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#ShrutSagarJiMaharaj1905VeerSagarJi
Acharya Kalp Shri 108 Shrut Sagar Ji was born in the year 1905 in Kolkata,West Bengal.His name was Govindlal before diksha.He received initiation from Acharya Shri 108 Veer Sagar Ji Maharaj.
आप आचार्य श्री वीर सागर जी महाराज जी द्वारा अंतिम दीक्षित शिष्य थे।आप विनोदी स्वभाव,त्याग की प्रेरणा देने वाले,पद की मोह न रखने वाले साधक।
Charitrachakravarti Acharya Shri Shanti Sagar Ji Maharaj 1872
Acharya Shri 108 Veer Sagar Ji Maharaj
Acharya Kalp Shri Shrut Sagar Ji Maharaj
नाम
श्री गोविंद लाल
श्री फागुलाल फागुन माह में जन्म होने के कारण एक नाम
माता पिता
श्रीमती गज्जो देवी श्री छोगा लाल जी
जन्म
आपका जन्म फ़ागुन माह अमावस्या विक्रम संवत 1962
कोलकत्ता
विवाह
श्रीमती बसंती देवी
पुत्र पुत्री
3 पुत्र
श्री माणिक चंद
श्री हीरा लाल
श्री पदम् चंद
एवम 3पुत्री
धार्मिक शिक्षण
पंडित श्री मक्खन लाल जी
श्री झम्मन लाल जी
ब्रह्मचारी श्री सुरेंद्र नाथ जी
श्रीलाल जी
ब्रह्मचर्य व्रत
आचार्य श्री शांति सागर जी परम्परा के श्री वीर सागर जी गुरुदेव का ईसरी में विक्रम संवत 2009 में चातुर्मास हुआ
तब आपने शुद्ध जल का व्रत लिया
7 प्रतिमा का नियम
टौडाराय सिह में गुरुदेव श्री वीर सागर जी से विक्रम संवत 2011 में 7 प्रतिमा का नियम लिया
क्षुल्लक दीक्षा
कार्तिक कृष्णा 13 संवत 2011 सन 1954 को टौडाराय सिह में मुनि श्री वीर सागर जी से क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण कर श्री चिदा नंद सागर नाम करण हुआ तब आपकी सबसे छोटी पुत्री सुशीला जी की उम्र मात्र 7 वर्ष की थी
मुनि दीक्षा
जयपुर में भादव सुदी। 3 तीज संवत2014 सन1957 को दीक्षा गुरु आचार्य श्री वीर सागर जी ने मुनि दीक्षा प्रदान कर मुनि श्री श्रुत सागर नाम करण किया
मुनि आर्यिका दीक्षा
मुनि श्री समता सागर जी
आर्यिका श्री सरल मति जी वैशाख सुदी 10 विक्रम संवत 2026
आर्यिका श्री शीतल मति जी रेनवाल किशनगढ़ में विक्रम संवत 2032
आर्यिका श्री दया मति जी किशनगढ़ में आर्यिका दीक्षा
क्षुल्लिका श्री शीतल मति जी ने मदन गंज किशनगढ़ में विक्रम संवत 2029 में
12 वर्ष का सल्लेखना नियम
आचार्य श्री धर्म सागर जी से 27 अप्रैल1976 वैशाख कृष्णा 13 को 12 वर्ष का सल्लेखना व्रत लिया
वैशाख शुक्ला 3 19 अप्रैल 1988 को अनाज का त्याग किया
3 दिन बाद 22 अप्रैल को दूध का त्याग किया
वैशाख कृष्णा 11 27 अप्रैल 1988 को अतिशय क्षेत्र लूणवा में चारों प्रकार के आहार का त्याग किया
यम सल्लेखना के 9 वे दिन ज्येष्ठ कृष्णा 5 पंचमी 6 मई 1988 को प्रातः 9, 15 को आपकी समाधि हुई
विशेष
