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आचार्य मानतुंग कृत

"भक्तामरस्तोत्रम"

दिगंबर जैन विकी द्वारा प्रस्तुत

01. सर्व विघ्न उपद्रवनाशक

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भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा-मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम् ।

सम्यक्-प्रणम्य जिन-पाद-युगं युगादा-वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् ॥१॥

Bhaktamar pranat maulimaniprabhanam muddyotakam dalita pap tamovitanam.

Samyak pranamya jin pad yugam yugada- valambanam bhavajale patataam jananam.

Having duly bowed down at the feet of Bhagwan Adinath, the first Tirthankar, the divine glow of his nails increases luster of jewels of their crowns. Mere touch of his feet frees the beings from sins. He who submits himself at these feet is saved from taking birth again and again. I offer my respectful salutations at the feet of Bhagavan Adinath, the propagator of religion at the beginning of this era.

अन्वयार्थ – (भक्तामर प्रणतमौलिमणिप्रभाणाम्) भक्तदेवों के नम्रीभूत मुकुटों के मणियों की प्रभा के (उद्योतकम्) बढ़ाने वाले (दलितपापतमोविज्ञानम्) पापरूपी अन्धकार के विस्तार के नाशक [च] और (युगादी) युग के प्रारम्भ में (भवजले) संसारसमुद्र में (पतताम्) गिरते हुये (जनानाम्) प्राणियो के (आलम्बनम्) रक्षक या सहारे (जिनपादयुगम्) जिनेन्द्रदेव के चरणयुगल को [सम्यक्] भलीभांति [प्रणम्य] नमस्कार करके [स्तोष्ये] मैं स्तुति करता हूँ ।।१।।

भावार्थ – विशेष वैभवशाली देवों से पूजित, अपने तथा औरों के पापसमूह के नाशक और अपने वीतराग उपदेश द्वारा प्राणियों को संसारसमुद्र से निकालने वाले जिनेंद्रदेव के चरणों को नमस्कार कर में यह स्तुति करता हूं ॥१॥

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02. शत्रु तथा शीरपीडा नाशक​​

यः संस्तुतः सकलवाङ् मयतत्त्वबोधा- दुद्भूतबुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः।

स्तोत्रं जगत्त्रितयचित्तहरै रुदारैः स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥

Yah samstutah sakala vaangmaya tatva bodhaat dudbhuta buddhi patubhih suraloka naathaih. Stotrair jagattri taya chitta harairudaaraih stoshye kilahamapi tam prathamam jinendram.

The Lords of the Gods, with profound wisdom, have eulogized Bhagavan Adinath with Hymns bringing joy to the audience of three realms (heaven, earth and hell). I shall offer my obeisance in my endeavour to eulogize that first Tirthankar.

अन्वयार्थ – (यः) जो ऋषभदेव भगवान (सकलवाङमयतत्त्व- बोधात्) समस्त द्वादशाङ्गके ज्ञान से (उद्भूतबुद्धिपटुभिः) उत्पन्न विशिष्टबुद्धि से चतुर (सुरलोकनाथः) इन्द्रों के द्वारा (जगस्त्रितय – चित्तहरैः) तीनों लोकोंके प्राणियोंके चित्तको लुभाने वाले [च] और (उदारैः) प्रशंसनीय (स्तोत्र) स्तोत्रों द्वारा (संस्तुतः) स्तुति किये गये थे (तम्) उन (प्रथमम्) पहले (जिनेन्द्रम्) ऋषभनाथ जिनेन्द्र को (अहम्) मैं (अपि) भी (स्तोध्ये) स्तुति करता हूँ (इति) यह (किल) आश्चर्य की बात है ॥२॥

भावार्थ – सम्पूर्ण द्वादशाङ्ग का ज्ञान होने से प्रखर बुद्धियुक्त इन्द्रों ने तीनों लोकोंके चित्तको लुभाने वाले प्रशस्त स्तोत्रोंसे जिसकी स्तुति की थी उस आदिनाथ भगवान की स्तुति करने के लिये में अल्पज्ञ प्रवृत्त होता हूं, यह आश्चर्य की बात है ॥२॥

03. सर्वसिद्धीदायक​

बुद्ध्या विनापि विबुधाचित-पाद-पीठ! स्तोतुं समुद्यतमति विगतत्रपोऽहम्।

बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब-मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम्॥३॥

अन्वयार्थ – (विबुधाचितपादपीठ!) देवों के द्वारा पूजित हैं पादपीठ – पैरों के रखने की चौकी जिनकी, ऐसे है जिनेश (विगतत्रपः) निर्लज्ज (ग्रहम्) मैं (बुद्ध्या विना) बुद्धि के बिना (अपि) भी (स्तोतुम्) स्तुति करने के लिये (समुद्यतमतिः) तत्पर [भवामि] हो रहा हूं [यतः] क्योंकि (जलसंस्थितम्) जल में प्रतिबिम्बित (इन्दुबिम्बम्) चन्द्रमण्डल को (सहसा) बिना विचारे, (ग्रहीतुम्) पकड़ने को (बालम्) बालक या मूर्ख को (विहाय) छोड़कर (अन्यः) दूसरा (क:) कौन (जनः) मनुष्य (इच्छति) इच्छा करता है ॥३॥

भावार्थ – हे देवों के द्वारा पूजनीय जिनेन्द्र विशेषबुद्धि के न होनेपर भी जो मैं आपकी स्तुति करने में तत्पर हो रहा हूं; यह मेरी ढीठता हो है, क्योंकि मेरा यह प्रयत्न पानी में प्रतिबिम्बित चन्द्र के प्रतिबिम्ब को बड़े चावसे पकड़ने वाले बालक की भांति ही है ॥३॥

Buddhya vinaapi vibudharchita padapitha stotum samudyata matirvigata trapoaham. Balam vihaya jala samsthitam indu bimbam manyah ka ichchhati janah sahasa grahitum.

Shameless I am, O God, as a foolish child takes up an inconceivable task of grabbing the disc of the moon reflected in water, out of impertinence alone, I am trying to eulogize a great soul like you.

04. जल जंतू निरोधक

वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र! शशाङ्ककान्तान्, कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्ध्या।

कल्पान्तकाल पवनोद्धतनक्रचक्र, को वा तरीतुमलमम्बुनिधि भुजाभ्याम्॥४॥

Vaktum gunan gunasamudra shashankakantan kaste kshamah suraguru pratimoapi buddhya. Kalpanta kala pavanoddhata nakra chakram ko va taritum alam ambunidhim bhujabhyam.

O Lord, you are the ocean of virtues. Can even Brihaspati, the teacher of gods, with the help of his infinite wisdom, narrate your virtues spotless as the moonbeams? (certainly not.) Is it possible for a man to swim across the ocean full of alligators, lashed by gales of deluge? (certainly not).

अन्वयार्थ – (गुणसमुद्र!) हे गुणों के सागर (ते) तुम्हारे (शशाङ्ककान्तान्) चन्द्र की कान्ति के समान उज्ज्वल (गुणान्) गुणों को (वक्तुम्) कहने के लिए (बुद्ध्या) बुद्धि से (सुरगुरुप्रतिमः) बृहस्पति के समान (अपि) भी (क:) कौन पुरुष (क्षमः) समर्थ (अस्ति) है। (वा) जैसे (कल्पान्तकालपवनोद्धतनक्रचक्रम्) प्रलयकाल की प्रचण्ड वायु से कुपित मगरमच्छों से परिपूर्ण (अम्बु- निधिम्) समुद्र को (भुजाभ्याम्) भुजाओं से (तरीतुम्) पार करने को (क:) कौन (अलम्) समर्थ [अस्ति] है? अर्थात् कोई नहीं ||४||

भावार्थ – हे गुणनिधे! जिस तरह प्रलयकाल की, प्रचण्ड वायु से कुपित और लहराते हुए हिंसक मगरमच्छों से परिपूर्ण समुद्रको कोई भुजाओं से नहीं पार कर सकता; उसीप्रकार बृहस्पति के समान बुद्धिमान पुरुष भी आपके निर्मल गुणों का वर्णन नहीं कर सकता, फिर सुक्त अल्पज्ञ को तो बात ही क्या है? ||४||

05. नेत्र रोग निवारक

सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश! कर्त्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः।

प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगी मृगेन्द्र, नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥५॥

अन्वयार्थ – (मुनीश!) हे मुनिनाथ (तथापि) तो भी (विरातापासितः) अल्पज्ञ (अपि) भी (स: अहम्) मैं (तव) तुम्हारी (भक्तिवशात्) भक्ति के वंश से (तब) आपकी (स्तवनम्) स्तुति को (कलुम्) करने के लिए (प्रवृत्तः) तैयार हुआ हूं [तथा] जैसे (मृगी) हरिणी (भ्रात्मवीर्यम्) अपनी शक्ति को (श्रविचार्य) नहीं विचार कर (श्रोत्या) केवल प्रेम से (निजशिशोः) अपने बच्चे की (परिपालनार्थम्) रक्षा के लिए (मृगेन्द्रम्) सिंहका (न श्रभ्येति किम्) सामना नहीं करती है क्या? ॥ ५॥

भावार्थ – हे मुनिनाथ! जैसे हरिणी शक्ति न रहते हुए भी केवल प्रेमवश अपने बच्चे की रक्षा के लिए सिंह का सामना करती है, उसी प्रकार मैं भी बौद्धिकशक्ति न होने पर भी श्रद्धामात्र से आपका स्तवन करने के लिए प्रवृत्त हआ हूं ॥५॥

Soaham tathapitava bhakti vashanmunisha kartum stavam vigatashaktirapi pravrittah.Prityatma viryam avicharya mrigi mrigendram nabhyeti kim nijashishoh paripalanartham.

O Great God ! I am incapable of narrating your innumerable virtues. Still, urged by my devotion for you, I intend eulogise you. It is well known that to protect her fawn, even a deer puts his feet down and faces a lion, forgetting its own frailness. (Similarly, devotion is forcing me to eulogise you without assessing my own capacity).

06. विद्या प्रदारक

अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम्।

यत्कौकिलःकिल मधौ मधुरं विरौति तच्चाम्रचारकलिका-निकरैकहेतुः॥६॥

अन्वयार्थं – (अल्पश्रुतम्) अल्पज्ञानी, अतएव (श्रुतवताम्) विद्वानों के (परिहासधाम) हास्य के पात्र (माम्) मुझ को (त्वदभक्तिः) आपकी भक्ति (एक) ही (बलात्) हठ से (मुखरीकरोति) वाचाल कर रही है [यत] क्योंकि (किल) निश्चय से (मधौ) वसन्त ऋतु में (कोकिलः) कोयल (यत्) जो (मधुरम्) मीठा (विरौति) शब्द करती है। (तत्) वह (आम्रचारुकालिकानिकरैकहेतुः) आम की सुन्दर मज्जरी के समूह के कारण [एव] ही ||६||

भावार्थ – हे जिनेश! जिस तरह अबोध कोयल बसन्त ऋतु में केवल आम्रमञ्जरी का निमित्त पाकर मधुर ध्वनि करती है, उसी प्रकार अल्पज्ञ और विद्वानों के हास्यपात्र मुझे केवल आपकी भक्ति ही आपकी स्तुति करने के हेतु जबरन बाचाल कर रही है ||६||

Alpashrutam shrutavatam parihasadham tvadbhakti-reva mukhari kurute balanmam. Yat kokilah kila madhau madhuram virauti tachchamra charu kalika nikaraika-hetuh.

