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भूधर-शतक २२-से-२८

Author:
Language : Hindi
Rhythm:

Type: Bhudhar Shatak
Particulars: Paath
Created By: Shashank Shaha

२२- कर्त्तव्य-शिक्षा- कवित्त मनहर

देव-गुरु साँचे मान साँचौ धर्म हिये आन,
साँचौ ही बखान सुनि साँचे पंथ आव रे।
जीवन की दया पाल झूठ तजि चोरी टाल,
देख ना विरानी बाल तिसना घटाव रे॥

अपनी बड़ाई परनिंदा मत करै भाई,
यही चतुराई मद मांस कौं बचाव रे।
साध खटकर्म साध-संगति में बैठ वीर,
जो है धर्मसाधन कौ तेरे चित चाव रे॥४४॥

अन्वयार्थ: हे भाई! यदि तेरे हृदय में धर्मसाधन की अभिलाषा है तो तू सच्चे देव-गुरु की श्रद्धा कर! सच्चे धर्म को हृदय में धारण कर! सच्चे शास्त्र सुन! सच्चे मार्ग पर चल! जीवों की दया पाल! झूठ का त्याग कर! चोरी का त्याग कर! पराई स्त्री को बुरी नजर से मत देख! तृष्णा कम कर! अपनी बड़ाई और दूसरों की निन्दा मत कर! और इसी में तेरी चतुराई है कि तू मद्य और मांस से बचकर रह! देवपूजा आदि षट् आवश्यक कर्मों का पालन कर! सज्जनों की संगति में बैठा कर!॥४४॥

साँचौ देव सोई जामैं दोष कौ न लेश कोई,
वहै गुरु जाकैं उर काहु की न चाह है।
सही धर्म वही जहाँ करुना प्रधान कही,
ग्रन्थ जहाँ आदि अन्त एक-सौ निबाह है।

ये ही जग रत्न चार इनकौं परख यार,
साँचे लेहु झूठे डार नरभौ कौ लाह है।
मानुष विवेक बिना पशु के समान गिना,
तातैं याहि बात ठीक पारनी सलाह है॥४५॥

अन्वयार्थ: सच्चा देव वही है जिसमें किंचित् भी दोष (क्षुधादि अठारह दोष एवं रागद्वेषादि सर्व विकारी भाव) न हो, सच्चा गुरु वही है जिसके हृदय में किसी प्रकार की इच्छा नहीं हो, सच्चा धर्म वही है जिसमें दया की प्रधानता हो, सच्चा शास्त्र वही है जिसमें आदि से अन्त तक एकरूपता का निर्वाह हो अर्थात् जो पूर्वापरविरोध से रहित हो। इसप्रकार हे मित्र! इस जगत् में वस्तुतः ये चार ही रत्न हैं- देव, गुरु, शास्त्र और धर्म; अत: तू इनकी परीक्षा कर और पश्चात् सच्चे देव, गुरु, शास्त्र और धर्म को ग्रहण कर तथा झूठे देव, गुरु, शास्त्र और धर्म का त्याग कर। इसी में मनुष्यभव की सार्थकता है।__ हे भाई! विवेकहीन मनुष्य पशु के समान माना गया है, अतः भवसागर से पार उतारने वाली उचित सलाह यही है कि तुम उक्त चारों बातों का सम्यक् प्रकार से निश्चय करो॥४५॥

२३- सच्चे देव का लक्षण- छप्पय

जो जगवस्तु समस्त हस्ततल जेम निहारै।
जगजन को संसार-सिंधु के पार उतारै॥
आदि-अन्त-अविरोधि वचन सबको सुखदानी।
गुन अनन्त जिहँ माहिं दोष की नाहिं निशानी॥
माधव महेश ब्रह्मा किधौं, वर्धमान के बुद्ध यह।
ये चिहन जान जाके चरन, नमो-नमो मुझ देव वह॥४६॥

