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#pushpadantmaharaj
Acharya Pushpadant was a Digambara Jain Acharya. He composed the famous Jain text ' Shatkhandagam ' along with Acharya Bhutbali from the learnings of Acharya Dharsen.
Acharya Pushpadanta composed the 'Visadi Sutras'. Knowing his short life remaining, he sent his disciple to Acharya Bhutbali and Puspadant. Acharya Pushpadant and Acharya Bhutbali then completed the composition of the theory book 'Shatkhandagam'.
The day the book was completed became famous as 'Shrut Panchami'. Even today this day is celebrated as a festival by the Jain brothers.
आचार्य पुष्पदन्त
आचार्य पुष्पदन्त-भूतवली – गुणधराचार्य के पश्चात् अंग-पूर्वों के एक देश ज्ञाता धरसेन हुए। ये सौराष्ट्र देश गिरिनार के समीप उर्जयन्त पर्वत की चन्द्रगुफा में निवास करते थे। ये परवादी रूप हाथियों के समूह का मदनाश करने के लिए श्रेष्ठ सिंह के समान थे। अष्टांग महानिमित्त के पारगामी और लिपि शास्त्र के ज्ञाता थे। वर्तमान में उपलब्ध श्रुत की रक्षा का सर्वाधिक श्रेय इन्हीं को प्राप्त है। कहा जाथ है कि प्रवचन-वत्सल धरसेनाचार्य ने अंग श्रुत के विच्छेदन हो जाने के भय से महिमा नगरी में सम्मिलित दक्षिणा पथ के आचार्यों के पास एक पत्र भेजा। पत्र में लिखे गए धरसेन के आदेश को स्वीकार कर उन आचार्यों ने शास्त्र के अर्थ को ग्रहण और धारण करने में समर्थ विविध प्रकार के चारित्र से उज्ज्वल और निर्मल विनय से विभूषित शील रूपी माता के धारी सेवा भावी देश कुल जाति से शुद्ध, समस्त कलाओं के पारगामी एवं आज्ञाकारी दो साधुओं को आंध्र देश की वन्या नदी के तट से रवाना किया। इन दोनों मुनियों के मार्ग में आते समय धरसेनाचार्य ने रात्रि के पिछले भाग में स्वप्न में कुन्दपुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान श्वेत वर्ण के दो बैलों के अपने चरणों में प्रणाम करते देखा। प्रातः काल उक्त दोनों साधुओं के आने पर धरसेनाचार्य ने उन दोनों की परीक्षा ली और जब आचार्य को उनकी योग्यता पर विश्वास हो गया तब उन्होंने अपना श्रुतोपदेश देना प्रारंभ किया। जो आषाढ़ शुक्ला एकादशी को समाप्त हुआ। गुरु धरसेन ने इन दोनों शिष्यों का नाम पुष्पदन्त और भूतबली रखा। गुरु के आदेश से ये शिष्य गिरनार से चलकर अंकलेश्वर आये और वहीं उन्होंने वर्षाकाल व्यतीत किया। अनन्तर पुष्पदन्त आचार्य बनवास देश को और भूतबली तमिल देश की ओर चले गए।
पुष्पदन्त ने जिनपालित को दीक्षा देकर उसके अध्यापन हेतु सत्प्ररूपणा तक के सूत्रों की रचना की और उन्होंने उन सूत्रों को संशोधनार्थ भूतबली के पास भेज दिया। भूतबलि ने जिनपालित के पास उन सूत्रों को देखकर पुष्पदन्त आचार्य को अल्पायु जानकर महाकर्म प्रकृति पाहुड का विच्छेन ना हो जाये इस ध्येय से आगे द्रव्यप्रमाणादि आगम की रचना की। इन दोनों आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थ षट्खण्डागम कहलाता है। इस ग्रन्थ की सत्प्ररूपणा के १७७ सूत्र पुष्पदन्त ने और शेष समस्त सूत्र भूतवली के द्वारा रचित हैं अतएव यह स्पष्ट है कि श्रुत व्याख्याता धरसेन हैं और रचयिता पुष्पदन्त तथा भूतबलि।