गृहस्थ अवस्था की पुत्री श्री सुशीला ने भी भगवान महावीर स्वामी के 2500 निर्वाण महोत्सव कार्यक्रम के समय तृतीय पट्टाधि श आचार्य श्री धर्म सागर जी से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की
आपका श्री श्रुत मती नाम करण हुआ
आप विदुषी आर्यिका श्री आदि मति जी के साथ संध में रही है
आपकी ग्रहस्थवस्था की पत्नी ने भी मुनि श्री गुण सागर जी से आर्यिका दीक्षा ली थी
आचार्य श्री शांति सागर जी जी परम्परा में आपको संध ने आचार्य पद देना चाहा किन्तु आपने आचार्य पद का त्याग कर दिया
पंचम पट्टाधिश आचार्य श्री वर्द्धमान सागर जी आपको हमेशा शिक्षा गुरु मानते है
जन्म दिवस फागुन कृष्णा अमावस्या
13 मार्च 2021 को कोटिशः नमोस्तु
राजस्थान के प्रसिद्ध शहर बीकानेर में फाल्गुन बदी अमावस्या सम्बत् १९६२ में श्रावक (ओसवाल) गोत्रोत्पन्न श्रीमान् सेठ छोगामलजी, माता श्रीमती गज्जोबाईकी कुक्षिसे आपका जन्म हुआ था। माता-पिता ने आपका नाम श्री गोविन्दलाल रखा, इकलौते और लाड़ले पुत्र होने के कारण आपको फागोलाल भी कहा करते थे।
आपके पिता कपड़े के अच्छे व्यापारी थे। घर की स्थिति अच्छी सम्पन्न थी। आपसे बड़ी एक बहिन श्री लोनाबाईजी भी हैं जो धर्म परायण तथा आत्म कल्याण की ओर अग्रसर होकर धर्म ध्यान में कालयापन करती हैं। पिता के होनहार, इकलौते लाड़ले पुत्र होने के साथ ही सम्पन्न परिवार में होने के कारण आपके पिताजी ने आपकी शिक्षा को विशेष महत्व न देकर प्रारम्भिक शिक्षा मात्र ही दिलाई। प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद आप पिताजी को उनके व्यावसायिक कार्य में सहयोग देते हुये कपड़े का व्यापार करने लगे। कुछ समय बाद आप अपनी कार्य निपुणता के कारण व्यापारी वर्ग में प्रतिष्ठित हुये और आपने व्यापार में प्रचुर सम्पन्नता एवं सम्मान प्राप्त किया।
प्रारम्भ में आपके पिता श्री मुह पट्टी वाले श्वेताम्बर आम्नाय के कट्टर अनुयायी थे। संयोग की बात कि एक रामनाथ नाम का व्यक्ति जो कि जाति का दर्जी था, आपके मकान के नीचे किराए पर रहता था। वह व्यवसाय भी अपनी जाति के अनुसार सिलाई का करता था। दर्जी होते हुए भी सुयोग्य एवं दिगम्बर जैन आम्नाय के प्रति गहरी श्रद्धा रखता था। इसने अपनी विवेकशीलता, निपुणता एवं आत्म श्रद्धा से आपकी माता को दिगम्बर जैन आम्नाय के महत्त्व को और अन्त में आपकी माता के हृदय में दिगम्बर जैन धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा का समावेश कर फलत: आपकी माताजी श्वेताम्बर आम्नाय के बजाय दिगम्बरत्व के प्रति अटूट श्रद्धा रखने का कुछ समय पश्चात् आपके पिताश्रीने भी अपनी तीक्ष्ण विवेक शीलता के द्वारा दिगम्बरत्व के महत्व को आंका और दिगम्बर जैन धर्म के प्रति आस्था रखते हुये आचरण करने लगे। यह