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श्रुतघराचार्यों की परंपरामें द्वितीय क्रमांक पर आचार्य धरसेनका नाम आता है। धवलामें बताया गया है कि षटखण्डागमका विषयके ज्ञाता आचार्य धरसेन थे। सौराष्ट्र देशके गिरिनगर नामके नगरको चन्द्रगुफामें रहने वाले अष्टांग महानिमित्तके पारगामी, प्रवचनवत्सल और अङ्गश्रतुके विच्छेदकी आशंका से भीत धरसेनाचार्यने किसी धर्मोत्सव आदिके निमित्तसे महिमानामकी नगरीमें सम्मिलित हुए दक्षिणापथके आचार्यों के पास एक पत्र लिखा। इस पत्रमें उन्होंने यह इच्छा व्यक्त की कि योग्य शिष्य उनके पास आकर षटखण्डागमका अध्ययन करें। दक्षिण देशके आचार्यों ने शास्त्र के अर्थग्रहण और धारणमें समर्थ देश, कुल, शील, और जातिसे उत्तम, समस्त कलाओंमें पारंगत दो आचार्योंको वेणा नदीके तटसे आन्ध्रदेश सेभेजा। इन दोनोंने वहाँ पहुँचकर आचार्य धरसेनकी तीन प्रदक्षिणाएँ दी और उनके चरणोंमें बठैकर सविनय नमस्कार किया। आचार्य धरसेनने उन दोनों योग्य शिष्योंकी परीक्षा ली और परीक्षामें उत्तीर्ण होने के पश्चात् उन्हें सिद्धान्तकी शिक्षा दी। ये दोनों मुनि पुष्पदंतु और भतूबलि नामके थे| यह शिक्षा आषाढ शुक्ला एकादशीको ज्यों ही पूर्ण हुई, वर्षा कालके समीप आ जानेसे उसी दिन अपने पाससे धरसेनने उन्हें विदा कर दिया। दोनों शिष्यों ने गुरुकी आज्ञा अनुल्लघंनीय मानकर उसका पालन किया और वहाँसे चलकर अकंलेश्वरमें चातुर्मास किया।
इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार और विबुध श्रीधरकृत श्रुतावतारमें लिखा है कि धरसेनाचार्यको ज्ञात हुआ कि उनको मृत्यु निकट है। अतएव इन्हें उस कारण क्लेश न हो, इस लिए उन्होंने उन मुनियोंको तत्काल अपने पाससे विदा कर दिया।
"आत्मनो निकटमरण ज्ञात्वा धरसेन एतयोर्मा क्लेशो भवतु इति मत्वा तन्मुनिविसर्जनं करिष्यति।"
संभव है कि भूतबलि और पुष्पदन्तके वहाँ रहनेसे आचार्यके ध्यान और तपमें विघ्न होता और विशेषतः उस स्थितिमें जबकि वे श्रुतरक्षाका अपना कर्तव्य पुरा कर चके थे| आचार्य धरसेनको यह इच्छा रही होगी कि उनके योग्य शिष्य यहाँसे जाकर श्रुतका प्रचार करें। जो भी हो, धवलामें आचार्य वीरसेनने धरसेनका संक्षिप्त परिचय उक्त प्रकारसे प्रस्तुत किया है।
धवलाटीकासे आचार्य धरसेनके गुरुके नामका पता नहीं चलता। इन्द्र नन्दिके श्रुतावतारमें लोहार्य तककी गुरुपरंपराके पश्चात् विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हद्दत्त इन चार आचार्योंका उल्लेख आया है। ये सभी आचार्य अंगों और पूर्वोके एकदेशज्ञाता थे। तदनन्तर अर्हदबलिका उल्लेख आता है। ये बड़े भारी संघनायक थे और इन्होंने संघोंको स्थापना की थी। अर्हदबलिके पश्चात् श्रुतावतारमें माघनन्दिका नाम आया है। इन माधनन्दिके पश्चात् ही धर सेनके नामका उल्लेख आया है। इस प्रकार श्रुतावतारमें अर्हंदबलि, माघनन्दि और धरसेन इन तीन आचार्यों का उल्लेख मिलता है। इन तीनोंका परस्परमें गुरुशिष्य सम्बन्ध था या नहीं, इसका निर्देश इन्द्रनन्दिने नहीं किया है।
नन्दिसंघकी प्राकृतपट्टावलोसे यह अवगत होता है कि अर्हदबलि, माघ नन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि एक दूसरेके उत्तराधिकारी हैं। अतएव धरसेनके दादागुरु अर्हदबलि और गुरु माधनन्दि संभव है। नन्दिसंघकी संस्कृत गुर्वावलिमें माघनन्दिका नाम आया है। गुर्वावलीके आरम्भमें भद्रबाहु और उनके शिष्य गुप्तिगुप्तकी वन्दना की गयी है, किन्तु उनके नामके साथ संघ आदिका निर्देश नहीं है। वंदनाके अनन्तर मुलसंघमें नन्दिसंघ-बलात्कारगणके उत्पन्न होनेके साथ ही माघनन्दिका नाम आया है। बहुत संभव है कि संघभेदव्यव स्थापक अर्हदबलिने इन्हें ही नन्दिसंघका अग्रणी बनाया हो। माघनन्दिके नामके साथ नन्दिपव भी नन्दिसंघका द्योतक है। गुर्वावलीमें धरसेनका निर्देश नहीं है। अतः इस गुर्वावलिके आधारपर यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता है कि धरसेनके गुरु माघनन्दि थे। यह सत्य है कि धरसेन विद्यानुरागी थे और शास्त्राभ्यासमें संलग्न रहनेके कारण संघका नायकत्व माघनन्दिके अन्य शिष्य जिनचन्द्रपर पड़ा हो। धरसेनने पुष्पदन्त और भूतबलिको सिद्धान्त-आगमका अध्ययन कराकर अपनी एक नयी परम्परा स्थापित की हो। माघनन्दिका निर्देश जंबुदीवपण्णती में भी पाया जाता है।
गयरायदोसमोहो सुदसायरपारओ मइपगम्भो।
तवसंगमसंपण्णो विक्खाओ माघणंदिगुरू।।१५४।।
तस्सेव य वरसिस्सो निम्मलवरणाणचरणसंजुत्तो।
सम्मद्दणसुद्धो सिरिणंदिगुरू त्ति विक्खाओ ।।१५६॥
उपर्युक्त गुर्वावली और प्रशस्तिसे ध्वनित होता है कि धरसेनके गुरु संभवत: माघनन्दि थे। इन माघनन्दिके सम्बन्धमें एक किवदंती भी प्रसिद्ध है, जिसमें उन्हें श्रुतका विशेषज्ञ तथा किसी कारणवश चरित्रस्खलनके पश्चात् पुन: दीक्षित होने का निर्देश किया है। अस्तु, प्राकृतपट्टादली एवं इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारके आधारपर धरसेनाचार्यके गुरु माघनन्दि और दारा गुरु अर्हदबलिने होने चाहिए।
