भूधर-शतक २९-से-३५
Author:
Language : Hindi
Rhythm:
Type: Bhudhar Shatak
Particulars: Paath
Created By: Shashank Shaha
२९- मदिरापान-निषेध- दुर्मिल सवैया
कृमिरास कुवास सराय दहैं, शुचिता सब छीवत जात सही।
जिहिं पान कियैं सुधि जात हियैं, जननीजन जानत नारि यही॥
मदिरा सम आन निषिद्ध कहा, यह जान भले कुल मैं न गही।
धिक है उनकौ वह जीभ जलौ, जिन मूढ़न के मत लीन कही॥५३॥
अन्वयार्थ: मदिरा जीवसमूहों का ढेर है, दुर्गन्धयुक्त है, वस्तुओं को सड़ाकर और जलाकर तैयार की जाती है। निश्चय ही उसके स्पर्श करने मात्र से व्यक्ति की सारी पवित्रता नष्ट हो जाती है और उसे पी लेने पर तो सारी सुध-बुध ही हृदय से जाती रहती है। मदिरा पीनेवाला व्यक्ति माता आदि को भी पत्नी समझने लगता है। इस दुनिया में मदिरा के समान त्याज्य वस्तु अन्य कोई नहीं है, इसलिए मदिरा उत्तम कुलों में ग्रहण नहीं की जाती है। तथापि जो मूर्ख मदिरा को ग्रहण करने योग्य बतलाते हैं, उन्हें धिक्कार है, उनकी जीभ जल जावे।॥५३॥
३०- वेश्यासेवन-निषेध- सवैया
धनकारन पापनि प्रीति करै, नहिं तोरत नेह जथा तिनकौ।
लव चाखत नीचन के मुँह की, शुचिता सब जाय छियैं जिनको।
मद मांस बजारनि खाय सदा, अँधले विसनी न करैं घिन कौं।
गनिका सँग जे शठ लीन भये, धिक है धिक है धिक है तिनकौं॥५४॥
अन्वयार्थ: पापिनी वेश्या धन के लिए प्रेम करती है। यदि व्यक्ति के पास धन नहीं बचे तो सारा प्रेम ऐसे तोड़ फेंकती है जैसे तिनका। वेश्या अधम व्यक्तियों के होठों का चुम्बन करती है अथवा उनके मुंह से निःसृत लार आदि अपवित्र वस्तुओं का स्वाद लेती है/ सम्पूर्ण शुचिता वेश्या के छूने से समाप्त हो जाती है। वेश्या सदा बाजारों में मांस-मदिरा खाती-पीती फिरती है। वेश्या-व्यसन से घृणा वे ही नहीं करते, जो व्यसनों में अंधे हो रहे हैं। जो मूर्ख वेश्या-सेवन में लीन हैं, उन्हें बारम्बार धिक्कार है॥५४॥
३१- आखेट-निषेध- कवित्त मनहर
कानन मैं बसै ऐसौ आन न गरीब जीव,
प्रानन सौं प्यारौ प्रान पूँजी जिस यहै है।
कायर सुभाव धरै काहूँ सौं न द्रोह करे,
सबही सौं डरै दाँत लियैं तृन रहै हैं॥
काहू सौं न दोष पुनि काहू पै न पोष चहै,
काहू के परोष परदोष नाहिं कहै है।
नेकु स्वाद सारिवे कौं ऐसे मृग मारिवे कौं,
हा हा रे कठोर तेरौ कैसे कर वहै है॥५५॥
अन्वयार्थ: जो जंगल में रहता है, सबसे गरीब है, अपने प्राण ही जिसकी प्राणों से प्यारी पूँजी है, जो स्वभाव से ही कायर है, सभी से डरता रहता है, किसी से द्रोह नहीं करता, बेचारा अपने दाँतों में तिनका लिये रहता है, किसी पर नाराज नहीं होता, किसी से अपने पालन-पोषण की अपेक्षा नहीं रखता, परोक्ष में किसी के दोष नहीं कहता फिरता अर्थात् पीठ पीछे परनिन्दा करने का दुर्गुण भी जिसमें नहीं है. ऐसे ‘मृग’ को अपने जरा-से स्वाद के लिए मारने हेतु रे रे कठोर हृदय! तेरा हाथ उठता कैसे है?॥५५॥
३२- चोरी-निषेध- छप्पय
चिंता तजै न चोर रहत चौंकायत सारै।
पीटै धनी विलोक लोक निर्दइ मिलि मारै॥
प्रजापाल करि कोप तोप सौं रोप उड़ावै।
मरै महादुख पेखि अंत नीची गति पावै॥
अति विपतिमूल चोरी विसन, प्रगट त्रास आवै नजर।
परवित अदत्त अंगार गिन, नीतिनिपुन परसैं न कर॥५६॥
अन्वयार्थ: चोर कभी भी और कहीं भी निश्चित नहीं होता, हमेशा और हर जगह चौकना रहता है/ देख लेने पर स्वामी (चोरी की गई वस्तु का मालिक) उसकी पिटाई करता है। अन्य अनेक व्यक्ति भी मिल कर उसे निर्दयतापूर्वक बहुत मारते हैं/ राजा भी क्रोध करके उसे तोप के सामने खड़ा करके उड़ा देता है। चोर इस भव में भी बहुत दुःख भोगकर मरता है और परभव में भी उसे अधोगति प्राप्त होती है। चोरी नामक व्यसन अनेक विपत्तियों की जड़ है। उसमें प्रत्यक्ष ही बहुत दुः ख दिखाई देता है। समझदार व्यक्ति तो दूसरे के अदत्त (बिना दिये हुए) धन को अंगारे के समान समझकर कभी अपने हाथ से छूते भी नहीं।॥५६॥
