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Jain Digambar Acharyas and the study on Karma-Actions
Jain Digambar Acharyas and the study on Karma-Actions
पौगलिक कर्मक कारण बीवमें उत्पन्न होनेवाले रागद्वेषादि भाव एवं कषाय बादि विकारोंका विवेचन भी आगमसाहित्यके अन्तर्गत है । कर्मबन्धक कारण ही आत्मामें अनेक प्रकारके विभाव उत्पन्न होते हैं और इन विभावोसे जविका संसार चलता है। कर्म और आत्माका बन्ध दो स्वतन्त्र द्रव्योंका बन्ध है, अत: यह टूट सकता है और आत्मा इस कर्मबन्यसे नि:संग या निलिम हो सकती है । कर्मबन्धके कारण ही इस अशुब बास्माकी दशा अद्ध भौतिक जेसी है। यदि इन्द्रियोंका समुचित विकास न हो तो देखने और सुननेको शक्ति के रहनपर भी वह शक्ति जैसी-की-तैसी रह जाती है और देखना-सुनना नहीं हो पाता। इसी प्रकार विचारशक्ति के रहनेपर भी यदि मस्तिष्क यथार्थ रूपले कार्य नहीं करता, तो विचार एवं चिन्तनका कार्य नहीं हो पाता । अतएव इस कपनके आलोक में यह स्पष्ट है कि अशुद्ध आत्माकी दशा और उसका समस्त उत्कर्ष-अपकर्ष पौदगलिक कोंके अधीन है। इन कर्मोके उपशम एवं क्षयोपशमके निमित्तसे ही जीवमें ज्ञानक्ति उबुद्ध होती है। कर्मके क्षयो पशमकी तारतम्यता ही ज्ञानशक्तिकी तारतम्यताका कारण बनती है। इस प्रकार श्रुतधराचार्योने कर्मसिद्धान्तके आलोकमें आत्माको कञ्चिद मूत्तिक एवं अत्तिक रूपमें स्वीकार किया है | अपने स्वाभाविक गणोंके कारण यह बारमा चैतन्य-ज्ञान-दर्शन-सुखमय है और है अमतिक | पर व्यवहारनयको दृष्टिसे कर्मबद्ध बात्मा मुत्तिफ है। अनादिसे यह शरीर आत्माके साथ सम्बद्ध मिलता है। स्थूल शरीरको छोड़नेपर भी सूक्ष्म कर्म शरीर इसके साथ रहता है। इसी सूक्ष्म कर्मशरीरके नाशका नाम मुक्ति है। आत्माको स्वतन्त्र-सत्ता होनेपर भी इसका विकास अशुद्ध दशामें अर्थात् कर्मबन्धकी दशामें देहनिमि तक है।
यह कर्मबद्ध आत्मा रागद्वेषादिसे जब उसप्त होती है, तब शरीरमें एक अद्भत हलनचलन हो जाता है। देखा जाता है कि क्रोधावेगके आते ही नेत्र लाल हो जाते हैं, रक्तकी गति तीव हो जाती है, मुख सूखने लगता है और नथुने फड़कने लगते हैं। जब कामवासना जागृत होती है तो शरीरमें एक विशेष प्रकारका मन्थन बारम्भ हो जाता है। जब तक ये विकार या कषाय शान्त नहीं होते, तब तक उबैग बना रहता है । आत्माके विचारों, चिन्तनों, आवेगों और क्रियाभोंके अनुसार पुद्गलद्रव्यों में भी परिणमन होता है और उन विचारों एवं आवेगोंसे उत्तेजित हो पुदगल परमाणु आत्माके वासनामय सूक्ष्म कर्मसरीनमें सम्मिलित हो जाते हैं : उनाहरमा मह समझा जा सकता है कि अग्निसे तप्त लोहेके गोलेको पानी में छोड़ा जाय, तो वह तप्त गोला जल के बहुत-से परमाणुओंको अपने भीतर सोख लेता है । अब तक वह गरम रहता है, सब तक पानी में उथलपुथल होसी रहती है। कुछ परमाणुओंको खींचता है एवं कुछको निकालता है और कुछको भाप बनाकर बाहर फेंक देता है। आशय यह है कि लौहपिण्ड अपने पाश्ववर्ती वातावरणमें एक अजीब स्थिति उत्पन्न करता है । इसी प्रकार रागद्वेषाविष्ट आत्मामें भी स्पन्दन होता है और इस स्पन्दनसे पुद्गलपरमाणु आत्माके साथ सम्बद्ध होते हैं।
संचित कोक कारण रागद्वेषादि भाव उत्पन्न होते हैं और इन रागादि भावोंसे कर्म पुद्गलोंका आगमन होता है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है, जब तक कि श्रद्धा, विवेक और चारित्रसे रागादि भावोंको नष्ट नहीं किया जाता । तात्पर्य यह कि जीवकी रागद्वेषादिवासनायें और पुद्गलकर्मबन्धको धाराएं बीज-बुक्षकी संततिके समान अनादिकाल से प्रचलित है। पूर्वसंचित कर्मके उदयसे वर्तमान समय में रागद्वेषादि उत्पन्न होते है और तत्कालमें जीवकी जा लगन एवं आसक्ति होती है, वही नूतन बन्धका कारण बनती है। अतएव रागादिकी उत्पत्ति और कमबन्धको यह प्रक्रिया अनादि है ।
सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वकर्मोके उदयसे होनेवाले रागादि भावोंको अपने विवेकसे शान्त करता है। वह कर्मफलोंमें आसत्ति नहीं रखता इस प्रकार पुरातन संचित कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं और किसी नये कमका स्पिति-अनुभागबन्ध नहीं होता है। बात्म-सत्ताकी श्रद्धा करनेवाला निष्ठावान् व्यक्ति संयम, विवेक, तपश्चरणके कारण कर्मबन्धको प्रक्रियासे छुटकारा प्राप्त करता है। पर मिथ्यादष्टि देहात्मवादी नित्य नई वासना और आसक्तिके कारण तीब स्थिति और अनुभागबन्ध करता है । जो जोव पुरुषार्थी, विवेको और आत्मनिष्ठावान है, यह निर्जरा, उत्कर्ष, अपकर्ष, संक्रमण बादि कर्म करणोंको प्राप्त करता है, जिससे प्रतिक्षण बन्धनेवाले अच्छे या बुरे कर्मों में शुभभावोंसे शुभकर्मों में रसप्रकर्ष स्थित होकर अशुभकोंमें रसहीनता एवं स्थिसिहोद उस होता है।
श्रुतघराचार्योन कर्मसिवान्तके अन्तर्गत प्रतिसमय होनेवाले अच्छे-बुरे भावोंके अनुसार तीनलम, तं व्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दन्तर और मन्दतम रूपोंमें कर्मको विपाक-स्थितिका वर्णन किया है। संसारी आत्मा कर्मोंके इस विपाकके कारण ही सुख-दुखका अनुभव करती है । यह भौतिक जगत पुद्गल एवं आत्मा दोनोंसे प्रभावित होता है। जब कर्मका एक भोतिक पिण्ड अपनी विशिष्ट शक्तिके कारण आत्मासे सम्बद्ध होता है तो उसकी सूक्ष्म एवं तीव शक्तिके अनुसार बाह्य पदार्थ भी प्रभावित होते हैं और प्राप्त सामग्रोके अनु सार उस संचित कर्मका तीत्र, मन्द और मध्यम फल मिलता है ।
कर्म और आत्माके बन्धनका यह चक्र अनादि कालसे चला आ रहा है और तब तक चलता रहेगा, जब तक बन्धहेतु रागादिवासनाओंका विनाश नहीं होता । श्रुतधर आचार्य कुन्दकुन्दने बताया है
जो खलु संसारस्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो ।
परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गदिसु गदी।
गदिमधिगदस्स देहो देहादो दियाणि जायते ।
तेहि दु विसयग्गहणं तत्तो रागो ब दोसो वा ।।
बायदि जीवरसेवं भावो संसारचक्कवालाम्म ।
इदि जिणवरेहि भणिदो अगादिणिषणो सणिधणो वा ।'
श्रुतघराचार्योने स्पष्टरूपसे बताया है कि आत्मा अनादिकालसे अशुद्ध है, पर प्रयोग द्वारा इसे शुद्ध किया जा सकता है । एकबार शुद्ध होनेपर फिर इसका अशुद्ध होना संभव नहीं, यतः बाधक कारणोंके नष्ट होनेस पुन: अशुद्धि आत्मामें उत्पन्न नहीं हो सकती। आत्माके प्रदेशोंमें संकोच और विस्तार भी कर्मके निमित्तसे होता है | कर्म निमित्तके हटते ही आत्मा अपने अन्तिम खाकारमें रह जाती है और उर्वलोकके अग्रभागमें स्थित हो अपने अनन्तचैतन्यमें प्रतिष्ठित हो जाती है।
श्रुतघराचार्योंने कर्मसिद्धान्तके इस प्रसंगमें अध्यात्मवाद, तत्त्वज्ञान, अनेकान्तवाद, आचार आदिका भी विवेचन किया है । गुणस्थान, जीवसमास, मागंणा आदिको अपेक्षासे कर्मबन्ध, जोक्के भाव, उनकी शुद्धि-अशुद्धि, योग ध्यान आदिका विवंचन किया है।
नय-वादको अपेक्षासे आत्माका निरूपण करते हुए निश्चयनयको अपेक्षा आत्माको शुद्ध चैतन्यभावोंका कर्ता और मोक्ता माना है। पर व्यवहार नयको अपेक्षासे यह आत्मा कर्मबन्धके कारण अशुद्ध है और राग-देष-मोहादि की कर्ता और तज्जन्य कर्मफलोंकी भोता है | अतएव संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि श्रुतघराचार्योने सिद्धान्त-साहित्यका प्रणयन कर तीर्थकर महावीर की ज्ञानज्योतिको अखण्ड और अक्षुण्ण बनाये रखने का प्रयास किया है।
द्वितीय परिच्छेदमें सारस्वताचार्यों द्वारा की गयी श्रुतसेवाका प्रतिपादन किया गया है । सारस्वताचार्योंमें सर्वप्रमुख आचार्य समन्तभद्र है । इनके पश्चात सिद्धसेन, पूज्यपाद, पात्रकेसरी, जोइन्दु, विमलसूरि, ऋषिपुत्र, मानढुंग, रविषेण, जटासिंहनन्दि, एलाचार्य, वीरसेन, अकलक, जिनसेन द्वितीय, विद्या नन्द, देवसेन, अमितगति प्रथम, अमितगति द्वितीय, अमृतचन्द्र, नेमिचन्द्र आदि आचार्योने प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोगकी रचना कर बाङ्गमयको पल्लवित किया है। इन सारस्वताचार्योंने उत्पादादि-त्रिलक्षण परिमाणवाद, अनेकान्तदृष्टि, स्याद्वाद-भाषा और आत्मद्रव्यको स्वतन्त्र सत्ता इन चार मूल विषयोंपर विचार किया है ।
Sanjul Jain Created Article On Date 9 June 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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