नन्दिसंघको प्राकृतपट्टावलीके अनुसार आचार्य धरसेनका समय वीर निर्वाण सं. ६१४ के पश्चात् आता है। धरसेनके एक 'जोणिपाहुड' ग्रन्थका उल्लेख बृहटटिप्पणि नामक सूचीमें आया है। इस ग्रन्थका निर्माण वीर नि. . सं ६०० के पश्चात् हुआ माना गया है। इसी ग्रंथकी एक पाण्डुलिपि भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूनामें है। इस प्रतिमें ग्रंथका नाम तो 'योनिप्राभृत' ही लिखा है, किन्तु कर्त्ताका नाम 'पण्हसवग' मुनि बताया है। इन महामुनिने कुसुमाण्डिनी देवीसे इस ग्रन्थके ज्ञानको प्राप्त किया था। और उसे अपने शिष्य पुष्पदन्त एवं भूतबलिके लिए लिखा था। इस कथनसे ग्रन्थके धरसेनरचित होनेकी सम्भावना व्यक्त होती है। प्रज्ञाश्रमणत्व एक ऋद्धिका नाम है। सम्भवत्तया धरसेनाचार्य इस ऋद्धिके धारी थे। अतएव उन्हें प्रज्ञा श्रमण कहा गया है। षट्खण्डागममें प्रशाश्रमणोंको नमस्कार किया गया है-
णमो पण्णसमणाणं
प्रज्ञा चार प्रकारको होती है- (१) औत्पत्तिकी, (२) वैनायिकी, (३) कमेजा और (४) पारिणामिकी। इनमें पूर्वजन्मसम्बधी चार प्रकारकी निर्मलबुद्धिके बलसे विनयपूर्वक बारह अंगोंका अवधारण कर जो प्रथमतः देवगतिमें और तत्पश्चात् अविनष्ट संस्कारके साथ मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं उनके औत्पत्तिकी प्रज्ञा कही है। प्रज्ञाका उक्त संस्कार अवशिष्ट रहनेके कारण चौदह पूर्वो का उत्तर देनेमें वे समर्थ रहते हैं। विनयपूर्वक द्वादश अंगोंके अध्ययनसे जो बुद्धि उत्पन्न होती है वह वैनयिकी प्रज्ञा है। गुरूपदेशके विना तपश्चरणके प्रभावसे उत्पन्न होने वाली प्रज्ञा कर्मजा कहलाती है। इस प्रकारकी प्रज्ञा औषधसेवनसे भी उत्पन्न होती है। जातिविशेषसे उत्पन्न बुद्धि पारिणामिकी कहलाती है।
धरसेनको प्रज्ञाश्रमणका पूर्वीज्ञान था। अतः 'योनिप्राभृत’ ग्रंथ धरसेनाचार्य द्वारा रचित हो, तो कोई आश्चर्य नहीं। इस आधारपर इनका समय वीरनिर्वाण संवत् ६०० संभव है।
प्राकृतपट्टावलोके अनुसार वीर- निर्वाण-संवत् ६१४ - ६८३ के बीच धरसेनका समय होना चाहिए। पट्टावलीमें धरसेनका आचार्य-काल १९ वर्ष बत्तलाया है। इससे सिद्ध होता है कि वीर-निर्वाण संवत् ६३३ तक धरसेन जीवित रहे हैं और वीर-निर्वाण संवत् ६३० या ६३१ में पुष्पदन्त और भूतबलिको श्रुत का अध्ययन कराया है। इस आधारपर धरसेनका समय ई. सन् ७३-१०६ ई. तक आता है।
अहिवल्लि माघनंदि य धरसेणं पुप्फयंत भूदबली ।
अडवीसं इगवीसं उगणीसं तीस वीस वास पुणो।
अर्थात् अर्हदबलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलिका आचार्य काल क्रमशः २८वर्ष, २१वर्ष, १९ वर्ष, ३० वर्ष और २० वर्ष है। इस उल्लेखसे धरसेनका समय स्पष्टतः ई. सन्की प्रथम शताब्दी है।
डा. हीरालालजी जैन, सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, पं. हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्री आदि भी धरसेनका प्रायः यही समय मानते हैं।
एक अन्य अभिलेखीय प्रमाणसे भी धरसेनके समयपर प्रकाश पड़ता है| उपलब्ध पुरातत्वके आधारपर कहा जाता है कि आचार्य धरसेन गिरिनगरकी जिस गुफामें रहते थे वह गुफा बाबा प्यारा मठके निकट होनी चाहिए। इस गुफामें स्वस्तिक, भद्रासन, नन्दिपद, मीनयुगल और कलशके चिह्न खुदे हुए हैं। एक शिलालेख भी यहाँ प्राप्त हुआ है, जिसमें क्षत्रप नरेश चष्टण और जय दामनके अतिरिक्त गिरिनगरमें देवासुर, नाग, यक्ष, राक्षस, केवलज्ञान, जरामरण, चैत्रशुक्ल पञ्चमी ये सब शब्द भी पढ़े जाते हैं। बीच-बीचमें अभिलेखके खण्डित होनेके कारण समस्त लेखका सार ज्ञात नहीं किया जा सकता है। जो शब्दावली पढ़ी जा सकती है उसमें उक्त क्षत्रप राजवंशके काल में किसी बड़े ज्ञानी जैन मुनिके देहत्यागका वृत्तान्त प्रतीत होता है। अभिलेखमें तिथिका निर्देश नहीं है, पर क्षत्रप कालीन राजवंशके साथ सम्बन्ध रहनेसे शककी प्रथम शताब्दी होना चाहिए। डा. ज्योतिप्रसादजीने लिखा है -
''The Junagarh Jaina stone inscription, originally discovered in That very Candragupha of Girinagar which tradition makes the abode of Dharsena, throws interesting light on the lower limit of the date of these redactors of the canon. The inscription is undated, but as author is mentioned as the great grandson of Castana, the grandson of Jayadaman and the son of how could the tradition take such a legendary character"
अर्थात् इस शिलालेखके आधारपर धरसेनका समय ई. सत् १५० के पूर्व होना चाहिये। यतः जयदामनके पुत्र रुद्रदामनका सुप्रसिद्ध संस्कृत-लेख गिरनारकी ऐतिहासिक शिलापर खुदा हुआ शक सं. ७२ का है। अतएव यह प्रायः संभव है कि उक्त अभिलेख धरसेनके समाधिमरणको स्मृतिमें उत्कीर्ण किया गया हो।
इस प्रकार अभिलेखाय प्रमाणके आधारपर धरसेनका समय ई. सन् की प्रथम शताब्दी आता है। आचार्य धरसेन अपने समयके श्रुतज्ञ विद्वान थे। प्राकृत पट्टावली और इन्द्रनन्दिके श्रुतवतारके आधारपर भी धरसेनका समय वीर नि. सं. ६०० अर्थात् ई. सन् ७३ के लगभग आता है।