३३- परस्त्रीसेवन-निषेध- छप्पय
कुगति-वहन गुनगहन-दहन दावानल-सी है।
सुजसचंद्र-घनघटा देहकृशकरन खई है॥
धनसर-सोखन धूप धरमदिन-साँझ समानी।
विपतिभुजंग-निवास बांबई वेद बखानी॥
इहि विधि अनेक औगुन भरी, प्रानहरन फाँसी प्रबल।
मत करहु मित्र! यह जान जिय, परवनिता सौं प्रीति पल॥५७॥
अन्वयार्थ: परनारी-सेवन खोटी गति में ले जाने के लिए वाहन है, गुणसमूह को जलाने के लिए जंगल की सी भयानक आग है, उज्ज्वल यशरूपी चन्द्रमा को ढकने के लिए बादलों की घटा है, शरीर को कमजोर करने के लिए क्षयरोग (टी.बी.) है, धनरूपी सरोवर को सुखाने के लिए धूप है, धर्मरूपी दिन को अस्त करने के लिए सन्ध्या है और विपत्तिरूपी सर्यों के निवास के लिए बाँबी है। शास्त्रों में परनारी-सेवन को इसी प्रकार के अन्य भी अनेक दुर्गुणों से भरा हुआ कहा गया है। वह प्राणों को हरने के लिए प्रबल फाँसी है। ऐसा हृदय में जानकर हे मित्र! तुम कभी पल भर भी परस्त्री से प्रेम मत करो।॥५७॥
३४- परस्त्रीत्याग-प्रशंसा- दुर्मिल सवैया
दिवि दीपक-लोय बनी वनिता, जड़जीव पतंग जहाँ परते।
दुख पावत प्रान गवाँवत हैं, बरजे न रहैं हठ सौं जरते॥
इहि भाँति विचच्छन अच्छन के वश, होय अनीति नहीं करते।
परती लखि जे धरती निरखें, धनि हैं धनि हैं धनि हैं नर ते॥५८॥
अन्वयार्थ: परनारी एक ऐसी ज्वलित दीपक की लौ है जिस पर मूर्ख प्राणीरूपी पतंगे गिरते हैं, दुःख पाते हैं और जलकर प्राण गँवा देते हैं; रोकने और समझाने पर भी नहीं मानते, हठपूर्वक जलते ही हैं। विवेकी पुरुष इन्द्रियों के वश होकर ऐसा अनुचित कार्य नहीं करते। अहो! जो व्यक्ति परनारी को देखकर अपनी नजर धरती की ओर नीची कर लेते हैं; वे धन्य हैं! धन्य हैं!! धन्य हैं!!!॥५८॥
दिढ़ शील शिरोमन कारज मैं, जग मैं जस आरज तेइ लहैं।
तिनके जुग लोचन वारिज हैं, इहि भाँति अचारज आप कहैं।
परकामिनी कौ मुखचन्द चितैं, मुंद जांहि सदा यह टेव गहैं।
धनि जीवन है तिन जीवन कौ, धनि माय उनैं उर मांय वहैं॥५९॥
अन्वयार्थ: जो व्यक्ति शीलरूपी सर्वोत्तम कार्य में दृढ़तापूर्वक लगे हैं, वे ही आर्य पुरुष हैं- श्रेष्ठ पुरुष हैं, वे ही जगत् में यश प्राप्त करते हैं। आचार्य कहते हैं कि ऐसे ही व्यक्तियों की आँखें वास्तव में कमल की उपमा देने लायक हैं, क्योंकि वे आँखें परस्त्री के मुखरूपी चन्द्रमा को देखकर सदा मुंद जाने की आदत ग्रहण किये हुए हैं। धन्य है ऐसे व्यक्तियों का जीवन तथा धन्य हैं उनकी मातायें जो ऐसे आर्यपुरुषों को अपने गर्भ में धारण करती हैं।॥५९॥
३५- कुशील-निन्दा- मत्तगयन्द सवैया
जे परनारि निहारि निलज्ज, हँसैं विगसैं बुधिहीन बड़े रे।
जूँठन की जिमि पातर पेखि, खुशी उर कूकर होत घनेरे॥
है जिनकी यह टेव वहै, तिनकौं इस भौ अपकीरति है रे।
है परलोक विषैं दृढ़दण्ड, करै शतखण्ड सुखाचल केरे॥६०॥
अन्वयार्थ: जो निर्लज्ज व्यक्ति परस्त्री को देखकर हँसते हैं, खिलते हैं- प्रसन्न होते हैं, वे बड़े बुद्धिहीन (बेवकूफ) हैं। परस्त्री को देखकर उनका प्रसन्न होना ऐसा है, मानों झूठन की पत्तल देखकर कोई कुत्ता अपने मन में बहुत प्रसन्न हो रहा हो। जिन व्यक्तियों की ऐसी (परस्त्री को देखकर निर्लज्जतापूर्वक हँसने और प्रसन्न होने की) खोटी आदत पड़ गई है, उनकी इस भव में बदनामी होती है, और परभव में भी कठोर दण्ड मिलता है, जो उनके सुखरूपी पर्वत के टुकड़े-टुकड़े कर डालता है अर्थात् समस्त सुख-शांति का विनाश कर देता है।॥६०॥
Shashank Shaha added more details to update on 10 November 2024.
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