नित्य-पूजा
वंदो पांचो परम - गुरु, चौबिसों जिनराज करूँ शुद्ध आलोचना, शुद्धि करन के काज ॥१॥
तुम चिरंतन, मैं लघुक्षण लक्ष वंदन, कोटी वंदन ॥
मैं देव नित अरहंत चाहूँ, सिद्ध का सुमिरन करौं । मैं सुर गुरु मुनि तीन पद ये, साधुपद हिरदय धरौं ॥
मिथ्यातम नासवे को, ज्ञान के प्रकासवे को, आपा-पर भासवे को, भानु-सी बखानी है ।
सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानंद रसलीन सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरि-रज-रहस विहीन ॥
बन्दौं श्री अरिहंत परम गुरु, जो सबको सुखदाई इस जग में दुख जो मैं भुगते, सो तुम जानो राईं ॥
दिन रात मेरे स्वामी, मैं भावना ये भाऊँ, देहांत के समय में, तुमको न भूल जाऊँ ॥टेक॥
गौतम स्वामी बन्दों नामी मरण समाधि भला है मैं कब पाऊँ निश दिन ध्याऊँ गाऊँ वचन कला है ॥
जो मोह माया मान मत्सर, मदन मर्दन वीर हैं जो विपुल विघ्नों बीच में भी, ध्यान धारण धीर हैं ॥
शीश नवा अरिहंत को, सिद्धन करू प्रणाम उपाध्याय आचार्य का ले सुखकारी नाम ॥१॥
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