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#KunthusagarJiMaharajACHARYASHRISHANTISAGARJIM.S.
Acharya Shri 108 Kunthusagarji Maharaj was born on Kartik Shukl-2, Veer Samvat 2420 and he took initiation from Acharya Shri 108 Shantisagarji Maharaj (Charitra Chakravarti) at Sonagiri.
Acharya Shri 108 Devendra Kirti Ji Maharaj | |||||||
1.Charitrachakravarti Acharya Shri Shanti Sagar Ji Maharaj 1872 | |||||||
2.Aacharya Shri 108 Kunthusagar Ji Maharaj | |||||||
महर्षि सागर कुन्थुमहाराज ने इस ग्रंथकी रचना की है। आप एक परम वीतरागी, प्रतिभाशाली विद्वान् मुनिराज हैं।
आपकी जन्मभूमि कर्नाटक प्रांत है जिसे पूर्वमें कितने ही महर्षियोंने अलंकृत कर जैनधर्मका सुख उज्वल किया था । इसलिए कर्णेषु अटतीति सार्थक नाम को पाकर सब के कानोंमें गूंज रहा है।
कर्णाटक प्रांतके ऐश्वर्यभूत बेळगांव जिल्लेमें ऐनमुर नामक नाम है । वहांपर चतुर्थकुलमें टलामभूत अत्यंत शांतस्वभाववाले सातपा नामक श्रावकोसम रहते हैं। आपकी धर्मपत्नी साक्षात् सरस्वतीके समान सद्गुणसंपन्न थी । इसलिए सरस्वतीके नामसे ही प्रसिद्ध थी। सातप्पा व सरस्वती दोनों अत्यंत प्रेम व उत्साहसे देवपूजा, गुरूणस्ति आदि सत्कार्यमें सदा मग्न रहते थे । धर्मकार्यको वे प्रधानकार्य समझते थे। उनके हृदयमें आंतरिक धार्मिकश्रद्धा थी। श्रीमती सौ. सरस्वतीने सं० २४२० में एक पुत्र-रत्नको जन्म दिया । इस पुत्रका जन्म शुक्लपक्षके द्वितीयाको हुआ । इसलिए शुक्लपक्षके चंद्रमाके समान दिनपर दिन अनेक कलावोंसे वृद्धिंगत होने लगा । मातापिलावोंने पुत्रका जीवन सुसंस्कृत हो इस सुविचारसे जन्म से ही आगमोक्त संस्कारोंसे संस्कृत किया । जातकर्मसंस्कार होने के बाद शुभमुहूर्त में नामकरणसंस्कार किया गया जिसमें इस पुत्रका नाम रामचंद्र रखा गया । बादमें चौलकर्म, अक्षराभ्यास, पुस्तकग्रहण आदि संस्कारोंसे संस्कृतकर सद्विद्या का अध्ययन कराया । रामचंद्रके हृदय में बाल्यकाल से ही विनय, शील व सदाचार आदि भाव जागृत हुए थे। जिसे देखकर लोग आश्चर्ययुक्त होकर संतुष्ट होते थे । रामचंद्र को बाल्यावस्था में ही साधु संयमियोंके दर्शनमें उत्कट इच्छा रहती थी। कोई साधु ऐनापुरमें जाते तो यह बालक दौडकर उन की वंदनाके लिये पहुंचता था। बाल्यकालसे ही इसके हृदयमें धर्मकी अभिरुचि थी। सदा अपने सहधर्मियोंके साथमें तत्त्वचर्चा करनेमें ही समय इसका बीतता था। इस प्रकार सोलह वर्ष व्यतीत हुए । अब मातापितावोंने रामचंद्रको विवाह करनेका विचार प्रकट किया। नैसर्गिक गुणसे प्रेरित होकर रामचंद्रने विवाहके लिये निषेध किया एवं प्रार्थना की कि पिताजी ! इस लौकिकवियाहसे मुझे संतोष नहीं होगा । मैं अलौकिक विवाह अर्थात् मुक्तिलक्ष्मी के साथ विवाह करलेना चाहता है। मातापिताबोंने आग्रह किया कि पुत्र ! तुम्दे लौकिक विवाह भी करके हम लोगोंकी आखोंको तृप्त करना चाहिये । मातापिताबोंकी अज्ञोल्लंघनभयसे इच्छा न होते हुए भी रामचंद्र ने विवाह की स्वीकृति दी । मातापितावोंने विवाह किया। रामचंद्रको अनुभव होता था कि मैं विवाह कर बड़े बंधन में पड गया हूं।