O Almighty! I am so unlettered that I am subject to ridicule by the wise. Yet, my devotion for you forces me to sing hymns in your praise, just as the cuckoo is compelled to produce its melodious coo when the mango trees blossom.

07. सर्व विष व संकट निवारक

त्वत्संस्तवेन भवसन्ततिसन्निबद्धं, पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम्।

आक्रान्तलोकमलिनीलमशेषमाशु, सूर्या शुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम्॥७॥

अन्वयार्थ – (आक्रांन्तलोकम्) सम्पूर्ण लोक में फैले हुए (अलिनीलम्) भौरों के समान काले [च] और (सूर्याशुभिन्नम्) सूर्य की किरणों से खण्डित (शार्वराम) रात्रिसम्बन्धी (अशेषम्) सम्पूर्ण (अन्धकारम् इव) अन्धकार की तरह (शरीरभाजाम्) प्राणियों के (भवसन्ततिसन्निबद्धम्) अनेक भवों के बंधे हुये (पाथम्) पापकर्म (त्वत्संस्तवेन) आपकी स्तुति से (क्षणात्) क्षण भर में (आशु) शीघ्र (क्षयम्) विनाश को (उपैति) प्राप्त होते हैं ॥७॥

भावार्थ – हे प्रभो! जिस तरह सूर्य की किरणों द्वारा रात्रि का समस्त अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी तरह आपके सेवन से प्राणियों का अनेक जन्म में सञ्चित पाप नष्ट हो जाता है ॥७॥

Tvat sanstavena bhavasantati sannibaddham papam kshanat kshayamupaiti sharirabhajam. Akranta lokamalinilamasheshamashu suryamshu bhinnamiva sharvara mandhakaram

Just as the shining sun rays dispel the darkness spread across the universe, the sins accumulated by men through cycles of birth, are wiped out by the eulogies offered to you.

08. सर्वारिष्ठ निवारक

मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद- मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात्।

चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु, मुक्ताफलद्युतिमुपैति ननूदविन्दुः ॥८॥

अन्वयार्थ – (नाथ) हे प्रभो (इति) ऐसा (मत्वा) मानकर (तनुधिया) मन्दबुद्धि (मया) मेरे द्वारा (अपि) भी (तव) आपका (इदम्) यह (संस्तवनम् ) स्तवन (आरभ्यते) प्रारम्भ किया जाता है। [यत्] जो (तब) आपके (प्रभावात्) प्रभाव से (सताम्) सज्जनों के (चेतः) चित्त को (हरिष्यति) हरेगा (ननु) निश्चय से (उदविन्दुः) पानी की बूंद (नलिनीदलेषु) कमलिनी के पत्तों पर (मुक्ताफलद्युतिम्) मोती जैसी कान्ति को (उपैति) प्राप्त होती है ॥८॥

भावार्थ – हे प्रभो! जिस तरह कमलिनी के पत्र पर पड़ी हुई पानी की बूंद उन पत्तों के प्रभाव से मोती के समान सुन्दर दिखकर दर्शकों के चित्त को प्रसन्न करती है, उसी प्रकार मुझ मन्दबुद्धि द्वारा की गई आपकी स्तुति भी आपके प्रभाव से सज्जनों के चित्त को प्रसन्न करेगी ॥८॥

Matveti nath ! tava samstavanam mayedamam arabhyate tanudhiyapi tava prabhavat. Cheto harishyati satam nalinidaleshu muktaphala dyutim upaiti nanudabinduh

I begin this eulogy with the belief that, though composed by an ignorant like me, it will certainly please noble people due to your magnanimity. Indeed, dew drops on lotus-petals lustre like pearls presenting a pleasant sight.

09. सर्वभय निवारक

आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं, त्वत्सङ्कथापि जगतां दुरितानि हन्ति।

दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ॥९॥

अन्वयार्थ – (तव) तुम्हारा ( अस्तसमस्तदोषम्) निर्दोष (स्तवनम्) स्तवन (आस्ताम्) दूर रहे, किन्तु (त्वत्सङ्कथा) तुम्हारी पवित्र कथा (अपि) भी (जगताम्) प्राणियों के (दुरितानि) पापों को (हन्ति) नष्ट कर देती है [तथा] जैसे (सहस्रकिरणः) सूर्य (दूरे) दूर [तिष्ठति] रहता है, किन्तु (प्रभा) सूर्य की किरण (एव) ही (पद्माकरेषु) तालाबों में (जलजानि) कमलों को (विकासभाजि) विकसित (कुरुते) करती है ॥९॥

भावार्थ- हे जिनेश! आपके निर्दोष स्तवन में तो अचिन्त्य शक्ति है ही, परन्तु आपकी पवित्र कथा का सुनना ही प्राणियों के पापों को नष्ट कर देता है। जैसे सूर्य तो दूर ही रहता है, परन्तु उसकी उज्ज्वल किरणें ही सरोवरों में कमलों को विकसित कर देती हैं ॥९॥

Astam tava stavanam astasamasta dosham tvat samkathapi jagatam duritanihanti Dure sahasrakiranah kurute prabhaiva padmakareshu jalajani vikasha bhanji.

The mere utterance of the great Lord’s name with devotion, destroys the sins of the living beings and purifies them just like the brilliant sun, which is millions of miles away; still, at the break of day, its soft glow makes the drooping lotus buds bloom.

10. कूकर विष निवारक

नात्यद्भुतं भुवनभूषण! भूतनाथ! भूते गुणै र्भुवि भवन्तमभिष्टुचन्तः।

तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किम्वा, भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥

अन्वयार्थ – (भुवनभूषण) हे संसार के भूषण (भूतनाथ) प्राणियों के स्वामी (भूतैः) सच्चे (गुणैः) गुणों के द्वारा (भवन्तम्) आपकी (अभिष्टुवन्तः) स्तुति करने वाले पुरुष (भुवि) पृथिवी पर (भवतः) आपके (तुल्याः) समान (भवन्ति) हो जाते हैं (इदम्) यह (प्रत्यद्- भुतम्) विशेष प्राश्चर्य की बात (न) नहीं (अस्ति) है (ननु) अथवा (तेन) उस स्वामी से (किम्) क्या प्रयोजन है? (यः) जो (इह) इस लोक में (आश्रितम्) अपने अधीन व्यक्ति को (भूत्या) सम्पत्ति से (आत्मसमम्) अपने बराबर [न करोति] नहीं करता ॥१०॥

भावार्थ – हे भुवनरत्न यदि सत्यार्थ गुणों द्वारा आपकी स्तुति करने वाले मानव आपके ही सदृश हो जांय तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि संसार में उस स्वामी से लाभ ही क्या? जो अपने अधीन व्यक्तियों को अपने समान नहीं बना लेवे ॥१०॥

Natyadbhutam bhuvana bhushana ! bhutanatha bhutairgunairbhuvi bhavantam abhishtuvantah. Tulya bhavanti bhavato nanu tena kim va bhutyashritam ya iha natmasamam karoti

O Lord of beings ! O Ornament of the universe! It is no wonder that he who is engaged in praising your infinite virtues (imbibing the virtues in his conduct) attains your exhilarated position.It should not be surprising if a benevolent master makes his subjects his equals. In fact, what is the purpose of serving a master who does not allow his subjects to prosper to an elevated position like his ?

11. इच्छित-आकर्षक

दृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकनीयं, नायन्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः।

पीत्वा पयः शशिकरद्युतिदुग्धसिन्धोः, क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥११॥

अन्वयार्थ – (अनिमेषविलोकनीयम्) बिना पलक झपाये टकटकी से देखने योग्य (भवन्तम्) आपको (दृष्ट्वा) देखकर (जनस्य) मनुष्यों के (चक्षुः) नेत्र (अन्यत्र) दूसरे देवों में (तोषम्) सन्तोष को (न उपयाति) प्राप्त नहीं होते [यथा] जैसे (दुग्धसिन्धोः) क्षीरसमुद्र के (शशिकरद्युति) चन्द्रसमान क्रान्ति वाले (पयः) जल को (पीत्वा) पीकर (जलनिधेः) सामान्य समुद्र के (क्षारम्) खारे (जलम्) जल को (रसितुम्) पीने के लिये (कः) कौन मनुष्य (इच्छेत्) चाहेगा? ॥११॥

भावार्थ – हे लोकोत्तम! जैसे क्षीरसागर के निर्मल और मिष्ट जल का पान करने वाला मनुष्य अन्य समुद्र के खारे पानी को पीने की इच्छा नहीं करता, उसी तरह आपकी वीतरागमुद्रा को निरख कर मनुष्यों के नेत्र अन्य देवों की सरागमुद्रा को देखने से तृप्त नहीं होते ॥११॥

Drishtava bhavantam animesha vilokaniyam nanyatra toshamupayati janasya chakshuh.Pitva payah shashikaradyuti dugdha sindhohksharam jalam jalnidhe rasitum ka ichchhet?

O Great one ! Your divine grandeur is enchanting. Having once looked at your divine form, nothing else enthrals the eye. Obviously, who would like to drink the salty sea water after drinking fresh water of the divine milk-ocean, pure and comforting like the moonlight?

12. हस्तिमद-निवारक

यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं, निर्मापितस्त्रिभुवनैक-ललाम-भूत!

तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ॥१२॥

अन्वयार्थ – (त्रिभुवनैकललामभूत!) हे तीनों लोकों के अद्वितीय शिरोभूषणरूप (शान्तरागरुचिभिः) रागादिरहित उज्ज्वल (यैः) जिन (परमाणुभिः) परमाणुओं से (त्वम्) तुम (निर्मापित:) बनाये गये हो (ते) वे (अणवः) परमाणु (अपि) भी (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (खलु) निश्चय से (तावन्तः) उतने (एव) ही [बभूवुः] थे (यत्) क्योंकि (ते) तुम्हारे (समानम्) समान (रूपम्) रूप (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (अपरम्) दूसरा (न) नहीं (अस्ति) है ॥१२॥

भावार्थ – हे लोकशिरोमणे! आपके शरीर की रचना जिन पुद्गल परमाणुओं से हुई है, वे परमाणु लोक में उतने ही थे, यदि अधिक होते तो आप जैसा रूप और का भी होना चाहिये था, किन्तु वास्तव में आपके समान सुन्दर पृथिवी पर कोई दूसरा नहीं है ॥१२॥

Yaih shantaragaruchibhih paramanubhistavam nirmapitastribhuvanaika lalamabhuta Tavanta eva khalu teapyanavah prithivyam yatte samanam aparam na hi rupam asti.

O Supreme Ornament of the three worlds! As many indeed were the atoms filled with lustre of non-attachment, became extinct after constituting your body, therefore I do not witness such out of the world magnificence other than yours.