नीति है कि "मात पितृ कृताभ्यासो गुरगताम् इति बालक:" अर्थात् माता पिता ही बालकों को गुणवान बनाते हैं, क्योंकि बालक माँ के पेट से पण्डित होकर नहीं निकलता । ठीक यही नीति आपके ऊपर भी चरितार्थ हई। एक बार आपके पिता व्यापार के लिये कलकत्ता आये । आप भी अपने पिता के साथ कलकत्ताये तथा कलकत्ते में चावल पट्टी दि. जैन पार्श्वनाथ बड़ा मन्दिर के समीप किराए पर रहने लगे। यहां जैन भाइयों से आपका अच्छा सम्पर्क हुा । आपके पिता ने आपको नया मन्दिर चितपुर रोड की जैनशाला में पठनार्थ भरती करा दिया । आपने श्री पं० मक्खनलालजी तथा पं० श्री झम्मनलालजी से शिक्षा प्राप्त की। आपके धार्मिक संस्कार दृढ़ होने लगे। इस प्रकार आपने अपनी प्रारम्भिक लौकिक शिक्षा धार्मिक शिक्षा के साथ प्राप्त की।
आपकी माता विशेष धर्म परायण व सद्गृहस्थिन के साथ ही अत्यन्त दयालु व योग्य थीं। इसका पूर्णतः प्रभाव आप पर पड़ा । आपके पिताजी भी एक उच्च घराने के आदर्श व्यवसायी होने के साथ ही जिनधर्म के कट्टर अनुयायी व श्रद्धालु थे । व्यापारी वर्ग में आपको अच्छी प्रतिष्ठा थी।
जब आपकी उम्र लगभग १७ वर्ष की थी तो पिताश्री ने आपका विवाह बीकानेर निवासी - व कलकत्ता प्रवासी सेठ जुगल किशोरजी की शील रूपा, सुयोग्य सुपुत्री श्रीमती बसंताबाई के साथ सम्पन्न करा दिया। लेकिन आपका गृहस्थाश्रम बालापन से ही बहुत वैराग्य युक्त व्यतीत हुआ। आपकी बड़ी बहिन श्री सोनाबाईजी भी आजकल श्रावकों के नैष्ठिक व्रतोंका पालन करती हुई शुद्ध ब्रह्मचर्य पूर्ण जीवनयापन कर रही हैं।
आपके सुयोग्य, कर्तव्यशील तीन पुत्र श्री माणिक चन्द्रजी श्री हीरालालजी एवं श्री पदमचन्द्रजी हैं, जो पैतृक उद्योग के अलावा प्रेस का भी सञ्चालन करते हैं । आपकी सुयोग्यशीलरूपा तीन पुत्रियाँ भी हैं । बड़ी पुत्री श्री अमरावबाई हैं। इनका विवाह पुरलियामें श्री. भंवरलालजी के साथ एवं मझली पुत्री श्रीमती ममौलबाई का विवाह कलकत्ता निवासी सेठ श्री उदयचन्द्रजी धारीवाल के यहां सम्पन्न हो चुका है । आपकी छोटी पुत्री सुश्री सुशीला वर्तमान में आर्यिका श्रुतमतीजी हैं तथा गहरी धार्मिक आस्था के साथ त्याग मार्ग की ओर उनकी रुचि है।
जब आपको उम्र लगभग २७ वर्ष की होगी आपके पिता श्री को एक साधारण सी बीमारी पीडित किया। उनको यह आभास हुआ कि अब हमारा जीवन अन्तिम लहर में तैर रहा है। कौन जानता था कि सचमुच यह साधारण सी बीमारी ही इनको प्राण शून्य कर देगी। आपने जीवन का असम्भव जान समाधि ले ली और निर्मल आत्मा में अनन्त गुणों से युक्त भगवान जिनेन्द्रदेव का स्मरण करते हुये असमय ही आपकी आत्मा पार्थिव शरीर को छोड़कर स्वर्ग के सुख में लवलीन हो गई।