इन आचार्यों के समय के सम्बन्ध में निश्चित रूप से तो ज्ञात नहीं है पर इन्द्र-नन्दी कृत श्रुतावतार में लोहाचार्य के पश्चात विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हदत्त इन चार आरातीय -आचार्यों का उल्लेख मिलता है और तत्पश्चात् अर्हद्बलि का तथा अर्हद्बलि के अनन्तर धरसेनाचार्य का नाम आता है। इन्द्रनन्दि के अनुसार कुन्दकुन्द षट्खण्डागम के टीकाकार हैं। अतः पुष्पदन्त और भूतबलि का समय कुन्दकुन्द के पूर्व है। विद्वानों ने अनेक पुष्ट प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया है कि षट्ख्ण्डागम की रचना प्रथम शती में होनी चाहिए।
षट्खण्डागम (छक्खंडागम) सूत्र – इस आगम ग्रन्थ में छह खण्ड हैं- जीवट्ठाण, खुद्दाबंध, बंधसामित्तविचय, वंदना, वग्गणा, और महाबन्ध। इस ग्रन्थ का विषय स्तोत्र बारहवें दृष्टिवाद श्रुतांग के अन्तर्गत द्वितीय पूर्व आग्रायणीय के चयनलब्धि नामक पञ्चम अधिकार के चतुर्थ पाहुड़ कर्म प्रकृति को माना जाता है।
षट्खण्डागम जैनागम का एक महान ग्रन्थ है। इसमें कर्म सिद्धांत को विभिन्न दृष्टि से समझाने का श्लाघनीय प्रयास किया गया है।
श्रुतघराचार्यों की परंपरामें आचार्य पुष्पदंत का नाम आता है। पुष्पदंत और भूतबलिका नाम साथ-साथ प्राप्त होता है, पर प्राकृत पट्टावलीमें पुष्पदंतको भूतबलिसे ज्येष्ठ माना गया है| धरसेनके पश्चात् पुष्पदंतका कार्यकाल ३० वर्ष बताया है। पुष्पदंत और भूतबलि दोनों ही धरसेनाचार्य के निकट श्रुतकी शिक्षा प्राप्त करने गये थे। शिक्षा-समाप्तिके पश्चात् सुन्दर दाँतोंके कारण इनका नाम पुष्पदंत पड़ा था।
विबुध श्रीधरके श्रुतावतारमें भविष्यवाणीके रूपमें जो कथा दी गई है उससे पुष्पदंत और भूतबलिके जीवन पर प्रकाश पड़ता है ; पर इस श्रुतावतारमें जिन तथ्योंकी विवेचना की गई है वे विचारणीय है। बताया है- भरत क्षेत्रके
बांमिदेश - ब्रह्मादेशमें वसुन्धराु नामकी नगरी होगी। वहाँके राजा नरवाहन और रानी सुरूपा पुत्र न होनेके कारण खेद-खिन्न होंगे। उस समय सुबुद्धी नामका सेठ उन्हें पद्मावतीकी पूजा करनेका उपदेश देगा। तदनुसार देवीको पूजा करनेपर राजाको पुत्रलाभ होगा और उस पुत्रका नाम पद्म रखा जायगा। तदनन्तर राजा सहस्रकूट चैत्यालयका निर्माण करायेगा और प्रति वर्ष यात्रा करेगा। सेठ भी राजकृपासे स्थान-स्थानपर जिनमन्दिरोंका निर्माण करायेगा। इसी समय वसन्त ऋतुमें समस्त सघं यहाँ एकत्र होगा और राजा सेठके साथ जिनपूजा करके रथ चलायेगा। इसी समय राजा अपने मित्र मगधसम्राट्को मुनींद्र हुआ देख सुबुद्धी सेठके साथ विरक्त हो दिगम्बरी दीक्षा