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भूधर-शतक ३६-से-४२

Author:
Language : Hindi
Rhythm:

Type: Bhudhar Shatak
Particulars: Paath
Created By: Shashank Shaha

३६- व्यसन-सेवन के उदाहरण व फल- छप्पय

प्रथम पांडवा भूप खेलि जूआ सब खोयौ।
मांस खाय बक राय पाय विपदा बहु रोयौ।
बिन जानैं मदपानजोग जादौगन दज्झे।
चारुदत्त दुख सह्यौ वेसवा-विसन अरुज्झे।
नृप ब्रह्मदत्त आखेट सौं, द्विज शिवभूति अदत्तरति।
पर-रमनि राचि रावन गयौ, सातौं सेवत कौन गति॥६१॥

अन्वयार्थ: पांडवों के राजा युधिष्ठिर ने जुआ नामक प्रथम व्यसन के सेवन से सब कुछ खो दिया, राजा बक ने मांस खाकर बहुत कष्ट उठाये, यादव बिना जाने मद्यपान कर जल मरे, चारुदत्त ने वेश्याव्यसन में फंसकर बहुत दुःख भोगे, राजा ब्रह्मदत्त (चक्रवर्ती) शिकार के कारण नरक गया, चोरी के कारण – धरोहर के प्रति नियत खराब कर लेने के कारण- शिवभूति ब्राह्मण ने बहुत दुःख सहा, और रावण परस्त्री में आसक्त होकर नरक गया। अहो! जब एक-एक व्यसन का सेवन करने वालों की ही यह दुर्दशा हुई, तो जो सातों का सेवन करते हैं उनकी क्या दुर्दशा होगी?
विशेष:– प्रस्तुत छन्द में कवि ने सातों व्यसनों के दृष्टान्तस्वरूप क्रमश: सात कथा-प्रसंगों की ओर संकेत किया है, जिनकी पूर्ण कथा प्रथमानुयोग के ग्रन्थों में प्राप्त होती है। अतिसंक्षेप में वे इसप्रकार हैं- १. जुआ: इसमें महाराजा युधिष्ठिर की कथा सुप्रसिद्ध है / एक बार युधिष्ठिर ने कौरवों के साथ जुआ खेलते हुए अपना सब-कुछ दाव पर लगा दिया था और पराजित होकर उन्हें राज्य छोड़कर वन में जाना पड़ा था। वन में उन्होंने अपार दु:ख सहन किये। २. मांस-भक्षण: मनोहर देश के कुशाग्र नगर में एक भूपाल नाम का धर्मात्मा राजा राज्य करता था। उसने नगर में जीव-हिंसा पर प्रतिबंध घोषित कर रखा था। किन्तु उसका अपना पुत्र बक ही बड़ा मांस-लोलुपी था। वह मांस के बिना नहीं रह सकता था, अत: उसने रसोइये को धनादि का लालच देकर अपने लिए मांसाहार का प्रबन्ध कर लिया। एक दिन रसोइये को किसी भी पशु-पक्षी का मांस नहीं मिला, अतः उसने श्मशान में से गड़े हुए बालक को निकालकर उसका ही मांस राजकुमार बक को खिला दिया। राजकुमार बक को यह मांस बहुत स्वादिष्ट लगा। उसने प्रतिदिन ऐसा ही मांस खाने की अभिलाषा व्यक्त की। रसोइया धनादि के लालच में ऐसा ही करने को तैयार हो गया। अब वह प्रतिदिन नगर के बालकों को मिठाई देने के बहाने बुलाता और उनमें से किसी एक बालक को छुपकर मार डालता। नगर में बालकों की संख्या घटने लगी। अंत में सारा भेद खुल गया। राजकुमार बक को देश निकाला मिला। वह इधर-उधर भटकता-भटकता नरभक्षी राक्षस बन गया। एक बार वसुदेव से उसकी भेंट हुई। वसुदेव ने उसे मार डाला। ३. मदिरापान: भगवान नेमिनाथ के समय की बात है। एक बार द्वारिकानिवासी यादवगण (यदुवंशी मनुष्य) वन-क्रीड़ा हेतु नगर से बाहर निकले। वहाँ उन्हें बहुत प्यास लगी और उन्होंने अनजाने में ही एक ऐसे जलाशय का जल पी लिया जो वस्तुतः सामान्य जल नहीं, अपितु कदम्ब फलों के कारण मदिरा ही बन चुका था। इससे वे सब मदोन्मत्त होकर द्वीपायन मुनि को परेशान करने लगे। परिणामस्वरूप