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श्रुतघराचार्यों की परंपरामें आचार्य शिवार्य का भी नाम आता है। जीवन-परिचय- मुनि-आचारपर शिवार्यकी 'भगवती आराधना' अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है। इसके अन्तमें जो प्रशस्ति दी गयी है उससे उनकी गुरु परम्परा एवं जीवनपर प्रकाश पड़ता है। प्रशस्तिमें बताया है-
अज्जजिणणंदिगणि-सव्वगुत्तगणि-अज्जमित्तणंदीणं।
अवगमिय पादमूले सम्म सुत्तं च अत्थं च॥
पुव्वारियणिबद्धा उपजीवित्ता इमा ससतिए।
आराहणा सिवज्जेण पाणिदलभोइणा रइदा॥
छदुमत्थदाइ एत्य दु जं वद्धं होज्ज पवयण-विरुद्ध।
सोधंतु सुगीदत्था पवयणवच्छल्लदाए दु॥
आराहणा भगवदो एवं भत्तीए वण्णिदा संती।
संघस्स सिवजस्स य समाधिवरमुत्तमं देउ॥
अर्थात् आर्य जिननन्दि गणि, आर्य सर्वगुप्त गणि और आय मित्रनन्दिके चरणोंके निकट मूलसूत्रों और उनके अर्थको अच्छी तरह समझकर पूर्वाचार्यों द्वारा निबद्ध की गयी रचनाके आधारसे पाणितलभोजी शिवायने यह आराधना अपनी शक्तिके अनुसार रची है। छयस्थता या ज्ञानकी अपूर्णताके कारण इसमें कुछ प्रवचनविरुद्ध लिखा गया हो, तो विद्वज्जन प्रवचन-वात्सल्यसे उसे शुद्ध कर लें। इस प्रकार भक्तिपूर्वक वर्णन की हुई भगवति आराधना संघको और शिवार्यकी उत्तम समाधि दे।
उपर्युक प्रशस्तिसे निम्नलिखित तथ्य निःसृत होते हैं-
१. शिवार्य पाणितलभोजी होने के कारण दिगम्बर परम्परानुयायी हैं।
२. आर्यशब्द एक विशेषण है। अतः प्रेमोजीके अनुमानके अनुसार इनका नाम शिवनन्दि, शिवगुप्त या शिवकोटि होना चाहिए।
३. भगवती अराधनाकी रचना पूर्वाचार्यों द्वारा निबद्ध ग्रन्थोंके आधारपर हुई हैं।
४. शिवार्य विनीत, सहिष्णु और पूर्वाचायोंके भक्त हैं।
५. इन्होंने गुरुओंसे सूत्र और उसके अर्थकी सम्यक् जानकारी प्राप्त की है। जिनसेनाचार्यने आदिपुराणके प्रारम्भमें शिवकोटि मुनिको नमस्कार किया है।
शीतीभूतं जगद्दस्य आचाराध्य चतुष्टयम्।
मोक्षमार्ग स पायान: शिवकोटिमुनीश्वरः।।
अर्थात् जिनके वचनोंसे प्रकट हुए चारों आराधनारूप मोक्ष-मार्गको आराधना कर जगत्के जीव सुखी होते है वे शिवकोटि मुनीश्वर हमारी रक्षा करें।
उपर्युक्त पद्य में जिस रूपमें जिनसेन आचार्यने शिवकोटि मुनीश्वरका स्मरण किया है उससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि शिवकोटि मुनीश्वर भगवती आराधनाके कर्ता हैं। अतएव दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूप चार प्रकारकी आराधनाओंका विस्तृत वर्णन करनेवाले शिवार्यका ही शिवकोटि नाम होना चाहिए है।
प्रभाचन्द्रके आराधनाकथाकोष और देवचन्द्रके राजावलिकथे (कन्नडग्रन्थ) में शिवकोटिको स्वामी समन्तभद्रका शिष्य बतलाया है। ये शिवकोटिकाशी या कांचीके शैव राजा थे और समन्तभद्रके चमत्कारको देखकर उनके शिष्य बन गये थे। पर इन कथाओंका ऐतिहासिक मूल्य कितना है, यह नहीं कहा जा सकता। यदि वस्तुत: शिवकोटि समन्तभद्रके शिष्य होते, तो इतने बड़े ग्रंथमें वे अपने उपकारी गुरु समन्तभद्रका उल्लेख न करें, यह सम्भव नहीं है।
हरिषेणकृत कथाकोषमें समन्तभद्रकी उक्त कथा नहीं है। यह अन्य विक्रम सं. ९८८ में लिखा गया है। अतः उपलब्ध कथाकोषोंमें यह सबसे प्राचीन है। इस कथाकोषमें शिवकोटिसे सम्बद्ध समन्तभद्रवाली कथाके न मिलनेसे शिवकोटिका समन्तभद्रका शिष्य होना शंकास्पद है।
शिवकोटिका सबसे पुरातन उल्लेख आदिपुराणमें मिलता है। आदिपुराणके रचयिता जिनसेनके समय में यदि शिवकोटि और समन्तभद्रका शिष्यगुरुत्व प्रसिद्ध होता तो वे समन्तभद्रके पश्चात् ही शिवकोटिकी स्तुति करते। पर ऐसा न कर उन्होंने श्रीदत्त, यशोभद्र और प्रभाचन्द्रको स्तुति लिखकर शिवकोटिका स्मरण किया है।
कवि हस्तिमल्लने विक्रान्तकौरवमें समन्तभद्रके शिवकोटि और शिवायन दो शिष्य बतलाये हैं और उन्हीके अन्वयमें वीरसेन, जिनसेनको बतलाया है। पर इस बातका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है कि समन्तभद्रकी शिष्यपरम्परामें वीरसेन एवं जिनसेन हुए हैं। शिवकोटिका तो उल्लेख मिलता भी है। पर शिवायनका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। शिवायनका अन्यत्र भी कहीं नाम नहीं आता। भगवती-आराधनाके रचयिता शिवकोटि समन्तभद्रके शिष्य थे, इसका साधक कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेख नं. १०५ में शिवकोटिको तत्त्वार्थसूत्रका टीकाकार बतलाया है। यह अभिलेख विक्रम सं. १४५५ का है। इसमें आया हुआ 'एतत्' शब्द विचारणीय है। श्री पं. जुगलकिशोरजी मुख्तारका यह अनुमान है कि-
"तस्यैव शिष्यविशवकोटिसूरिस्तपोलसालम्बनदेहयष्टिः।
संसार-बाराकर-पोतमेतत्तत्वार्थसूत्रं तदलन्चकार'।”
उपर्युक्त पद्म तत्त्वार्थसूत्रकी उसी शिक्षकोटिकृत टीकाकी प्रशस्तिका एक पद्म है जो शिलालेखमें एक विचित्र ढंगसे शामिल कर लिया गया है। अन्यथा शिलालेखके पद्योंके अनुक्रममें 'एतद' शब्दकी संगति नहीं बैठ सकती। अतएव शिवार्यको तत्त्वार्थसूत्रपर कोई अवश्य टीका रही है। भले ही वे शिवार्य आराधनाके कर्तासे भिन्न हों। यह भी सम्भव है कि शिलालेख में उल्लिखित समन्तभद्र ही उनके गुरु हों। अष्टसहस्रोपर विषमपदतात्पर्य टीकाके रचयिता एक लघुसमन्तभद्र हुए हैं, जिनका समय अनुमानत: विक्रमको १३ वी शताब्दी है।