धारण करेगा। इसी समय एक लेखवाहक वहाँ आयेगा। वह जिनदेवको नमस्कार कर मुनियोंकी तथा परोक्षमे धरसेन गरुकी वन्दना कर लेख समर्पि तर्पि करेगा। वे मुनि उसे बाचेंगे कि गिरिनगरके समीप गुफावासी धरसेन मुनीश्वर आग्रायणीय पुर्वकी पंचमवस्तुके चौथे प्राभृतशास्त्रका व्याख्यान आरंभ करनेवाले हैं। धरसेन भट्टारक कुछ दिनों में नरवाहन और सुबुद्धी नामके मुनियोंको पठन, श्रवण और चिन्तन कराकर आसाढ़ शुक्ल एकादशीको शास्त्र समाप्त करेंगे। उनमेंसे एककी भतू रात्रिको बलिविधि करेंगेऔर दूसरेके चार दांतोंको सुन्दर बना देंगे। अत्तएव भूत -बलिके प्रभावसे नरवाहन मुनिका नाम भूतबलि और चार दाँत समान हो जानेसे सुबुद्धीमुनीका नाम पुष्पदंत होगा।
इस आख्यानमें अन्य कुछ तथ्य हो या न हो, पर इतना यथार्थ है कि पुष्पदन्तका प्रारंभिक नाम कुछ और रहा होगा। धवलाटोकामें भी पुष्पदन्तके नामका उल्लेख करते हुए लिखा है-
"अवरस्स वि भूदेहि पूजिदस्स अत्थवियत्थ-द्विय-दंत-पंतिमोसारिय भूदेहि समोकय-दंतस्स 'पुप्फयंतो' त्ति णामं कयं।"
अर्थात् देवोंने पूजा कर जिनको अस्तव्यस्त दंतपंक्तीको दूर कर सुन्दर बना दिया उनको धरसेन भट्टारकने पुष्पदन्त संज्ञा की। स्पष्ट है कि पुष्पदन्त यह आरंभिक नाम नहीं है। गुरुने यह नामकरण किया है। संक्षिपिन शिन साधुओंके आनेका उल्लेख किया गया है उनके आरंभिक नामोंका कथन नहीं आया है। यह सत्य है कि पुष्पदन्त भी भूतबलिके समान ही प्रतिभाशाली और ग्रन्थ-निर्माणमें पटु हैं।
इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें लिखा है कि वर्षावास समाप्त कर पुष्पदन्त और भूतबलि दोनोंने ही दक्षिणकी ओर विहार किया। और दोनों करहाटक पहुंचे। वहाँ उनमेसे पुष्पदन्त मुनिने अपने भानजे जिनपालितसे भेंट की और उसे दीक्षा देकर अपने साथ ले वनवास देशको चले गये। तथा भूतबलि द्रविड देशकी मथुरा नगरीमें ठहर गये।
करहाटकको कुछ विद्वानोंने सितारा जिलेका आधुनिक करहाइ या कराड और कुछने महाराष्ट्रका कोल्हापुर नगर बतलाया है। करहाटक नगर प्राचीन समयमें बहुत प्रसिद्ध था। स्वामी समन्तभद्र भी इस नगरमें पधारे थे। शिलालेखोंसे ज्ञात होता है कि उस समय यह नगर विद्या और वीरता दोनों के लिए प्रसिद्ध था।
उपर्युक्त चर्चासे एक तथ्य यह प्रसूत होता है कि पुष्पदन्तके भानजे जिन पालित करहाटकके निवासी थे। अतः पुष्पदन्तका भी जन्मस्थान करहाटके आसपास ही होना चाहिए।
धरसेनाचार्यने महिमा नगरीमें सम्मिलित हुए दक्षिणापथके आचार्योंके पास अपना पत्र भेजा था, जिसके फलस्वरूप आन्ध्रदेशकी वेणा नदीके तटसे पूष्पदन्त और भूतबलि उनके पास पहुंचे थे। वर्तमानमें सतारा जिलेमें वेश्या नामकी नदी प्रवाहित होती है और उसी जिलेमें महिमानगढ़ नामक ग्राम भी है। बहुत संभव है कि यह ग्राम ही प्राचीन महिमा नगरी रहा हो। अतएव सातारा जिलेका करहाड ही करहाटक हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