अन्वयार्थ: जो जगत् की समस्त वस्तुओं को अपनी हथेली के समान प्रत्यक्ष या स्पष्ट रूप से जानता हो, संसारी प्राणियों को संसार-सागर से पार उतारता हो, जिसके वचन पूर्वापर-विरोध से रहित एवं प्राणिमात्र के हितकारक हों और जिसमें गुण तो अनन्त हों, पर दोष (क्षुधादि अठारह दोष या राग-द्वेषादि) किंचित् भी न हो; वही सच्चा देव है। फिर चाहे वह नाम से माधव हो, महेश हो, ब्रह्मा हो या बुद्ध हो। मैं तो जिसमें उक्त सर्वज्ञता, हितोपदेशिता और वीतरागता- ये गुण पाये जाते हों, उस देव को बारम्बार नमस्कार करता हूँ॥४६॥

२४- यज्ञ में हिंसा का निषेध- कवित्त मनहर

कहै पशु दीन सुन यज्ञ के करैया मोहि,
होमत हुताशन मैं कौन सी बड़ाई है।
स्वर्गसुख मैं न चहौं ‘देहु मुझे’ यौं न कहौं,
घास खाय रहौं मेरे यही मनभाई है॥

जो तू यह जानत है वेद यौं बखानत है,
जग्य जलौ जीव पावै स्वर्ग सुखदाई है।
डारे क्यों न वीर यामैं अपने कुटुम्ब ही कौं?
मोहि जिन, जारे जगदीश की दुहाई है॥४७॥

अन्वयार्थ: यज्ञ में बलि के लिए प्रस्तुत असहाय पशु पूछता है कि- हे यज्ञ करने वाले! मुझे अग्नि में होम देने में तुम्हारी क्या बड़ाई है? अथवा इसमें तुम्हें क्या लाभ है? सुनो! मुझे स्वर्गसुख नहीं चाहिए और न ही मैं तुमसे उसे माँगता हूँ। मुझे कुछ दो’- ऐसा मैं तुमसे नहीं कहता हूँ। मैं तो बस घास खाकर रहता हूँ, यही मेरी अभिलाषा है। और हे वीर पुरुष! जो तुम ऐसा समझते हो कि यज्ञ में बलि के रूप में होम दिया जाने वाला जीव वेदानुसार सुखदायक स्वर्ग प्राप्त करता है, तो तुम इस यज्ञाग्नि में अपने कुटुम्ब को ही क्यों नहीं डालते हो? मुझे तो मत जलाओ, तुम्हें भगवान की सौगंध है॥४७॥

२५- सातों वार गर्भित षट्कर्मोपदेश- छप्पय

अघ-अंधेर-आदित्य नित्य स्वाध्याय करिज्जै।
सोमोपम संसारतापहर तप कर लिज्जै।
जिनवरपूजा नियम करहु नित मंगलदायनि।
बुध संजम आदरहु धरहु चित श्रीगुरु-पांयनि॥
निजवित समान अभिमान बिन, सुकर सुपत्तहिं दान कर।
यौं सनि सुधर्म षटकर्म भनि, नरभौ-लाहौ लेहु नर॥४८॥

अन्वयार्थ: प्रतिदिन, पापरूपी अन्धकार को दूर करने के लिए जो सूर्य के समान है- ऐसा स्वाध्याय कीजिये, संसाररूपी ताप को हरने के लिये जो चन्द्रमा के समान है- ऐसा तप कीजिये, जिनेन्द्र देव की पूजा कीजिये, विवेक सहित संयम का आदर कीजिये, श्रीगुरु-चरणों की उपासना कीजिये और अपनी शक्ति के अनुसार अभिमान-रहित होकर सुपात्रों को अपने शुभ हाथों से दान दीजिये। इस प्रकार हे भाई! षट् आवश्यक कार्यों में संलग्न होकर मनुष्य भव का लाभ लीजिये। विशेष:- इस छन्द में रविवार से शनिवार तक सात वारों के नाम का क्रमशः संकेत किया गया है। इससे काव्य में चमत्कार तो उत्पन्न हुआ ही है, भाव भी उच्च हुये हैं। तात्पर्य यह निकला कि देवपूजादि षडावश्यक कर्म केवल रविवार या केवल सोमवार आदि को ही करने योग्य नहीं हैं, अपितु सातों वारों को प्रतिदिन अवश्य करने योग्य हैं॥४८॥

दोहा

ये ही छह विधि कर्म भज, सात विसन तज वीर।
इस ही पैंडे पहुँचिहै, क्रम-क्रम भवजल-तीर॥४९॥

