़तीआ रही है, यौवनरूपी अभिमानी राजा इसे आता हुआ देखकर अपनी कायारूपी नगरी को छोड़कर भाग छूटा है, इस बुढ़ापेरूपी योद्धा ने सारी कायारूपी नगरी लूट ली है और अब कुछ ही समय में यह उसका नामोनिशान ही मिटा देगा॥४२॥

दोहा

सुमतिहिं तजि जोबन समय, सेवहु विषय विकार।
खल साँटैं नहिं खोइये, जनम जवाहिर सार॥४३॥

अन्वयार्थ: युवावस्था में सुमति का परित्याग कर विषय-विकारों का सेवन करने वाले हे भाई! तुम ऐसा करके निःसार खली के बदले मनुष्यभवरूपी श्रेष्ठ व अमूल्य रत्न को व्यर्थ मत खोओ॥४३॥

Shashank Shaha added more details to update on 10 November 2024.

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