वनवास देश उत्तर कर्णाटकका प्राचीन नाम है। यहाँ कदम्बवंशके राजाओंकी राजधानी थी। इस वनवास देशमें ही आचार्य पुष्पदन्तने जिन पालितको पढ़ानेके लिए 'बीसदि' सूत्रोंकी रचना की। और इन सूत्रोंको भुतबलिके पास भेजा। भूतबलिने उन सूत्रोंका अवलोकन किया और यह जानकर कि पुष्पदन्त आचार्यकी अल्पायू अवशिष्ट है, अत: महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका विच्छेद न हो जाय, इस भयसे उन्होंने द्रव्यप्रमाणानुगमको आदि लेकर ग्रन्थ रचना की। अतएव यह स्पष्ट है कि षट्खण्डागमसिद्धान्तका प्रारंभिक भाग वनवास देशमें रचा गया और शेष ग्रन्थ द्रविड़ देशमें।
यह हम पहले ही लिख चुके हैं कि पुष्पदन्त भूतबलिसे आयुमें ज्येष्ठ थे। आचार्य वीरसेनने मंगलाचरण-संदर्भमें भूतबलिसे पूर्व पुष्पदन्तका स्तवन किया है। लिखा है-
पणमामि पुप्फयंत दुण्णयंधयार-रवि।
भग्ग-सिव-मग्ग-कंटयमिसि-समिइ-वई सया दतं।
अर्थात् जोपापोंका अन्त करने वाले हैं, कुनयरूप अंधकारके नाश करनेके लिये सूर्य सुल्य हैं, जिन्होंने मोक्षमार्गके विघ्नोंको नष्ट कर दिया है, जो ऋषियोंकी समिति अर्थात् सभाके अधिपति हैं और जो निरन्तर पञ्चेन्द्रियोंका दमन करने वाले हैं ऐसे पुष्पदन्त आचार्यको मैं प्रणाम करता हूँ।
उपयुक्त उद्धरणमें 'इसि-समिइ-वई’ विचारणीय है। इस पदका अर्थ यह है कि पुष्पदन्त अपने समयके आचार्यों में अत्यन्त मान्य थे और इसीलिये वे मुनिसमितिके सभापति कहलाते थे।
नदिसंघकी प्राकृत-पट्टावलोके अनुसार पुष्पदन्त भूतबलिसे पूर्ववर्ती हैं। इसके अनुसार इनका समय वीर नि. सं. ६३३ के' पश्चात् ई. सन् प्रथम द्वितीय शताब्दीके लगभग होना चाहिए। डा. ज्योतिप्रसाद जैनने पुष्पदन्त का समय ई. सन् ५०-८० माना है।
धवलामें आचार्य वीरसेनने बतलाया है कि बीस प्रकारकी प्ररूपणाएं सूत्रोंके द्वारा की गयी हैं। अतः पुष्पदन्ताचार्यने जो 'बिसदिसुत्त' कहा है उसका अभिप्राय सतवहरण को सत्रोंमें मामलो कीर व माओवासे है। धवला कारने सत्प्ररूपणाके सूत्रोंकी व्याख्या समाप्त करनेके पश्चात् लिखा है कि सत्सूत्रोंका विवरण समाप्त हो आनेके अनन्तर उनको प्ररूपणा करेंगे। इससे स्पष्ट है कि आचार्य पुष्पदन्तने सत्सूत्रोंको ही रचना की है, उसकी प्ररूपणाका कथन नहीं किया। यद्यपि उन्होंने अनुयोगद्वारका नाम "संतपरुवणा" ही रखा है। ऐसी स्थितिमें पुष्पदन्ताचार्यके द्वारा रचे गये सूत्रोंको 'संतसुत्त' कहना अधिक उचित था; पर इस शब्दका प्रयोग न कर 'बीसदिसुस' क्यों कहा, इस सम्बन्ध में कोई सन्तोषजनक समाधान प्राप्त नहीं होता है।
इन्द्रनन्दिने लिखा है कि पुष्पदन्तने सौ सूत्रोंको पढ़ाकर जिनपालितको भूतबलिके पास भेजा; किन्तु सत्प्ररूपणाके सूत्रोंकी संख्या १७७ है। अतः उनका यह कथन भी सतर्क प्रतीत नहीं होसा। यह सत्य है कि सत्प्ररूपणाके १७७ सूत्र पुष्पदन्ताचार्य द्वारा रचे गये हैं। अतः उत्थानिकामें धवलाकारने पुष्पदन्तका ही नामोल्लेख किया है।