यदि भगवती आराधनाके रचयिता शिवार्य या शिवकोटिकी तत्त्वार्थसूत्रकी कोई टीका होती तो उसका उल्लेख तत्त्वार्थसूत्रके अन्य टीकाकार अवश्य करते। पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि टीकामें भी उसका निर्देश अवश्य मिलता। अतः न तो भगवती आराधनाके रचयिता शिवकोटिकी तत्वार्थसूत्रपर कोई टीका ही है, और न वे समन्तभद्रके शिष्य ही जान पड़ते हैं।
एक अन्य प्रमाण श्रीपण्डित परमानन्दजी शास्त्रीने अपने एक निबन्धमें उपस्थित किया है। उन्होंने लिखा है कि शिवार्यने गाथा २०७१ - ८३ में स्वामी समन्तभद्राकी तरह गुणव्रतोंमें भोगोपभोगपरिमाणको न गिनाकर देशावकाशिकको ग्रहण किया है और शिक्षाव्रतोंमें देशावकाशिकको न लेकर भोगोपभोगपरिमाणका विधान किया है। यदि वे समन्तभद्रके शिष्य होते तो इस विषय में उनका अवश्य अनुसरण करते। इस प्रकार आराधनाके रचयिताके साथ समन्तभद्रका सम्बन्ध घटित नहीं होता।
दिगम्बर सम्प्रदायकी पट्टावलियों, अभिलेखों, ग्रन्थ-प्रशस्तियों एवं श्रुतावतार आदिमें जो परम्पराएं उपलब्ध होती हैं, उनमेंसे किसी भी परम्परामें शिवार्य द्वारा उल्लिखित अपने गुरुओं- जिननन्दि, सर्वगुप्त और मित्रनन्दिके नाम नहीं मिलते। शाकटायन व्याकरण में- "उपसर्वगुप्तं व्याख्यातार:।" अर्थात् समस्त व्याख्याता सर्वगुप्तसे नीचे हैं- उन जैसा कोई दूसरा व्याख्याता नहीं। बहुत सम्भव है कि इन्हीं सर्वगुप्तके चरणों में बैठकर शिवार्यने सूत्र और उनका अर्थ अच्छी तरह ग्रहण किया हो और तत्पश्चात् आराधनाकी रचना की हो। श्री प्रेमोजीने शाकटायनके उक्त उल्लेखिके आधारपर शिवार्य या शिवकोटि को यापनीय संघका आचार्य बताया है। उन्होंने अपने कथनकी पुष्टिके लिए निम्नलिखित प्रमाण उपस्थित किये है-
१. भगवती आराधनाकी उपलब्ध टीकाओंमें सबसे पुरानी टीका अपराजित सूरिकी है और जैसा कि आगे बतलाया जायगा वे निश्चयसे यापनीय संघके हैं। ऐसी दशामें मूलग्रंथकर्ता शिवार्यको भी यापनीय होनेको अधिक सम्भावना है।
२. यापनीय संघ श्वेताम्बरोंके समान सूत्रग्रन्धोंको मानता है और अपरा जित सूरिकी टोकामें सैकड़ों गाथाएँ ऐसी हैं जो सूत्रनन्थों में मिलती हैं।
३. दश स्थितकल्पोंके नामों वाली गाथा जातकल्पभाष्य और अनेक श्वेताम्बर टीकाओं और निर्मुक्तियों में मिलती हैं। आचार्य प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेय कमलमार्तण्ड में भी इसे श्वेताम्बर गाथा माना है।
४. आराधनाकी ५६५-५६६ नम्बरकी गाथाएँ दिगम्बर मुनियोंके आचारसे मेल नहीं खाती। उनमें बीमार मुनिके लिए चार मुनियोंके द्वारा भोजन-पान लानेका निर्देश है।
५. आराधनाकी ४२८वीं गाथा आचारांग और जोतकल्प ग्रंथोका उल्लेख करति है, जो श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्रसिद्ध ग्रंथ है।
६. शिवार्यने अपनेको पाणितलभोजी लिखा है। यापनीय संघके साधु श्वेताम्बर साधुओंके समान पात्रभोजी नहीं बल्कि दिगम्बरोंके समान करपात्र भोजी थे।
इस प्रकार श्री प्रेमीजीने शिवार्य या शिवकोटिको यापनीय संघका आचार्य मना है और इनके गुरुका नाम प्रशस्तिके आधारपर सर्वगुप्त सिद्ध किया है।
भगवती आराधना या मूलाराधनाके कर्ता शिवार्य कब हुए, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है। उन्होंने अपने समयका निर्देश कहीं नहीं किया है। परवर्ती आचार्योंमें जिनसेनाचार्यने ही सर्वप्रथम उनका उल्लेख किया है। जिनसेनका समय नवम शताब्दी होनेसे शिवार्य के समयकी सबसे ऊपरी सोमा ई. सन् नवम शताब्दी मानी जा सकती है। शाकटायनके निर्देशानुसार सर्वगुप्त उनके गुरु हैं। शाकटायनका काल भी शिवार्यके समयकी अपनी सीमा हो सकता है। अब प्रश्न यह है कि शिवार्यको जिनसेन और पाल्यकीर्तीसे कितना पहले माना जाय। ग्रन्थका अन्तरङ्ग अध्ययन करनेपर ज्ञात होता है कि आराधनाके ४० वें विजहना नामक अधिकारमें आराधक मुनियोंके भृतक संस्कार वर्णित हैं, उनसे ग्रन्थकी प्राचीनतापर प्रकाश पड़ता है। इसके अनुसार उस समय मुनिके मृतक शरीरको वनमें किसी अच्छी जगहपर यों ही छोड़ दिया जाता था। और उसे पशु-पक्षी समाप्त कर देते थे।
इस ग्रंथपर अपराजित सूरि द्वारा विरचित 'विजयोदया' नामक संस्कृत टीका उपलब्ध है। इस टीकासे भी इस ग्रन्थकी प्राचीनता प्रकट होती है। अन्य टोका-टिप्पणोंसे यह अवगत होता है कि इस ग्रन्थपर प्राकृत-टीकाएँ भी उपलब्ध थों । इन टीकाओंका उल्लेख टीकाकारोने टोहाना "प्राकृतटीकायाम्" कहकर किया है। मूलाराधनादर्पण-टीकामें अनेक स्थलोंपर प्राकृतटीकाका निर्देश आया है। यथा- "प्राकृतटीकायां तु अष्टाविशतिमूलगुणाः। आचार वत्वादयश्चाष्टी इति षटत्रिशत्।"
प्राकृतटीकायां पुनरिदमुक्त- उत्तरापथे चर्मरंगम्लेचविषये म्लेच्छा जलो- काभिर्मानुषरुधिरं गृहीत्वा भंडकेषु स्थापयन्ति। ततस्तेन रुधिरेण कतिपय- दिवसोत्पन्नविपन्नकुमिकेणोर्णासूत्रं रंजयित्वा कंबलं वयंति। सोध्यं कृमिरागकंबल इत्युच्यते। स चातोव रुधीरवर्णो भवति, तस्य हि वन्हिना दग्धस्यापि स कृमिरागो नापगच्छतोति। सोधो शुक्लतापादनं। जदुरागवच्छसोधी सिन्धुदेशलाक्षारक्तटसरिवस्त्रशुद्धिः। अवि अपिः सम्भावने। किहइ कथंचित्। आयासेन। ण इमा सल्लुद्धरणसोधो इयं गुरूपचारपूर्विकालोचनया रत्नत्रयशुद्धिः।