13. चोर भय व अन्यभय निवारक

वक्त्र क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि, निःशेषनिर्जितजगत्त्रितयोपमानम्।

बिम्बं कलङ्कमलिनं क्व निशाकरस्य, यद्वासरे भवति पाण्डु पलाशकल्पम् ॥१३॥

अन्वयार्थ – (सुरनरोरगनेत्रहारि) देव, मनुष्य और नागों के नेत्रों को हरण करनेवाला [च] तथा (निःशेषनिर्जितजगत्रितयोपमानम्) सम्पूर्णरूप से जीती हैं कमल, चन्द्र और दर्पण आदि सभी उपमायें जिसने ऐसा (क्व) कहां तो (ते) तुम्हारा (मुखम्) मुख [च] और (क्व) कहाँ (निशाकरस्य) चन्द्रमा का (कलङ्कमलिनम्) कलङ्क से मलिन (बिम्बम्) मण्डल (यत्) जो (वासरे) दिन में (पलाशकल्पम्) ढाक के पत्ते के समान (पाण्डु) पोला (भवति) हो जाता है ॥१३॥

भावार्थ- हे प्रभो! आपके मुख को चन्द्रमा की उपमा देने वाले विद्वान् गलती करते हैं, क्योंकि आपके मुख की प्रभा कभी फीकी नहीं पड़ती, परन्तु चद्रमा की प्रभा दिन में फीकी पड़ जाती है। तथा चन्द्रमा कलड़ी है, किन्तु आपका मुख कलङ्क-रहित हैं ॥१३॥

Vaktram kva te sura naroraga netra hari nihshesha nirjita jagat tritayopamanam. Bimbam kalanka malinam kva nishakarasya Yad vasare bhavati pandu palasha kalpam

Comparison of your lustrous face with the moon does not appear befitting. How can your scintillating face, that pleases the eyes of gods, angels, humans and other beings alike, be compared with the spotted moon that is dull and pale, during the day, as the Palasa leaves. Indeed, your face has surpassed all the standards of comparison.

14. आधि-व्याधि-नाशक लक्ष्मी-प्रदायक

सम्पूर्णमण्डलशशाङ्ककलाकलाप-शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लङ्घयन्ति।

संश्रितास्त्रिजगदीश्वरनाथमेंकं, कस्तान्निवारयति सञ्ञरतो यथेष्टम् ।।१४।।

अन्वयार्थ – (तव) तुम्हारे (सम्पूर्णमण्डलशशाङ्ककलाकलाप- शुभ्रा:) पूर्ण चन्द्रमण्डल की कलाओं के समान उज्ज्वल (गुणाः) गुण (त्रिभुवनम्) तीनों लोकों को (लङ्घयन्ति) उल्लङ्घन करते हैं [यतः] क्योंकि (ये) जो गुण (एकम्) अद्वितीय (त्रिजगदीश्वरनाथम्) तीनों लोकों के नाथों के नाथ को (संश्रिताः) आश्रित हैं (यथेष्टम्) इच्छा-नुसार (सञ्ञरते) विचरण करते हुये (तान्) उन गुणों को (क:) कौन (निवारयति) रोक सकता है ।।१४।।

भावार्थ – हे गुणाकर! जैसे किसी राजाधिराज के आश्रित व्यक्ति को जहां तहाँ इच्छानुसार घूमते रहते कोई रोक नहीं सकता, उसी प्रकार आपके आश्रित कीर्ति आदिक गुणों को त्रिलोक में कोई नहीं रोक सकता। अर्थात् आपके गुण लोकत्रय में व्याप्त हो रहे हैं ।।१४।।

Sampurna mandala shashanka kala kalapa shubhra gunastribhuvanam tava langhayanti Ye sanshritastrijagadishvara! nathamekam kastan nivarayati sancharato yatheshtam

O Master of the three worlds! Your innumerable virtues are radiating throughout the universe-even beyond the three worlds, surpassing the glow of the full moon; the hymns in praise of your virtues can be heard everywhere throughout the universe. Indeed, who can contain the movement of devotees of the only supreme Godhead like you?

15. राजसम्मान-सौभाग्यवर्धक

चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्गनाभि-र्नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम्।

कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन, किं मन्दाद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ।।१५।।

अन्वयार्थ – (यदि) यदि (ते) तुम्हारा (मनः) मन (त्रिदशाङ्गनाभिः) देवाङ्गनाओं के द्वारा (मनाक्) लेशमात्र (अपि) भी (विकारमार्गम्) विकारमार्ग को (नानीतम्) नहीं प्राप्त हुआ [हि ] तो ( अत्र) इसमें (चित्रम्) आश्चर्य (किम्) क्या [अस्ति] है (यथा) जैसे (चलिताचलेन) पर्वतों को हिला देने वाली (कल्पान्तकालमरुता) प्रलयकाल की पवन से (मन्दराद्रिशिखरम्) सुमेरु पर्वत का शिखर (चलितं किम्?) हिलाया गया है क्या? ।।१५।।

भावार्थ – हे मनोविजयिन्! प्रलय की पवन से यद्यपि अनेक पर्वत कम्पित हो जाते हैं परन्तु सुमेरु पर्वत लेशमात्र भी चलायमान नहीं होता, उसी प्रकार देवाङ्गनाओं ने यद्यपि अनेक महान् देवों का चित्त चलायमान कर दिया, परन्तु आपका गम्भीर चित्त किसी के द्वारा लेशमात्र भी चलायमान नहीं किया जा सका ।।१५।।

Chitram kimatra yadi te tridashanganabhir nitam managapi mano na vikara margam. Kalpanta kala maruta chalitachalena kim mandaradri shikhiram chalitamkadachit

Celestial nymphs have tried their best to allure you through lewd gestures, but it is not surprising that your serenity has not been disturbed. Of course, is the great Mandara mountain shaken by the tremendous gale of the doomsday, that moves common hillocks?

16. सर्व-विजय-दायक

निर्धूमवर्तिरपर्वर्जित-तैल-पूर:, कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि।

गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां, दीपोsपरस्त्वमसि नाथ! जगत्प्रकाशः ।।१६।।

अन्वयार्थ – (नाथ) हे स्वामिन् [त्वम्] तुम (निर्घूमवर्ती:) धूम तथा वाती रहित (अपवर्जिततैलपूर:) तेल से शून्य (चलिताच-लानाम्) पर्वतों को चलायमान करने वाले (मरुताम्) पवन के (जातु) कभी भी (न गम्यः) अगम्य [च] तथा (अपरः) अनोखे (दीपः) दीपक (असी) हो (तथा) और [त्वम्] तुम (इदम्) इस (कृत्स्नम्) समस्त (जगत्त्रयम्) त्रिभुवन को (प्रकटीकरोषि) प्रकाशित करते हो ।।१६।।

भावार्थ – हे विश्वप्रकाशक! आप समस्त संसार को प्रकाशित करने वाले अनोखे दीपक हैं। क्योंकि अन्य दीपकों की वर्ति (बाती) से घुआ निकलता है, परन्तु आपका वर्ति (मार्ग) निर्धून (पापरहित) है। अन्य दीपक तैल की सहायता से प्रकाश करते हैं, परन्तु आप बिना किसी की सहायता से ही प्रकाश (ज्ञान) फैलाते हैं। अन्य दीपक जरा भी हवा के झोक से बुझ जाते हैं परन्तु आप प्रलयकाल की हवा से भी विकार को प्राप्त नहीं होते। तथा अन्य दीपक थोड़े से ही स्थान को प्रकाशित करते हैं, परन्तु आप समस्त लोक को प्रकाशित करते हैं ।।१६।।

Nnirdhumavartipavarjita taila purah kritsnam jagat trayamidam prakati karoshi. Gamyo na jatu marutam chalitachalanam dipoaparastvamasi natha ! jagatprakashah

You are O Master, an irradiating divine lamp that needs neither a wick nor oil, and is smokeless, yet enlightens three realms. Even the greatest of storm that does not effect it.

17. सर्व उदर पीडा नाशक

नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति।

नाम्भोधरोदर-निरुद्ध महा-प्रभावः, सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र लोके ।।१७।।

अन्वयार्थ – (मुनीन्द्र) हे मुनियों के इन्द्र [त्वम्] तुम (कदाचित्) कभी (अस्तम्) अस्त को (न उपयासि) प्राप्त नहीं होते (राहुगम्यः) राहू से प्राप्त (न) नहीं [असि] हो (अम्भोधरोदर-निरुद्धमहाप्रभावः) बादलों के बीच में छिप जाता है महान तेज जिसका ऐसे (न) नहीं [असि] हो [च] तथा (जगन्ति) तीनों लोकों को (युगपत्) एक साथ (सहसा) सहज ही (स्पष्टीकरोषि) प्रकाशित करते हो [इति] इस प्रकार [सूर्यातिशायिमहिमा] सूर्य से अधिक महिमावान [अस] हो ।।१७।।

भावार्थ – हे मुनिनाथ! आपकी महिमा सूर्य से भी अधिक है। क्योंकि सूर्य सन्ध्या समय अस्त हो जाता है, परन्तु आप सदा प्रकाशित रहते हैं। सूर्य को राहु ग्रस लेता है, परन्तु आज तक वह आपका स्पर्श तक नहीं कर सका। सूर्य दिन में क्रम क्रम से केवल एक द्वीप के अर्धभाग को ही प्रकाशित करता है परन्तु आप समस्त लोक को एक साथ प्रकाशित करते हैं। सूर्य के प्रकाश को मेघ ढक देते हैं, परन्तु आपके प्रकाश (ज्ञान) को कोई भी नहीं ढक सकता ।।१७।।

Nastam kadachidupayasi na rahugamyah spashtikaroshi sahasa yugapajjaganti. Nnambhodharodara niruddha maha prabhavah suryatishayimahimasi munindra! loke

O Great one ! Your glory is greater than that of the sun. The sun rises every day but sets as well. The sun suffers eclipse, is obstructed by the clouds, but you are no such sun. Your infinite virtues and passionlessness cannot be eclipsed. The sun slowly shines over different parts of the world, but the glory of your omniscience reaches every part of the world, all at once.

18. शत्रु सेना स्तम्भक

नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं, गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम्।

विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति, विद्योतयज्जगद-पूर्वशशाङ्कबिम्बम् ।।१८।।

अन्वयार्थ – (नित्योदयम्) सदा उदित रहने वाला (दलितमोहम-हान्धकारम्) मोहरूपी महान् अन्धकार का नाशक (राहुवदनस्य) राहू के मुख के (न गम्यम्) ग्रास के अयोग्य (वारिदानाम्) मेघों के (न गम्यम्) ढकने के अयोग्य (अनल्पकान्ति) अधिक कान्ति वाला [च] तथा (जगत्) संसार को (विद्योतयत्) प्रकाशित करने वाला (तव) तुम्हारा (मुखाब्जम्) मुखकमल (पूर्वशाङ्कबिम्बम्) विलक्षण चन्द्र के बिम्बरूप (विभ्राजते) शोभित होता है ।।१८।।

भावार्थ – हे चन्द्रवदन! आपका मुखकमल एक विलक्षण चन्द्रमा है। क्योंकि प्रसिद्ध चन्द्र तो रात्रि में ही उदित होता है, परन्तु आपका मुखचन्द्र सदा उदित रहता है। चन्द्रमा साधारण अन्धकार का ही नाश करता है, परन्तु आपका मुखचन्द्र मोहरूपी महान् अन्धकार को नष्ट कर देता है। चन्द्रमा को राहू ग्रस लेता है और बादल छिपा देते हैं, परन्तु आपके मुखचन्द्र को न राहु ग्रस सकता है और न बादल छिपा सकते हैं। चन्द्रकी कान्ति कृष्णपक्ष में घट जाती है, परन्तु आपके मुखचन्द्र की कान्ति सदा सदृश रहती है। तथा चन्द्रमा रात्रि में क्रम क्रम से केवल अर्धद्वीप को ही प्रकाशित करता है, परन्तु आपका मुखचन्द्र समस्त लोक को एक साथ प्रकाशित करता है ।।१८।।

Nityodayam dalitamoha mahandhakaram gamyam na rahuvadanasya na varidanam. Vibhrajate tava mukhabjamanalpakanti vidyotayajjagadapurvashashanka bimbam.