इस ग्रन्थको रूपरेखाका निर्माण पुष्पदन्तके द्वारा ही हुआ होगा। यत्तः ग्रन्थ-निर्माणका आरंभ पुष्पदन्तने किया है। इन्होंने चौदह जीवसमासों और गुणस्थानोंके निरूपणके लिये आठ अनुयोगदारोंको ही जानने योग्य बतलाया है। ये आठ अनुयोगद्वार है- १. संतपरुवणा, २. द्रव्यप्रमाणानुगम, ३. क्षेत्रानुगम, ४. स्पर्शानुगम, ५. कालानुगम, ६. अन्तरानुगम,७. भावानुगम, और ८. अल्पबहुत्वानुगम। जीवस्थान नामक प्रथम खण्डके ही ये आठ अधिकार हैं। इन अधिकारोंके अन्तर जोवस्थानकी चुलीका है। इस चुलीकाको भी जीव स्थानका भाग सिद्ध करनेके लिए धवलाकारको शंका-समाधान करना पड़ा है और अन्तमें उन्होंने बताया है कि चूलिकाका अन्तर्भाव आठ अनुयोग द्वारोंमें होता है। अतः चूलिका जीवस्थानसे भिन्न नहीं है। धवलाकारकी इस चर्चासे यह स्पष्ट है कि पुष्पदन्त आचार्य द्वारा आठ अनुयोगद्वारोंमें जो बातें कथन करनेसे छूट गई थीं उनसे सम्बद्ध बातोंका कथन चूलिका अधिकारमें किया गया है। धवलाके अध्ययनसे यह प्रतीत होता है कि चूलिका अधिकार पुष्पदन्त द्वारा रचित नहीं है। पुष्पदन्तने केवल जीवस्थान नामक खण्डका हो उक्त सूत्रोंमें ग्रथन किया है|
इन्द्रनन्दि ने लिखा है- पुष्पदन्त मुनिने अपने भानजे जिनपालितको पढाने के लिए कर्मप्रकृतिप्राभृतका छ: खण्डोंमें उपसंहार किया है। और जीवस्थानके प्रथम अधिकारकी रचना की और उसे जिनपालितको पढ़ाकर भूतबलिका अभिप्राय अवगत करने के लिए उनके पास भेजा। जिनपालितसे सत्तरूपणाके सूत्रोंको सुनकर भूतबलिने पुष्पदन्त गुरुका षट्खण्डागम-रचनाका अभिप्राय जाना।
जीवस्थानके अवतारका कथन करते हुए धवलाटीकाकार आचार्य वीरसेनने जो विमर्श प्रस्तुत किया है उससे आचार्य पुष्पदन्तकी रचनाशक्ति, पाण्डित्य एवं प्रतिमा पर पूरा प्रकाश पड़ता है। लिखा है- "दूसरे आग्रायणीय पूर्वके अन्तर्गत चौदह वस्तु-अधिकारोंमें एक चयन लब्धि नामक पाँचवा वस्तु-अधिकार है। उसमें बीस प्राभृत हैं। उनमेंसे चतुर्थ प्राभृत्त कर्मप्रकृति है। उस कार्म प्राभृतप्रकृतिके २४ अर्थाधिकार हैं। उनमें छठा अधिकार बन्धन नामक है। इस अधिकारके भी चार भेद हैं-
१.बन्ध, २.बन्धक, ३. बन्धनीय और ४. बन्धविधान। इनमेंसे बन्धक अधिकारके ग्यारह अनुयोगद्वार हैं। उनमें पञ्चम अनुयोगद्वार द्वव्यप्रमाणानुगम है। इस चोवस्थान नामक खण्डमें जो द्रव्यप्रमाणानुगम नामक अधिकार है वह इसी बन्धक नामक अधिकारसे निस्सृत है। बन्धविधानके भी चार भेद हैं - प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध। इन चारों बन्धोंमेंसे प्रकृतिबन्धके दो भेद हैं- मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध। उत्तर बन्धके दो भेद हैं- एकैकोत्तर प्रकृतिबन्ध और अच्चोगाढ़ोत्तरप्रकृतिबन्ध। एकैकोत्तरप्रकृतिबन्धके २४ अनुयोगद्वार हैं। उनमेसे जो समुत्कीर्तन नामक अधिकार है उसमेसे प्रकृतिसमुत्कीर्तन, स्थान-समुत्कीर्तन और तीन महादंडक निस्सृत हैं। तेईसवे भावानुगमसे भावानुगम निकला है। अच्चीगाढ उत्तरप्रकृतिवन्धके