प्राकृतटीकायां तु कम्ममलविप्पमुक्को कम्ममलेण मेल्लिदो सिद्धि णिव्वाणं पत्तो त्ति प्राप्त इति।
इन अवतरणोंसे यह स्पष्ट है कि मूलाराधना या भगवती आराधनापर प्राकृतटीका रही है। प्राकृत्तटीका लिखे जानेका समय विक्रम संवत् ६ठी शताब्दीसे पूर्व है। प्राकृतग्रन्थोंकी प्राकृत भाषामें टीका लिखनेकी परम्परा ५ वी- ६ ठी शताब्दी तक ही मिलती है। इसके पश्चात् तो संस्कृत भाषामें टीका लिखनेकी परम्परा प्रारम्भ हो चुकी थी। अतएव मूलाराधनाका समय विक्रम ६ठी शतीके पूर्व होना चाहिए। डॉ. हीरालालजी जैनने लिखा है- 'कल्पसूत्रकी स्थविरावलीमें एक शिवभूति आचार्यका उल्लेख आया है तथा आवश्यकमूलभाष्यमें शिवभूतिको वीरनिर्वाणसे ६०९ वर्ष पश्चात् वोडिक- दिगम्बर संघका संस्थापक कहा है। कुन्दकुन्दाचार्यने भावराहुडमें कहा है कि शिवभूतिने भाव-विशुद्धि द्वारा केवलज्ञान प्राप्त किया। जिनसेनने अपने हरिवंशपुराणमें लोहार्यके पश्चाद्वर्ती आचार्यो में शिवगुप्त मुनिका उल्लेख किया है। जिन्होंने अपने गुणोंसे अर्हद वलि पदको धारण किया था - ग्रन्थ सम्भवतः ई. की प्रारम्भिक शत्ताब्दियोंका है।"
स्पष्ट है कि डॉ. हीरालालजी इस ग्रंथका काल ई. सन द्वितीय- तृतीय शती मानते हैं। इस ग्रन्थपर अपराजित सूरि द्वारा लिखी गयी टीका ७वीं- ८वीं शताब्दीकी है। अतः इससे पूर्व शिवार्यका समय सुनिश्चित है। डॉ. ज्योतिप्रसाद जैनने शिवार्यके समयका विचार करते हुए लिखा है-
शिवार्य सम्भवतः श्वेताम्बर परम्पराके शिवभूति हैं। ये उत्तरापथकी मथुरा नगरीसे सम्बद्ध हैं और इन्होंने कुछ समय तक पश्चिमी सिन्धमें निवास किया था। बहुत सम्भव है कि शिवायं भी कुन्दकुन्दके समान सरस्वती आन्दोलनसे सम्बद्ध रहे हों। वस्तुत: शिवायं ऐसी जैन मुनियोंकी शाखासे सम्बन्धित है जो उन दिनों न तो दिगम्बर शाखाके ही अन्तर्गत थी और न श्वेताम्बर शाखाके ही। यापनीय संघके ये आचार्य थे। अतएव मथुरा अभिलेखोंसे प्राप्त संकेतोंके आधारपर इनका समय ई. सन् की प्रथम शताब्दी माना जा सकता है।
भगवती आराधनाके वर्ण्य-विषयके अध्ययनसे स्पष्ट है कि इसके अनेक तथ्य ऐसे हैं, जो ई. पू. तीसरी-चौथी शताब्दी में प्रचलित थे। मुनियोंकी अन्त्येष्टिका चित्रण, सल्लेखनाके समय मुनि-परिचर्या, मरणोंके भेद-प्रभेद आदि विषय पर्याप्त प्राचीन हैं। भाषा और शैलीके अध्ययनसे भी यह ध्वनित होता है कि यह ग्रन्थ ई. को आरम्भिक शताब्दियों में अवश्य लिखा जा चुका था। आराधनापर यह एक ऐसी सांगोपांग रचना है, जिसकी समता अन्यत्र नहीं मिलती है।
शिवार्यको भगवती आराधना या मूलाराधना नामकी एक ही रचना उपलब्ध है। इस ग्रन्थमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्त्तप इन चार आराधनाओंका निरूपण किया गया है। इस ग्रंथमें २१६६ गाथाए और चालीस अधिकार है। यह ग्रन्थ इतना लोकप्रिय रहा है, जिससे सातवीं शताब्दीसे ही इसपर टीकाएँ और विवृतियां लिखी जाती रही हैं। अपराजितसूरिकी विजयोदया टीका, आशाधरको मूलाराधनादर्पणटीका, प्रभाचन्द्रकी 'आराधनापंजिका' और शिवजित अरुणकी भावार्थदीपिका नामक टीकाएँ उपलब्ध हैं। इसको कई गाथाएँ 'आवश्यकनियुक्ति', 'बृहत्कल्पभाष्य', 'भक्ति पइण्णा', 'संथारण' आदि श्वेताम्बर ग्रंथोंमें भी पायी जाती हैं। हम यहाँ आदान-प्रदानकी चर्चा न कर इतना ही लिखना पर्याप्त समझते हैं कि प्राचीन गाथाओंका स्रोत कोई एक ही भण्डार रहा है, जिस मूलस्रोतसे ग्रन्थका सृजन किया गया है, वह स्रोत सम्भवतः आचार्यो को श्रुतपरम्परा ही है।
वस्तुतः इस ग्रन्थमें आराध्य, आराधक, आराधना और आराधनाफल इनका सम्यक वर्णन किया गया है। यहाँ रत्नत्रय आराध्य है, निर्मल परिणामवाले भव्यजीव आराधक हैं, जिन उपायोंसे रत्नत्रयकी प्राप्ति होती है, वे उपाय आराधना है और इस रत्नत्रयकी आराधना करनेसे अभ्युदय और मोक्षरूप फलको प्राप्ति होती है, यह आराधनाफल है।
इन चार आराध्यादि पदार्थों की आराधना उद्योतन, उद्यवन, निर्वहण, साधन और निस्तरण इन उपायोंसे होती है। सम्यकदर्शनादिको अतिचारोंसे अलिप्त रखना, उनमें दोष उत्पन्न न होने देना उद्योतन है। आत्मामें बार बार सम्यक्रदर्शनादिकी परिणति करते जाना उद्यवन है। परीषहादिक प्राप्त होनेपर स्थिर चित्त होकर सम्यकदर्शनादिसे च्युत न होना निर्वहण है। अन्य कार्यों में चित्त लगनेसे यदि सम्यग्दर्शनादि तिरोहित होने लगें, तो पुनः उपायोंसे उन्हें पूर्ण करना साधन है। आमरण सम्यकदर्शनादिककी निर्दोष धारण करना निस्तरण है।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यकतप इन चारोंकी उन्नति होनेके लिए पूर्वोक पांचोंकी आवश्यकता है। इस प्रकार प्रत्येकमें उद्योतनादिक पाँच उपाय मान लेने पर बीस भेद होते हैं। इस भगवती आराधना में इन सभी भेद-प्रभेदोंका उल्लेख आया है।