दुखित हृदया माँ ने संसार की इस नश्वरताका प्रत्यक्ष दर्शन करते हुए निश्चय किया कि प्रसारता से सारता को जाने के लिए जिनेन्द्र भक्तिरूपी वाहन का अवलम्बन लेना ही श्रेयस्कर है । इसके लिए त्याग तपस्या की आवश्यकता है। पति श्री की मृत्यु के बाद ७ वर्ष तक आपने अपनी शक्ति अनुसार जिनेन्द्र भगवान की आराधना करते हुए त्याग और संयम का पालन किया। अन्त समय में समाधि मरण लेकर अतुल सुख से परिपूर्ण ऐसे स्वर्गों में, अपने पुत्र पौत्रों को इस धरातल पर छोड़कर सदा के लिये चली गईं।
माता पिता के स्वर्गारोहण हो जाने से फागोलालजी को संसार की असारता का भाव उद्भाषित हुआ। अपने हृदय में त्याग तप साधना ही आत्मकल्याण का हेतु है ऐसा विचार कर घर पर रहते हुए आत्म-कल्याण का कारण त्याग, उपवास, संयम आदि धार्मिक क्रियाएं करने लगे। कलकत्ते में "छोगालाल गोविन्दलाल" के नाम से आपका कपड़े का थोक व्यापार होता था। आपका बड़ा पुत्र भी आपके व्यापार में योग देने लगा, श्रीमान् पं० ब्रह्मचारी सुरेन्द्रनाथजी, श्री ब्रह्मचारी श्रीलालजी काव्यतीर्थ एवं श्रीबद्रीप्रसादजी पटना वालों के साथ आपकी शास्त्रीय चर्चाएं तथा ज्ञान गोष्ठियाँ होती थी। ज्ञानार्जन के इस अभ्यास के द्वारा आप शास्त्रीय विद्वान हो गये। आपके अन्तर में गृह त्याग को भावना दिन प्रतिदिन बढ़ती गई, फलतः आप ४० वर्ष की तरुण वय में आजन्म ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा लेकर ब्रह्मचर्यव्रत पालन करने लगे।
आत्म-कल्याण की भावना
विक्रम सम्वत् 2009 को उदासीन आश्रम ईसरी में आपने परम पूज्य आचार्यवर श्री वीर सागरजी महाराज के प्रथम दर्शन किये थे। तभी से आपकी आत्म-कल्याण की भावना का प्रबलतम उदय हुआ था और उसी समय से सांसारिक वैभव नीरस एवं जल बुदबुदे के समान प्रतीत होने लगे। फलतः घर पर आकर आप उदासीन वृत्ति से रहने लगे । फिर भी आपको हृदय में पूर्णत: शान्ति नहीं मिली और सम्बत् २०११ में टोडारायसिंह ( राजस्थान ) में आचार्यश्री वीरसागरजी महाराज के समीप ७. वी प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर लिये । इन व्रतों के लेने से आपकी आत्मा में अट वैराग्य भावनारूपी ज्वाला ज्वलित होने लगी। फलतः चार माह बाद ही टोडारायसिंह में कार्तिक सुदी १३ संवत् २०११ में ही आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज से आपने क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण कर ली क्षल्लक दीक्षा के बाद आपका ध्यान आगम ज्ञान के आलोक में विचरने लगा। अल्प समय में अपनी तीक्ष्ण बिवेकशीलता के द्वारा आपका ज्ञान आत्मा में आलोकित हो गया। आपने विचार किया कि आत्मा अनन्त शरीरों में रहा परन्तु एक भी शरीर आत्मा को नहीं रख सके। आत्मा और शरीर का यह दुःखदायी संयोग वियोग का अबसर कैसे समाप्त हो ? जब इस समस्या का समाधान स्वयं को विवेक शीलता के द्वारा जान लिया, तब आपने शीघ्र ही हजारों नर-नारियों के बीच अपूर्व उत्साह पूर्वक समस्त अन्तरङ्ग बहिरङ्ग परिग्रह का त्याग कर भादों सुदी तीज सम्वत् २०१४ में शुभ दिन जयपुर खानियां में प्रातःस्मरणीय परम पूज्य आचार्यवर श्री वीरसागरजी महाराज के श्री चरणों में नमन कर आत्म शान्ति तथा विशुद्धता के लिये दिगम्बर मुनि का जीवन अङ्गीकार कर लिया।