दो भेद हैं- भुजगारबन्ध और प्रकृतिस्थानबन्ध। प्रकृतिस्थानबन्धके आठ अनुयोगदार हैं- सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम। इन आठ अनुयोगद्वारों से छ: अनुयोग-द्वार निकले हैं- सत्प्ररूपणा, क्षेत्रप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा, अंतरप्ररूपणा और अल्पबहूत्वप्ररूपणा। ये छ: और बन्धक अधिकारके ग्यारह अधिकारों से निस्सृत द्रव्यप्रमाणानुगम तथा तेईसवे अधिकारसे निस्सृत भावानुगम ये सब मिलकर जीवस्थानके आठ अनुयोगद्वार हैं। इस विवेचनसे ज्ञात होता है कि आचार्य पुष्पदन्तने 'एत्तो" इत्यादि सूत्र उक्त आधारको ग्रहण कर ही कहा है।
उक्त समस्त विमर्शके अध्ययनसे निम्नलिखित निष्कर्ष उपस्थित होते हैं -
१. षट्खंडागमका आरंभ आचार्य पुष्पदन्तने किया है।
२. सत्प्ररूपणाके सूत्रोंके साथ उन्होंने षटखंडागमकी कोई रूपरेखा भी भूतबलिके निकट पहुंचायी होगी।
३. पुष्पदन्तने अपनी रचना जिनपालितको पढ़ायी और तदनन्तर अपनेको अल्पायु समझकर गुरुभाई भूतबलिको अवशिष्ट कार्यको पूर्ण करनेके लिये प्रेरित किया होगा।
४. पुष्पदन्त महाकर्मप्रकृत्तिनाभृतके अच्छे ज्ञाता एवं उसके व्याख्याताके रूपमें प्रसिद्ध रहे हैं। यद्यपि सूत्रोंके रचयिताका नाम नहीं मिलता है; पर धवलाटीकाके आधारपर सत्प्ररूपणाके सूत्रोंके रचयिता पुष्पदन्त है।
५. पुष्पदन्तने अनुयोगद्वार और प्ररूपणाओंके विस्तारको अनुभव कर ही सूत्रोंकी रचना प्रारम्भ को होगी।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा।
आचार्य श्री १०८ पुष्पदंत (प्राचीन)
Acharya Pushpadant was a Digambara Jain Acharya. He composed the famous Jain text ' Shatkhandagam ' along with Acharya Bhutbali from the learnings of Acharya Dharsen.
Acharya Pushpadanta composed the 'Visadi Sutras'. Knowing his short life remaining, he sent his disciple to Acharya Bhutbali and Puspadant. Acharya Pushpadant and Acharya Bhutbali then completed the composition of the theory book 'Shatkhandagam'.
The day the book was completed became famous as 'Shrut Panchami'. Even today this day is celebrated as a festival by the Jain brothers.
Acharya Pushpadant was a Digambara Jain Acharya. He composed the famous Jain text ' Shatkhandagam ' along with Acharya Bhutbali from the learnings of Acharya Dharsen.
Acharya Pushpadanta composed the 'Visadi Sutras'. Knowing his short life remaining, he sent his disciple to Acharya Bhutbali and Puspadant. Acharya Pushpadant and Acharya Bhutbali then completed the composition of the theory book 'Shatkhandagam'.
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Acharya Pushpadant (Prachin)
Acharya Shri Pushpdant Maharaj Ji
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