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Jain Tirthankars

1.Rishabhanath
2.Ajitanath
3.Sambhavanath
4.Abhinandananath
5.Sumatinath
6.Padmaprabhu
7.Suparshvanath
8.Chandraprabhu

9.Pushpadanta/Suvidhinatha
10.Shitalanath
11.Shreyansanath
12.Vasupujya
13.Vimalanath
14.Anantanath
15.Dharmanatha
16.Shantinath

17.Kunthunath
18.Aranatha
19.Mallinath
20.Munisuvrat
21.Naminath
22.Neminath
23.Parshvanath
24.Mahavira

23. Tirthankar Bhagwan Parshvanath

Quick Info

Bhagwan Parshvanatha was the 23rd of 24 tirthankaras in Jain tradition. He gained the title of Kalīkālkalpataru (Kalpavriksha in this Kali Yuga). Parshvanath is one of the earliest Tirthankara who is acknowledged as a historical figure. The Jain sources place him between the 9th and 8th centuries Parshvanath was born 273 years before Mahavira. He was the spiritual successor of the 22nd Tirthankar Neminath. He is popularly seen as a propagator and reviver of Jainism. Parshvanatha is said to have attained moksha on Mount Sammeda (Madhuban, Jharkhand) popular as Parasnath hill in the Ganges basin, an important Jain pilgrimage site. His iconography is notable for the serpent hood over his head, and his worship often includes Dharanendra and Padmavati (Jainism’s serpent Devta and Devi).Parshvanath was born in Varanasi, India. Renouncing worldly life, he founded an ascetic community. Parshvanath’s biography with Jain texts says that he preceded Mahavira by 273 years and that he lived 100 years.

Birth and Early Life:

He was born in Varanasi (Kashi) Uttar Pradesh in Ikshvaku clan. His father was ‘Raja Ashwasena. Ashwasena was the king of Kashi district. Tirth ankara Parswanath was born in Varanasi about 2,900 years ago. In Varanasi there was a king of Ikshvaku dynasty named Asvasena. Their queen Vama gave birth to a glorious son on the day of Paush Krishna Ekadashi, who bore the mark of a serpent on his body.He was born in Varanasi (Kashi) Uttar Pradesh in Ikshvaku clan. His father was ‘Raja Ashwasena. Ashwasena was the king of Kashi district. Tirthankara Parswanath was born in Varanasi about 2,900 years ago. In Varanasi there was a king of Ikshvaku dynasty named Asvasena. Their queen Vama gave birth to a glorious son on the day of Paush Krishna Ekadashi, who bore the mark of a serpent on his body.Vama Devi once saw a snake in her dream during her pregnancy, so the boy was named ‘Parshva’. His early life was spent as a prince. One day Parshwa saw from his palace that Purvasi was going somewhere else with the materials of worship. On going there, he saw an ascetic burning a panchagni, and a pair of snakes dying in the fire, Parsva said – ‘cruel’ religion is of no use.

Asceticism and initiation:

Tirthankara Parshvanatha left home at the age of 30 and took Jaineshwari Diksha and became a celibate.

Knowledge:

After 83 days of severe penance in Kashi, he attained self-enlightenment on the 84th day itself. He visited many countries like Pundra, Tamralipta etc. Became his disciple in Tamralipta. Parshvanatha founded the Chaturvidha Sangha, consisting of Muni, Aryika, Sravaka, Sravika, and Jain society still exists in this form. Each Gana worked under a Gandhara.All followers, male or female, were considered equal. Sarnath is famous as Singhapur in Jain-Agam texts. It was here that Shreyansanath, the 11th Tirthankara of Jainism, was born and preached his religion of non-violence. After attaining enlightenment, Tirthankara Parshvanatha taught the four main vows of Jainism – Satya, Ahimsa, Asteya and Aparigraha.

Nirvana:

Finally, knowing that his Nirvana was near, Sri Sammed went to Shikharji (Parasnath Hill in Jharkhand) where he attained moksha on Shravan Shukla Saptami. The greatest proof of the universality of Lord Parshvanatha is that even today the symbol of Parshvanatha is supreme among the idols and symbols of all Tirthankaras. Even today many miraculous idols of Parswanath are sitting all over the country.The story of which is still told by the old people. It is believed that most of the ancestors of Mahatma Buddha were also followers of Parshvanatha Dharma.

Previous birth:
Jain scriptures describe the nine previous births of Tirthankara Parshvanatha.Brahmin in the first birth, elephant in the second birth, deity in the third birth, king in the fourth birth, god in the fifth birth, Chakravarti emperor in the sixth birth and deva in the seventh birth, king in the eighth birth and Indra (heaven) king. In his ninth birth, then in his tenth birth, he had the fortune of becoming a Tirthankara. He became a Tirthankara as a result of the accumulated merit of previous births and the penance of the tenth birth.