विशेष विषय यह है कि, बाल्यकालसे संस्कारोंसे सुदृढ़ होनेके कारण यौवनावस्थामें भी रामचंद्रको कोई व्यसन नहीं था । व्यसन था तो केवल धर्मचर्चा, सत्संगति व शास्त्रस्वाध्याय का था । बाकी व्यसन तो उससे घबराकर दूर भागले थे। इस प्रकार पचीस वर्ष पर्यंत रामचंद्रने किसी तरह घरमें वास किया, परंतु बीच २ में मनमें यह भावना जागृत होती थी कि भगवन् ! *म इस गृहबंधनसे कब छुएं, जिनदीक्षा लेनेका भाग्य कब मिलेगा ? यह दिन कब मिलेगा जब कि सर्वसंगपरित्याग कर, में स्वपरकल्याण कर सकू।
रामचंद्रके श्वसुर भी धनिक थे। उनके पास विपुल संपत्ति थी। परंतु उनको कोई पुत्र-संतान नहीं था। वे रामचंद्रसे कई दफे कहते थे कि यह संपत्रीि घर वगैरे तुम ही ले लो। मेरे यहाँके सब कारोभार तुम ही चलायो । परंतु रामचंद्र उन्हें दुःख न हो इस विचारसे कुछ दिन रहा भी। परंतु मन मन में यह विचार किया करता था मैं अपना भी घरदार छोडना चाहता हूं। इनकी संपत्ति को लेकर मैं क्या करूं । रामचंद्र की इस प्रकारकी वृत्तिसे श्वसुर को दुःख होता था। परन्तु रामचंद्र लाचार था । जब उसने सर्वथा गृहत्याग करने का निश्चय ही करलिया तो उनके श्वसुर को बहुत अधिक दुःख हुआ।
देवशात् इस बोचमें मातापिताबोंका स्वर्गवास हुआ। विकराल कालकी कृपासे एक भाई और बहनने विदाई ली । अब रामचंद्र का चित्त और भी उदास हुआ । उसका बंधन छूट गया । अब संसारकी अस्थिरताका उन्होंने सानुभवसे पका निश्चय किया और भी धर्ममार्गपर स्थिर हुआ।इतने में भाग्योदयसे ऐनापुरम प्रातःस्मरणीय पूज्यपाद आचार्य शांतिसागर महाराजका पदार्पण हुआ, वीतरागी तपोधन मुनिको देखकर रामचंद्र के चित्तमें संसारभोगसे विरक्ति उत्पन्न होगई। प्राप्त सत्समागमको खोना उचित नहीं समझकर उन्होंने श्रीआचार्यचरणमें आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया । रामचंद्रजाके ब्रह्मचर्य दीक्षा लेनेके बाद उनकी धर्मपत्नीने धर्मध्यान पूर्वक अपना समय व्यतीत किया । सदा व्रत उपवास बगैरे कर शुभ विचार से अपना जन्म सफल किया ।
सन १९२५ फरवरी महीनेकी बात है । श्रवणबेलगोल महाक्षेत्रमें श्रीबाहुबलिस्वामीका महामस्तकाभिषेक था। इस महाभिषकके समाचार पाकर ब्रह्मचारिजीने यहां जाने की इच्छा की । श्रवणबेलगुल जानेके पहिले अपने पास जो कुछ भी संपत्ति थी उसे दानधर्म आदि कर उसका सदुपयोग किया । एवं श्रवणबेलगुल में आचार्य शांतिसागर महाराजसे क्षुल्लक दीक्षा ली। उस समय आपका शुभनाम क्षुल्लक पार्श्वकीर्ति रखा गया । ध्यान अध्ययमादि कार्योंमें अपने चित्तको लगाते हुए अपने चारित्र में आपने वृद्धि की व आचार्यचरणमें ही रहने लगे।
चार वर्ष बाद आचार्यपदका चातुर्मास कुंभोज (बाहुबलि पहाट) में हुआ। उस समय आचार्य महागजने क्षुल्लक के चारित्रकी निर्मलताको देखकर उन्हे ऐलक जो कि श्रावकपद में उत्तम स्थान है, उससे दीक्षित किया।
बाहुबलि पहाड पर एक खास बात यह हुई कि संधभक्त शिरोमणि सेठ पूनमचंद घासीलालजी आचार्यवंदना के लिए आये
और महाराजके चरणोंमें प्रार्थना की कि मैं सम्मेदशिखरजी के लिए संघ निकालना चाहता हूं। आप अपने संघसहित पधारकर हमें सेवा करनेका अवसर दें । आचार्य महाराज ने संघभक्तशिरोमणिजी की विनतीको प्रसादपूर्ण दृष्टि से सम्मति दी। शुभमुहूर्त में संघने तीर्थराजकी वंदनाके लिए प्रस्थान किया । ऐलक पार्थकीर्तिने भी संघके साथ श्रीतीर्थराजकी बंद नाके लिए बिहार किया। सम्मेदशिखरपर संवके पहुंचने के बाद वहांपर विराट्