O Master! Your beautiful face transcends the moon. The moon shines only at night but your face is always beaming. The moon light dispels darkness only to a some level, your face dispels the delusion of ignorance and desire. The moon is eclipsed as well as obscured by clouds, but there is nothing that can shadow your face.

19. जादू-टोना-प्रभाव नाशक

कि शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा, युष्मन्मुखेन्दुदलितेषु तमःसु नाथ!

निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके, कार्य कियज्जलधरै जलभारनम्र: ॥१९॥

अन्वयार्थ – (नाथ) हे स्वामिन् (तमसु) अन्धकारों के (युष्मन्मुखेन्दुदलितेषु) आपके मुखचन्द्र से ही नष्ट हो जाने पर (शर्वरीषु) रात में (शशिना) चन्द्रमा से (वा) अथवा (अहिन) दिन में (विवस्वता) सूर्य से (किम्) क्या लाभ [अस्ति] है? [ यथा] जैसे (निष्पन्नशालिवनशालिनि) परिपक्वधान्य के खेतों से सुशोभित (जीवलोके) संसार में (जलभारनम्रः) जल के बोझ से झुके हुये (जलधरैः) मेघों से (कियत्) क्या (कार्यम्) प्रयोजन [अस्ति] है ॥१९॥

भावार्थ- हे त्रिलोकीनाथ! जिस प्रकार अनाज के पक जाने पर जल का बरसना व्यर्थ है; क्योंकि उस जल से कीचड़ होने के सिवाय और कोई लाभ नहीं होता, उसी प्रकार आपके मुखचन्द्र के द्वारा जहां अन्धकार नष्ट हो चुका है, वहां दिन में सूर्य से और रात्रि में चन्द्र से कोई लाभ नहीं ॥१९॥

Kim sharvarishu shashinanhi vivasvata va yushman mukhendu daliteshu tamassu natha! Nishpanna shalivana shalini jivaloke karyam kiyajjaladharairjalabhara namraih.

O God ! Your aura dispels the perpetual darkness. The sun beams during the day and the moon during the night, but your ever radiant face sweeps away the darkness of the universe. Once the crop is ripe what is the need of the cloud full of rain.

20. संतान-लक्ष्मी-सौभाग्य-विजय बुद्धी दायक

ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु।

तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं, नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ॥२०॥

अन्वयार्थ – (कृतावकाशम्) अनन्तपर्यायात्मक पदार्थों का प्रकाशक (ज्ञानम्) ज्ञान (यथा) जैसा (त्वयि) आपमें (विभाति) शोभायमान होता है (तथा) वैसा ज्ञान हरिहरादिषु) विष्णु और शङ्कर आदि (नायकेषु) देवों में (न विभाति) शोभायमान नहीं होता [यथा] जिस प्रकार (तेजः) प्रकाश (स्फुरन्मणिपु) स्फूरायमान मणियों में (यथा) जैसे (महत्त्वम्) गौरव को (याति) प्राप्त होता है (एवं तु) वैसा (किरणाकुले) चमकते हुये (अपि) भी (काचशकले) कांचके टुकड़े में (न) नहीं। ॥२०॥

भावार्थ – हे सर्वज्ञ ! निज और पर का प्रकाशक तथा निर्मल जैसा ज्ञान आप में सुशोभित होता है, वैसा ज्ञान ब्रह्मा, विष्णु, महेन आदि किसी अन्य देव में नहीं होता। क्योंकि तेज की शोभा महामणि में होती है; न कि कांचके टुकड़े में ॥२०॥

Jyanam yatha tvayi vibhati kritavakasham naivam tatha Hari Haradishu nayakeshu. Tejo sfuran manishu yati yatha mahattvam naivam tu kachashakale kiranakuleapi.

O Supreme God! The infinite and eternal knowledge that you have, is not possessed by any other deity in this world. Indeed,the splendour and shine of priceless jewels can not be seen in the glass pieces shining in the light.

21. सर्व-वशीकरण

मन्ये वरं हरिहरादय एवं दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति।

कि वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः, कश्चिन्मनो हरति नाथ! भवान्तरेऽपि ॥२१॥

अन्वयार्थ – (नाथ) हे स्वामिन् (मन्ये) मैं मानता हूं [यत्] कि (दृष्टाः) देखे गये (हरिहरादयः) विष्णु और महादेव आदि देव (एव) ही (वरम्) अच्छे हैं (येषु) जिनके (दृष्टेषु सत्सु) देखे जाने पर (हृदयम्) चित्त (त्वयि) आपमें (तोषम्) सन्तोष की (एति) पाता है, किन्तु (वीक्षितेन) देखे गये (भवता) आपसे (किम्) क्या लाभ [अस्ति] है (येन) जिससे (भुवि) पृथिवी पर (कश्चित्) कोई (अन्यः) दूसरा (देवः) देव (भवान्तरे) जन्म जन्मान्तरों में (अपि) भी (मनः) चित्त को (न हरति) सन्तोष नहीं कर सकता ॥२१॥

भावार्थ – हे लोकोत्तम! दूसरे देवों के देखने से तो आप में संतोष होता है यह लाभ है, परन्तु आपके देखने से अन्य किसी देव की ओर चित्त नहीं जाता यह हानि है। अथवा हरिहरादिक देवों का देखना अच्छा है, क्योंकि वे रागी द्वेषी हैं; उन के दर्शन से चित्त सन्तुष्ट नहीं होता तब आपके दर्शन को लालायित होता है, क्योंकि आप वीतराग हैं। आपके दर्शन से चित्त इतना सन्तुष्ट होता है कि मृत्यु के बाद वह किसी दूसरे देव का दर्शन नहीं करना चाहता! यहां व्याजोक्ति अलङ्कार है ॥२१॥

Manye varam Hari Haradaya eva drishta drishteshu yeshu hridayam tvayitoshameti. Kim vikshitena bhavata bhuviyena nanyah kashchinmano harati natha ! bhavantareapi.

O Ultimate Lord ! It is good that I have seen other deities before seeing you.The dissatisfaction even after seeing them has been removed by the glance of your detached and serene expression. That I have seen the supreme I can not be satisfied with anything less.

22. भूत-पिशाचादि व्यंतर बाधा निरोधक

स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रा –नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।

सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मिं, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् ॥२२॥

अन्वयार्थं – [स्त्रीणां शतानि] सैकड़ों स्त्रियां (शतशः) सैकड़ों (पुत्रान्) पुत्रों को (जनयन्ति) पैदा करती हैं, किन्तु (त्वदुपमम्) आप जैसे (सुतम्) पुत्र को (अन्या) दूसरी (जननी) माता (न प्रसूता) उत्पन्न नहीं कर सकी [यथा] जैसे (भानि) नक्षत्रों को (सर्वाः) समस्त (दिशः) दिशाएं (दधति) धारण करती हैं, परन्तु (स्फुरदंशुजालम्) देदीप्यमान किरणसमूह सहित (सहस्ररश्मिम्) सूर्य को (प्राची) पूर्व (दिक्) दिशा (एव) ही (जनयति) प्रगट करती है ॥२२॥

भावार्थ – हे महीतिलक! जिस प्रकार सूर्य को पूर्व दिशा ही उत्पन्न करती है; अन्य दिशाएं नहीं, उसी प्रकार एक आपकी माता ही ऐसी हैं जो आप जैसे पुत्ररत्न को पैदा कर सकीं, अन्य किसी माता को ऐसे पुत्ररत्न को पैदा करने का सौभाग्य उपलब्ध नहीं हुआ ॥२२॥

Strinam shatani shatasho janayanti putran nanya sutam tvadupamam janani prasuta. Sarva disho dadhati bhani sahasrarashmim prachyeva digjanayati sphuradamshujalam.

O the great one! Infinite stars and planets can be seen in all directions but the sun rises only in the East. Similarly numerous women give birth to sons but a remarkable son like you was born only to one mother; you are very special.

23. प्रेत बाधा निवारक

त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस-मादित्यवर्णममलं तमसः परस्तात्।

त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्युं, नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः ॥२३॥

अन्वयार्थ – (मुनीन्द्र) हे मुनिनाथ [मुनयः] ऋषिगण (त्वाम्) तुम्हें (आदित्यवर्णम्) सूर्य के सामान तेजस्वी (अमलम्) निर्मल [च] तथा (तमसः परस्तात्) मोहरूप अन्धकार से रहित (परमं पुमांसम्) परमपुरुष (आमनन्ति) मानते हैं (त्वाम्) तुम्हें (एव) ही (सम्यक्) भली प्रकार (उपलभ्य) प्राप्त कर (मृत्युम्) मृत्यु को (जयन्ति) जीतते हैं, तथा (शिवपदस्य) मोक्षपद का (अन्यः) आपसे भिन्न कोई दूसरा (शिव) हितकर (पन्थाः) रास्ता (न) नहीं [अस्ति] है ॥२३॥

भावार्थ- हे योगीन्द्र! मुनिजन आपको परमपुरुष, कर्ममलरहित होने से निर्मल, मोहान्धकार का नाशक होने से सूर्य के समान तेजस्वी, आपकी प्राप्ति से मृत्यु न होने के कारण मृत्युञ्जय तथा आपके अतिरिक्त कोई दूसरा निरुपद्रव मोक्ष का मार्ग नहीं होने से आपको ही मोक्षमार्ग मानते हैं ॥२३॥

Tvamamanati munayah paramam pumamsham adityavaranam amalam tamasah purastat. Tvameva samyagupalabhya jayanti mrityum nanya shivah shivapadasya munindra ! panthah.

O monk of monks ! All monks believe you to be the supreme being beyond the darkness, splendid as the sun. You are free from attachment and disinclination and beyond the gloom of ignorance. One obtains immortality by discerning, understanding, and following the path of purity you have shown. There is no path leading to salvation other than the one you have shown.