आचार्य धरसेन सिद्धान्तशास्त्र के ज्ञाता थे। उनके चरणों में बैठकर आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलिने कर्मशास्त्र और सिद्धान्तका अध्ययन किया। वे सफल शिक्षक और आचार्य थे| आचार्य वीरसेनने धरसेनकी विद्वत्ता और पाण्डित्यका वर्णन करते हुए बताया है कि वे परवादिरूपी हाथोके समूहके मदका नाश करने के लिए अंगम सिंहके समान हैं, सिद्धान्तरूपी श्रुतका पूर्णतया मन्थन करने वाले हैं। अतएव श्रुतके पाण्डित्यके कारण वे महनीय यशके धारी विद्वान हैं। वीरसेनने लिखा है-
"पसियउ महु धरसेणो पर-वाइ-गओह-दाण-वरसीहो
सिद्ध तामिय-सायर-तरंग-संघाय-धोय-मणी।
स्पष्ट है कि धरसेन आचार्य सिद्धान्तविषयक प्रौढ़ विद्वान थे। श्रुतकी नष्ट होती हुई परम्पराको रक्षा इन्हींके द्वारा हुई है। इनके विषय में 'षट्खण्डा भम' टीकासे जो तथ्य उपलब्ध होते हैं, उनसे ऐसा ज्ञात होता है कि धरसेना चार्य मन्त्र-तन्त्रके भी ज्ञाता थे। इनका योनिप्राभृत' नामक मन्त्रशास्त्रसंबन्धी कोई ग्रन्थ अवश्य रहा है। इस योनिप्राभृतका निर्देश 'धवलाटोका’ में भी प्राप्त होता है-
'जोणिपाहुडे भषिद-मंत-तंत-सत्तोआ पोग्गलाणुभागो त्ति धेन-तन्वा।’
अतएव 'बृहटिप्पणिका' के साथ धवलाटोकामें भी 'योनिप्रामृत' का निर्देश उपलब्ध होता है। इस आलोक में धरसेमरचित योनिप्रामृत' ग्रंथपर अविश्वास नहीं किया जा सकता है। धवलाटोकामें बताया गया है कि पुष्पदन्त और भूतवलिको बुद्धि-परीक्षाके हेतु धरसेनाचार्य ने दो मन्त्र दिये थे। उनमें एक मन्त्र अधिक अक्षर वाला था और दसरा हीनाक्षर था। गुरुने दो दिनके उपवासके पश्चात् उन मन्त्रोंको सिद्ध करनेका आदेश दिया। शिष्य मन्त्रसाधनामें संलग्न हो गये। जब मन्त्रके प्रभावसे उनको अधिष्ठात्री देवियाँ उपस्थित हुई तो एक देवीके दौत बाहर निकले हुए थे और दूसरी कानी थी। देवता विकृतान नहीं होते; इस प्रकार निश्चय कर उन दोनोंने मंत्रसम्बन्धी व्याकरणशास्त्रके आधारपर उन मन्त्रोंका शोधन किया और मन्त्रोंको शुद्धकर पुनः साधनामें संलग्न हुए। वे देवियाँ पुनः सुन्दर और सौम्य रूपमें प्रस्तुत हुई। सिद्धिके अनन्सर वे दोनों शिष्य गरुके समक्ष उपस्थित हुए और विनयपूर्वक विद्यासिद्धि सम्बन्धी समस्त वृत्तान्त निवेदित कर दिया। गरु धरसेनाचार्य शिष्योंके ज्ञान से प्रभावित हुए और उन्होंने शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ वारमे सिदान्त का अध्यापन प्रारंभ किया।'
धवलग्रंथके इस उल्लेखसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि धरसेनाचार्य मन्त्र-तन्त्रके ज्ञाता थे। अतः उनका मन्त्रशास्त्रसम्बन्धी 'योनिप्राभृत' अन्य अवश्य रहा है।
आगमसम्बन्धी ज्ञानके लिए षट्खण्डागम ग्रन्थ ही प्रमाणरूप है। इस ग्रंथका समस्त विषय उन्हीके द्वारा प्रतिपादित है। पूष्पदन्त और भूतबलिने उनसे ही सिद्धान्तविषयक ज्ञान प्राप्त कर षट्खण्डागमके सूत्रोंकी रचना की है।
धवलाटीकासे धरसेनाचार्यके सम्बन्धमें निम्नलिवित जानकारी प्राप्त होती है-
१. धरसेन सभी अंग और पूर्वो के एकदेश ज्ञाता थे।
२. अष्टांग-महानिमित्तके पारगामी थे।
३. लेखनकलामें प्रवीण थे।
४. मन्त्र-तन्त्र आदि शास्त्रोके वेत्ता थे।
५. महाकम्मपयद्धिपाहुडके वेत्ता थे।
६. प्रवचन और शिक्षण देनेकी कलामें पटु थे।
७. प्रवचनवत्सल थे।
८. प्रश्नोत्तरशैलीमें शंका-समाधानपूर्वक शिक्षा देनेमें कुशल थे।
९. महनीय विषयको संक्षेपमें प्रस्तुत करना भी उन्हें आता था।
१०. आग्रायणीयपूर्वक पञ्चम वस्तुके चतुर्थ प्राभृतके व्याख्यानकर्ता थे।
११. पाठन, चितन एवं शिष्य-उद्बोधनको कलामें पारंगत थे।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
श्रुतघराचार्यों की परंपरामें द्वितीय क्रमांक पर आचार्य धरसेनका नाम आता है। धवलामें बताया गया है कि छपखंडागम विषयके ज्ञाता आचार्य धरसेन थे। सौराष्ट्र देशके गिरिनगर नामके नगरको चन्द्रगुफामें रहने वाले अष्टांग महानिमित्तके पारगामी, प्रवचनवत्सल और अङ्गश्रतुके विच्छेदकी आशंका से भीत धरसेनाचार्यने किसी धर्मोत्सव आदिके निमित्तसे महिमानामकी नगरीमें सम्मिलित हुए दक्षिणापथके आचार्यों के पास एक पत्र लिखा। इस पत्रमें उन्होंने यह इच्छा व्यक्त की कि योग्य शिष्य उनके पास आकर षटखण्डागमका अध्ययन करें। दक्षिण देशके आचार्यों ने शास्त्र के अर्थग्रहण और धारणमें समर्थ देश, कुल, शील, और जातिसे उत्तम, समस्त कलाओंमें पारंगत दो आचार्योंको वेणा नदीके तटसे आन्ध्रदेश सेभेजा। इन दोनोंने वहाँ पहुँचकर आचार्य धरसेनकी तीन प्रदक्षिणाएँ दी और उनके चरणोंमें बठैकर सविनय नमस्कार किया। आचार्य धरसेनने उन दोनों योग्य शिष्योंकी परीक्षा ली और परीक्षामें उत्तीर्ण होने के पश्चात् उन्हें सिद्धान्तकी शिक्षा दी। ये दोनों मुनि पुष्पदंतु और भतूबलि नामके थे| यह शिक्षा आषाढ शुक्ला एकादशीको ज्यों ही पूर्ण हुई, वर्षा कालके समीप आ जानेसे उसी दिन अपने पाससे धरसेनने उन्हें विदा कर दिया। दोनों शिष्यों ने गुरुकी आज्ञा अनुल्लघंनीय मानकर उसका पालन किया और वहाँसे चलकर अकंलेश्वरमें चातुर्मास किया।
इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार और विबुध श्रीधरकृत श्रुतावतारमें लिखा है कि धरसेनाचार्यको ज्ञात हुआ कि उनको मृत्यु निकट है। अतएव इन्हें उस कारण क्लेश न हो, इस लिए उन्होंने उन मुनियोंको तत्काल अपने पाससे विदा कर दिया।