आपको परम चारित्रशील, धर्मानुरागिणी पत्नी भी ५ वी प्रतिमा के व्रत अङ्गीकार कर धर्माराधन द्वारा आत्मकल्याण की ओर अग्रसर बन जीवनयापन कर रही हैं।
मुनि दीक्षा के बाद आपका प्रथम चातुर्मास ब्यावर, दूसरा अजमेर, तीसरा सुजानगढ़, चौथा सीकर, पांचवाँ लाडनू एवं छटवाँ जयपुर में हुआ। जयपुर चातुर्मास के अवसर पर आपके ऊपर असह्य शारीरिक संकट आ पड़ा था, लेकिन आपने-अपने आत्मबल के द्वारा दुःखी भौतिक शरीर से उत्पन्न वेदना का परिषह शान्ति पूर्वक सहन कर विजय पाई।
आपकी पेशाब रुक गई थी। किसी भी प्रकार बाह्य साधनों द्वारा उसका निकलना असम्भव था। इस विज्ञानवादी विकासोन्मुख युग में ऐसी अनेकों औषधियाँ हैं जिनका सेवन कर या यांत्रिक साधनों द्वारा आपरेशन कर बड़े-बड़े दुःख क्षणमात्र में दूर किये जा सकते हैं, लेकिन आपने अपने . तप बल, ज्ञान बल से जिस औषधि को पा लिया उसके सामने उपर्युक्त बाह्य औषधियां अपना मूल्य नहीं रखतीं, इसलिये आपने इन औषधियों व यन्त्रों के सेवन का त्याग कर दिया था और यही आपके त्याग की चरमसीमा का उत्कृष्ट एवम् अनुपम उदाहरण है। अन्त में जब दैव ने अपनी करतत करली और मुनिश्री द्वारा इस कठोर वेदना को आत्म साधना द्वारा शान्तिपूर्वक सहन करते हुये देख हार मान गया तो स्वत: अविजयीसा होकर मुंह छिपाकर चला गया।
आपने अनन्त वेदना को सहनकर अपने आत्मतेज एवम् कठिन परिषह सहने का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया । धन्य है ऐसी तपस्या को, ऐसे त्याग को एबम् ऐसी आत्मकल्याण की ना को जिसमें चाहे सुख हो या दुःख, रोग हो या संकट, सभी में समानता रह सके । जब चातुर्मास अवधि समाप्त हो गई और जयपुर से विहार कर ससंघ बुन्देलखण्ड के पवित्र अतिशय क्षेत्र पपोराजी की वन्दना के लिए आये तो पुन: आपको इस रोग ने पीड़ा देना प्रारम्भ किया। इस बार पपोराजी में जो वेदना हुई वह अत्यन्त असह्य और दुःखदायिनी थी । पूनः आपकी पेशाब रुक गई । अनेक बाह्य साधन जिनमें किसी भी प्रकार हिंसा न हो, अपनाए गए। किसी में भी सफलता नहा मिली । एक डाक्टरने आचार्यश्री से विनय की कि यदि महाराजको ध्यानावस्था या मूर्छावस्थाके समय इंजेक्शन लगा दिया जाय तो आराम होने की सम्भावना की जा सकती है।