इस ग्रन्थमें १७ प्रकारके मरण बतलाये गये हैं। इनमें पंडितमरण, पंडित पडितमरण और बालपंडितमरणको श्रेष्ट कहा है। पद्धितमरणमें भी भक्त प्रतिज्ञामरणको श्रेष्ठ माना गया है। लिंगाधिकारमें आचेलक्य, लोच, देहसे ममत्वत्याग और प्रतिलेखन ये चार निग्रंथलिंगके चिन्ह बताये हैं। अनयिताधिकारमें नाना देशोंमें विहार करनेके गुणोंके साथ अनेक रीति-रिवाज, भाषा और शास्त्र आदिकी कुशलता प्राप्त करनेका विधान है। भावनाधिकारमें तपोभावना, श्रुतभावना, सत्यभावना, एकत्वभावना और धृतिबलभावनाका प्ररूपण है। सल्लेखनाधिकारमें सल्लेखनाके साथ बाह्य और अन्तरङ्ग तपोंका वर्णन किया है। अर्यिकाओंको संघमें किस प्रकार रहना चाहिए, उनके लिए कोन-कौन विषेय कर्तव्य हैं तथा कोन-कौनसे कार्य त्याज्य है आदिका प्रतिपादन किया है। मार्गणाधिकारमें आचार्यजीत और कल्पका वर्णन है। इस अधिकारमें आचेलक्यका भी समर्थन किया है। अतः इस ग्रंथकी मान्यता दिगम्बर सम्प्रदायमें रही है। प्रसंगवश ध्यान, परिषह, कषाय, छपकश्रेणी आदिका भी वर्णन है।
धार्मिक विषयके साथ काव्यात्मकता भी इस ग्रन्थमें विद्यमान है। कई ऐसी गाथाएँ भी है, जिनमें उपमाका प्रयोग बहुत सुन्दर रूपमें किया गया है। अन्तरङ्ग शुद्धि पर बल देते हुए बताया है-
घोडयलद्दिसमाणस्स तस्स अब्भंतरम्मि कुधिदस्स।
बाहिरकरणं कि से काहिदि बगणिहुदकरणस्स।।
अर्थात् जैसे घोड़ेकी लीद बाहरसे चौकनी दिखलाई पड़ती है, पर भीतरसे दुर्गन्धके कारण महामलिन है, उसी प्रकार जो मुनि बाह्याडम्बर तो धारण करता है, पर अन्तरंग शुद्ध नहीं रखता, उसका आचरण बगुलेके समान होता है।
शरीर, आहार और रसलोलुपताका वर्णन भी उपमाओं द्वारा किया गया है। सूक्तिकी दृष्टिसे इस ग्रन्थकी अनेक गाथाएँ रसमय, एवं बोधोत्पादक हैं। यहाँ दो-एक गाथा उदाहरणार्थ प्रस्तुत करते हैं-
जिब्भामूलं बोलेइ वेगऊ वर-हओ व्व आहारो।
तत्थे व रसं जाणइ ण य परदो ण वि य से परदो।
जिस प्रकार उत्तम जातिका अश्व वेगपूर्वक दौड़ता है, उसी प्रकार जिन्हा भी आहारका रसास्वादन करने के लिए वेगसे दौड़तो है। यद्यपि जिन्हाका अग्र भाग ही रसास्वाद लेता है, तो भी उदरस्थ आहारका अत्यल्प अंश सुखानु भूतिका कारण होता है| आहारका अधिक भाग तो उदरमें समाविष्ट हो जाता है, और उसके उदरस्थ होनेपर रसास्वाद नहीं आता। अतएव रसास्वादजन्य सुखानुभूति अत्यल्प है।
आहारके प्रति गद्धताका त्याग करानेके लिए आचार्य दरिद्री पुरुषको उपमाका प्रयोग करते हैं। उनका कथन है कि आहारलम्पटता अत्यधिक दुखःका कारण है। जिसप्रकार धनादि पदार्थोंकी चिरकालस अभिलाषा करने वाला दारद्री पुरुष दुःख प्राप्त करता है, उसो प्रकार आहारलम्पटी भी। आहारके प्रति साधकको विचार-जन्य वितृष्णाका होना परमावश्यक है-
दुक्खं गिद्धोधत्थस्साहट्टतस्स होइ बहुगं च।।
चिरमाहट्टियदुग्गयचडस्स व अण्णगिद्धोए।।
इस गाथामें प्रयुक्त उपमान-उपमेयभाव विषयके स्पष्टीकरणमें सशक्त है। जो क्षपक मृत्यु के समय अनुचित आहारकी अभिलाषा करता है, वह मधुलिप्त तलवारकी धारको चाटनेके समान कष्ट प्राप्त करता है।
महुलिप्तं असिधारं लेहइ भु जइ य सो सविसमण्णं||
जो मरणदेसयाले पत्थिज्ज अकप्पियाहार।।
अर्थात् मृत्युके समय आहारकी अभिलाषासे संक्लेश परिणाम होते है, जो दुर्गतिका कारण है। क्षपक मृत्युके समय यदि आहारकी अभिलाषा करता है, तो उसकी यह अभिलाषा विषमिश्रित अन्न अथवा मधुलिप्त तलवारकी घारके समान कष्टदायक है।
सुभासित या सुक्तिके रूपमें अनेक गाथाएँ अंकित की गयी हैं। यहाँ केवल दो गाथाएँ उस की जाती है-
असिधारं व विसं वा दासं पुरिसस्स कुणइ एयभवे।।
कुणइ हु मुणिणो दोर्स अकप्पसेवा भवसएमु।
तलवार या विष एक ही भवमें मनुष्यको हानि पहुंचाते हैं, पर मुनियों के लिए अयोग्य आहारका सेवन सैकड़ों भवों में हानिकर होता है।
छंडिय रयणागि जहा रमणद्दोवे हरिज्ज कट्टाणि।।
माणुसभवे वि छंडिय धम्मं भोगेमिलसदि तहा।।
जैसे कोई मनुष्य रत्नद्वीपमें जाकर रत्नोका त्यागकर काष्ठ खरीद लेता है, उसी प्रकार मनुष्य भवमें भी कोई धर्म छोड़कर विषय-भोगोंकी अभिलाषा करता है। अभिप्राय यह है कि बड़ी कठिनाईसे रत्नदीपमें पहुंचनेपर कोई रत्न न खरीदकर ईंधन खरीदे, तो वह व्यक्ति मूर्ख ही समझा जायगा। इसी प्रकार इस अलभ्य मनुष्यजन्मको प्राप्तकर रत्नत्रयकी साधना न करे और विषयसुखोंमें इस मनुष्यभवको व्यतीत कर दे, तो वह व्यक्ति भी उपर्युक्त व्यक्तिके समान ही मूर्ख माना जायगा।
कोई व्यक्ति नन्दनवनमें पहुंचकर अमृतका त्यागकर विषपान करे, तो उसे महामूर्ख ही कहा जायगा। इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्मको छोड़ विषय भोगोंकी अभिलाषा करता है वह भी विवेकहीन है और नन्दनवनमें पहुंचे हुए व्यक्तिके समान ही मूर्ख है।
इसप्रकार भगवती आराधनामें मनुष्यभवको सार्थक करने के लिए सल्लेखना या समाधिमरणको सिद्धिकी आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया है। शिवार्यने इस ग्रंथमें प्राचीन समयकी अनेक परम्पराओंको निबद्धकर साधक जीवनकी सफलतापर प्रकाश डाला है।
शिवार्य आराधनाके अतिरिक्त तत्कालीन स्वसमय योर परसमयके भी ज्ञाता थे। उन्होंने अपने विषयका उपस्थितिकरण काव्यशैलीमें किया है। वे आगम-सिद्धान्तके साथ नीति, सदाचार एवं प्रचलित परम्पराओंसे सुपरिचित थे। आचार्यने जीवनके अनेक चित्रोंके रंग, नाना अनुभूतियोंके माध्यमसे प्रस्तुत किये हैं। विविध दशाओंमें आयो हुई ये अनुभूतियाँ मनोविज्ञानके एक प्रदर्शनी कक्षमें सुसज्जित की जा सकती हैं। आचार्यकी अभिव्यञ्जना प्रतिभा न तो कथाकारके समान कल्पनात्मक ही है और न कविकी प्रतिभाके समान चमत्कारात्मक हो। तथ्यनिरूपणको यथार्थ भूमिपर स्थित ही आचार्यने संसार, शरीर और मेराको निरशासक निदर्शन, उदाहरण, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि अलङ्कारों द्वारा अभिव्यक्तकर ग्राह्यता प्रदान की है। साहित्य निर्माताके लिए मानव-प्रवृत्तियोंके विश्लेषण और प्रस्तुतीकरणमें जिस रागात्मकताको आवश्यकता होती है वह रागात्मकता भी आचार्यमें विद्यमान है। शब्द और अर्थका ऐसा रुचिर योग कम ही स्थानों पर पाया जाता है। कतिपय गाथाओंमें तो भावोंका इतना सपन सन्निवेश विद्यमान है, जिससे अभिव्यंजनाकौशलद्वारा भाव-स्फोटनकी क्रिया उपस्थित रहती है।