विद्यागुरुओंका समागम, फिर कहना ही क्या ? आप बहुत जल्दी निष्णात विद्वान हुए। इस बीचमें सोनागिर सिद्धक्षेत्र में आपको श्री आचार्य महाराजने दिगंबर दीक्षा दी, उस समय आपको मुनि कुंथुसागर के नामसे अलंकृत किया । आपके चारित्र में बृद्धि होने के बाद ज्ञानमें भी नर्मल्य बढ गया । ललितपुर
चातुर्मास लेकर ईडरके चातुर्मासपर्यंत आप बराबर अध्ययन 'करते रहे । आज आप कितने ऊंचे दर्जे के विद्वान् बन गए हैं यह लिखना हास्यास्पद होगा। आपकी विद्वत्ता इसीसे स्पष्ट होती है कि अब आप संस्कृत में अंधका भी निर्माण करने लग गए हैं। कितने ही वर्ष अध्ययन कर बडी २ उपाधियोंसे विभूषित विद्वानों को भी हम आपसे तुलना नहीं कर सकते। क्यों कि
आपमें केवल ज्ञान ही नहीं है अपितु चरित्र जो कि ज्ञानका फल है वह पूर्ण अधिकृत होकर विद्यमान है।
इसलिए आपमें स्वारकल्याणकारी निर्मल ज्ञान होने के कारण आप सर्वजन पूज्य हुए हैं। आपकी जिस प्रकार ग्रंथरचनाकलामें विशेष गति है, उसी प्रकार वक्तृत्वकलामें भी आप को पूर्ण अधिकार है । श्रोतावोंके हृदयको आकर्षण करने का प्रकार, वस्तुस्थितिको निरूपण कर भव्योंको संसार से तिरस्कारविचार उत्पन्न करने का प्रकार आपको अछी तरह अवगत है । आपके गुण, संयम आदियों को देखनेपर यह कहे बिना नहीं रह सकते कि आचार्य शांतिसागर महाराजने आपका नाम कुंथुसागर बहुत सोच समझकर रखा है।
आपने अपनी क्षुल्लक व ऐलक अवस्थामें अपनी प्रतिभासे बहुत ही अधिक धर्मप्रभावना के कार्य किये है । संस्कारों के प्रचार के लिये सतत उद्योग किया है। करीब तीन चार लाख व्यक्तियोंको आपने यज्ञोपवीत्तसंस्कारसे संस्कृत किया है । एवं लाखों लोगोंके हृदयमें मद्य, मांस, मधुकी इयत्ताको जंचाकर त्याग कराया है। हजारोंको मिथ्यात्वसे हटाकर सम्यग्मार्ग में प्रवृत्ति कराया है। मुनि अवस्थामें उत्तरप्रांतके अनेक स्थानोंमें विहार कर धर्मकी जागृति की है। गुजरात प्रांत जो कि चारित्र व संयमकी दृष्टिसे बहुत ही पीछे पड़ा था, उस प्रतिमें छोटेसे छोटे गांवमें विहार कर, लोगोंको धर्ममें स्थिर किया है। गुजरातके जैन च जैनेतरोंके मुखसे आपके लिए आज यह उद्भार निकलता है कि " साधु हों तो ऐसे ही हों"
सुदासना, टींबा,अलुवा, माणिकपुरा, मोहनपुरा, बडासन, पेथापुर, ओरान आदि अनेक छोटे बडे संस्थानोंके अधिपति आपके परमभक्त हैं।
इसी प्रकार बडे २ राजा महाराजावोंपर भी आपके उपदेश का गहरा प्रभाव पड़ता है। बहुतसे राजावाने आपके उपदेशसे प्रेरित होकर अपने राज्यमें अहिंसा दिन पालने की प्रतिज्ञा ली है। गुजरातमें बडे बडे राजा महाराजावोंके द्वारा आपका स्वागत हुआ और हो रहा है। आपके उपदेशामृत पान करनेके लिए
धर्मप्रभावना होरही है।
गत तारंगा महोत्सवके समय कई हजारोंकी उपस्थिति में,
चतुःसंघके समक्ष पूज्यश्रीको आचार्यपदसे अलंकृत किया है । आपके कारणसे अनेक साधुसंयमी व लाखों भव्योंका कल्याण होरहा है । यह आपका संक्षिप्त परिचय है । पूर्णतः लिखनेपर स्वतंत्र पुस्तक ही बन सकती है।
अनुवादक. इस ग्रंथाके अनुवादक श्री. धर्मरत्न पं. लालारामजी शास्त्री हैं जो कि समाजमें सुपरिचित विद्वान् व सफल अनुवादक है । उन्होंने आजतक कितने ही ग्रंथोंका अनुवाद कर साहित्यकी सेवा की है। इसके पूर्व आचार्यश्रीकी जितनी रचनायें प्रकट हो चुकी हैं उनका अनुवाद गुरुभक्तिसे आपने ही किया है। इसके लिए श्री माननीय पंडितजीके हम आभारी हैं।