24. शिर-पीडा नाशक

त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसङख्यमाद्यं, ब्रह्माणमीश्वर-मनन्त-मनङ्गकेतुम्।

योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं, ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥२४॥

अन्वयार्थ – (सन्तः) विद्वज्जन (त्वाम्) तुम्हें (अव्ययम्) अक्षय (विभुम्) विभु (अचिन्तयम्) अचिन्त्य (असंख्यम्) असंख्य (आद्यम्) आदिपुरुष (ब्रह्माणम्) ब्रह्मा (ईश्वरम्) योगीश्वर (अनन्तम्) अनन्त (अनङ्गकेतुम्) अनङ्गकेतु (योगीश्वरम्) योगीश्वर (विदितयोगम्) विदितयोग (अनेकम्) अनेक (एकम्) एक (ज्ञानस्वरूपम्) ज्ञानस्वरूप [च] और (अमलम्) अमल (प्रवदन्ति) कहते हैं ॥२४॥

भावार्थ – हे गुणार्णव! आपकी आत्मा का कभी नाश नहीं होने से अव्यय अथवा (अविनाशी), ज्ञान के लोकत्रय व्यापी होने से अथवा कर्मनाश में समर्थ होने से स्वरूप से अचिन्त्य संख्यातीत या अद्भुत गुणयुक्त होने से असंख्य युगादिजन्मा या वर्तमान चौबीसी के प्रथम होने से आद्य (प्रथम), कर्मरहित या निवृत्तिरूप होने से ब्रह्मा, कृत्कृत्य होने से ईश्वर, अन्तरहित होने से अनन्त कामनाश के लिए केतुग्रह के उदय समान होने से अनङ्गकेतु, मुनियों के स्वामी होने से योगीश्वर, रत्नत्रयरूप के ज्ञाता होने से विदितयोग, गुणों और पर्यायों की अपेक्षा अनेक, तीर्थङ्करीय भेद की अपेक्षा एक, केवलज्ञानी होने से ज्ञानस्वरूप तथा कर्ममलरहित होने से अमल कहे जाते हैं। अर्थात् ऋषिगण पृथक गुणों की अपेक्षा आपको अव्यय आदि कहकर स्तुति पृथक् पृथक करते हैं ॥२४॥

Tvamavayam vibhumachintya masankhyamadyam Brahmanamishvaramanantamanangaketum. Yogishvaram viditayogamanekamekam jnanasvarupamanmalam pravadanti santah.

O God ! After having seen you in different perspectives, monks hail you as: Indestructible and all composite, All pervading, Unfathomable, Infinite in virtues, Progenitor (of philosophy), Perpetually blissful,Majestic, having shed all the karmas, eternal, Serene with respect to sensuality, Omniscient in form, and free from all vices.

25. नजर (दृष्टी दोष) नाशक

बुद्धस्त्वमेव विबुधाचितबुद्धबोधात्, त्वं शङ्करोऽसि भुवनत्रयशङ्करत्वात्।

धातासि धीर! शिवमार्गविधे विधानाद्, व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि ।।२५।।

अन्वयार्थ – (धीर) हे गम्भीर (विबुधाचितबुद्धिबोधात्) देवों द्वारा पूजितज्ञान वाले होने से (त्वम्) तुम (एव) ही (बुद्धः) वृद्ध (अति) हो (भुवनत्रयशङ्करत्वात्) लोकत्रय में सुख या शान्ति के कर्त्ता होने से (त्वम् एवं) तुम ही (शङ्करः) शंकर (असि) हो (शिवमार्गविधे:) मोक्षमार्ग की विधिके (विधानात्) विधान करने से (त्वम् एव) तुम ही (धाता) विधाता (अभि) हो [च] तथा (भगवन्) हे प्रभो (त्वम्) तुम (एव) ही (व्यक्तम्) स्पष्टरूप से (पुरुषोत्तमः) पुरुषोत्तम (असि) हो ।।२५।।

भावार्थ – हे देवाधिदेव? संसार में बुद्ध, शंकर और विष्णु नाम से प्रसिद्ध अन्य देव हैं, परन्तु वास्तव में वे नाम आप में ही घटित होते हैं, अन्य में नहीं। १ – बौद्धमत प्रर्वतक क्षणिकवादी अथवा केवलज्ञानरहित व्यक्ति बुद्ध नहीं हो सकता; सच्चे बुद्ध आप ही हैं, क्योंकि आपकी बुद्धि (केवलज्ञान) की देवों ने पूजा की है। २ – शैवों द्वारा पूजित; पृथिवी का संहारकर्त्ता कपाली शंकर नहीं हो सकता, क्योंकि शंकर शब्द का अर्थ ‘सुखकर्त्ता’ है, इसलिए वास्तविक, शंकर आप ही है। क्योंकि आप ही तीनों लोकों के सुख और शान्ति के कर्त्ता हैं। ३- तिलोत्तमा के विलासों से जिसका तप नष्ट हो गया था, वह ब्रह्मा वास्तविक विधाता नहीं है; किन्तु वास्तविक विधाता आप ही हैं, क्योंकि श्रापने ही मोक्षमार्ग की विधि का विधान किया है। ४ – और इसी प्रकार वैष्णवों का आराध्य परवनिता-विलासी विष्णु पुरुषोत्तम नहीं हो सकता किन्तु उपर्युक्त गुणों के कारण वास्तविक पुरुषोत्तम आप ही हैं ।।२५।।

Buddhastvameva vibudharchita buddhibodthat tvam Shankaroasi bhuvanatraya shankaratvat. Dhatasi dhira!shivamarga vidhervidhanat vyaktam tvameva Bhagavan!purushottamoasi.

O Supreme God ! The wise have hailed your omniscience, so you are the Buddha. You are the ultimate patron of all the beings, so you are Shankar. You are the developer of the codes of conduct( faith,Right knowledge and Right conduct)leading to Nirvana, so you are Brahma. You are manifest in thoughts of all the devotees, so you are Vishnu. Hence you are the Supreme God.

26. आधा शीशी (सिर दर्द) एवं प्रसूती पीडा नाशक

तुभ्यं नमस्त्रिभुवनातिहराय नाथ, तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय।

तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन! भवोदधिशोषणाय ॥२६॥

अन्वयार्थ – (जिन! नाथ!) हे जिनेश (त्रिभुवनाति-हराय) तीनों लोकों की पीड़ा हरने वाले (तुभ्यम्) आपके लिये (नमः) नमस्कार [अस्तु] हो (क्षितितलामलभूषणाय) भूतल के अनुपम अलङ्कररूप (तुभ्यम्) आपके लिये (नमोऽस्तु) नमस्कार हो (त्रिजगतः) तीनों लोकों के (परमेश्वराय) परमेश्वररूप (तुभ्यम् नमः अस्तु) आपके लिये नमस्कार हो [च] तथा (भवोदधिशोषणाय) संसारससुद्र के सुखाने वाले (तुभ्यम् नमः, अस्तु) आपके लिये नमस्कार हो ॥२६॥

भावार्थ- हे संसारशोषक! आप लोकत्रय की विपत्ति के नाशक, महीतल के निर्मल आभूषण, त्रिभुवन के स्वामी और संसार- सागर के शोषक हो इसलिये आपको नमस्कार हो ॥२६॥

Tubhyam namastribhuvanartiharaya natha Tubhyam namah kshititalamala bhushanaya. Tubhyam namastrijagatah parameshvaraya Tubhyam namo jina! bhavodadhi shoshanaya.

O Salvager from all the miseries ! I bow to thee. O Master of this world ! I bow to you. O Lord supreme of the three worlds ! I bow to you. O eradicator of the unending cycle of rebirths ! I bow to you.

27. शत्रुकृत-हानी निरोधक

को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैर शेषै- स्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश!

दोषैरूपात्तविविधाश्रयजातगर्वैः, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥२७॥

अन्वयार्थ – (मुनीश) हे ऋषिवर (यदि नाम) यदि (अशेषै:) समस्त (गुणैः) गुणों के द्वारा (त्वम्) तुम (निरवकाशतया) सघनता से (संश्रितः) प्राश्रित किये गये [च] तथा (उपात्तविविधाश्रयजात- गर्वः) प्राप्त अनेक देवादिकों के आश्रय से गर्वित (दोषै:) दोषोंके द्वारा (स्वप्नान्तरे) स्वप्न में (अपि) भी (कदाचित्) कभी (अपि) भी (न ईक्षितः असि) नहीं देखे गये हो (अत्र) इस विषय में (क:) क्या (विस्मयः) आश्चर्य [विद्यते] है ॥२७॥

भावार्थ – हे गुणनिधान! संसार के समस्त गुणों ने आप में सहसा इस तरह निवास कर लिया है कि कुछ भी स्थान शेष नहीं रहा और दोषों ने यह सोचकर अभिमान से आपकी ओर देखा भी नहीं; कि जब संसार के बहुत से देवों ने हमें अपना आश्रय दे रखा है, तब हमें एक जिनदेव की क्या परवाह है, यदि उनमें हमें स्थान नहीं मिला तो न सही। सारांश यह है कि आप में केवल गुणों का ही निधान है, दोषों का नाम निशान भी नहीं ॥२७॥

Ko vismayoatra yadi nama gunairasheshaih tvam samshrito niravakashataya munisha. Doshairupatta vividhashraya jatagarvaih svapnantareapi na kadachidapikshitosi.

O Supreme ! It is not surprising that all the virtues have been packed into you, leaving no place for vices. The vices have appeared in other beings. Elated by the false pride, they drift away and do not draw closer to you even in their dream.

28. सर्व कार्य सिद्धि दायक

उच्चैरशोक-तरु-संश्रितमुन्मयूख-माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्।

स्पष्टोल्लसत्किरणमस्ततमोवितानं, बिम्बं रवेरिव पयोधरपार्श्ववर्ती ।।२८।।

अन्वयार्थ – (उच्चरशोकतरुसंश्रितम्) ऊँचे अशोकवृक्ष के नीचे- स्थित (उन्मयूखम्) ऊपर की ओर फैल रही हैं किरणें जिसकी ऐसा [च] तथा (नितान्तम्) अत्यन्त (अमलम्) निर्मल (भवतः) आपका (रूपम्) रूप (रवेः) सूर्य के (स्पष्टोल्लसत्किरणम्) व्यक्तरूप ऊपर को फैली हैं किरणें जिसकी ऐसे (अस्ततमोवितानम्) अन्धकारसमुह के नाशक [च] और (पयोधरपार्श्ववर्ती) मेघ के पास रहने वाले (बिम्बम् इव) बिम्ब की तरह (प्राभाति) शोभित होता है ।।२८।।

भावार्थ – हे अतिशयरूप! ऊँचे और हरे “अशोकवृक्ष” के नीचे आपका स्वर्णमय उज्ज्वलरूप ऐसा मालूम होता है जैसा काले काले मेघ के नीचे पीतवर्ण सूर्य का मण्डल। यह अशोकवृक्ष प्रातिहार्य का वर्णन है ।।२८।।

Uchchairashokatarusamshrita munmayukham abhati rupamamalam bhavato nitantam. Spashtollasat kiranamasta tamo vitanam bimbam raveriva payodhara parshvavarti.

O Jina ! Sitting under the Ashoka tree, the aura of your sparkling body gleaming, you look as divinely splendid as the halo of the sun in dense clouds, penetrating the darkness with its rays.