आचार्यने निदानका वर्णन करते हुए अपनी अभिव्यञ्जना कलाका सुन्दर प्रस्तुतीकरण किया है। जिसके मनमें भोगका निदान है वह मुनि नटके समान अपने शील-व्रतका प्रदर्शन करता है। निदान करनेसे भोग-लालसा तृप्त नहीं हो सकती है। निदान बाँधनेवाला व्यक्ति अहर्निश भोग-वृत्तिको वृद्धिंगत करता रहता है। यथा-
सपरिग्गहस्स अब्बंभचारिणो अविरदस्स से मणमा।
कारण सील-वहणं होदि हु णडसमणरु्वं चं व॥
रोगं कंखेज्ज जहा परियारसुहस्स कारणा कोई।
तह अण्णेसदि दुक्खं सणिदाणो भोगतम्हाए।
जह कोढिल्लो अग्गि तप्पंतो णेव सवसमं लभदि।
तह भोगे भुंजतो खणं पि णो उवसम लभदि।
कच्छं क्डडयमाणो सुहाभिमाणं करेदि जह दुक्खे।
दुक्खे सुहाभिमाणं मेहुण-आर्दीहिं कुणदि तहा॥
भोग निदान करनेवाले मुनिके मनमें विषयाभिलाषा है। अतः वह परिग्रही है। उसका मन मैथुनकर्ममें प्रवृत्त होनेकी अभिलाषासे पराङ्मुख नहीं है। अत: वह शरीरसे शील-व्रत धारण करनेवाले नटके समान अन्तरङ्गमें मुनि-भावसे च्यूत है। यहां निदर्शना द्वारा आचार्यमे निदानकी निस्सारता व्यक्त की है। प्रस्तुत सन्दर्भमें दो वाक्यखण्ड हैं- पहला वाक्य निदान बांधनेवाला शीलधारी मुनि और दूसरा वाक्य शीलका अभिनय प्रदर्शित करनेवाला नट है। ये दोनों वाक्यखण्ड परस्परमें सापेक्ष हैं। अर्थके लिए दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं। साधारणत: दोनों वाक्यखण्ड असम्बद दिखलाई पड़ते हैं, पर है दोनोंमें अर्थसंगति और इस अर्थसंगतिका आधार है सादृश्ययोजना। इस प्रकार निदर्शनाद्वारा आचार्यने भावाभिव्यक्ति की है।
औषधि द्वारा जैसे कोई व्यक्ति नीरोग देखा जाता है, अत: इस सुखाभिलाषासे कि औषधिका सेवन कर रोग-मुक्त हो जाऊंगा, अतः रोगोत्पत्तिकी इच्छा करे, उसी प्रकार भोगकी लालसासे निदान करनेवाला मुनि भी दुःखप्राप्तीकी इच्छा करता है। यहाँपर भी आचार्यने दो वाक्योंकी योजना की है। प्रथम वाक्यमें सादृश्यमूलक उदाहरण है, जिसके द्वारा द्वितीय वाक्यकी पुष्टि हो रही है। इस गाथामें लक्षणा और व्यन्जना शक्तियाँ भी समाविष्ट हैं। ओषधिलाभकी आकांक्षासे कोई रोगोत्पत्ति नहीं करता। यदि वह रोगोत्पत्ति करता है तो उससे बढ़कर अन्य कोई बुद्धीहीन नहीं। इसी प्रकार भोगौपभोगोको लालसासे प्रेरित होकर जो निदान करता है वह मुनि भी निर्बुद्धि ही है।
इस गाथामें दृष्टान्तालद्वारकी योजना है। कुष्टी मनुष्यके अग्नि-तापका उदाहरण देकर निदानको असारता चित्रित की गयी है। जिस प्रकार कुष्टी मनुष्य अग्निसे शरीर तपनेपर भी उपशमको प्राप्त नहीं होता, प्रत्युत बुद्धीगत होता है, उसी प्रकार विषयमार्गोंकी अभिलाषा भोग-शक्तिकी उपशामक नहीं, अपितु वर्धक है।
खुजलीरोगको नखोंसे खुजलानेवाला मनुष्य अपनेको सुखी समझता है, उसी प्रकार स्पर्शन, आलिङ्गन आदि दुःखोंसे भी अपनेको सुखी मानता है।
उक्त दोनों गाथाओंमें आचार्यने उदाहरणालङ्कारकी योजना की है। यहां यथा और तथा शब्द प्रयुक्त होकर भाव-साम्य उपस्थित करते हैं। उपमेय और उपमान इन दोनोंमें बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव है। निदानजन्म भोगाभिलाषाको व्यर्थ सिद्ध करनेके लिए आचार्यने कुष्ठीका अग्नि-ताप एवं कण्डयूमानताको तुष्टि आदिके उदाहरण प्रयुक्त किये हैं। इस प्रकार धार्मिक विषयोंको सरस और चमत्कृत बनानेके लिए अलङ्कृत शैलीका व्यवहार किया है।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
श्रुतघराचार्यों की परंपरामें आचार्य शिवार्य का भी नाम आता है। जीवन-परिचय- मुनि-आचारपर शिवार्यकी 'भगवती आराधना' अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है। इसके अन्तमें जो प्रशस्ति दी गयी है उससे उनकी गुरु परम्परा एवं जीवनपर प्रकाश पड़ता है। प्रशस्तिमें बताया है-
अज्जजिणणंदिगणि-सव्वगुत्तगणि-अज्जमित्तणंदीणं।
अवगमिय पादमूले सम्म सुत्तं च अत्थं च॥
पुव्वारियणिबद्धा उपजीवित्ता इमा ससतिए।
आराहणा सिवज्जेण पाणिदलभोइणा रइदा॥
छदुमत्थदाइ एत्य दु जं वद्धं होज्ज पवयण-विरुद्ध।
सोधंतु सुगीदत्था पवयणवच्छल्लदाए दु॥
आराहणा भगवदो एवं भत्तीए वण्णिदा संती।
संघस्स सिवजस्स य समाधिवरमुत्तमं देउ॥
अर्थात् आर्य जिननन्दि गणि, आर्य सर्वगुप्त गणि और आय मित्रनन्दिके चरणोंके निकट मूलसूत्रों और उनके अर्थको अच्छी तरह समझकर पूर्वाचार्यों द्वारा निबद्ध की गयी रचनाके आधारसे पाणितलभोजी शिवायने यह आराधना अपनी शक्तिके अनुसार रची है। छयस्थता या ज्ञानकी अपूर्णताके कारण इसमें कुछ प्रवचनविरुद्ध लिखा गया हो, तो विद्वज्जन प्रवचन-वात्सल्यसे उसे शुद्ध कर लें। इस प्रकार भक्तिपूर्वक वर्णन की हुई भगवति आराधना संघको और शिवार्यकी उत्तम समाधि दे।
उपर्युक प्रशस्तिसे निम्नलिखित तथ्य निःसृत होते हैं-