"आत्मनो निकटमरण ज्ञात्वा धरसेन एतयोर्मा क्लेशो भवतु इति मत्वा तन्मुनिविसर्जनं करिष्यति।"
संभव है कि भूतबलि और पुष्पदन्तके वहाँ रहनेसे आचार्यके ध्यान और तपमें विघ्न होता और विशेषतः उस स्थितिमें जबकि वे श्रुतरक्षाका अपना कर्तव्य पुरा कर चके थे| आचार्य धरसेनको यह इच्छा रही होगी कि उनके योग्य शिष्य यहाँसे जाकर श्रुतका प्रचार करें। जो भी हो, धवलामें आचार्य वीरसेनने धरसेनका संक्षिप्त परिचय उक्त प्रकारसे प्रस्तुत किया है।
धवलाटीकासे आचार्य धरसेनके गुरुके नामका पता नहीं चलता। इन्द्र नन्दिके श्रुतावतारमें लोहार्य तककी गुरुपरंपराके पश्चात् विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हद्दत्त इन चार आचार्योंका उल्लेख आया है। ये सभी आचार्य अंगों और पूर्वोके एकदेशज्ञाता थे। तदनन्तर अर्हदबलिका उल्लेख आता है। ये बड़े भारी संघनायक थे और इन्होंने संघोंको स्थापना की थी। अर्हदबलिके पश्चात् श्रुतावतारमें माघनन्दिका नाम आया है। इन माधनन्दिके पश्चात् ही धर सेनके नामका उल्लेख आया है। इस प्रकार श्रुतावतारमें अर्हंदबलि, माघनन्दि और धरसेन इन तीन आचार्यों का उल्लेख मिलता है। इन तीनोंका परस्परमें गुरुशिष्य सम्बन्ध था या नहीं, इसका निर्देश इन्द्रनन्दिने नहीं किया है।
नन्दिसंघकी प्राकृतपट्टावलोसे यह अवगत होता है कि अर्हदबलि, माघ नन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि एक दूसरेके उत्तराधिकारी हैं। अतएव धरसेनके दादागुरु अर्हदबलि और गुरु माधनन्दि संभव है। नन्दिसंघकी संस्कृत गुर्वावलिमें माघनन्दिका नाम आया है। गुर्वावलीके आरम्भमें भद्रबाहु और उनके शिष्य गुप्तिगुप्तकी वन्दना की गयी है, किन्तु उनके नामके साथ संघ आदिका निर्देश नहीं है। वंदनाके अनन्तर मुलसंघमें नन्दिसंघ-बलात्कारगणके उत्पन्न होनेके साथ ही माघनन्दिका नाम आया है। बहुत संभव है कि संघभेदव्यव स्थापक अर्हदबलिने इन्हें ही नन्दिसंघका अग्रणी बनाया हो। माघनन्दिके नामके साथ नन्दिपव भी नन्दिसंघका द्योतक है। गुर्वावलीमें धरसेनका निर्देश नहीं है। अतः इस गुर्वावलिके आधारपर यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता है कि धरसेनके गुरु माघनन्दि थे। यह सत्य है कि धरसेन विद्यानुरागी थे और शास्त्राभ्यासमें संलग्न रहनेके कारण संघका नायकत्व माघनन्दिके अन्य शिष्य जिनचन्द्रपर पड़ा हो। धरसेनने पुष्पदन्त और भूतबलिको सिद्धान्त-आगमका अध्ययन कराकर अपनी एक नयी परम्परा स्थापित की हो। माघनन्दिका निर्देश जंबुदीवपण्णती में भी पाया जाता है।
गयरायदोसमोहो सुदसायरपारओ मइपगम्भो।
तवसंगमसंपण्णो विक्खाओ माघणंदिगुरू।।१५४।।
तस्सेव य वरसिस्सो निम्मलवरणाणचरणसंजुत्तो।
सम्मद्दणसुद्धो सिरिणंदिगुरू त्ति विक्खाओ ।।१५६॥
उपर्युक्त गुर्वावली और प्रशस्तिसे ध्वनित होता है कि धरसेनके गुरु संभवत: माघनन्दि थे। इन माघनन्दिके सम्बन्धमें एक किवदंती भी प्रसिद्ध है, जिसमें उन्हें श्रुतका विशेषज्ञ तथा किसी कारणवश चरित्रस्खलनके पश्चात् पुन: दीक्षित होने का निर्देश किया है। अस्तु, प्राकृतपट्टादली एवं इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारके आधारपर धरसेनाचार्यके गुरु माघनन्दि और दारा गुरु अर्हदबलिने होने चाहिए।
नन्दिसंघको प्राकृतपट्टावलीके अनुसार आचार्य धरसेनका समय वीर निर्वाण सं. ६१४ के पश्चात् आता है। धरसेनके एक 'जोणिपाहुड' ग्रन्थका उल्लेख बृहटटिप्पणि नामक सूचीमें आया है। इस ग्रन्थका निर्माण वीर नि. . सं ६०० के पश्चात् हुआ माना गया है। इसी ग्रंथकी एक पाण्डुलिपि भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूनामें है। इस प्रतिमें ग्रंथका नाम तो 'योनिप्राभृत' ही लिखा है, किन्तु कर्त्ताका नाम 'पण्हसवग' मुनि बताया है। इन महामुनिने कुसुमाण्डिनी देवीसे इस ग्रन्थके ज्ञानको प्राप्त किया था। और उसे अपने शिष्य पुष्पदन्त एवं भूतबलिके लिए लिखा था। इस कथनसे ग्रन्थके धरसेनरचित होनेकी सम्भावना व्यक्त होती है। प्रज्ञाश्रमणत्व एक ऋद्धिका नाम है। सम्भवत्तया धरसेनाचार्य इस ऋद्धिके धारी थे। अतएव उन्हें प्रज्ञा श्रमण कहा गया है। षट्खण्डागममें प्रशाश्रमणोंको नमस्कार किया गया है-
णमो पण्णसमणाणं
प्रज्ञा चार प्रकारको होती है- (१) औत्पत्तिकी, (२) वैनायिकी, (३) कमेजा और (४) पारिणामिकी। इनमें पूर्वजन्मसम्बधी चार प्रकारकी निर्मलबुद्धिके बलसे विनयपूर्वक बारह अंगोंका अवधारण कर जो प्रथमतः देवगतिमें और तत्पश्चात् अविनष्ट संस्कारके साथ मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं उनके औत्पत्तिकी प्रज्ञा कही है। प्रज्ञाका उक्त संस्कार अवशिष्ट रहनेके कारण चौदह पूर्वो का उत्तर देनेमें वे समर्थ रहते हैं। विनयपूर्वक द्वादश अंगोंके अध्ययनसे जो बुद्धि उत्पन्न होती है वह वैनयिकी प्रज्ञा है। गुरूपदेशके विना तपश्चरणके प्रभावसे उत्पन्न होने वाली प्रज्ञा कर्मजा कहलाती है। इस प्रकारकी प्रज्ञा औषधसेवनसे भी उत्पन्न होती है। जातिविशेषसे उत्पन्न बुद्धि पारिणामिकी कहलाती है।
धरसेनको प्रज्ञाश्रमणका पूर्वीज्ञान था। अतः 'योनिप्राभृत’ ग्रंथ धरसेनाचार्य द्वारा रचित हो, तो कोई आश्चर्य नहीं। इस आधारपर इनका समय वीरनिर्वाण संवत् ६०० संभव है।