29. नेत्र पीडा व बिच्छू विष-नाशक

सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे, विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम्।

बिम्बं वियद्विलसदंशुलतावितानं, तुङ्गोदया द्विशिरसीव सहस्त्ररश्मेः ॥२९॥

अन्वयार्थ – (मणिमयूखशिखाविचित्रे) रत्नों की किरण-पंक्ति से चित्र विचित्र (सिंहासने) सिंहासन पर (तव) आपका (कनकावदातम्) सुवर्ण के समान उज्ज्वल (वपुः) शरीर (तुङ्गोदयाद्विशिरसि) ऊंचे उदयाचल के शिखर पर (सहस्ररश्मे) सूर्य के (वियद्विलसदंशुलतावितानम्) प्राकाश में शोभित है किरणरूपी लताओं का चन्दोबा जिसका ऐसे (बिम्बम् इव) मण्डलकी तरह (विभ्राजते) शोभायमान होता है ॥२९॥

भावार्थ – हे सिंहासनाघिते! उदयाचल पर्वत के शिखर पर सूर्य का बिम्ब जैसी शोभा देता है, उसी प्रकार “रत्नजटित सिहासन” पर आपका मनोहर शरीर शोभायमान होता है। (यह सिंहासन प्रातिहार्य का वर्णन है ) ॥२९॥

Simhasane mani mayukha shikha vichitre vibhrajate tava vapuh kanakavadatam. Bimbam viyadvilasadamshulata vitanam tungodayadri shirasiva sahasrarashmeh.

O Jina ! Seated on the throne with kaleidoscopic hue of gems, your splendid golden body looks magnificent and attractive like the rising sun on the peak of the eastern mountain, emitting golden rays under blue sky.

30. शत्रु स्तम्भ्क

कुन्दावदातचलचामरचारुशोभं, विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम्।

उद्यच्छशाङ्शुचिनिर्भरवारिधार-मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ।।३०।।

अन्वयार्थ – (तव) आपका (कुन्दावदातचलचामरचारुशोभम्) कुन्द के फूल के समान उज्ज्वल और ढुरते हुये चँवरों से सुन्दर है शोभा जिसकी ऐसा [च] तथा (कलधौतकान्तम्) सुवर्णसमान सुन्दर (वपुः) शरीर (सुरगिरेः) सुमेरु पूर्वत के (उद्यच्छशाङ्कशुचिनिर्झर- वारिवाम्) उदयरूप चन्द्रमा के समान निर्मल झिरने के जल की धारा बह रही है जिसने ऐसे (शातकौम्भम्) सुवर्णनिर्मित (उच्चैस्तटम् इव) ऊंचे तट के समान (विभ्राजते) शोभायमान होता है ।।३०।।

भावार्थ – हे चामराधिपते! जिस पर देवों द्वारा सफेद चंवर ढोरे जा रहे हैं ऐसा आपका सुवर्णमय शरीर ऐसा सुहावना मालूम होता है, जैसा झरने के सफेद जल से शोभित सुमेरुपर्वत का तट। यह (चामरप्रातिहार्य) का वर्णन है ।।३०।।

Kundavadata chalachamara charushobhama vibharajate tava vapuh kaladhautakantam. udyachchashanaka shuchi nirjhara varidharam uchchaistaam suragireriva shatakaumbham.

O Tirthankara ! The snow white fans of loose fibres (giant whisks) swinging on both sides of your golden body appear like streams of water,pure and glittering as the rising moon,flowing down the sides of the peakof the golden mountain,Sumeru.

31. राज्य सम्मान दायक व चर्म रोग नाशक

छत्रत्रयं तव विभाति शशाङ्ककान्त-मुच्चैः स्थितं स्थगितभानुकरप्रतापम्।

मुक्ताफलप्रकरजाल-विवृद्धशोभं, प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३१॥

अन्वयार्थ – (तव) आपका (शशाङ्ककान्तम्) चन्द्रमा के समान रमणीय (स्थगितभानुकरप्रतापम्) सूर्य की किरणों के सन्ताप को रोकने वाला (मुक्ताफलप्रकरजालविवृद्धशोभम्) मोतियों के समूह के जड़ाव से बढ़ी हुई है शोभा जिसकी ऐसे [च] तथा (उच्चैः स्थितम्) आपके शिर पर सुशोभित (छत्रत्रयम्) तीन छत्र [भवति] आप में (त्रिज-गतः) तीनों जगत के (परमेश्वरत्वम्) स्वामित्व को (प्रख्यापयत्) सूचित करता हुआ (विभाति) शोभायमान होता है ।।३१।।

भावार्थ – हे छत्रत्रयाधिपते! आपके शिर पर सुशोभित, चन्द्र के समान रमणीय, सूर्य की किरणों के संताप का रोधक और रत्नोंके जड़ाव से सुशोभित “छत्रत्रय” आपके तीनों लोकों के स्वामीपन को प्रगट करता है। यह छत्रत्रय प्रातिहार्य है। ।।३१।।

Chhatratrayam tava vibhati shashanka kantam uchchaih sthitam sthagita bhanukara pratapam. Muktaphala prakarajala vivraddhashobham prakhyapayat trijagatah parameshvaratvam

O The Greatest One ! A three tier canopy adorns the space over your head. It has the soft white radiance of the moon and is decorated with jewels. This canopy has filtered the scorching sun rays. Indeed, this canopy symbolizes your dominance over the three worlds.

32. संग्रहणी आदि उदर पीडा नाशक

गम्भीरताररव-पूरितदिग्विभाग-स्त्रैलोक्यलोकशुभसङ्गमभूतिदक्षः।

सद्धर्मराजजयघोषणघोषकःसन्, खे दुन्दुभि ध्वनति ते यशसः प्रवादी ||३२||

अन्वयार्थ – (ते) आपका (गम्भीताररवपूरितदिग्विभागः) गम्भीर और उच्च शब्द (आवाज) से दशों दिशाओं को पूरित करने वाला (त्रैलोक्यलोकशुभसङ्गमभूतिदक्षः) तीनों लोकों के प्राणियों को शुभ समागम की विभूति देने में दक्ष [च] तथा (सद्धर्मराजजयशेषणघोषकः) जैनधर्म के समीचीन स्वामी तीर्थङ्कर- देवका जयघोष करने वाला (दुन्दुभिः) दुन्दुभि बाजा (ते) आपके (यशस:) यश का (प्रवादी सन्) कथन करता हुआ (खे) आकाश में (ध्वनति) शब्द करता है ||३२||

भावार्थ – हे दुन्दुभिपते! अपने गम्भीर और उच्चशब्द से दिशाओं का व्यापक, त्रैलोक्य के प्राणियों को शुभसमागम की विभूति प्राप्त करने वाला “दुम्बुभि” बाजा आपका सुयश प्रगट कर रहा है। यह दुन्दुभि प्रातिहार्य का वर्णन है ॥३२॥

Gambhira tara rava purita digvibhagah trailokya loka shubha sangama bhuti dakshah. Saddharmaraja jaya ghoshana ghoshakah san khe dundubhirdhvanati te yashasah pravadi.

The vibrant drum beats fill the space in all directions as if awarding your serene presence and calling all the beings of the universe to join the devout path shown by you. All space is resonating with this proclamation of the victory of the true religion.

33. सर्व ज्वर नाशक

मन्दारसुन्दरनमेरुसुपारिजात-सन्तानकादिकुसुमोत्कर-वृष्टिरुद्धा,

गन्धोदबिन्दुशुभमन्दमरुत्प्रपाता, दिव्या दिवः पतति ते वचसां ततिः र्वा ||३३||

अन्वयार्थ – (गन्धोदबिन्दुशुभमन्दमत्प्रपाता) सुगंधित जल की बूंदों और मन्द मन्द वायुके साथ गिरने वाली (उद्धा) ऊर्ध्वमुखी [च] और (दिव्या) देवकृत (मन्दारसुन्दरनमेरुसुपारिजातसन्तानकादिकुसुमोत्करवृष्टिः) मन्दार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात और सन्तानक प्रादि कल्पवृक्षों के फूलों की वर्षा (ते) आपके (वचसाम्) वचनों की (ततिः इव) पक्ति के समान (दिवः) आकाश से (पतति) गिरती है ॥३३॥

भावार्थ – हे कुसुमवर्षाधिपते! आकाश से कल्पवृक्षों के फूलों की सुगन्धित जल और मन्द मन्द हवा के साथ जो ऊर्ध्वमुखी और देवकृत वर्षा होती है वह आपकी मनोहर वचनावली के समान शोभायमान होती है यह पुष्पवृष्टिप्रातिहार्य का वर्णन है ॥३३॥

Mandara sundara nameru suparijata santanakadi kusumaotkra vrushti ruddha. Gandhoda bindu shubha manda marutprapata divya divah patati te vachasam tatriva

O Jina ! The divine sprinkle of the Mandar Parbat, Sundar,Nameru,Parijata drift towards you with the mild breeze. This alluring scene presents impression as if the devout words spoken by you have changed into flowers and are drifting toward the earthlings.

34. गर्व रक्षक

शुम्भत्प्रभावलयभूरिविभा विभो! ते, लोकत्रय तिमतां द्यु तिमाक्षिपन्ती।

प्रोद्यद्दिवाकर-निरन्तर भूरि-संख्या, दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम् ||३४||

अन्वयार्थ – (हे विभो) हे प्रभो (ते) तुम्हारी (प्रोद्यद्दिवाकरनिरन्तरभूरिसंख्या) उदित, सघन और सूर्यतुल्य (शुम्भत्प्रभावलयभूरिविभा) शोभायमान भामण्डल की विशेष प्रभा (लोकत्रयद्युतिमताम्) तीनों लोकों के कान्तिमान् पदार्थों की (द्युतिम्) कान्ति को (आक्षिपन्ती) तिरस्कृत करती हुई [व] तथा (सोमसौम्या) चन्द्रसदृश सुन्दर होती हुई (अपि) भी (दीप्त्या) कान्ति के द्वारा (निशाम्) रात्रि को (अपि) भी (जयति) जीतती है ||३४||

भावार्थ- हे भामण्डलाधिपते! आपके भामण्डल की प्रभा यद्यपि कोटिसूर्य के समान तेजोयुक्त है तथापि सन्ताप करने वाली नहीं है। चन्द्र के समान सुन्दर होते पर भी कान्ति से रात्रि को जीतती है। अर्थात रात्रि का प्रभाव करती है। यह ‘भामण्डलप्रातिहार्य’ का वर्णन है ||३४||

Shumbhat prava valaya bhuri vibha vibhoste lokatraya dyutimatam dyutimakshipanti. Prodyad divakara nirantara bhuri samkhya diptya jayatyapi nishamapi somasaumyam.

O Lord ! The resplendent orb around you is more magnificent than any other luminous object in the universe. It quells the darkness of the night and is brighter than many suns put together; yet it is as cool and serene as the bright full moon.