१. शिवार्य पाणितलभोजी होने के कारण दिगम्बर परम्परानुयायी हैं।
२. आर्यशब्द एक विशेषण है। अतः प्रेमोजीके अनुमानके अनुसार इनका नाम शिवनन्दि, शिवगुप्त या शिवकोटि होना चाहिए।
३. भगवती अराधनाकी रचना पूर्वाचार्यों द्वारा निबद्ध ग्रन्थोंके आधारपर हुई हैं।
४. शिवार्य विनीत, सहिष्णु और पूर्वाचायोंके भक्त हैं।
५. इन्होंने गुरुओंसे सूत्र और उसके अर्थकी सम्यक् जानकारी प्राप्त की है। जिनसेनाचार्यने आदिपुराणके प्रारम्भमें शिवकोटि मुनिको नमस्कार किया है।
शीतीभूतं जगद्दस्य आचाराध्य चतुष्टयम्।
मोक्षमार्ग स पायान: शिवकोटिमुनीश्वरः।।
अर्थात् जिनके वचनोंसे प्रकट हुए चारों आराधनारूप मोक्ष-मार्गको आराधना कर जगत्के जीव सुखी होते है वे शिवकोटि मुनीश्वर हमारी रक्षा करें।
उपर्युक्त पद्य में जिस रूपमें जिनसेन आचार्यने शिवकोटि मुनीश्वरका स्मरण किया है उससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि शिवकोटि मुनीश्वर भगवती आराधनाके कर्ता हैं। अतएव दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूप चार प्रकारकी आराधनाओंका विस्तृत वर्णन करनेवाले शिवार्यका ही शिवकोटि नाम होना चाहिए है।
प्रभाचन्द्रके आराधनाकथाकोष और देवचन्द्रके राजावलिकथे (कन्नडग्रन्थ) में शिवकोटिको स्वामी समन्तभद्रका शिष्य बतलाया है। ये शिवकोटिकाशी या कांचीके शैव राजा थे और समन्तभद्रके चमत्कारको देखकर उनके शिष्य बन गये थे। पर इन कथाओंका ऐतिहासिक मूल्य कितना है, यह नहीं कहा जा सकता। यदि वस्तुत: शिवकोटि समन्तभद्रके शिष्य होते, तो इतने बड़े ग्रंथमें वे अपने उपकारी गुरु समन्तभद्रका उल्लेख न करें, यह सम्भव नहीं है।
हरिषेणकृत कथाकोषमें समन्तभद्रकी उक्त कथा नहीं है। यह अन्य विक्रम सं. ९८८ में लिखा गया है। अतः उपलब्ध कथाकोषोंमें यह सबसे प्राचीन है। इस कथाकोषमें शिवकोटिसे सम्बद्ध समन्तभद्रवाली कथाके न मिलनेसे शिवकोटिका समन्तभद्रका शिष्य होना शंकास्पद है।
शिवकोटिका सबसे पुरातन उल्लेख आदिपुराणमें मिलता है। आदिपुराणके रचयिता जिनसेनके समय में यदि शिवकोटि और समन्तभद्रका शिष्यगुरुत्व प्रसिद्ध होता तो वे समन्तभद्रके पश्चात् ही शिवकोटिकी स्तुति करते। पर ऐसा न कर उन्होंने श्रीदत्त, यशोभद्र और प्रभाचन्द्रको स्तुति लिखकर शिवकोटिका स्मरण किया है।
कवि हस्तिमल्लने विक्रान्तकौरवमें समन्तभद्रके शिवकोटि और शिवायन दो शिष्य बतलाये हैं और उन्हीके अन्वयमें वीरसेन, जिनसेनको बतलाया है। पर इस बातका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है कि समन्तभद्रकी शिष्यपरम्परामें वीरसेन एवं जिनसेन हुए हैं। शिवकोटिका तो उल्लेख मिलता भी है। पर शिवायनका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। शिवायनका अन्यत्र भी कहीं नाम नहीं आता। भगवती-आराधनाके रचयिता शिवकोटि समन्तभद्रके शिष्य थे, इसका साधक कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेख नं. १०५ में शिवकोटिको तत्त्वार्थसूत्रका टीकाकार बतलाया है। यह अभिलेख विक्रम सं. १४५५ का है। इसमें आया हुआ 'एतत्' शब्द विचारणीय है। श्री पं. जुगलकिशोरजी मुख्तारका यह अनुमान है कि-
"तस्यैव शिष्यविशवकोटिसूरिस्तपोलसालम्बनदेहयष्टिः।
संसार-बाराकर-पोतमेतत्तत्वार्थसूत्रं तदलन्चकार'।”
उपर्युक्त पद्म तत्त्वार्थसूत्रकी उसी शिक्षकोटिकृत टीकाकी प्रशस्तिका एक पद्म है जो शिलालेखमें एक विचित्र ढंगसे शामिल कर लिया गया है। अन्यथा शिलालेखके पद्योंके अनुक्रममें 'एतद' शब्दकी संगति नहीं बैठ सकती। अतएव शिवार्यको तत्त्वार्थसूत्रपर कोई अवश्य टीका रही है। भले ही वे शिवार्य आराधनाके कर्तासे भिन्न हों। यह भी सम्भव है कि शिलालेख में उल्लिखित समन्तभद्र ही उनके गुरु हों। अष्टसहस्रोपर विषमपदतात्पर्य टीकाके रचयिता एक लघुसमन्तभद्र हुए हैं, जिनका समय अनुमानत: विक्रमको १३ वी शताब्दी है।
यदि भगवती आराधनाके रचयिता शिवार्य या शिवकोटिकी तत्त्वार्थसूत्रकी कोई टीका होती तो उसका उल्लेख तत्त्वार्थसूत्रके अन्य टीकाकार अवश्य करते। पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि टीकामें भी उसका निर्देश अवश्य मिलता। अतः न तो भगवती आराधनाके रचयिता शिवकोटिकी तत्वार्थसूत्रपर कोई टीका ही है, और न वे समन्तभद्रके शिष्य ही जान पड़ते हैं।
एक अन्य प्रमाण श्रीपण्डित परमानन्दजी शास्त्रीने अपने एक निबन्धमें उपस्थित किया है। उन्होंने लिखा है कि शिवार्यने गाथा २०७१ - ८३ में स्वामी समन्तभद्राकी तरह गुणव्रतोंमें भोगोपभोगपरिमाणको न गिनाकर देशावकाशिकको ग्रहण किया है और शिक्षाव्रतोंमें देशावकाशिकको न लेकर भोगोपभोगपरिमाणका विधान किया है। यदि वे समन्तभद्रके शिष्य होते तो इस विषय में उनका अवश्य अनुसरण करते। इस प्रकार आराधनाके रचयिताके साथ समन्तभद्रका सम्बन्ध घटित नहीं होता।
दिगम्बर सम्प्रदायकी पट्टावलियों, अभिलेखों, ग्रन्थ-प्रशस्तियों एवं श्रुतावतार आदिमें जो परम्पराएं उपलब्ध होती हैं, उनमेंसे किसी भी परम्परामें शिवार्य द्वारा उल्लिखित अपने गुरुओं- जिननन्दि, सर्वगुप्त और मित्रनन्दिके नाम नहीं मिलते। शाकटायन व्याकरण में- "उपसर्वगुप्तं व्याख्यातार:।" अर्थात् समस्त व्याख्याता सर्वगुप्तसे नीचे हैं- उन जैसा कोई दूसरा व्याख्याता नहीं। बहुत सम्भव है कि इन्हीं सर्वगुप्तके चरणों में बैठकर शिवार्यने सूत्र और उनका अर्थ अच्छी तरह ग्रहण किया हो और तत्पश्चात् आराधनाकी रचना की हो। श्री प्रेमोजीने शाकटायनके उक्त उल्लेखिके आधारपर शिवार्य या शिवकोटि को यापनीय संघका आचार्य बताया है। उन्होंने अपने कथनकी पुष्टिके लिए निम्नलिखित प्रमाण उपस्थित किये है-