अन्वयार्थ: हे भाई! (छन्द-संख्या ४८ में कहे गये) षट् आवश्यक कर्मों का पालन करो और (छन्द-संख्या ५० में बताये जानेवाले) सप्त व्यसनों का त्याग करो। तुम इसी तरह क्रम-क्रम से संसार-सागर का किनारा प्राप्त कर लोगे॥४९॥

२६- सप्त व्यसन

दोहा

जूआखेलन मांस मद, वेश्याविसन शिकार।
चोरी पर-रमनी-रमन, सातौं पाप निवार॥५०॥

अन्वयार्थ: जुआ खेलना, मांसभक्षण, मद्यपान, वेश्यासेवन, शिकार, चोरी और परस्त्रीरमण- ये सात व्यसन हैं। तथा ये सातों पापरूप हैं, अत: इनका त्याग अवश्य करो।॥५०॥

२७- जुआ-निषेध- छप्पय

सकल-पापसंकेत आपदाहेत कुलच्छन।
कलहखेत दारिद्र देत दीसत निज अच्छन।
गुनसमेत जस सेत केत रवि रोकत जैसै।
औगुन-निकर-निकेत लेत लखि बुधजन ऐसै॥
जूआ समान इह लोक में, आन अनीति न पेखिये।
इस विसनराय के खेल कौ, कौतुक हू नहिं देखिये॥५१॥

अन्वयार्थ: जुआ नामक प्रथम व्यसन प्रत्यक्ष ही अपनी आँखों से अनेक दोषों से युक्त दिखाई देता है। वह सम्पूर्ण पापों को आमंत्रित करने वाला है, आपत्तियों का कारण है, खोटा लक्षण है, कलह का स्थान है, दरिद्रता देने वाला है, अनेक अच्छाइयाँ करके प्राप्त किये हुए उज्ज्वल यश को भी उसीप्रकार ढक देने वाला है जिसप्रकार केतु सूर्य को ढंकता है, ज्ञानी पुरुष इसे अनेक अवगुणों के घर के रूप में देखते हैं, इस दुनिया में जुआ के समान अन्य कोई अनीति नहीं दिखाई देती; अत: इस व्यसनराज के खेल को कभी कौतूहल मात्र के लिए भी नहीं देखना चाहिए।॥५१॥
विशेष:– यहाँ जुआ को सातों व्यसनों में सबसे पहला ही नहीं, सबसे बड़ा भी बताया गया है तथा उसे अन्य भी अनेक दुर्गुणों का जनक बताया गया है। सो ऐसा ही अभिप्राय अनेक पूर्वाचार्यों ने भी अपने ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से प्रकट किया है। उदाहरणार्थ ‘पद्मनंदि-पंचविंशतिका’ के धर्मोपदेशनाधिकार के १७वें-१८वें श्लोकों को देखना चाहिए।

२८- मांसभक्षण-निषेध- छप्पय

जंगम जिय कौ नास होय तब मांस कहावै।
सपरस आकृति नाम गन्ध उर घिन उपजावै॥
नरक जोग निरदई खाहिं नर नीच अधरमी।
नाम लेत तज देत असन उत्तमकुलकरमी॥
यह निपटनिंद्य अपवित्र अति, कृमिकुल-रास-निवास नित।
आमिष अभच्छ या सदा, बरजौ दोष दयालचित!॥५२॥

अन्वयार्थ: मांस की प्राप्ति त्रस जीवों का घात होने पर ही होता है। मांस का स्पर्श, आकार, नाम और गन्ध- सभी हृदय में ग्लानि उत्पन्न करते हैं। मांस का भक्षण नरक जाने की योग्यतावाले निर्दयी, नीच और अधर्मी पुरुष करते हैं; उत्तम कुल और कर्म वाले तो इसका नाम लेते ही अपना भोजन तक छोड़ देते हैं। मांस अत्यन्त निन्दनीय है, अत्यन्त अपवित्र है और उसमें सदैव अनन्त जीवसमूह पाये जाते हैं। यही कारण है कि मांस सदैव अभक्ष्य बतलाया गया है। हे दयालु चित्त वाले! तुम इस मांस-भक्षणरूप दोष का त्याग करो।॥५२॥

Shashank Shaha added more details to update on 10 November 2024.

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