35. दुर्भिक्ष चोरी मिरगी आदी निवारक

स्वर्गापवर्गगममार्गविमार्गणेष्टः, सद्धर्मतत्त्वकथनैकपटुस्त्रिलोक्याः।

दिव्यध्वनि र्भवति ते विशदार्थसर्व-भाषास्वभावपरिणामगुणैः प्रयोज्यः ॥३५॥

अन्वयार्थ – (ते) आपकी (दिव्यध्वनिः) दिव्यध्वनि (स्वर्गापवर्गगममार्गविमार्गणेष्टः) स्वर्ग और मोक्ष जाने के मार्ग को खोजने के लिये इष्ट (त्रिलोक्याः) तीन लोक के प्राणियों के (सद्धर्मतत्त्वकथनेकपटुः) समीचीन धर्मतत्त्व के कहने में एकमात्र चतुर [वा] तथा (विशदार्थभाषास्वभावपरिणामगुणैः) स्पष्ट अर्थ वाले और सम्पूर्ण भाषाओं में परिवर्तित होने वाले स्वाभाविक गुणों से (प्रयोज्यः) प्रयुक्त उच्चरित (भवति) होती है ।।३५।।

भावार्थ- हे दिव्यध्वनिपते! आपकी दिव्यध्वनि स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग बतलाती है, सब जीवोंको धर्मतत्त्व (हित) का उपदेश देती हैं और समस्त श्रोताओं की भाषाओं में बदल जाती है। अर्थात् जो प्राणी जिस भाषा का जानकार होता है, आपकी दिव्यध्वनि उसके कान के पास पहुंचकर उसी भाषारूप हो जाती है। (यह दिव्यध्वनि प्रातिहार्य का वर्णन है) ॥३५॥

Svargapavarga gama marga virmarganeshtah saddharmatatva kathanaika patustrilokyah. Divyadhvanirbhvati te vishadartha sarva bhasha svabhava parinama gunaih prayojyah.

Your divine voice is a guide that illuminates the path leading to heaven and liberation; it is fully capable of expounding the essentials of true religion for the benefit of all the beings of the three worlds; it is endowed with miraculous attribute that makes it comprehensible and understood by every listener in his own language.

36. संपत्ती-दायक

उन्निद्रहेमनवपङ्कज-पुञ्ज-कान्ती, पर्युल्लसन्नख-मयूखशिखाभि - रामौ।

पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र! धत्तः, पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥३६॥

अन्वयार्थ – (जिनेन्द्र) हे जिनेश (तव) आपके (उन्निद्रहेम-लवपङ्कजपुब्जकान्ती) फूले हुये सुवर्णवर्ण नवीन कमलसमूह के समान कान्ति धारण करने वाले [च] तथा (पर्युल्लसन्नखमयूखशिखाभिरामौ) सब ओर से शोभायमान नखों की किरणों के प्रकाश से सुन्दर (पादौ) चरण (यत्र) जहाँ पर (पदानि) कदम या डग (धत्तः) रखते हैं (तत्र) वहाँ (विबुधाः) देव (पद्मानि) कमलों को (परिकल्पयन्ति) रचते हैं ।।३६।।

भावार्थ – हे पूज्यपाद! धर्मोपदेश देने के लिए जब आप आर्यखण्ड में विहार करते हैं, तब देवगण आपके चरणों के नीचे-कमलों की रचना करते हैं ।।३६।।

Unnidra hema nava pankaja punjakanti paryullasannakha mayukha shikhabhiramau. Padau padani tava yatra Jinendra dhattah padmani tatra vibudhah parikalpayanti.

O Tirthankara ! Your feet are radiant like fresh golden lotuses. Their nails have an attractive glow. Wherever you put your feet the lords create golden lotuses.

37. दुर्जन वशीकरण

इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र!, धर्मोपदेशनविधौ न यथा परस्य।

याहक्प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा, तादृक्कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ।।३७।।

अन्वयार्थ – (जिनेन्द्र) हे जिनेश (धर्मोपदेशनविधी) धर्मापदेश देते समय (इत्थम्) पूर्वोक्त प्रकार (तव) आपकी (विभूतिः) समृद्धि (यथा) जैसी (अभूत्) हुई थी (तथा) वैसी विभूति (परस्य) अन्य की (न अभूत्) नहीं हुई [यतः] क्योंकि (प्रहृतान्धकारा) अन्धकारनाशक (यादृक्) जैसी (प्रभा) कान्ति (दिनकृतः) सूर्य की [भवति] होती है (तादृक्) वैसी कान्ति (विकाशिनः) प्रकाशमान (अपि) भी (ग्रहगणस्य) तारागण के (कुतः) कहाँ [भवेत्] हो सकती है? ।।३७।।

भावार्थ – हे समवसरणाधिपते! धर्मोपदेश के समय समवसरणादिक जैसी विभूति आपको प्राप्त हुई, वैसी विभूति अन्य किसी देव को प्राप्त नहीं हुई। ठीक ही है कि जैसी कान्ति सूर्य की होती है वैसी कान्ति शुक्र आदि अन्य ग्रहों को प्राप्त हो सकती है क्या? अर्थात् नहीं ॥३७॥

Ittham yatha tava vibhutirabhujjinendra ! dharmopdeshanavidhau na tatha parasya. Yadrik prabha dinakritah prahatandhakara tadrik kuto grahaganasya vikashinoapi

O great one ! The height of grandiloquence, clarity and erudition evident in your words is not seen anywhere else. Indeed,the darkness dispelling glare of the sun can never be seen in the stars and planets.

38. हाथी वशीकरण

श्चोतन्मदाविलविलोलकपोलमूल- मत्तभ्रमद्भ्रमरनादविवृद्ध कोपम्।

ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं, दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥३८॥

अन्वयार्थ – (श्चोतन्मदाविलविलोकपोलमूलमत्त भ्रमद्भ्रमरनादविवृद्धकोपम्) झरते हुए मदजल से मलिन और चंचल गालों के मूलभागमें पागल हो घूमते हुये भौंरों के शब्द से बढ़ रहा है क्रोध जिसका ऐसे (ऐरावताभम्) ऐरावत हाथी के समान प्राकार वाले (उद्धतम्) अवश [च] तथा (आपतन्तम्) सामने आते हुये (इभम्) हाथी को (दृष्ट्वा) देखकर (भवदाश्रितानाम्) आपके आश्रितों के (भयम्) भय (नो भवति) नहीं होता ।।३८।।

भावार्थ – हे अभयप्रद! जो प्राणी आपकी शरण लेते हैं; वे मदोन्मत्त, उच्छृङ्खल, आक्रमणकारी और अवश हाथी को देखकर भी भयभीत नहीं होते ।।३८।।

Schyotanmadavilavilolakapolamula mattabhramad bhramara nada vivriddhakopam. Airavatabhamibhamuddhatam apatantam dristva bhayam bhavati no bhavadashritanam.

O Tirthanakara! The devotees who have surrendered to you are not scared even of a wild elephant being incessantly annoyed by humming bees. They are always and everywhere fearless as the silence of their deep meditation placates even the most brutal of the beings.

39. सिंह भय निवारक

भिन्नेभकुम्भगलदुज्ज्वलशोणिताक्त, मुक्ताफलप्रकर भूषितभूमिभागः।

बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि, नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥३९॥

अन्वयार्थ – (भिन्नेभकुम्भगलदुज्ज्वलशोणिताक्तमुक्ताफलप्रकरभूषित भूमिभागः) विदारे हुये हाथी के गण्डस्थल से गिरते हुये उज्ज्वल तथा रक्त से भींगे हुये मोतियों के समूह से भूतल को भूषित करने वाला [च] तथा (बद्धक्रमः) आक्रमण के हेतु सन्नद्ध (हरिणाधिपः) सिंह (अपि) भी (क्रमगतम्) पंजे में आये हुये (ते) आपके (क्रमयुगाचलसंश्रितम्) चरणकमलरूप पर्वत के आश्रित मनुष्य पर (न आक्रामति) आक्रमण नहीं करता ।।३९।।

भावार्थ – हे प्रतापिन्! आपके चरणों का आश्रय लेने वाले भक्तजनों पर भयानक सिंह भी आक्रमण नहीं कर सकता ||३९||

Bhinnebha – kumbha – galadujjavala – shonitakta, muktaphala prakara – bhushita bhumibhagah baddhakramah kramagatam harinadhipoapi, nakramati kramayugachalasanshritam te

A lion who has torn apart elephant’s head with blood flowing under, scattering blood stained pearls on the ground, ready to pounce with growling sound, If your devotee falls in his grasp, and has firm faith in you, even the lion will not touch the devotee.

40. अग्नी भय निवारक

कल्पान्तकालपवनोद्धतवह्निकल्पं, दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिङ्गम्।

विश्वं जिघत्सुमिव संमुखमापतन्तं, त्वन्नाम कीर्तनजलं शमयत्यशेषम् ॥४०॥

अन्वयार्थ – (त्वन्नामकीर्तनजलम्) आपके नाम का कीर्तनरूपी जल (कल्पान्तकालपवनोद्धतवन्हिकल्पम्) प्रलयकाल की पवन से प्रचण्ड अग्नि के सदृश (उत्स्फुलिङ्गम्) निकल रहे हैं तिलगे जिसमें ऐसी (ज्वलितम्) धधकती हुई (उज्ज्वलम्) उज्ज्वल [च] तथा (अशेषम्) सम्पूर्ण (विश्वम्) लोक को (जित्धसुम् इव) भक्षण करने के इच्छुक के समान (सम्मुखम्) सामने (आपतन्तम्) श्राती हुई (दावानलम्) दावाग्नि को (अशेषम्) सम्पूर्णरूप से (शमयति) शान्त करता है ॥४०॥

भावार्थ – हे लोकपालक! आपके गुणगान से भयङ्कर तथा वेग से बढ़ता हुआ दावानल भी भक्तजनों का कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकता ॥४०॥

Kalpantakala – pavanoddhata – vahnikalpam, davanalam jvalitamujjavalamutsphulingam vishvam jighatsumiva sammukhamapatantam, tvannamakirtanajalam shamayatyashesham

O Lord! Even the all forest inferno, as if kindled by the judgement day storm and having resplendent sparking flames,is extinguished in no time by the satiate stream of your name. (Your devotee is not afraid of fire.)

41. सर्प विष निवारक

रक्तेक्षणं समदकोकिलकण्ठनीलं, ऋाधोद्धतं फणिनमुत्कणमापन्तम्।

आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशङ्क-स्त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुंसः ॥४१॥

अन्वयार्थ – (यस्य) जिस ( पुंसः) मनुष्य के (हृदि) चित्त में (त्वन्नामनागदमनी) आपके नामरूपी नागदमनी-नागदौन जड़ी [अस्ति] है [सः] वह मनुष्य (रक्तेक्षणम्) लालनेत्र वाले (समदकोकिलकण्ठनीलम्) मदोन्मत्त कोयल के कण्ठ की तरह काले (क्रोधोद्धतम्) क्रोध से उद्धत [च] और (उत्फणम्) ऊपर को फण उठाये (आपतन्तम्) डसने के लिए झपटते हुए (फणिम्) सांप को (निरस्तङ्कः सन्) निर्भय होता हुआ (क्रमयुगेन) अपने पैरों से (आक्रामति) लांघता है ॥४१॥

भावार्थ – हे भगवन् आपके पुनीत नाम के स्मरण से भक्तजनों को कुपित, काले, फण उठाये और झपटते हुये सर्प का भी भय नहीं होता ॥४१॥

Raktekshanam samadakokila – kanthanilam, krodhoddhatam phaninamutphanamapatantam akramati kramayugena nirastashankas tvannama nagadamani hridi yasya punsah

O Greatest of the greatest! A devotee who has absorbed the antibody of your devout name crosses fearlessly over an extremely venomous snake that has red eyes, black body, unpleasant appearance and raised hood. (Your devotee are not frightened of snakes.)