१. भगवती आराधनाकी उपलब्ध टीकाओंमें सबसे पुरानी टीका अपराजित सूरिकी है और जैसा कि आगे बतलाया जायगा वे निश्चयसे यापनीय संघके हैं। ऐसी दशामें मूलग्रंथकर्ता शिवार्यको भी यापनीय होनेको अधिक सम्भावना है।
२. यापनीय संघ श्वेताम्बरोंके समान सूत्रग्रन्धोंको मानता है और अपरा जित सूरिकी टोकामें सैकड़ों गाथाएँ ऐसी हैं जो सूत्रनन्थों में मिलती हैं।
३. दश स्थितकल्पोंके नामों वाली गाथा जातकल्पभाष्य और अनेक श्वेताम्बर टीकाओं और निर्मुक्तियों में मिलती हैं। आचार्य प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेय कमलमार्तण्ड में भी इसे श्वेताम्बर गाथा माना है।
४. आराधनाकी ५६५-५६६ नम्बरकी गाथाएँ दिगम्बर मुनियोंके आचारसे मेल नहीं खाती। उनमें बीमार मुनिके लिए चार मुनियोंके द्वारा भोजन-पान लानेका निर्देश है।
५. आराधनाकी ४२८वीं गाथा आचारांग और जोतकल्प ग्रंथोका उल्लेख करति है, जो श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्रसिद्ध ग्रंथ है।
६. शिवार्यने अपनेको पाणितलभोजी लिखा है। यापनीय संघके साधु श्वेताम्बर साधुओंके समान पात्रभोजी नहीं बल्कि दिगम्बरोंके समान करपात्र भोजी थे।
इस प्रकार श्री प्रेमीजीने शिवार्य या शिवकोटिको यापनीय संघका आचार्य मना है और इनके गुरुका नाम प्रशस्तिके आधारपर सर्वगुप्त सिद्ध किया है।
भगवती आराधना या मूलाराधनाके कर्ता शिवार्य कब हुए, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है। उन्होंने अपने समयका निर्देश कहीं नहीं किया है। परवर्ती आचार्योंमें जिनसेनाचार्यने ही सर्वप्रथम उनका उल्लेख किया है। जिनसेनका समय नवम शताब्दी होनेसे शिवार्य के समयकी सबसे ऊपरी सोमा ई. सन् नवम शताब्दी मानी जा सकती है। शाकटायनके निर्देशानुसार सर्वगुप्त उनके गुरु हैं। शाकटायनका काल भी शिवार्यके समयकी अपनी सीमा हो सकता है। अब प्रश्न यह है कि शिवार्यको जिनसेन और पाल्यकीर्तीसे कितना पहले माना जाय। ग्रन्थका अन्तरङ्ग अध्ययन करनेपर ज्ञात होता है कि आराधनाके ४० वें विजहना नामक अधिकारमें आराधक मुनियोंके भृतक संस्कार वर्णित हैं, उनसे ग्रन्थकी प्राचीनतापर प्रकाश पड़ता है। इसके अनुसार उस समय मुनिके मृतक शरीरको वनमें किसी अच्छी जगहपर यों ही छोड़ दिया जाता था। और उसे पशु-पक्षी समाप्त कर देते थे।
इस ग्रंथपर अपराजित सूरि द्वारा विरचित 'विजयोदया' नामक संस्कृत टीका उपलब्ध है। इस टीकासे भी इस ग्रन्थकी प्राचीनता प्रकट होती है। अन्य टोका-टिप्पणोंसे यह अवगत होता है कि इस ग्रन्थपर प्राकृत-टीकाएँ भी उपलब्ध थों । इन टीकाओंका उल्लेख टीकाकारोने टोहाना "प्राकृतटीकायाम्" कहकर किया है। मूलाराधनादर्पण-टीकामें अनेक स्थलोंपर प्राकृतटीकाका निर्देश आया है। यथा- "प्राकृतटीकायां तु अष्टाविशतिमूलगुणाः। आचार वत्वादयश्चाष्टी इति षटत्रिशत्।"
प्राकृतटीकायां पुनरिदमुक्त- उत्तरापथे चर्मरंगम्लेचविषये म्लेच्छा जलो- काभिर्मानुषरुधिरं गृहीत्वा भंडकेषु स्थापयन्ति। ततस्तेन रुधिरेण कतिपय- दिवसोत्पन्नविपन्नकुमिकेणोर्णासूत्रं रंजयित्वा कंबलं वयंति। सोध्यं कृमिरागकंबल इत्युच्यते। स चातोव रुधीरवर्णो भवति, तस्य हि वन्हिना दग्धस्यापि स कृमिरागो नापगच्छतोति। सोधो शुक्लतापादनं। जदुरागवच्छसोधी सिन्धुदेशलाक्षारक्तटसरिवस्त्रशुद्धिः। अवि अपिः सम्भावने। किहइ कथंचित्। आयासेन। ण इमा सल्लुद्धरणसोधो इयं गुरूपचारपूर्विकालोचनया रत्नत्रयशुद्धिः।
प्राकृतटीकायां तु कम्ममलविप्पमुक्को कम्ममलेण मेल्लिदो सिद्धि णिव्वाणं पत्तो त्ति प्राप्त इति।
इन अवतरणोंसे यह स्पष्ट है कि मूलाराधना या भगवती आराधनापर प्राकृतटीका रही है। प्राकृत्तटीका लिखे जानेका समय विक्रम संवत् ६ठी शताब्दीसे पूर्व है। प्राकृतग्रन्थोंकी प्राकृत भाषामें टीका लिखनेकी परम्परा ५ वी- ६ ठी शताब्दी तक ही मिलती है। इसके पश्चात् तो संस्कृत भाषामें टीका लिखनेकी परम्परा प्रारम्भ हो चुकी थी। अतएव मूलाराधनाका समय विक्रम ६ठी शतीके पूर्व होना चाहिए। डॉ. हीरालालजी जैनने लिखा है- 'कल्पसूत्रकी स्थविरावलीमें एक शिवभूति आचार्यका उल्लेख आया है तथा आवश्यकमूलभाष्यमें शिवभूतिको वीरनिर्वाणसे ६०९ वर्ष पश्चात् वोडिक- दिगम्बर संघका संस्थापक कहा है। कुन्दकुन्दाचार्यने भावराहुडमें कहा है कि शिवभूतिने भाव-विशुद्धि द्वारा केवलज्ञान प्राप्त किया। जिनसेनने अपने हरिवंशपुराणमें लोहार्यके पश्चाद्वर्ती आचार्यो में शिवगुप्त मुनिका उल्लेख किया है। जिन्होंने अपने गुणोंसे अर्हद वलि पदको धारण किया था - ग्रन्थ सम्भवतः ई. की प्रारम्भिक शत्ताब्दियोंका है।"
स्पष्ट है कि डॉ. हीरालालजी इस ग्रंथका काल ई. सन द्वितीय- तृतीय शती मानते हैं। इस ग्रन्थपर अपराजित सूरि द्वारा लिखी गयी टीका ७वीं- ८वीं शताब्दीकी है। अतः इससे पूर्व शिवार्यका समय सुनिश्चित है। डॉ. ज्योतिप्रसाद जैनने शिवार्यके समयका विचार करते हुए लिखा है-