द्वीपायन की क्रोधाग्नि में जलकर समूची द्वारिका के साथ. साथ वे भी भस्म हो गये। ४. वेश्यासेवन: चम्पापुरी में सेठ भानुदत्त और सेठानी सुभद्रा के एक चारुदत्त नाम का वैराग्य प्रकृति का पुत्र था। परन्तु उसे विषयभोगों की ओर से उदासीन रहकर उसकी माँ को बहुत दुःख होता था, अत: माँ ने उसे व्यभिचारी पुरुष की संगति में डाल दिया। इससे चारुदत्त शनैः-शनैः विषयभोगों में ही बुरी तरह फँस गया। वह १२ वर्ष तक वेश्यासेवन में लीन रहा। उसने अपना धन, यौवन, आभूषण आदि सब कुछ लुटा दिया। और अन्त में जब उसके पास कुछ भी शेष नहीं बचा तो वसन्तसेना वेश्या ने उसे घर से निकलवा कर गन्दे स्थान पर फिकवा दिया। ५. शिकार: राजा ब्रह्मदत्त शिकार का प्रेमी था। वह प्रतिदिन वन के निरीह प्राणियों का शिकार करके घोर पाप का बन्ध करता था। एक दिन उसे कोई शिकार नहीं मिला। उसने इधर-उधर देखा तो एक मुनिराज बैठे थे। उसने समझा कि इन्हीं के कारण आज मुझे कोई शिकार नहीं मिला है। उसने अपने मन में मुनिराज से बदला लेने की ठानी। दूसरे दिन जब मुनिराज आहार हेतु गये, तब उसने उस शिला को अत्यधिक गर्म कर दिया। मुनिराज आहार करके आये तो अचल योग धारण करके उसी शिला पर बैठ गये। उनका शरीर जलने लगा, पर वे विचलित नहीं हुये। परिणामस्वरूप मुनिराज को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। उधर राजा ब्रह्मदत्त को घर जाने के बाद भयंकर कोढ़ हो गया। उसके शरीर से दुर्गध आने लगी। सबने उसका साथ छोड़ दिया। वह मरकर सातवें नरक में गया। नरक से निकलने के बाद महादुर्गन्ध शरीरवाली धीवर कन्या हुआ और उसके बाद भी अनेक जन्मों में उसने वचनातीत कष्टों को सहन किया। ६. चोरी: सिंहपुर नगर में एक शिवभूति नाम का पुरोहित था। यद्यपि वह बडा चोर और बेईमान था, पर उसने मायाचारी से अपने संबंध में यह प्रकट कर रखा था कि मैं बड़ा सत्य बोलने वाला हूँ। वह कहता था कि देखो, मैं अपने पास सदा यह चाकू रखता हूँ, ताकि झूठ बोलूँ तो तुरन्त अपनी जीभ काट डालूँ। इससे अनेक भोले लोग उसे ‘सत्यघोष’ ही कहने-समझने लगे। यद्यपि अनेक लोग इस शिवभूति पुरोहित के चक्कर में आकर ठगाये जा चुके थे, पर कोई उसे झूठा नहीं सिद्ध कर पाता था। एक बार एक समुद्रदत्त नामक वणिक विदेश जाते समय अपने पाँच बहुमूल्य रत्नों को उस शिवभूति के पास रखकर गया और वहाँ से लौटकर उसने अपने रत्न वापस माँगे। हमेशा की तरह इस बार भी शिवभूति ने साफ-साफ इनकार कर दिया। बेचारा समुद्रदत्त दुःखी होकर रोता हुआ इधर-उधर घूमने लगा। आखिरकार रानी की कुशलता से शिवभूति का अपराध सामने आ गया। दण्डस्वरूप उसे तीन सजाएँ सुनाई गईं कि या तो वह अपना सर्वस्व देकर देश से बाहर चला जावे अथवा पहलवान के ३२ मुक्के सहन करे अथवा तीन परात गोबर खाए। उसने सर्वप्रथम तीन परात गोबर खाना स्वीकार किया। पर नहीं खा सका। फिर उसने पहलवान के ३२ मुक्के खाना स्वीकार किया, पर वे भी उससे सहन नहीं हुए और अन्त में उसे अपना सर्वस्व देकर नगर से बाहर जाना पड़ा। ७. परस्त्री-सेवन: इसमें रावण की कथा सर्वजनप्रसिद्ध ही है, अतः उसे यहाँ नहीं लिखते हैं / रावण सीता के प्रति दुर्भाव रखने के कारण ही नरक गया॥६१॥