Birth Place :Varanasi, Kingdom of Kashi

Moksh : Sammed Shikhar

Parshvanatha
23th Tirthankara

The idol of Tirthankara Parshvanatha

चिन्ह

Sign

अन्य नाम

Other names

Pārśva, Pārasanātha

चिन्ह नाम

Sign Name

Snake


Predecessor Neminath
SuccessorMahavira
MantraŚrī Parshvnathay Namaḥ
SymbolSnake
Age100
TreeAshwaban and Cedar trees
ComplexionGreen
Festivals
Personal information
Born
Varanasi, Kingdom of Kashi (present-day Uttar Pradesh India)
NirvanSammed Shikhar
Parents
  • Ashwasen(father)
  • Vamadevi (mother)
Siblings
DynastyIkshvaku Dynasty

Reference for English Information and Credits :

  1. Srushti Patil created this wiki page as on 21 Aug 2024
  2. https://en.wikipedia.org/wiki/Parshvanatha

Hindi - Information

भगवान पार्श्वनाथ:
जैन परंपरा के 24 तीर्थंकरों में से 23वें थे। उन्होंने कलिकालकल्पतरु (इस कलियुग में कल्पवृक्ष) की उपाधि प्राप्त की। पार्श्वनाथ सबसे शुरुआती तीर्थंकरों में से एक हैं जिन्हें एक ऐतिहासिक व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया जाता है। जैन स्रोत उन्हें 9वीं और 8वीं शताब्दी के बीच बताते हैं|

भगवान पार्श्वनाथ जैन परंपरा के 24 तीर्थंकरों में से 23वें थे। उन्होंने कलिकालकल्पतरु (इस कलियुग में कल्पवृक्ष) की उपाधि प्राप्त की। पार्श्वनाथ सबसे शुरुआती तीर्थंकरों में से एक हैं जिन्हें एक ऐतिहासिक व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया जाता है। जैन स्रोत उन्हें 9वीं और 8वीं शताब्दी के बीच बताते हैं।

भगवान पार्श्वनाथ का जन्म महावीर से 273 वर्ष पूर्व हुआ था। वह 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी थे। उन्हें लोकप्रिय रूप से जैन धर्म के प्रचारक और पुनरुद्धारकर्ता के रूप में देखा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि पार्श्वनाथ ने माउंट सम्मेदा (मधुबन, झारखंड) पर मोक्ष प्राप्त किया था, जो गंगा बेसिन में पारसनाथ पहाड़ी के रूप में लोकप्रिय है, जो एक महत्वपूर्ण जैन तीर्थ स्थल है। उनकी प्रतिमा उनके सिर पर नाग के फन के लिए उल्लेखनीय है, और उनकी पूजा में अक्सर धरणेंद्र और पद्मावती (जैन धर्म के नाग देवता और देवी) शामिल हैं। पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी, भारत में हुआ था। सांसारिक जीवन को त्यागकर उन्होंने एक तपस्वी समुदाय की स्थापना की। जैन ग्रंथों के साथ पार्श्वनाथ की जीवनी कहती है कि वे महावीर से 273 वर्ष पहले थे और वे 100 वर्ष जीवित रहे।

जैन धर्म के तेइसवें (23वें) तीर्थंकर हैं। जैन ग्रंथों के अनुसार वर्तमान में काल चक्र का अवरोही भाग, अवसर्पिणी गतिशील है और इसके चौथे युग में २४ तीर्थंकरों का जन्म हुआ था।भगवान् पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी के भेलूपुर में हुआ था |एक कथा के अनुसार भगवान् कृष्ण के चाचा अश्वसेन के पुत्र बचपन से ही अहिंसा विचार धारा से ओतप्रोत थे जब एक वैवाहिक कार्यक्रम में श्री कृष्ण एवं बलराम द्वारा विभिन्न स्थानों के राजाओं को आमंत्रित किया गया जिसमें विभिन्न प्रकार के व्यंजनों में शाकाहारी एवं मांसाहारी भी थे फलस्वरूप नेमिनाथ जी बहुत दुखी हुए और जैन धर्म समर्थन ऐवंं प्रसार के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया|

