नित्य-पूजा
जो अनादि से व्यक्त नहीं था त्रैकालिक ध्रुव ज्ञायक भाव। वह युगादि में किया प्रकाशित वन्दन ऋषभ जिनेश्वर राव॥१॥
देवशास्त्र गुरु को नमू, नमू जोड़ के हाथ द्वाविंशति परिषह लिखूं, लखूँ स्वात्म सुखनाथ॥
ज्ञानजिहाज बैठि गनधर-से, गुनपयोधि जिस नाहिं तरे हैं। अमर-समूह आनि अवनी सौं, घसि-घसि सीस प्रनाम करे हैं।
बीज राख फल भोगवै, ज्यों किसान जगमाहिं त्यों चक्री सुख में मगन, धर्म विसारै नाहिं ॥
सुध्यान में लवलीन हो जब, घातिया चारों हने । सर्वज्ञ बोध विरागता को, पा लिया तब आपने ।
वीतराग वंदौं सदा, भावसहित सिरनाय कहुं कांड निर्वाण की भाषा सुगम बनाय ॥
सत्त्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ॥१॥
बहु पुण्य-पुंज प्रसंग से शुभ देह मानव का मिला तो भी अरे! भव चक्र का, फेरा न एक कभी टला ॥१॥
श्रीपति जिनवर करुणायतनं, दुखहरन तुम्हारा बाना है मत मेरी बार अबार करो, मोहि देहु विमल कल्याना है ॥टेक॥
वंदो पांचो परम - गुरु, चौबिसों जिनराज करूँ शुद्ध आलोचना, शुद्धि करन के काज ॥१॥
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