प्राकृतपट्टावलोके अनुसार वीर- निर्वाण-संवत् ६१४ - ६८३ के बीच धरसेनका समय होना चाहिए। पट्टावलीमें धरसेनका आचार्य-काल १९ वर्ष बत्तलाया है। इससे सिद्ध होता है कि वीर-निर्वाण संवत् ६३३ तक धरसेन जीवित रहे हैं और वीर-निर्वाण संवत् ६३० या ६३१ में पुष्पदन्त और भूतबलिको श्रुत का अध्ययन कराया है। इस आधारपर धरसेनका समय ई. सन् ७३-१०६ ई. तक आता है।
अहिवल्लि माघनंदि य धरसेणं पुप्फयंत भूदबली ।
अडवीसं इगवीसं उगणीसं तीस वीस वास पुणो।
अर्थात् अर्हदबलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलिका आचार्य काल क्रमशः २८वर्ष, २१वर्ष, १९ वर्ष, ३० वर्ष और २० वर्ष है। इस उल्लेखसे धरसेनका समय स्पष्टतः ई. सन्की प्रथम शताब्दी है।
डा. हीरालालजी जैन, सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, पं. हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्री आदि भी धरसेनका प्रायः यही समय मानते हैं।
एक अन्य अभिलेखीय प्रमाणसे भी धरसेनके समयपर प्रकाश पड़ता है| उपलब्ध पुरातत्वके आधारपर कहा जाता है कि आचार्य धरसेन गिरिनगरकी जिस गुफामें रहते थे वह गुफा बाबा प्यारा मठके निकट होनी चाहिए। इस गुफामें स्वस्तिक, भद्रासन, नन्दिपद, मीनयुगल और कलशके चिह्न खुदे हुए हैं। एक शिलालेख भी यहाँ प्राप्त हुआ है, जिसमें क्षत्रप नरेश चष्टण और जय दामनके अतिरिक्त गिरिनगरमें देवासुर, नाग, यक्ष, राक्षस, केवलज्ञान, जरामरण, चैत्रशुक्ल पञ्चमी ये सब शब्द भी पढ़े जाते हैं। बीच-बीचमें अभिलेखके खण्डित होनेके कारण समस्त लेखका सार ज्ञात नहीं किया जा सकता है। जो शब्दावली पढ़ी जा सकती है उसमें उक्त क्षत्रप राजवंशके काल में किसी बड़े ज्ञानी जैन मुनिके देहत्यागका वृत्तान्त प्रतीत होता है। अभिलेखमें तिथिका निर्देश नहीं है, पर क्षत्रप कालीन राजवंशके साथ सम्बन्ध रहनेसे शककी प्रथम शताब्दी होना चाहिए। डा. ज्योतिप्रसादजीने लिखा है -
''The Junagarh Jaina stone inscription, originally discovered in That very Candragupha of Girinagar which tradition makes the abode of Dharsena, throws interesting light on the lower limit of the date of these redactors of the canon. The inscription is undated, but as author is mentioned as the great grandson of Castana, the grandson of Jayadaman and the son of how could the tradition take such a legendary character"
अर्थात् इस शिलालेखके आधारपर धरसेनका समय ई. सत् १५० के पूर्व होना चाहिये। यतः जयदामनके पुत्र रुद्रदामनका सुप्रसिद्ध संस्कृत-लेख गिरनारकी ऐतिहासिक शिलापर खुदा हुआ शक सं. ७२ का है। अतएव यह प्रायः संभव है कि उक्त अभिलेख धरसेनके समाधिमरणको स्मृतिमें उत्कीर्ण किया गया हो।
इस प्रकार अभिलेखाय प्रमाणके आधारपर धरसेनका समय ई. सन् की प्रथम शताब्दी आता है। आचार्य धरसेन अपने समयके श्रुतज्ञ विद्वान थे। प्राकृत पट्टावली और इन्द्रनन्दिके श्रुतवतारके आधारपर भी धरसेनका समय वीर नि. सं. ६०० अर्थात् ई. सन् ७३ के लगभग आता है।
आचार्य धरसेन सिद्धान्तशास्त्र के ज्ञाता थे। उनके चरणों में बैठकर आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलिने कर्मशास्त्र और सिद्धान्तका अध्ययन किया। वे सफल शिक्षक और आचार्य थे| आचार्य वीरसेनने धरसेनकी विद्वत्ता और पाण्डित्यका वर्णन करते हुए बताया है कि वे परवादिरूपी हाथोके समूहके मदका नाश करने के लिए अंगम सिंहके समान हैं, सिद्धान्तरूपी श्रुतका पूर्णतया मन्थन करने वाले हैं। अतएव श्रुतके पाण्डित्यके कारण वे महनीय यशके धारी विद्वान हैं। वीरसेनने लिखा है-
"पसियउ महु धरसेणो पर-वाइ-गओह-दाण-वरसीहो
सिद्ध तामिय-सायर-तरंग-संघाय-धोय-मणी।
स्पष्ट है कि धरसेन आचार्य सिद्धान्तविषयक प्रौढ़ विद्वान थे। श्रुतकी नष्ट होती हुई परम्पराको रक्षा इन्हींके द्वारा हुई है। इनके विषय में 'षट्खण्डा भम' टीकासे जो तथ्य उपलब्ध होते हैं, उनसे ऐसा ज्ञात होता है कि धरसेना चार्य मन्त्र-तन्त्रके भी ज्ञाता थे। इनका योनिप्राभृत' नामक मन्त्रशास्त्रसंबन्धी कोई ग्रन्थ अवश्य रहा है। इस योनिप्राभृतका निर्देश 'धवलाटोका’ में भी प्राप्त होता है-
'जोणिपाहुडे भषिद-मंत-तंत-सत्तोआ पोग्गलाणुभागो त्ति धेन-तन्वा।’
अतएव 'बृहटिप्पणिका' के साथ धवलाटोकामें भी 'योनिप्रामृत' का निर्देश उपलब्ध होता है। इस आलोक में धरसेमरचित योनिप्रामृत' ग्रंथपर अविश्वास नहीं किया जा सकता है। धवलाटोकामें बताया गया है कि पुष्पदन्त और भूतवलिको बुद्धि-परीक्षाके हेतु धरसेनाचार्य ने दो मन्त्र दिये थे। उनमें एक मन्त्र अधिक अक्षर वाला था और दसरा हीनाक्षर था। गुरुने दो दिनके उपवासके पश्चात् उन मन्त्रोंको सिद्ध करनेका आदेश दिया। शिष्य मन्त्रसाधनामें संलग्न हो गये। जब मन्त्रके प्रभावसे उनको अधिष्ठात्री देवियाँ उपस्थित हुई तो एक देवीके दौत बाहर निकले हुए थे और दूसरी कानी थी। देवता विकृतान नहीं होते; इस प्रकार निश्चय कर उन दोनोंने मंत्रसम्बन्धी व्याकरणशास्त्रके आधारपर उन मन्त्रोंका शोधन किया और मन्त्रोंको शुद्धकर पुनः साधनामें संलग्न हुए। वे देवियाँ पुनः सुन्दर और सौम्य रूपमें प्रस्तुत हुई। सिद्धिके अनन्सर वे दोनों शिष्य गरुके समक्ष उपस्थित हुए और विनयपूर्वक विद्यासिद्धि सम्बन्धी समस्त वृत्तान्त निवेदित कर दिया। गरु धरसेनाचार्य शिष्योंके ज्ञान से प्रभावित हुए और उन्होंने शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ वारमे सिदान्त का अध्यापन प्रारंभ किया।'