जन्म और प्रारंभिक जीवन तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म आज से लगभग 2 हजार 9 सौ वर्ष पूर्व वाराणसी में हुआ था। वाराणासी में अश्वसेन नाम के इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रिय राजा थे। उनकी रानी वामा ने पौष कृष्‍ण एकादशी के दिन महातेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जिसके शरीर पर सर्पचिह्म था। वामा देवी ने गर्भकाल में एक बार स्वप्न में एक सर्प देखा था, इसलिए पुत्र का नाम ‘पार्श्व’ रखा गया। उनका प्रारंभिक जीवन राजकुमार के रूप में व्यतीत हुआ। एक दिन पार्श्व ने अपने महल से देखा कि पुरवासी पूजा की सामग्री लिये एक ओर जा रहे हैं। वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि एक तपस्वी जहाँ पंचाग्नि जला रहा है, और अग्नि में एक सर्प का जोड़ा मर रहा है, तब पार्श्व ने कहा— ‘दयाहीन’ धर्म किसी काम का नहीं’।

वैराग्य और दीक्षा

तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने तीस वर्ष की आयु में घर त्याग दिया था और जैन दीक्षा ली।

केवल ज्ञान
काशी में 83 दिन की कठोर तपस्या करने के बाद 84वें दिन उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था। पुंड़्र, ताम्रलिप्त आदि अनेक देशों में उन्होंने भ्रमण किया। ताम्रलिप्त में उनके शिष्य हुए। पार्श्वनाथ ने चतुर्विध संघ की स्थापना की, जिसमे श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका होते है और आज भी जैन समाज इसी स्वरुप में है, दिगंबर परंपरा चतुर्विध संघ को नही मानता और दिगंबर में एसा कोइ उल्लेख भी नहीं है। प्रत्येक गण एक गणधर के अन्तर्गत कार्य करता था। सभी अनुयायियों, स्त्री हो या पुरुष सभी को समान माना जाता था। सारनाथ जैन-आगम ग्रंथों में सिंहपुर के नाम से प्रसिद्ध है। यहीं पर जैन धर्म के 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ जी ने जन्म लिया था और अपने अहिंसा धर्म का प्रचार-प्रसार किया था।केवल ज्ञान के पश्चात तीर्थंकर पार्शवनाथ ने जैन धर्म के चार मुख्य व्रत – सत्य, अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह की शिक्षा दी थी।

निर्वाण

अंत में अपना निर्वाणकाल समीप जानकर श्री सम्मेद शिखरजी (पारसनाथ की पहाड़ी जो झारखंड में है) पर चले गए जहाँ श्रावण शुक्ला सप्तमी को उन्हे मोक्ष की प्राप्ति हुई। भगवान पार्श्वनाथ की लोकव्यापकता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भी सभी तीर्थंकरों की मूर्तियों और चिह्नों में पार्श्वनाथ का चिह्न सबसे ज्यादा है। आज भी पार्श्वनाथ की कई चमत्कारिक मूर्तियाँ देश भर में विराजित है। जिनकी गाथा आज भी पुराने लोग सुनाते हैं।
पूर्वजन्म
जैन ग्रंथों में तीर्थंकर पार्श्‍वनाथ को नौ पूर्व जन्मों का वर्णन हैं। पहले जन्म में ब्राह्मण, दूसरे में हाथी, तीसरे में स्वर्ग के देवता, चौथे में राजा, पाँचवें में देव, छठवें जन्म में चक्रवर्ती सम्राट और सातवें जन्म में देवता, आठ में राजा और नौवें जन्म में राजा इंद्र (स्वर्ग) तत्पश्चात दसवें जन्म में उन्हें तीर्थंकर बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पूर्व जन्मो के संचित पुण्यों और दसवें जन्म के तप के फलत: वे तीर्थंकर बनें।

तीर्थंकर पार्श्वनाथ

विवरण

अन्य नामपारसनाथ जिन
एतिहासिक काल ८७२-७७२ ई.पू.
शिक्षाएं अहिंसा
पूर्व तीर्थंकरनेमिनाथ
गृहस्थ जीवन
वंशइक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रिय
पितामहाराजा अश्वसेन
मातामहारानी ब्राह्मी (वामादेवी)
पंच कल्याणक
जन्म कल्याणक

पौष कृष्णा एकादशी वाराणसी

जन्म स्थानवाराणसी
मोक्ष

श्रावण शुक्ला सप्तमी सम्मेद शिखरजी

मोक्ष स्थान सावन सुदी प्रात: सम्मेद शिखरजी
लक्षण
रंगमरकतमणि सदृश (हरा)
चिन्हसर्प
आयु100 वर्ष
शासक देव
यक्षधरणेन्द्र देव
यक्षिणीपद्मावती देवी
गणधर
प्रथम गणधरश्री शुभदत्त
गणधरों की संख्य10

Data is being updated.

Reference for Hindi Information and Credits :


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