आचार्य श्री से कहे गये उक्त शब्द मुनिश्री ने सुने और तुरन्त मुस्कराकर बोले "भइया साधुओंसे कभी जबरदस्ती नहीं की जा सकती । वे विश्व में किसी भी प्राणीके आधीन नहीं होते । उन्हें तो अपनी आत्माका कल्याण करना है । यदि आपने इन्जेक्शन लगा दिया या आपरेशन कर दिया तो ठीक है क्योंकि यह तो आपको करना है पर यदि मैंने समाधि ले ली तो? इस प्रश्नका उत्तर कुछ भी नहीं था, अतः डाक्टर साहब मौन रह अपनी बातका प्रतिकूल उत्तर पाकर एवं आपकी इस महान साधनाको देखकर अवाक रह गए।
अनन्त वेदनाके होनेसे महाराजश्री मौन अवस्था में लेटे हुए थे । अनेक विद्वान चारों ओर अत्यन्त वैराग्य युक्त व समाधि-मरण पूर्ण उपदेश व पाठ कर रहे थे। महाराजश्री अपने आत्म ध्यान में लीन रहते । जब तीव्र वेदनाका अनुभव होता तो मात्र एक दो बार करवट बदल कर उस घोर दुःखको सहन कर लेते थे । जो डाक्टर आये हुये थे आपकी इस महान साधनाको देखकर हाथ जोड़े महाराजश्री के सामने बैठे हुए थे। इस सहनशक्ति को देखते हुये अनेकों नर-नारियोंकी आंखोंसे आंसू बह रहे थे। लोगों से वह वेदना देखी नहीं जाती थी। अन्तमें मुनिश्रीने अपनी आत्म-साधना एवं परिषह क्षमतासे मुक्ति पाई।
आचार्यश्री ने जबकि आप इस बेदनासे पीड़ित थे आपके समीप बैठ जिस वैराग्य पूर्ण एवं संसारको असारता तथा आत्म-कल्याणके उपदेश आपके समक्ष दिये वह अत्यन्त रोमान्चकारी एवं हृदय-ग्राही थे। उन्हें सुनकर जन-साधारणके ऐसे भाव होते थे कि धन्य है यह मुनि अवस्था और धिक्कार है इस संसारको! भगवन् मैं भी इस अवस्थाको पाऊँ । धन्य है जिन्होंने मुनिपद धारण कर लेने पर भावों और क्रियासे पंच पापोंका त्याग कर दिया, क्रोध, मान, माया रूपी पतनकारी कषायोंसे पिण्ड छुड़ाया, तथा बहिरात्मा बुद्धिके बदले अन्तरात्मा बुद्धिसे आत्माको निर्मल बना लिया। इस प्रकार आत्म-कल्याण करते हुये आप अनेक आत्माओंको इस पथका अवलोकन कराने में तत्पर हैं।
इस प्रकार मुनि जीवन यापन करने में आपको अनेक आपत्तियों, उपसर्गों और परीषहोंका सामना करना पड़ा लेकिन मुनिश्री सदा अपने आत्म-कल्याणके लक्ष्य में इस प्रकार लवलीन रहे कि इन आपत्तियोंसे आपके तपोतेज में वृद्धि ही हुई।
धन्य है उस माँ को जो मानवोंके कल्याण-कर्ता ऐसे इकलौते पुत्रको जन्म देकर महाभार शालिनी हुई । इस क्षणिक जीवन में आपने जबसे इस पथ का अवलम्बन लिया तबसे अतुल जैनागम का ज्ञान ग्रहण करते हुये चारित्र के क्षेत्र में भी अनबरत अग्रणी हैं । आपके दैनिक जीवनका अधिक उपयोग शास्त्र-स्वाध्याय में ही होता है । आपका स्वाध्याय स्थायी और शुभोपयोगी होता है। आप अपने उपदेशमें जिन बातोंका निरूपण करते हैं वह विद्वानों को भी आश्चर्यकारी होती हैं।
श्री श्रुतसागरजीके दिव्य व्यक्तित्व में एक अनोखी प्रभावोत्पादक शक्ति है जिसका अनुभव उनके सम्पर्क में आने पर ही हो पाता है । जैन आगम के दुरूह और गूढ़तम रहस्यों तक उनकी जिज्ञास दृष्टि पहुंचती है और वे तत्त्व विवेचनमें आठों याम एक परिश्रमी विद्यार्थीकी तरह रुचि लेते हैं एवं कठोर अध्यवसाय करते हैं।