धवलग्रंथके इस उल्लेखसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि धरसेनाचार्य मन्त्र-तन्त्रके ज्ञाता थे। अतः उनका मन्त्रशास्त्रसम्बन्धी 'योनिप्राभृत' अन्य अवश्य रहा है।
आगमसम्बन्धी ज्ञानके लिए षट्खण्डागम ग्रन्थ ही प्रमाणरूप है। इस ग्रंथका समस्त विषय उन्हीके द्वारा प्रतिपादित है। पूष्पदन्त और भूतबलिने उनसे ही सिद्धान्तविषयक ज्ञान प्राप्त कर षट्खण्डागमके सूत्रोंकी रचना की है।
धवलाटीकासे धरसेनाचार्यके सम्बन्धमें निम्नलिवित जानकारी प्राप्त होती है-
१. धरसेन सभी अंग और पूर्वो के एकदेश ज्ञाता थे।
२. अष्टांग-महानिमित्तके पारगामी थे।
३. लेखनकलामें प्रवीण थे।
४. मन्त्र-तन्त्र आदि शास्त्रोके वेत्ता थे।
५. महाकम्मपयद्धिपाहुडके वेत्ता थे।
६. प्रवचन और शिक्षण देनेकी कलामें पटु थे।
७. प्रवचनवत्सल थे।
८. प्रश्नोत्तरशैलीमें शंका-समाधानपूर्वक शिक्षा देनेमें कुशल थे।
९. महनीय विषयको संक्षेपमें प्रस्तुत करना भी उन्हें आता था।
१०. आग्रायणीयपूर्वक पञ्चम वस्तुके चतुर्थ प्राभृतके व्याख्यानकर्ता थे।
११. पाठन, चितन एवं शिष्य-उद्बोधनको कलामें पारंगत थे।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा।
आचार्य श्री १०८ धरसेन महाराजजी
श्रुतघराचार्यों की परंपरामें द्वितीय क्रमांक पर आचार्य धरसेनका नाम आता है। धवलामें बताया गया है कि षटखण्डागमका विषयके ज्ञाता आचार्य धरसेन थे। सौराष्ट्र देशके गिरिनगर नामके नगरको चन्द्रगुफामें रहने वाले अष्टांग महानिमित्तके पारगामी, प्रवचनवत्सल और अङ्गश्रतुके विच्छेदकी आशंका से भीत धरसेनाचार्यने किसी धर्मोत्सव आदिके निमित्तसे महिमानामकी नगरीमें सम्मिलित हुए दक्षिणापथके आचार्यों के पास एक पत्र लिखा। इस पत्रमें उन्होंने यह इच्छा व्यक्त की कि योग्य शिष्य उनके पास आकर षटखण्डागमका अध्ययन करें। दक्षिण देशके आचार्यों ने शास्त्र के अर्थग्रहण और धारणमें समर्थ देश, कुल, शील, और जातिसे उत्तम, समस्त कलाओंमें पारंगत दो आचार्योंको वेणा नदीके तटसे आन्ध्रदेश सेभेजा। इन दोनोंने वहाँ पहुँचकर आचार्य धरसेनकी तीन प्रदक्षिणाएँ दी और उनके चरणोंमें बठैकर सविनय नमस्कार किया। आचार्य धरसेनने उन दोनों योग्य शिष्योंकी परीक्षा ली और परीक्षामें उत्तीर्ण होने के पश्चात् उन्हें सिद्धान्तकी शिक्षा दी। ये दोनों मुनि पुष्पदंतु और भतूबलि नामके थे| यह शिक्षा आषाढ शुक्ला एकादशीको ज्यों ही पूर्ण हुई, वर्षा कालके समीप आ जानेसे उसी दिन अपने पाससे धरसेनने उन्हें विदा कर दिया। दोनों शिष्यों ने गुरुकी आज्ञा अनुल्लघंनीय मानकर उसका पालन किया और वहाँसे चलकर अकंलेश्वरमें चातुर्मास किया।
इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार और विबुध श्रीधरकृत श्रुतावतारमें लिखा है कि धरसेनाचार्यको ज्ञात हुआ कि उनको मृत्यु निकट है। अतएव इन्हें उस कारण क्लेश न हो, इस लिए उन्होंने उन मुनियोंको तत्काल अपने पाससे विदा कर दिया।
"आत्मनो निकटमरण ज्ञात्वा धरसेन एतयोर्मा क्लेशो भवतु इति मत्वा तन्मुनिविसर्जनं करिष्यति।"
संभव है कि भूतबलि और पुष्पदन्तके वहाँ रहनेसे आचार्यके ध्यान और तपमें विघ्न होता और विशेषतः उस स्थितिमें जबकि वे श्रुतरक्षाका अपना कर्तव्य पुरा कर चके थे| आचार्य धरसेनको यह इच्छा रही होगी कि उनके योग्य शिष्य यहाँसे जाकर श्रुतका प्रचार करें। जो भी हो, धवलामें आचार्य वीरसेनने धरसेनका संक्षिप्त परिचय उक्त प्रकारसे प्रस्तुत किया है।
धवलाटीकासे आचार्य धरसेनके गुरुके नामका पता नहीं चलता। इन्द्र नन्दिके श्रुतावतारमें लोहार्य तककी गुरुपरंपराके पश्चात् विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हद्दत्त इन चार आचार्योंका उल्लेख आया है। ये सभी आचार्य अंगों और पूर्वोके एकदेशज्ञाता थे। तदनन्तर अर्हदबलिका उल्लेख आता है। ये बड़े भारी संघनायक थे और इन्होंने संघोंको स्थापना की थी। अर्हदबलिके पश्चात् श्रुतावतारमें माघनन्दिका नाम आया है। इन माधनन्दिके पश्चात् ही धर सेनके नामका उल्लेख आया है। इस प्रकार श्रुतावतारमें अर्हंदबलि, माघनन्दि और धरसेन इन तीन आचार्यों का उल्लेख मिलता है। इन तीनोंका परस्परमें गुरुशिष्य सम्बन्ध था या नहीं, इसका निर्देश इन्द्रनन्दिने नहीं किया है।