दोहा

पाप नाम नरपति करै, नरक नगर मैं राज।
तिन पठये पायक विसन, निजपुर वसती काज॥६२॥

अन्वयार्थ: एक पाप नाम का राजा है जो नरकरूपी नगर में राज्य करता है और उसी ने अपने नगर की समृद्धि के लिए इस लोक में अपने सप्त व्यसनरूपी दूत छोड़ रखे हैं॥६२॥

दोहा

जिनकैं जिन के वचन की, बसी हिये परतीत।
विसनप्रीति ते नर तजौ, नरकवास भयभीत॥६३॥

अन्वयार्थ: जिनके हृदय में जिनेन्द्र भगवान के वचनों की प्रतीति हुई हो और जो नरकवास से भयभीत हों, वे इन व्यसनों के प्रति अनुराग का त्याग करो॥६३॥

३७- कुकवि-निन्दा- मत्तगयन्द सवैया

राग उदै जग अंध भयौ, सहजै सब लोगन लाज गवाँई।
सीख बिना नर सीख रहे, विसनादिक सेवन की सुघराई।
ता पर और रचैं रसकाव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई।
अंध असूझन की अँखियान मैं, झोंकत हैं रज रामदुहाई॥६४॥

अन्वयार्थ: अहो! रागभाव के उदय से यह दुनिया वैसे ही इतनी अंधी हो रही है कि सब लोग अपनी सारी मान-मर्यादा खोये बैठे हैं। व्यक्ति बिना ही सिखाये व्यसनादि-सेवन में कुशलता प्राप्त कर रहे हैं। ऊपर से, जो कुकवि उन्हीं व्यसनादि के पोषण करने वाले काव्यों की रचना करते हैं, उनकी निष्ठुरता का क्या कहना? वे बड़े निर्दयी हैं। भगवान की सौगन्ध, वे कुकवि, जो लोग अंधे हैं- जिन्हें कुछ नहीं दीखता, उनकी आँखों में धूल झोंक रहे हैं॥६४॥

कंचन कुम्भन की उपमा, कह देत उरोजन को कवि बारे।
ऊपर श्याम विलोकत कै, मनिनीलम की ढकनी ढँकि छारे॥
यौं सत वैन कहैं न कुपंडित, ये जुग आमिषपिंड उघारे।
साधन झार दई मुँह छार, भये इहि हेत किधौं कुच कारे॥६५॥

अन्वयार्थ: बावले कवि (कुकवि) नारियों के स्तनों को स्वर्णकलश और स्तनों के अग्रभाग को कालिमा के कारण नीलमणि के ढक्कन की उपमा देते हैं। कहते हैं कि नारियों के स्तन नीलमणि के ढक्कन से ढके हुए स्वर्ण-कलश हैं। जबकि वस्तुस्थिति यह नहीं है। वे कुकवि सही-सही बात नहीं कहते हैं। सही बात तो यह है कि नारियों के स्तन स्पष्टतया दो मांसपिण्ड हैं, जिनके मुँह में साधु पुरुषों ने राख भर दी है (अर्थात् उनकी अत्यन्त उपेक्षा कर दी है), इसी वजह से उनका अग्रभाग काला हो गया है॥६५॥

ए विधि! भूल भई तुमतैं, समुझे न कहाँ कसतूरि बनाई।
दीन कुरंगन के तन मैं, तृन दंत धरैं करुना किन आई॥
क्यौं न करी तिन जीभन जे, रसकाव्य करैं पर कौं दुखदाई।
साधु-अनुग्रह दुर्जन-दण्ड, दुहू सधते विसरी चतुराई॥६६॥