42. युद्ध भय निवारक

वलगत्तुरङ्गगजगजितभीमनाद-माजौ बलं बलवतामपि भूपतीनाम्।

प्रोद्यद्दिवाकरमयूखशिखापविद्ध, त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति ।।४२।।

अन्वयार्थ- (आजौ) संग्राम में (बलवताम्) पराक्रमी (भूपतीनाम्) राजाओं का (बल्गत्तुरङ्गगजगजितभीमनादम्) उछलते हुये घोड़ों और हाथियों की गर्जना से भयानक शब्दयुक्त (बलम्) सैन्य (अपि) भी (त्वत्कीर्तनात्) आपके नाम के कीर्तन से (प्रोद्यद्दिवाकरमयूखशिखापविद्धम्) उगते हुये सूर्य की किरणों के अग्रभाग से भेदित (तमः इव) अन्धकार के समान (प्राशु) शीघ्र ही (भिदाम्) विनाश को (उपैति) प्राप्त होता है ॥४२॥

भावार्थ – हे पूतात्मन्! जैसे सूर्य की किरणों से अन्धकार का नाश हो जाता हैं, उसी प्रकार आपके यशोगान से प्रतापी राजाओं का सैन्य भी युद्धाङ्गण से भाग जाता है ॥४२॥

Valgatturanga gajagarjita – bhimanada-majau balam balavatamapi bhupatinam ! udyaddivakara mayukha – shikhapaviddham,tvat -kirtanat tama ivashu bhidamupaiti

O Victor of all vices ! As darkness withdraws with the rising of the sun, the armies of daunting kings, creating thunderous uproar of neighing horses and trumpeting elephants, recede when your name is chanted. (Your devotee not frightened of enemies.)

43. युद्ध में रक्षक और विजय दायक

कुन्ताप्रभिन्नगजशोणितवारिवाह- बेगावतारतरणातुरयोभीमे।

युद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षा-स्त्वत्पादपङ्कजवनाश्रयिणो लभन्ते ॥४३॥

अन्वयार्थ – (कुन्ताग्रभिन्नगजशोणितवारिवाहबेगावतारतरणातुरयोभीमे) बरछी की नोक से विदारे गये हाथियों के रक्तरूपी जलवाह को वेगसे उतरने और तैरने में व्यग्र योद्धाओं से भयानक (युद्धे) युद्ध में (स्वत्पादपङ्कजवनाश्रयिणः) (विजितदुर्जयजेयपक्षाः) शत्रुपक्ष के दुर्जय सैनिकों को जीतते हुए (जयम) विजय को (लभन्ते) पाते हैं ॥४३॥

भावार्थ – हे प्रभो! भयङ्कर से भयङ्कर युद्ध में भी जो आपका पुनीत स्मरण करता है, वह नियम से विजय पाता है ॥४३॥

Kuntagrabhinnagaja – shonitavarivahavegavatara – taranaturayodha – bhime yuddhe jayam vijitadurjayajeyapakshas -tvatpada pankajavanashrayino labhante

O conqueror of passion ! In the battlefield, where bravest of all warriors are eager to trudge over the streams of blood coming out of the bodies of elephants pierced by sharp weapons, the devotee having sought protection in your resplendent feet embraces victory. (Your devotee is always victorious at the end.)

44. भयानक-जल-विपत्ती नाशक

अम्भौनिधौ क्षुभितभीषणनक्रचक्र-पाठीनपीठभयदोल्वणवाडवाग्नौ ।

रङ्गतरङ्गशिखरस्थितयानपात्रा-स्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् ब्रजन्ति ॥४४॥

अन्वयार्थ – (क्षुभितभीषणनऋचक्रपाठीनपीठभयदोल्वणवाडवाग्नी) क्षोभ को प्राप्त भयङ्कर मकरसमूह, मत्स्य और पीठों से भयङ्कर और विकराल बडवानल सहित (अम्भोनिधी) समुद्र में (रङ्गत्तरङ्गशिखरस्थितयानपात्राः) चञ्चलतरङ्गों के शिखर पर जिनके जहाज स्थित हैं ऐसे मनुष्य (भवतः) आपके (स्मरणात्) स्मरण से (त्रासम्) भय को (विहाय) छोड़कर (ब्रजन्ति) यात्रा करते हैं । ।।४४।।

भावार्थ – विशाल समुद्र में यात्रा करते समय बड़वानल का तूफान आने पर जो मानव सत्यश्रद्धा से आपका स्मरण करते हैं वे निरापद यात्रा करते हैं ॥४४॥

Ambhaunidhau kshubhitabhishananakrachakra-pathina pithabhayadolbanavadavagnau rangattaranga – shikharasthita – yanapatras -trasam vihaya bhavatahsmaranad vrajanti

O Jina ! A vessel caught in giant waves and surrounded by alligators, giant oceanic creatures, and dangerous fire, the devotee by chanting your name surmount such terrors and crosses the ocean. (Your devotees are not afraid of water.)

45. सर्व भयानक रोग नाशक

उद्भूतभीषणजलोदर भारभुग्नाः, शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशाः।

त्वत्पादपङ्कजरजोऽमृतदिग्धदेहा, मर्त्या भवन्ति मकरध्वजसुल्यरूपाः ॥४५॥

अन्वयार्थ – (उद्भूतभीषणजलोदरभारभुग्नाः) उत्पन्न हुये भयङ्कर जलोदर रोग के भार से झुके हुये (शोच्याम्) शोचनीय (दशाम्) अवस्था को (उपगताः) प्राप्त [च] और (च्युतजीविताशा) जीवन की आधारहित (मर्त्याः) मनुष्य (त्वत्पादपङ्कजरजोमृतदिग्धदेहाः) आपके चरणकमलों की धूलिरूप अमृत मे लिप्तशरीर [सन्तः] होते हुये (मकरध्वज तुल्यरूपाः) कामदेव के समानरूप वाले (भवन्ति) हो जाते हैं ॥४५॥

भावार्थ – हे पूज्यपाद! जैसे अमृत के लेप से मनुष्य निरोग और सुन्दर हो जाता है, उसी प्रकार आपके चरणकमल के रजरूपी अमृत के लेप (चरणों की सेवा) से भीषण जलोदर आदि रोगों से पीड़ित मनुष्य भी कामदेव के समान सुन्दर हो जाते हैं ॥४५॥

Udbhutabhishanajalodara – bharabhugnah shochyam dashamupagatashchyutajivitashah tvatpadapankaja-rajoamritadigdhadeha, martya bhavanti makaradhvajatulyarupah

O the all knowledgeable one ! An extremely sick person, deformed due to dropsy and maladies incurable, having lost all hopes of recovery and survival, when he rubs the nectar-like dust taken from your feet, fully recovers and takes form like cupid sweet.

46. कारागार आदि बन्धन विनाशक

आपादकण्ठमुरुशृंखलवेष्टिताङ्गाः गाढं बृहन्निगडकोटिनिघृष्टजङ्घाः ।

त्वन्नाममन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः, सद्यः स्वयं विगतवन्धभया भवन्तिः ॥४६॥

अन्वयार्थ – (अनिशम्) निरन्तर (आपादकण्ठम्) पैर से लेकर कण्ठपर्यन्त (उरुशृङ्खलवेष्टिताङ्गाः) बड़ी बड़ी सांकलों से जकड़े हैं शरीर जिनके ऐसे [च] और (गाढं यथा स्यात्तथा) अत्यन्तरूप से (बृहन्निगङकोटिनिघृष्टजङ्घाः) बड़ी बड़ी बेड़ियों के किनारों से घिस गई हैं जायें जिनकी ऐसे (मनुजाः) मनुष्य (त्वन्नाममन्त्रम्) आपके नामरूपी मन्त्र को (स्मरन्तः) स्मरण करते हुये (सद्यः) तत्काल (स्वयम्) अपने आप (विगतबन्धभयाः) बन्धन के भय से रहित (भवन्ति) हो जाते हैं ।।४६।।

भावार्थ – हे भगवन्! जो निरन्तर आपके नामका स्मरण करता है वह कठिन कारागृह से भी शीघ्र मुक्त हो जाता है ||४६||

Apada – kanthamurushrrinkhala – veshtitanga, gadham brihannigadakotinighrishtajanghah tvannamamantramanisham manujah smarantah, sadyah svayam vigata-bandhabhaya bhavanti

O Liberated one ! Persons thrown in prison, chained from head to toe, whose thighs have been injured by the chain, gets unshackled and freed from enslavement just by chanting your name.

47. सर्व भय निवारक

मत्तद्विपेन्द्रमृगराजदवानलाहि-संग्रामवारिधिमहोदरबन्धनोत्यम्।

तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव, यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥४७॥

अन्वयार्थ – (यः) जो (मतिमान्) बुद्धिमान् (तावकम्) तुम्हारे (इमम्) इस (स्तवम्) स्तोत्र को (अबीते) पड़ता है (तस्य) उसका (मत्तद्विपेन्द्रमृगराजदवानलाहिसङ्गावारिधि-महोदरबन्धनोत्थम्) मत्त हाथी, सिंह, वनाग्नि, सर्प, युद्ध, समुद्र, महोदररोग और बन्धन से उत्पन्न (भयम्) भय (भिया इव) डर से ही (आशु) शीघ्र (नाशम्) विनाश को (उपयाति) प्राप्त होता है ॥४७॥

भावार्थ – हे प्रभो! जो मानव आपके इस स्तोत्र का निरन्तर पाठ किया करता है, वह विशाल भयों से भी शीघ्र विमुक्त हो जाता है ॥४७॥

Mattadvipendra – mrigaraja – davanalahi sangrama – varidhi – mahodara-bandhanottham tasyashu nashamupayati bhayam bhiyeva, yastavakam stavamimam matimanadhite

O Tirhankara ! The one who recites this panegyric with devotion is never afraid of wild elephants, predatory lions, forest inferno, poisonous pythons, tempestuous sea, serious maladies, and slavery. In fact, fear itself is frightened of him.

48. मनोवांछित सिद्धिदायक

स्तोत्रस्रजं तव जिनेन्द्र! गुणं निबद्धां, भक्त्या मया रुचिरवर्णविचित्रपुष्पाम्।

धत्ते जनो य इह कण्ठगतामजत्रं, तं मानतुङ्गमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४८॥

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Stotrastrajam tava jinendra ! gunairnibaddham, bhaktya maya vividhavarnavichitrapushpam dhatte jano ya iha kanthagatamajasram, tam manatungamavasha samupaiti lakshmi

O the greatest Lord ! With great devotion, I have made up this string of your virtues. I have decorated it with charming and kaleidoscopic flowers. The devotee who always wears it in the neck (memorises and chants) attracts the goddess Lakshmi.

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