नन्दिसंघकी प्राकृतपट्टावलोसे यह अवगत होता है कि अर्हदबलि, माघ नन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि एक दूसरेके उत्तराधिकारी हैं। अतएव धरसेनके दादागुरु अर्हदबलि और गुरु माधनन्दि संभव है। नन्दिसंघकी संस्कृत गुर्वावलिमें माघनन्दिका नाम आया है। गुर्वावलीके आरम्भमें भद्रबाहु और उनके शिष्य गुप्तिगुप्तकी वन्दना की गयी है, किन्तु उनके नामके साथ संघ आदिका निर्देश नहीं है। वंदनाके अनन्तर मुलसंघमें नन्दिसंघ-बलात्कारगणके उत्पन्न होनेके साथ ही माघनन्दिका नाम आया है। बहुत संभव है कि संघभेदव्यव स्थापक अर्हदबलिने इन्हें ही नन्दिसंघका अग्रणी बनाया हो। माघनन्दिके नामके साथ नन्दिपव भी नन्दिसंघका द्योतक है। गुर्वावलीमें धरसेनका निर्देश नहीं है। अतः इस गुर्वावलिके आधारपर यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता है कि धरसेनके गुरु माघनन्दि थे। यह सत्य है कि धरसेन विद्यानुरागी थे और शास्त्राभ्यासमें संलग्न रहनेके कारण संघका नायकत्व माघनन्दिके अन्य शिष्य जिनचन्द्रपर पड़ा हो। धरसेनने पुष्पदन्त और भूतबलिको सिद्धान्त-आगमका अध्ययन कराकर अपनी एक नयी परम्परा स्थापित की हो। माघनन्दिका निर्देश जंबुदीवपण्णती में भी पाया जाता है।
गयरायदोसमोहो सुदसायरपारओ मइपगम्भो।
तवसंगमसंपण्णो विक्खाओ माघणंदिगुरू।।१५४।।
तस्सेव य वरसिस्सो निम्मलवरणाणचरणसंजुत्तो।
सम्मद्दणसुद्धो सिरिणंदिगुरू त्ति विक्खाओ ।।१५६॥
उपर्युक्त गुर्वावली और प्रशस्तिसे ध्वनित होता है कि धरसेनके गुरु संभवत: माघनन्दि थे। इन माघनन्दिके सम्बन्धमें एक किवदंती भी प्रसिद्ध है, जिसमें उन्हें श्रुतका विशेषज्ञ तथा किसी कारणवश चरित्रस्खलनके पश्चात् पुन: दीक्षित होने का निर्देश किया है। अस्तु, प्राकृतपट्टादली एवं इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारके आधारपर धरसेनाचार्यके गुरु माघनन्दि और दारा गुरु अर्हदबलिने होने चाहिए।
नन्दिसंघको प्राकृतपट्टावलीके अनुसार आचार्य धरसेनका समय वीर निर्वाण सं. ६१४ के पश्चात् आता है। धरसेनके एक 'जोणिपाहुड' ग्रन्थका उल्लेख बृहटटिप्पणि नामक सूचीमें आया है। इस ग्रन्थका निर्माण वीर नि. . सं ६०० के पश्चात् हुआ माना गया है। इसी ग्रंथकी एक पाण्डुलिपि भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूनामें है। इस प्रतिमें ग्रंथका नाम तो 'योनिप्राभृत' ही लिखा है, किन्तु कर्त्ताका नाम 'पण्हसवग' मुनि बताया है। इन महामुनिने कुसुमाण्डिनी देवीसे इस ग्रन्थके ज्ञानको प्राप्त किया था। और उसे अपने शिष्य पुष्पदन्त एवं भूतबलिके लिए लिखा था। इस कथनसे ग्रन्थके धरसेनरचित होनेकी सम्भावना व्यक्त होती है। प्रज्ञाश्रमणत्व एक ऋद्धिका नाम है। सम्भवत्तया धरसेनाचार्य इस ऋद्धिके धारी थे। अतएव उन्हें प्रज्ञा श्रमण कहा गया है। षट्खण्डागममें प्रशाश्रमणोंको नमस्कार किया गया है-
णमो पण्णसमणाणं
प्रज्ञा चार प्रकारको होती है- (१) औत्पत्तिकी, (२) वैनायिकी, (३) कमेजा और (४) पारिणामिकी। इनमें पूर्वजन्मसम्बधी चार प्रकारकी निर्मलबुद्धिके बलसे विनयपूर्वक बारह अंगोंका अवधारण कर जो प्रथमतः देवगतिमें और तत्पश्चात् अविनष्ट संस्कारके साथ मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं उनके औत्पत्तिकी प्रज्ञा कही है। प्रज्ञाका उक्त संस्कार अवशिष्ट रहनेके कारण चौदह पूर्वो का उत्तर देनेमें वे समर्थ रहते हैं। विनयपूर्वक द्वादश अंगोंके अध्ययनसे जो बुद्धि उत्पन्न होती है वह वैनयिकी प्रज्ञा है। गुरूपदेशके विना तपश्चरणके प्रभावसे उत्पन्न होने वाली प्रज्ञा कर्मजा कहलाती है। इस प्रकारकी प्रज्ञा औषधसेवनसे भी उत्पन्न होती है। जातिविशेषसे उत्पन्न बुद्धि पारिणामिकी कहलाती है।
धरसेनको प्रज्ञाश्रमणका पूर्वीज्ञान था। अतः 'योनिप्राभृत’ ग्रंथ धरसेनाचार्य द्वारा रचित हो, तो कोई आश्चर्य नहीं। इस आधारपर इनका समय वीरनिर्वाण संवत् ६०० संभव है।
प्राकृतपट्टावलोके अनुसार वीर- निर्वाण-संवत् ६१४ - ६८३ के बीच धरसेनका समय होना चाहिए। पट्टावलीमें धरसेनका आचार्य-काल १९ वर्ष बत्तलाया है। इससे सिद्ध होता है कि वीर-निर्वाण संवत् ६३३ तक धरसेन जीवित रहे हैं और वीर-निर्वाण संवत् ६३० या ६३१ में पुष्पदन्त और भूतबलिको श्रुत का अध्ययन कराया है। इस आधारपर धरसेनका समय ई. सन् ७३-१०६ ई. तक आता है।
अहिवल्लि माघनंदि य धरसेणं पुप्फयंत भूदबली ।
अडवीसं इगवीसं उगणीसं तीस वीस वास पुणो।
अर्थात् अर्हदबलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलिका आचार्य काल क्रमशः २८वर्ष, २१वर्ष, १९ वर्ष, ३० वर्ष और २० वर्ष है। इस उल्लेखसे धरसेनका समय स्पष्टतः ई. सन्की प्रथम शताब्दी है।
डा. हीरालालजी जैन, सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, पं. हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्री आदि भी धरसेनका प्रायः यही समय मानते हैं।
एक अन्य अभिलेखीय प्रमाणसे भी धरसेनके समयपर प्रकाश पड़ता है| उपलब्ध पुरातत्वके आधारपर कहा जाता है कि आचार्य धरसेन गिरिनगरकी जिस गुफामें रहते थे वह गुफा बाबा प्यारा मठके निकट होनी चाहिए। इस गुफामें स्वस्तिक, भद्रासन, नन्दिपद, मीनयुगल और कलशके चिह्न खुदे हुए हैं। एक शिलालेख भी यहाँ प्राप्त हुआ है, जिसमें क्षत्रप नरेश चष्टण और जय दामनके अतिरिक्त गिरिनगरमें देवासुर, नाग, यक्ष, राक्षस, केवलज्ञान, जरामरण, चैत्रशुक्ल पञ्चमी ये सब शब्द भी पढ़े जाते हैं। बीच-बीचमें अभिलेखके खण्डित होनेके कारण समस्त लेखका सार ज्ञात नहीं किया जा सकता है। जो शब्दावली पढ़ी जा सकती है उसमें उक्त क्षत्रप राजवंशके काल में किसी बड़े ज्ञानी जैन मुनिके देहत्यागका वृत्तान्त प्रतीत होता है। अभिलेखमें तिथिका निर्देश नहीं है, पर क्षत्रप कालीन राजवंशके साथ सम्बन्ध रहनेसे शककी प्रथम शताब्दी होना चाहिए। डा. ज्योतिप्रसादजीने लिखा है -