प्रकाशनमें सहायता. इस ग्रंथके प्रकाशनमें जिन सज्जनोंसे हमें सहायता मिली है उनका परिचय अन्यत्र दिया है। उनके भी हम कृतज्ञ हैं।
आजके युगमें आचार्यश्रीके द्वारा जनता का अलौकिक उपकार होरहा है, धर्मका अपूर्व उद्योत होरहा है। जो सज्जन पूज्यवर्यके ग्रंथोंका स्वाध्याय कर अपना आत्मकल्याण करना चाहते हैं ये आचार्य कुंथुसागर ग्रंथमालाके स्थायी सभासद बनें। उनको प्रत्येक ग्रंथ विनामूल्य मिलेगे । पूज्यश्रीका विहार इस भारत-भूमिपर चिरकाल तक हो एवं भव्योंका कल्याण हो यही हमारी हादिक भावना है। गुरुचरणभक्तसोलापुर
वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, ता. २२-७-४०
(विद्यावाचस्पति)
Below information from book-Digambar Jain Sadhu
प्रातःस्मरणीय आचार्य श्रीकुन्थुसागरजी मनीन आचार्य थे। आपकी पर्व में कितने ही महषियों में आप एक परम प्रभावक वीतरागी, विद्वान आचार्य जन्मभूमि कर्णाटक प्रान्त है जिसे पूर्व में कितने ही, अलंकृत कर जैनधर्मका मुख उज्ज्वल किया था। इसलिए अटतीति” सार्थक नाम को पाकर सबके कानों में गज रखा।
.. कर्णाटक प्रांत के ऐश्वर्यभूत बेलगांव जिले में न नामक सुन्दर नगर है । वहां पर चतुर्थकुल में ललामभूत प्रय शांत स्वभाव वाले सातप्पा नामक श्रावकोत्तम रहते थे। आपकी धर्मपत्नी साक्षात् सरस्वती के समान सद्गुणसम्पन्न थी इसलिए सरस्वती के नाम से ही प्रसिद्ध थी। सातप्पा व सरस्वती दोनों अत्यन्त प्रेम व उत्साह से देवपूजा व गुरुपास्ति आदि सत्कार्य में सदा मग्न रहते थे। धर्मकार्य को वे प्रधानकार्य समझते थे उनके हृदय में आंतरिक धार्मिक श्रद्धा थी। श्रमती सौ० सरस्वती ने वीर संवत् २४२० में एक पुत्ररत्न को जन्म दिया। इस पुत्र का जन्म कार्तिक शुक्लपक्ष की द्वितीया को हुआ । माता पिता ने पुत्र का जीवन सुसंस्कृत हो इस सुविचार से जन्म से ही आगमोक्त संस्कारों से संस्कृत किया । जातकर्म संस्कार होने के बाद शुभमुहूर्त में नामकरण संस्कार किया जिसमें इस पुत्र का नाम रामचन्द्र रखा गया । बाद में चौलकर्म, अक्षराभ्यास, पुस्तकग्रहण आदि आदि संस्कारात संस्कृत कर सद्विद्या का अध्ययन कराया। रामचन्द्र के हृदय में बाल्यकाल से ही विनय शाल सदाचार आदि भाव जागृत हुए थे। जिसे देखकर लोग आश्चर्ययुक्त व संतुष्ट होते थे। राम बाल्यावस्था में ही साधु संयमियों के दर्शन की उत्कट इच्छा रहती थी । कोई साधु ऐनापुर यह बालक दौड़कर उनकी वन्दना के लिए पहुंचता था। बाल्यकाल से ही उसके हृदय म अभिरुचि थी। सदा अपने सहमियों के साथ तत्त्वचर्चा करने में ही समय बिताता था। सोलह वर्ष व्यतीत हुए । अब माता पिता ने रामचन्द्र को विवाह कराने का विचार त्र नैसर्गिक गुण से प्रेरित होकर रामचन्द्र ने विवाह के लिए निषेध किया एवं प्राथना का साधु ऐनापुर में जाते तो हा उसके हृदय में धर्म के प्रति समय बिताता था। इस प्रकार रान का विचार प्रगट किया । एवं प्रार्थना की कि पिताजी !इस लौकिक विवाह से मुझे संतोष नहीं होगा। मैं आलौकिक विवाह अर्थात् मुक्ति लक्ष्मी के साथ विवाह कर लेना चाहता हूं। माता पिता ने पुनश्च आग्रह किया । माता पिता की आज्ञोल्लंघन भय से इच्छा न होते हुए भी रामचन्द्र ने विवाह की स्वीकृति दी। मातापिता ने विवाह किया । रामचंद्र को अनुभव होता था कि मैं विवाह कर बड़े बन्धनमें पड़ गया हूं।