अन्वयार्थ: हे विधाता! तुमसे भूल हो गई। तुम नहीं समझ पाये कि कस्तूरी कहाँ बनाना चाहिए और तुमने बेचारे उन असहाय हिरणों के शरीर में कस्तूरी बना दी जो अपने दाँतों में घास-तृण लिये रहते हैं। तुम्हें इन हिरणों पर दया क्यों नहीं आई? हे विधाता! तुमने यह कस्तूरी उनकी जीभ पर क्यों नहीं बनाई जो जगत् का अहित करने वाली काव्यरचना करते हैं? ऐसा करने से सज्जनों पर कृपा भी हो जाती और दुर्जनों को दण्ड भी मिल जाता, दोनों ही प्रयोजन सिद्ध हो जाते। पर क्या बतायें, तुम तो अपनी सारी चतुराई भूल गये॥६६॥

३८- मन-रूपी हाथी- छप्पय

ज्ञानमहावत डारि सुमतिसंकल गहि खंडै।
गुरु-अंकुश नहिं गिनै ब्रह्मव्रत-विरख विहंडै॥
कर सिधंत-सर न्हौन केलि अघ-रज सौं ठाने।
करन-चपलता धरै कुमति-करनी रति मानै॥
डोलत सछन्द मदमत्त अति, गुण-पथिक न आवत उरै।
वैराग्य-खंभ से बाँध नर, मन-मतंग विचरत बुरै॥६७॥

अन्वयार्थ: हे मनुष्य! तुम्हारा मनरूपी हाथी बुरी तरह विचरण कर रहा है, तुम इसे वैराग्यरूपी स्तंभ से बाँधो। इस मनरूपी हाथी ने ज्ञानरूपी महावत को गिरा दिया है, सुमतिरूपी साँकल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये हैं, गुरुवचनरूपी अंकुश की उपेक्षा कर रखी है और ब्रह्मचर्यरूपी वृक्ष को उखाड़ फेंका है। तथा यह मनरूपी हाथी सिद्धान्त (शास्त्र) रूपी सरोवर में स्नान करके भी पापरूपी धूल से खेल रहा है, अपने इन्द्रियरूपी कानों को चपलता-पूर्वक बारम्बार हिला रहा है और कुमतिरूपी हथिनी के साथ रतिक्रीड़ा कर रहा है। _इस प्रकार यह मनरूपी हाथी अत्यधिक मदोन्मत्त होता हुआ स्वच्छंदतापूर्वक घूम रहा है, गुणरूपी राहगीर इसके पास तक नहीं आ रहे हैं; अतः इसे वैराग्यरूपी स्तंभ से बाँधो। तात्पर्य यह है कि हमें अपने चंचल मन को वैराग्य-भावना के द्वारा स्थिर या एकाग्र करना चाहिए, अन्यथा यह हमारे ज्ञान, शील आदि सर्व गुणों का विनाश कर देगा और हमारे ऊपर गुरुवचनों व जिनवचनों का कोई असर नहीं होने देगा। जबतक हमारा मन चंचल है तब तक कोई सद्गुण हमारे समीप तक नहीं आएगा।॥६७॥

३९- गुरु-उपकार- कवित्त मनहर

ढई-सी सराय काय पंथी जीव वस्यौ आय,
रत्नत्रय निधि जापै मोख जाकौ घर है।
मिथ्या निशि कारी जहाँ मोह अन्धकार भारी,
कामादिक तस्कर समूहन को थर है।

सोवै जो अचेत सोई खोवै निज संपदा कौ,
तहाँ गुरु पाहरु पुकारैं दया कर है।
गाफिल न हजै भ्रात! ऐसी है अँधेरी रात,
जाग रे बटोही! इहाँ चोरन को डर है॥६८॥

अन्वयार्थ: हे भाई! यह शरीर ढह जाने वाली धर्मशाला के समान है। इसमें एक जीवरूपी राहगीर आकर ठहरा हुआ है। उसके पास रत्नत्रयरूपी पूँजी है और मोक्ष उसका घर है। यात्रा के इस पड़ाव पर मिथ्यात्वरूपी काली रात है, मोहरूपी घोर अन्धकार है और काम-क्रोध आदि लुटेरों के झुण्डों का निवास है। यहाँ जो अचेत होकर सोता है वह अपनी संपत्ति खो बैठता है। अतः हे भाई! गाफिल मत होओ, रात बड़ी अंधेरी है। गुरुरूपी पहरेदार भी दया करके आवाज लगा रहे हैं कि हे राहगीर! जागते रहो, यहाँ चोरों का डर है।॥६८॥