समाजमें आजकल अनेकान्तवाद तथा स्याद्वादकी उपेक्षा करके किसी भी एकान्त दृष्टि से पक्ष समर्थन किये जाने के कारण जो अनर्थकारी ऊहापोह मच रही है उसके प्रति भी आपकी दृष्टि अत्यन्त स्पष्ट और आगम सम्मत है । आपका कहना है कि हमारे पूज्य आचार्योंने तत्त्वज्ञानकी कठोर साधनाके उपरान्त जो विवेचन किया है वह यदि हमारी दृष्टि में ठीक नहीं बंठता तो यह हमारे ज्ञान तथा क्षयोपशमकी कमी है अथवा हमने बातको उस अपेक्षासे समझने का प्रयास नहीं किया है । ऐसी स्थितिमें हमें अपनी बुद्धिको आचार्योंके कथन और अपेक्षाके अनुसार विकसित करने का प्रयास करना चाहिये । आचार्योंकी वाणीको अपनी बुद्धि के अनुरूप तोड़-मरोड़ करना या एकान्त दृष्टिके पोषण के लिये अर्थका अनर्थ करना उचित नहीं है, और यह हमारा अधिकार भी नहीं है।
वर्तमान में आप आचार्यश्री धर्मसागरजीके संघ के साथ में रह रहे हैं आपके द्वारा आचार्यश्री धर्मसागर अभिवन्दनग्रन्थ का विमोचन २ मार्च १६८२ को भीण्डर में २५ हजार की जनसंख्या में बिमोचित किया गया था। उसी अवसर पर एक गोष्ठी का आयोजन भी किया गया। जो दिगम्बर जैनाचार्य एवं प्राचार्य परम्परा के नाम से हुई थी । वर्तमान में आप यदा कदा लेख आदि लिखकर समाज का मार्गदर्शन कर रहे हैं।
आपमें वात्सल्य भाव भी कूट-कूटकर भरा है । आचार्यश्री के प्रति बिनय और संघके अन्य साधू-साध्वियोंके प्रति आपका व्यवहार उस वात्सल्य और कल्याण-भावनासे ओत-प्रोत रहता है । उनके लिए आपका कथन है कि हम सब छद्मस्थ हैं अतः त्रुटियां हमसे हो सकती हैं, इसलिए निंदक की बात सुनकर भी हमें रोष नहीं करना चाहिये वरन् आत्म-शोधन करके अपने आपको त्रुटि हीन बनाना चाहिये । “जो हमारा है सो खरा है" ऐसा कहना ठीक नहीं होगा। हमें तो हमेशा सत्यको स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए और कहना चाहिये कि-"जो खरा है सो हमारा है।" ऐसी परम पवित्र आत्माके प्रति कोटिशः नमन है ।
Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
#ShrutSagarJiMaharaj1905VeerSagarJi
Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
आचार्य १०८ श्रुत सागरजी महाराज
Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
राजेश पंचोलिया इंदौर सनावद 9926065065 - Updated information on 14-March-2021
वात्सल्य वारिधि ग्रुफ
VeerSagarJiMaharaj1876AcharyaShantiSagarji
Acharya Kalp Shri 108 Shrut Sagar Ji was born in the year 1905 in Kolkata,West Bengal.His name was Govindlal before diksha.He received initiation from Acharya Shri 108 Veer Sagar Ji Maharaj.