विशेष विषय यह है कि बाल्यकाल से संस्कारों से सुदृढ़ होने के कारण यौवनावस्था में भी रामचन्द्र को कोई व्यसन नहीं था । व्यसन था तो केवल धर्मचर्चा, सत्संगति व शास्त्रस्वाध्याय का धा । बाकी व्यसन तो उससे घबराकर दूर भागते थे। इस प्रकार पच्चीस वर्ष पर्यन्त रामचन्द्र ने किसी तरह घर में वास किया। परन्तु बीच बीच में यह भावना जागृत होती थी कि भगवन् ! मैं इस गृहबंधन से कब छूटू ? जिनदीक्षा लेने का सौभाग्य कब मिलेगा? वह दिन कब मिलेगा जब कि सर्व संग परित्याग कर मैं स्वपरकल्याण कर सकू?
दैववशात् इस बीच में मातापिता का स्वर्गवास हुआ । विकराल काल की कृपा से भाई और बहिन ने भी विदा ली। तब रामचन्द्रजी का चित्त और भो उदास हुआ। उनका बंधन छुट गया। तब संसार की अस्थिरता का उन्होंने स्वानुभवसे पक्का निश्चय करके और भी धर्ममार्गपर स्थिर हुए।
रामचंद्र के श्वसुर भी धनिक थे। उनके पास बहुत संपत्ति थी। परन्तु उनको कोई संतान नहीं थी। वे रामचन्द्र से कई दफे कहते थे कि यह संपत्ति ( घर वगैरह तुम ही ले लो, मेरे यहां के : सब कारोबार तुम ही चलावो और रामचंद्र अपने श्वसुर को दुःख न हो इस विचार से कुछ दिन रहा भी । परन्तु मन मन में यह विचार किया करता था कि "मैं अपना भी घरबार छोड़ना चाहता हूं। इनकी संपत्ति को लेकर मैं क्या करू" । रामचंद्रकी इस प्रकार की वृत्ति से श्वसुर को दुःख होता था परन्तु रामचन्द्र लाचार था । जब उसने सर्वथा गृहत्याग करने का निश्चय ही कर लिया तो उनके एवसुर को बहुत अधिक दुःख हुआ।
आपने श्रीपरमपूज्य आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के पाद मूल को पाकर अपने संकल्प को पर्ण किया। सन् २५ में श्रवणबेलगोला के मस्तकाभिषेक के समय पर आपने क्षुल्लक दीक्षा ली व सोनगिरी क्षेत्रपर मनिदीक्षा ली। और मुनि कुथुसागर के नाम से प्रसिद्ध हुए। जब आप घर छोड करके साधु हुए तब आपकी धर्मपत्नी धर्मध्यान करती हुई घर में ही रही थी।
आपने अपनी माता सरस्वती का नाम सार्थक बनाया था। क्योंकि आप अपने नाम तथा काम में सरस्वतीपत्र ही सिद्ध हुए थे।
चतुविशति जिनस्तुति, शांतिसागर चरित्र, बोधामृतसार. निजा. स्मशुद्धिभावना, मोक्षमार्गप्रदीप, ज्ञानामृतसार,स्वरूपदर्शनसूर्य,नरेशधर्मदर्पण,मनुष्यकृत्यसार. मात्रआदि नीतिपूर्ण तत्त्वभित ४० ग्रन्थ रत्नों की उत्पत्ति आपके ही अगाधज्ञानरूपी के हुई थी। आपके दुर्लभ संस्कृतभाषा-पांडित्य पर बड़े २ बिद्वान पंडित भी मुग्ध हो जाते थे ! - ग्रन्थनिर्माणशैली अपूर्व थी।
आपको भाषण-प्रतिभा शान्त ब गम्भीर मुद्राके सामने बड़े २ राजा के मस्तक झुकते थे गुजरात प्रांत के प्रायः सभी संस्थानाधिपति आपके आज्ञाकारी शिष्य बने हुए है। अबतक हजारों की संख्या में जैनेतर आपके सदुपदेश से प्रभावित होकर मकारत्रय ( मद्य, मांस मधु ) के नियमी व संयमी बन चुके हैं। - गुजरात व बागड़ प्रांत में आपके द्वारा जो धर्मप्रभावना हुई है व हो रही है वह इतिहास के पृष्ठों पर सुवर्णवर्णों में चिरकाल तक अंकित रहेगी। गुजरात में कई संस्थानिकोंने अपने राज्यमें इन