''The Junagarh Jaina stone inscription, originally discovered in That very Candragupha of Girinagar which tradition makes the abode of Dharsena, throws interesting light on the lower limit of the date of these redactors of the canon. The inscription is undated, but as author is mentioned as the great grandson of Castana, the grandson of Jayadaman and the son of how could the tradition take such a legendary character"
अर्थात् इस शिलालेखके आधारपर धरसेनका समय ई. सत् १५० के पूर्व होना चाहिये। यतः जयदामनके पुत्र रुद्रदामनका सुप्रसिद्ध संस्कृत-लेख गिरनारकी ऐतिहासिक शिलापर खुदा हुआ शक सं. ७२ का है। अतएव यह प्रायः संभव है कि उक्त अभिलेख धरसेनके समाधिमरणको स्मृतिमें उत्कीर्ण किया गया हो।
इस प्रकार अभिलेखाय प्रमाणके आधारपर धरसेनका समय ई. सन् की प्रथम शताब्दी आता है। आचार्य धरसेन अपने समयके श्रुतज्ञ विद्वान थे। प्राकृत पट्टावली और इन्द्रनन्दिके श्रुतवतारके आधारपर भी धरसेनका समय वीर नि. सं. ६०० अर्थात् ई. सन् ७३ के लगभग आता है।
आचार्य धरसेन सिद्धान्तशास्त्र के ज्ञाता थे। उनके चरणों में बैठकर आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलिने कर्मशास्त्र और सिद्धान्तका अध्ययन किया। वे सफल शिक्षक और आचार्य थे| आचार्य वीरसेनने धरसेनकी विद्वत्ता और पाण्डित्यका वर्णन करते हुए बताया है कि वे परवादिरूपी हाथोके समूहके मदका नाश करने के लिए अंगम सिंहके समान हैं, सिद्धान्तरूपी श्रुतका पूर्णतया मन्थन करने वाले हैं। अतएव श्रुतके पाण्डित्यके कारण वे महनीय यशके धारी विद्वान हैं। वीरसेनने लिखा है-
"पसियउ महु धरसेणो पर-वाइ-गओह-दाण-वरसीहो
सिद्ध तामिय-सायर-तरंग-संघाय-धोय-मणी।
स्पष्ट है कि धरसेन आचार्य सिद्धान्तविषयक प्रौढ़ विद्वान थे। श्रुतकी नष्ट होती हुई परम्पराको रक्षा इन्हींके द्वारा हुई है। इनके विषय में 'षट्खण्डा भम' टीकासे जो तथ्य उपलब्ध होते हैं, उनसे ऐसा ज्ञात होता है कि धरसेना चार्य मन्त्र-तन्त्रके भी ज्ञाता थे। इनका योनिप्राभृत' नामक मन्त्रशास्त्रसंबन्धी कोई ग्रन्थ अवश्य रहा है। इस योनिप्राभृतका निर्देश 'धवलाटोका’ में भी प्राप्त होता है-
'जोणिपाहुडे भषिद-मंत-तंत-सत्तोआ पोग्गलाणुभागो त्ति धेन-तन्वा।’
अतएव 'बृहटिप्पणिका' के साथ धवलाटोकामें भी 'योनिप्रामृत' का निर्देश उपलब्ध होता है। इस आलोक में धरसेमरचित योनिप्रामृत' ग्रंथपर अविश्वास नहीं किया जा सकता है। धवलाटोकामें बताया गया है कि पुष्पदन्त और भूतवलिको बुद्धि-परीक्षाके हेतु धरसेनाचार्य ने दो मन्त्र दिये थे। उनमें एक मन्त्र अधिक अक्षर वाला था और दसरा हीनाक्षर था। गुरुने दो दिनके उपवासके पश्चात् उन मन्त्रोंको सिद्ध करनेका आदेश दिया। शिष्य मन्त्रसाधनामें संलग्न हो गये। जब मन्त्रके प्रभावसे उनको अधिष्ठात्री देवियाँ उपस्थित हुई तो एक देवीके दौत बाहर निकले हुए थे और दूसरी कानी थी। देवता विकृतान नहीं होते; इस प्रकार निश्चय कर उन दोनोंने मंत्रसम्बन्धी व्याकरणशास्त्रके आधारपर उन मन्त्रोंका शोधन किया और मन्त्रोंको शुद्धकर पुनः साधनामें संलग्न हुए। वे देवियाँ पुनः सुन्दर और सौम्य रूपमें प्रस्तुत हुई। सिद्धिके अनन्सर वे दोनों शिष्य गरुके समक्ष उपस्थित हुए और विनयपूर्वक विद्यासिद्धि सम्बन्धी समस्त वृत्तान्त निवेदित कर दिया। गरु धरसेनाचार्य शिष्योंके ज्ञान से प्रभावित हुए और उन्होंने शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ वारमे सिदान्त का अध्यापन प्रारंभ किया।'
धवलग्रंथके इस उल्लेखसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि धरसेनाचार्य मन्त्र-तन्त्रके ज्ञाता थे। अतः उनका मन्त्रशास्त्रसम्बन्धी 'योनिप्राभृत' अन्य अवश्य रहा है।
आगमसम्बन्धी ज्ञानके लिए षट्खण्डागम ग्रन्थ ही प्रमाणरूप है। इस ग्रंथका समस्त विषय उन्हीके द्वारा प्रतिपादित है। पूष्पदन्त और भूतबलिने उनसे ही सिद्धान्तविषयक ज्ञान प्राप्त कर षट्खण्डागमके सूत्रोंकी रचना की है।
धवलाटीकासे धरसेनाचार्यके सम्बन्धमें निम्नलिवित जानकारी प्राप्त होती है-
१. धरसेन सभी अंग और पूर्वो के एकदेश ज्ञाता थे।
२. अष्टांग-महानिमित्तके पारगामी थे।
३. लेखनकलामें प्रवीण थे।
४. मन्त्र-तन्त्र आदि शास्त्रोके वेत्ता थे।
५. महाकम्मपयद्धिपाहुडके वेत्ता थे।
६. प्रवचन और शिक्षण देनेकी कलामें पटु थे।
७. प्रवचनवत्सल थे।
८. प्रश्नोत्तरशैलीमें शंका-समाधानपूर्वक शिक्षा देनेमें कुशल थे।
९. महनीय विषयको संक्षेपमें प्रस्तुत करना भी उन्हें आता था।
१०. आग्रायणीयपूर्वक पञ्चम वस्तुके चतुर्थ प्राभृतके व्याख्यानकर्ता थे।
११. पाठन, चितन एवं शिष्य-उद्बोधनको कलामें पारंगत थे।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara.
Acharya Dharsen Maharajji (Prachin)
Acharya Dharsen Maharaj Ji
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