आप आचार्य श्री वीर सागर जी महाराज जी द्वारा अंतिम दीक्षित शिष्य थे।आप विनोदी स्वभाव,त्याग की प्रेरणा देने वाले,पद की मोह न रखने वाले साधक।
Charitrachakravarti Acharya Shri Shanti Sagar Ji Maharaj 1872
Acharya Shri 108 Veer Sagar Ji Maharaj
Acharya Kalp Shri Shrut Sagar Ji Maharaj
Acharya Kalp Shri Shrut Sagar Ji - Life Introduction
Name
His birth name was Govind Lal, The name was also inspired by the fact that he was born in Falugun Month.
Parents
Mrs. Gajjo Devi Mr. Choga Lal Ji
Birth and Personal Life
He was born in the month of Fagun Amavasya Vikram Samvat 1962 in Kolkata. He married to Basanti Devi.
He had 3 sons Mr. Manik Chand, Mr. Heera Lal and Mr. Padam Chand and 3 daughters.
Religious teaching and Vrat Niyam
He took religious teaching from Pandit Shri Makkhan Lal, Mr. Jhamman Lal, Brahmachari Shri Surendra Nath Ji
Shree Lal. He took Bramhacharya Vrat (Celibacy fast).
He took "Shurdra Jal Vrat" during the chaturmas of Shri Veer Sagar ji Maharaj (Acharya Shri ChartitraChakravarthy Shanti Sagar ji Maharaj's tradition) on Vikram Samvat 2009 in Isri.
7 Pratimas
He took 7 Pratima's in the presence of Shri Veer Sagar Ji in Toudarai Sinh in Vikram Samvat 2011
He took Kshullak Diksha. On Kartik Krishna 13 Samvat 2011 In 1954, when he took the Kshullak diksha from the Shri Veer Sagar ji in Toudarai Siva he received a new name Shri Chida Nand Sagar. During this time his youngest daughter Sushila ji was only 7 years old.
Muni Diksha
On the 3rd Teej Samvat 2014, in 1957, Bhadava Sudi in Jaipur, Diksha Guru Acharya Shri Veer Sagar ji conferred Muni Diksha to him and he was named Muni Shri Shrut Sagar
Muni Aryika Deeksha
Muni Shri Samata Sagar
Aryika Shri Saral Mati Ji Vaishakh Sudi 10 Vikram Samvat 2026
Aryika Shri Sheetal Mati ji Renwal Vikram Samvat 2032 in Kishangarh
Aryika Shri Daya Mati Ji Aryika initiation in Kishangarh
Chhutika Shri Sheetal Mati Ji in Vikram Samvat 2029 at Madan Ganj Kishangarh
12-year Niyam Sallkehna
Acharya Shri Dharam Sagar ji took a 12-year Sallekhna Vrat on 27 April 1976.
On Vaishakh Krishna 13 - 19 April 1988 he took Tyag for "Grain food"
Sacrificed milk 3 days later on April 22
Vaishakh Krishna 11 On April 27, 1988, he sacrificed all four types of food.
On the 9th day of Yama Sallekhna, Jyeshtha Krishna 5 Panchami, on 6 May 1988, he took samadhi at 9.15 am at Lunava.
Other Information.
At the time of Lord Mahavir Swamy's 2500 Nirvana Mahotsav program, his daughter before Muni diksha state, Mr. Sushila also received to become Aryika from the third Pattadhi Sh Acharya Shri Dharma Sagar ji.
She was named . Aryika Shrut Mati Mataji,
She joined the sangh of Adi Mati Ji.
His wife before Muni diksha also took Aryika initiation from Muni Shri Gunna Sagar
Acharya Shri Charitrachakravarthy Shanti Sagar Ji wanted to give you the post of Acharya, but humbly declined it. Fifth Pattadhish Acharya Shri Vardhaman Sagar Ji always considers you a guru
Book-Jain Digamberacharya;Prerak Sant Avam Sadvichar Written by R.K Jain(Kota)
Acharya 108 Shrut Sagarji Maharaj (Acharyakalp)
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
Acharya Shri Veer Sagarji Maharaj Lineage
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