तपोधन के जन्मदिन के स्मरणार्थ सार्वजनिक छुट्टी व सार्वत्रिक अहिंसा दिवस मनाने के फर्मान निकाले हैं । सुदासना स्टेट के प्रजावत्सल नरेश तो इतने भक्त बन गये थे कि महाराज का जहां. २ विहार होता था वहां प्रायः उनको उपस्थिति रहती थी। कभी अनिवार्य राज्यकार्य से परवश होकर महाराज से विदा लेने का प्रसंग आने पर माता को बिछड़ते हुए पुत्र के समान नरेश की आंखों में से नांसू बहते थे धन्य है ऐसी गुरुभक्ति ! युवराज कुमार साहेब रणजीतसिंहजी पूज्यवयं के परमभक्त थे। वे कई समय महाराज की सेवा में उपस्थित होकर आत्महित के तत्त्वों को पूछते हुए महाराज की सेवा में हो दीर्घ समय व्यतीत करते थे। तारंगाजी से महाराज का विहार होने का समाचार जानकर कुमार साहेब से रहा नहीं गया, वे पूज्यश्री के चरणों में उपस्थित होकर ( अश्रुपात करते हुए). महाराज से निवेदन करते हैं कि स्वामिन् ! पुनः कब दर्शन मिलेगा? कितनी अद्भुत भक्ति थी यह ! पूज्यश्री ने आज गुजरात में जो धर्मजागृति की है बह “न भूतो न भविष्यति” है। गुजरात में जैन क्या, जैनेतर क्या, हिन्दु क्या, मुसलमान क्या, उनके चरणों के भक्त थे । अलुवा, माणिकपुर, पेथापुर, डूंगरपुर, बांसवाडा, खांदु आदि अनेक राज्यों के अधिपति आपके सद्गुणों से मुग्ध थे। पिछले दिनों बड़ोदा राज्य में आपका अपूर्व स्वागत हुआ । राज्य के न्यायमन्दिर में स्टेट के प्रधान सर कृष्ण माचारी की उपस्थिति में आचार्यश्री का सार्वजनिक तत्वोपदेश हुआ था।
गुजरात से विहार कर महाराज श्री ने राजस्थान के बाग्वर प्रांत को पावन किया। विक्रम सं० २००१ में आपका पदार्पण धरियावद हुआ। इसी वर्ष धरियावद में ५१ वर्ष की उम्रम आषाढ कृष्ण ६ रविवार दिनांक १-७-१९४५ को समाधि मरण पूर्वक आपका स्वर्गवास हो गया। ऐसे महान प्रभावशाली आचार्य के निधन से समग्र दिगम्बर जैन समाज को गहरा आघात पहुचा। दिगम्बर जैन समाज पर यह घटना अनभ्र वज्रपात मानी गई। मैं उन महान् त्यागमूर्ति आचार श्री के चरणों में अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित करता हूं।
#KunthusagarJiMaharajACHARYASHRISHANTISAGARJIM.S.
आचार्य श्री १०८ कुन्थुसागरजी महाराज
Acharya Shri 108 Shanti Sagarji Maharaj 1872 (Charitrachakravarti)
आचार्य श्री १०८ शांति सागरजी महाराज १८७२ (चरित्रचक्रवर्ती) Acharya Shri 108 Shanti Sagarji Maharaj 1872 (Charitrachakravarti)
1.आचार्यश्री अनुभवनंदीजी महाराज
Dhaval Patil Pune-9623981049
https://www.facebook.com/dhaval.patil.9461/
Information and Book provided by Rajesh Ji Pancholiya
AcharyaShriShantiSagarJiMaharaj1872DevendraKirtiJi
Acharya Shri 108 Kunthusagarji Maharaj was born on Kartik Shukl-2, Veer Samvat 2420 and he took initiation from Acharya Shri 108 Shantisagarji Maharaj (Charitra Chakravarti) at Sonagiri.
Acharya Shri 108 Devendra Kirti Ji Maharaj | |||||||
1.Charitrachakravarti Acharya Shri Shanti Sagar Ji Maharaj 1872 | |||||||
2.Aacharya Shri 108 Kunthusagar Ji Maharaj | |||||||
Introduction to the author.
Maharishi Kundhusagar Maharan has written this book. You are a supremely brilliant, talented scholar, Muniraj.