४०- कषाय जीतने का उपाय- मत्तगयंद सवैया

छेमनिवास छिमा धुवनी विन, क्रोध पिशाच उरै न टरैगौ।
कोमलभाव उपाव विना, यह मान महामद कौन हरैगौ॥
आर्जव सार कुठार विना, छलबेल निकंदन कौन करैगौ।
तोषशिरोमनि मन्त्र पढ़े विन, लोभ फणी विष क्यौं उतरैगौ॥६९॥

अन्वयार्थ: क्रोधरूपी पिशाच, जिसमें कुशलता निवास करती है ऐसी क्षमा की धूनी दिये बिना दूर नहीं हटेगा, मानरूपी प्रबल मदिरा कोमलभाव के बिना नहीं उतरेगी, छलरूपी बेल आर्जवरूपी तीक्ष्ण कुल्हाड़ी के बिना नहीं कटेगी, और लोभरूपी विषैले सर्प का जहर सन्तोषरूपी महामन्त्र के जाप बिना नहीं उतरेगा। तात्पर्य यह है कि क्रोध, मान, माया और लोभरूप कषायों का अभाव करने का एक मात्र उपाय उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव और उत्तम शौचरूप आत्मधर्म ही है।॥६९॥

४१- मिष्ट वचन- मत्तगयन्द सवैया

काहे को बोलत बोल बुरे नर! नाहक क्यौं जस-धर्म गमावै।
कोमल वैन चवै किन ऐन, लगै कछ है न सबै मन भावै।
तालु छिदै रसना न भिदै, न घटैं कछु अंक दरिद्र न आवै।
जीभ कहैं जिय हानि नहीं तुझ, जी सब जीवन कौ सुख पावै॥७०॥

अन्वयार्थ: हे भाई! कठोर वचन क्यों बोलते हो? कठोर वचन बोलकर व्यर्थ ही क्यों अपना यश और धर्म नष्ट करते हो? अच्छे व कोमल वचन क्यों नहीं बोलते हो? देखो! कोमल वचन सबके मन को अच्छे लगते हैं; जबकि उन्हें बोलने में कोई धन नहीं लगता, बोलने पर ताल भी नहीं छिदता, जीभ भी नहीं भिदती. रुपया-पैसा कुछ घट नहीं जाता और दरिद्रता भी नहीं आ जाती। इसप्रकार अपनी जीभ से मधुर और कोमल वचन बोलने में तुम्हें हानि कुछ भी नहीं होती, अपितु सुनने वाले सब जीवों के मन को बड़ा सुख प्राप्त होता है; अतः कोमल वचन ही बोलो, कटु वचन मत बोलो।॥७०॥

४२- धैर्य-धारण का उपदेश- कवित्त मनहर

आयो है अचानक भयानक असाता कर्म,
ताके दूर करिवे को बलि कौन अह रे।
जे जे मन भाये ते कमाये पूर्व पाप आप,
तेई अब आये निज उदैकाल लह रे॥
एरे मेरे वीर! काहे होत है अधीर यामैं,
कोउ को न सीर तू अकेलौ आप सह रे।
भयै दिलगीर कछू पीर न विनसि जाय,
ताही तैं सयाने! तू तमासगीर रह रे॥७१॥

अन्वयार्थ: हे भाई! यदि तुम्हारे ऊपर भयानक असाता कर्म का अचानक उदय आ गया है तो तुम इससे अधीर क्यों होते हो, क्योंकि अब इसे टालने में कोई समर्थ नहीं है। तुमने स्वयं ने अपनी इच्छानुसार प्रवर्तन करके जो-जो पाप पहले कमाये थे, वे ही अब अपना उदयकाल आने पर तुम्हारे पास आये हैं। तुम्हारे कर्मों के इस फल को अब दूसरा कोई नहीं बाँट सकता, तुम्हें स्वयं अकेले ही भोगना होगा। अत: अब चिंतित या उदास (दुःखी) होने से कोई लाभ नहीं है। चिन्ता करने से या उदास रहने से दु:ख मिट नहीं जावेगा। अत: हे मेरे सयाने भाई! तुम ज्ञाता-द्रष्टा बने रहो_ तमाशा देखने वाले बने रहो। ॥७१॥

Shashank Shaha added more details to update on 10 November 2024.

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