Your birthplace is the province of Karnataka, which many maharishis had decorated in the past and ignited the joy of Jainism. Therefore, Karneshtu attati is echoing in everyone's ears after finding a meaningful name.
There is a beautiful pram named Ainmur in the Belgaum district of Karnataka in the splendor of Karnataka. There the Shravakosam called Satapa with extremely calm nature is kept in the fourth house. Your wife was virtuous like Saraswati. That is why Saraswati was famous as such. Both Satappa and Saraswati used to always enjoy the worship of Devpuja, Gurunsti etc. with utmost love and enthusiasm. They considered religion to be the primary task. He had inner devotion to his heart. Mrs. Sou Saraswati gave birth to a son-Ratna in No. 2420. This son was born second to Shuklapaksha. Therefore, on the same day as the moon of Shuklapaksha, many Kalavas began to grow. The parents have cultured the life of the son, and from this thought, they have cultivated Sanskrit with incendiary rites. After the Jatkarma ceremony, the naming ceremony was performed in Shubhamuhurta, in which this son was named Ramachandra. Later, with the rites of Chaulakram, Aksharaabhyas, Book Eclipse etc., Sanskritkar studied Sadvidya. In the heart of Ramachandra, since childhood, humility, modesty and virtue etc. were awakened. Seeing which people were surprised and satisfied. Ramchandra had a keen desire to see sage abstinents even as a child. If any sage used to go to Ainapur, this child would run and reach to worship him. Right from childhood, it had the interest of religion in its heart. It was always time spent discussing with your colleagues. Thus, sixteen years were spent. Now parents gave the idea of getting married to Ramachandra. Inspired by natural qualities, Ramachandra prohibited marriage and prayed that father! I will not be satisfied with this secularism. I want to marry a supernatural marriage ie Muktilakshmi. Parents urged that son! We should satisfy the eyes of our people even after a temporary secular marriage. Ramchandra approved of the marriage, despite the parents' ignorance of the ignorant desire. The parents got married. Ramchandra used to feel that I got married and got into a big bond.
The special subject is that Ramachandra had no addiction even during the youth period due to the strengthening of rites since childhood. If there was addiction, it was only about Dharmachara, Satsangati and Shastra Swadhyay. The rest of the addicts ran away fearing him. Thus, for twenty five years Ramachandra somehow lived in the house, but in the middle 2, there was a feeling in my mind that God! * When should I touch this house, when will I get the fortune to take initiation? When will I get this day when I can perform self-welfare in the process of renunciation?
Ramchandrake Shvasur was also rich. He had a lot of wealth. But he had no son and son. He used to say to Ramachandra many times that you take this lady home without you. You carry all my business here. But Ramchandra stayed for a few days thinking that he should not be sad. But I used to think this in my mind, I want to leave my family too. What should I do about their property? This kind of attitude of Ramachandra used to cause grief to Shvasur. But Ramchandra was helpless. When he decided to commit murder all the time, his brother was very sad.
Devashat was the death of parents in this boat. A brother and sister bid farewell to Vikral Kalki. Now Ramchandra's mind became even more depressed. He lost his bond. Now he decided to cook with the instability of the world and also settled on the path of religion. In this way, luckily, in the morning of Ainapuram, the memorable Pujyapada Acharya Shantisagar Maharaj made his debut, seeing Vitaragi Tapodhan Munico created disinterest in the mind of Ramchandra. Considering it was not appropriate to lose the received satsamagam, he took birth Brahmacharyavrata in Sri Acharyacharan. After Ramachandraja's celibacy initiation, his wife spent his time religiously. Always fasted and made my birth successful with good thoughts.
It is a matter of the month of February 1925. In Shravanabelagol Mahakshetra was Sri Mahabaliswamika Mahamastakabhisheka. On receiving the news of this maestro, Brahmachariji wished to go here. Before going to Shravanabelagul, whatever property he had, he used it by donating it etc. And took ablative initiation from Acharya Shantisagar Maharaj in Shravanabelagul. At that time, your auspicious name was Chhutalk Parshkirti While meditating on meditation, you increased your mind by applying your mind and started living in the practice.
Four years later Acharyapadaka Chaturmas took place in Kumbhoj (Bahubali Pahat). At that time, Acharya Mahagajan, seeing the character's cleanliness of Chhutalka, initiated him with Elak, which is the best place in Shravakpada.
A special thing happened on Bahubali Hill that the visiting devotee Shiromani Seth Poonamchand Ghasilalji came for Acharyavandana
And at the feet of Maharaj, I prayed that I wanted to draw a union for Sammedashishji. Give us an opportunity to serve by visiting your union. Acharya Maharaj consented to the request of the Sanghbhakta Shiromani ji with a pompous view. In the auspicious time, Sangha departed for the shrine of Tirtharaj. Alak Parthkirtin also did Bihar with the Sangh for the shutdown of Sritirtharaj. After arriving at Sammedashikhar
More about this source textSource text required for additional translation information Conferences of students, what to say then? You became a very early scholar. In the meantime, Shri Acharya Maharaj gave you the Digambara initiation in Sonagir Siddhakshetra, at that time he decorated you with the name of Muni Kunthusagar. After the growth in your character, the softness in knowledge also increased. Lalitpur
With the Chaturmas, you continued to study 'equal' after the Chatermas of Eider. How ridiculous you have become today to write a scholar is ridiculous. Your scholarship is clear from this that now you have also started creating blind in Sanskrit. We cannot compare you with scholars who have been educated with big 2 titles after studying for many years. Because
There is not only knowledge in you but the character which is the fruit of knowledge, it is fully authorized and exists.
Therefore, because of having pure knowledge of self-knowledge, you have been worshiped by all. Just like you have a special movement in scripture, you also have full authority in oratory. You are well aware of the way of attracting the heart of listeners, the way of representing objects and creating disrespect from the world. On seeing your qualities, sobriety, people cannot live without saying that Acharya Shantisagar Maharaj has named your name Kunthusagar very thoughtfully.
You have done a lot of proselytizing with your talent in your aristocrats and your alkaline condition. For the promotion of sanskars, we have done continuous industry. You have Sanskrit to Yajnopavitt Sanskrit to about three to four lakh persons. And by sacrificing alcohol, meat and honey, it has been sacrificed in the hearts of millions of people. Thousands have been removed from falsehood and made a trend in the synagogue. The monk avastha has awakened the religion by visiting several places in the northwest. The province of Gujarat, which was very far behind in terms of character and restraint, has made people stable in religion by staying in small villages. Today, for the face of Jain fraternity of Gujarat, you get an expression that "if you are a monk, then be like this".
Sudasna, Timba, Aluva, Manikpura, Mohanpura, Badasan, Pethapur, Oran, etc. are the rulers of many big institutions.
Similarly your preaching has a deep impact on the big 2 King Maharajavas. Many Rajavans, inspired by your teachings, have pledged to maintain a day of non-violence in their kingdom. You are welcomed and happening by the great King Maharajavas in Gujarat. To preach your preaching
Influence is going on.
In the presence of many thousands during the last Taranga festival,
Pujyashree has been decorated with Acharyapada before Chatha Sangha. Because of you, many sages and millions of devotees are benefited. This is your brief introduction. An independent book can only be made if written completely.
translator. Translator of this book Mr. Dharmaratna is Pt. Lalaramji Shastri, a well-known scholar and successful translator in society. He has served literature by translating any number of texts till date. Before this, you have translated all the works of Acharyasri Shriki with Gurubhakti. We are grateful to Mr. Honorable Panditji for this.
Help with publishing. The gentlemen whom we have helped in the publication of this book have given an introduction elsewhere. We are also grateful to him.
In today's age, there is a supernatural benevolence of the people by Acharyashrike, Dharma is unique. Those gentlemen who want to do their own autobiography by doing self-study of the texts of Pujyavarya, these Acharyas should become permanent members of Kunthusagar Granthamala They will get each book a prize. Poojyashreeka Vihar should be long past this Indo-Bhoomipar and welfare of alms is our heartfelt spirit. Gurcharanbhakta solapur
Vardhman Parshwanath Shastri, Dt. 22-7-40
(Vidyavachaspati)
1.आचार्यश्री अनुभवनंदीजी महाराज
Acharya Shri 108 Kunthusagarji Maharaj
आचार्य श्री १०८ शांति सागरजी महाराज १८७२ (चरित्रचक्रवर्ती) Acharya Shri 108 Shanti Sagarji Maharaj 1872 (Charitrachakravarti)
आचार्य श्री १०८ शांति सागरजी महाराज १८७२ (चरित्रचक्रवर्ती) Acharya Shri 108 Shanti Sagarji Maharaj 1872 (Charitrachakravarti)
Acharya Shri 108 Shanti Sagarji Maharaj 1872 (Charitrachakravarti)
Acharya Shri 108 Shantisagarji Maharaj (Charitra Chakravarti)
#KunthusagarJiMaharajACHARYASHRISHANTISAGARJIM.S.
AcharyaShriShantiSagarJiMaharaj1872DevendraKirtiJi
AcharyaShriShantiSagarJiMaharaj1872DevendraKirtiJi
1000
#KunthusagarJiMaharajACHARYASHRISHANTISAGARJIM.S.
KunthusagarJiMaharajACHARYASHRISHANTISAGARJIM.S.
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