शिवार्य सम्भवतः श्वेताम्बर परम्पराके शिवभूति हैं। ये उत्तरापथकी मथुरा नगरीसे सम्बद्ध हैं और इन्होंने कुछ समय तक पश्चिमी सिन्धमें निवास किया था। बहुत सम्भव है कि शिवायं भी कुन्दकुन्दके समान सरस्वती आन्दोलनसे सम्बद्ध रहे हों। वस्तुत: शिवायं ऐसी जैन मुनियोंकी शाखासे सम्बन्धित है जो उन दिनों न तो दिगम्बर शाखाके ही अन्तर्गत थी और न श्वेताम्बर शाखाके ही। यापनीय संघके ये आचार्य थे। अतएव मथुरा अभिलेखोंसे प्राप्त संकेतोंके आधारपर इनका समय ई. सन् की प्रथम शताब्दी माना जा सकता है।
भगवती आराधनाके वर्ण्य-विषयके अध्ययनसे स्पष्ट है कि इसके अनेक तथ्य ऐसे हैं, जो ई. पू. तीसरी-चौथी शताब्दी में प्रचलित थे। मुनियोंकी अन्त्येष्टिका चित्रण, सल्लेखनाके समय मुनि-परिचर्या, मरणोंके भेद-प्रभेद आदि विषय पर्याप्त प्राचीन हैं। भाषा और शैलीके अध्ययनसे भी यह ध्वनित होता है कि यह ग्रन्थ ई. को आरम्भिक शताब्दियों में अवश्य लिखा जा चुका था। आराधनापर यह एक ऐसी सांगोपांग रचना है, जिसकी समता अन्यत्र नहीं मिलती है।
शिवार्यको भगवती आराधना या मूलाराधना नामकी एक ही रचना उपलब्ध है। इस ग्रन्थमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्त्तप इन चार आराधनाओंका निरूपण किया गया है। इस ग्रंथमें २१६६ गाथाए और चालीस अधिकार है। यह ग्रन्थ इतना लोकप्रिय रहा है, जिससे सातवीं शताब्दीसे ही इसपर टीकाएँ और विवृतियां लिखी जाती रही हैं। अपराजितसूरिकी विजयोदया टीका, आशाधरको मूलाराधनादर्पणटीका, प्रभाचन्द्रकी 'आराधनापंजिका' और शिवजित अरुणकी भावार्थदीपिका नामक टीकाएँ उपलब्ध हैं। इसको कई गाथाएँ 'आवश्यकनियुक्ति', 'बृहत्कल्पभाष्य', 'भक्ति पइण्णा', 'संथारण' आदि श्वेताम्बर ग्रंथोंमें भी पायी जाती हैं। हम यहाँ आदान-प्रदानकी चर्चा न कर इतना ही लिखना पर्याप्त समझते हैं कि प्राचीन गाथाओंका स्रोत कोई एक ही भण्डार रहा है, जिस मूलस्रोतसे ग्रन्थका सृजन किया गया है, वह स्रोत सम्भवतः आचार्यो को श्रुतपरम्परा ही है।
वस्तुतः इस ग्रन्थमें आराध्य, आराधक, आराधना और आराधनाफल इनका सम्यक वर्णन किया गया है। यहाँ रत्नत्रय आराध्य है, निर्मल परिणामवाले भव्यजीव आराधक हैं, जिन उपायोंसे रत्नत्रयकी प्राप्ति होती है, वे उपाय आराधना है और इस रत्नत्रयकी आराधना करनेसे अभ्युदय और मोक्षरूप फलको प्राप्ति होती है, यह आराधनाफल है।
इन चार आराध्यादि पदार्थों की आराधना उद्योतन, उद्यवन, निर्वहण, साधन और निस्तरण इन उपायोंसे होती है। सम्यकदर्शनादिको अतिचारोंसे अलिप्त रखना, उनमें दोष उत्पन्न न होने देना उद्योतन है। आत्मामें बार बार सम्यक्रदर्शनादिकी परिणति करते जाना उद्यवन है। परीषहादिक प्राप्त होनेपर स्थिर चित्त होकर सम्यकदर्शनादिसे च्युत न होना निर्वहण है। अन्य कार्यों में चित्त लगनेसे यदि सम्यग्दर्शनादि तिरोहित होने लगें, तो पुनः उपायोंसे उन्हें पूर्ण करना साधन है। आमरण सम्यकदर्शनादिककी निर्दोष धारण करना निस्तरण है।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यकतप इन चारोंकी उन्नति होनेके लिए पूर्वोक पांचोंकी आवश्यकता है। इस प्रकार प्रत्येकमें उद्योतनादिक पाँच उपाय मान लेने पर बीस भेद होते हैं। इस भगवती आराधना में इन सभी भेद-प्रभेदोंका उल्लेख आया है।
इस ग्रन्थमें १७ प्रकारके मरण बतलाये गये हैं। इनमें पंडितमरण, पंडित पडितमरण और बालपंडितमरणको श्रेष्ट कहा है। पद्धितमरणमें भी भक्त प्रतिज्ञामरणको श्रेष्ठ माना गया है। लिंगाधिकारमें आचेलक्य, लोच, देहसे ममत्वत्याग और प्रतिलेखन ये चार निग्रंथलिंगके चिन्ह बताये हैं। अनयिताधिकारमें नाना देशोंमें विहार करनेके गुणोंके साथ अनेक रीति-रिवाज, भाषा और शास्त्र आदिकी कुशलता प्राप्त करनेका विधान है। भावनाधिकारमें तपोभावना, श्रुतभावना, सत्यभावना, एकत्वभावना और धृतिबलभावनाका प्ररूपण है। सल्लेखनाधिकारमें सल्लेखनाके साथ बाह्य और अन्तरङ्ग तपोंका वर्णन किया है। अर्यिकाओंको संघमें किस प्रकार रहना चाहिए, उनके लिए कोन-कौन विषेय कर्तव्य हैं तथा कोन-कौनसे कार्य त्याज्य है आदिका प्रतिपादन किया है। मार्गणाधिकारमें आचार्यजीत और कल्पका वर्णन है। इस अधिकारमें आचेलक्यका भी समर्थन किया है। अतः इस ग्रंथकी मान्यता दिगम्बर सम्प्रदायमें रही है। प्रसंगवश ध्यान, परिषह, कषाय, छपकश्रेणी आदिका भी वर्णन है।
धार्मिक विषयके साथ काव्यात्मकता भी इस ग्रन्थमें विद्यमान है। कई ऐसी गाथाएँ भी है, जिनमें उपमाका प्रयोग बहुत सुन्दर रूपमें किया गया है। अन्तरङ्ग शुद्धि पर बल देते हुए बताया है-
घोडयलद्दिसमाणस्स तस्स अब्भंतरम्मि कुधिदस्स।
बाहिरकरणं कि से काहिदि बगणिहुदकरणस्स।।
अर्थात् जैसे घोड़ेकी लीद बाहरसे चौकनी दिखलाई पड़ती है, पर भीतरसे दुर्गन्धके कारण महामलिन है, उसी प्रकार जो मुनि बाह्याडम्बर तो धारण करता है, पर अन्तरंग शुद्ध नहीं रखता, उसका आचरण बगुलेके समान होता है।
शरीर, आहार और रसलोलुपताका वर्णन भी उपमाओं द्वारा किया गया है। सूक्तिकी दृष्टिसे इस ग्रन्थकी अनेक गाथाएँ रसमय, एवं बोधोत्पादक हैं। यहाँ दो-एक गाथा उदाहरणार्थ प्रस्तुत करते हैं-
जिब्भामूलं बोलेइ वेगऊ वर-हओ व्व आहारो।
तत्थे व रसं जाणइ ण य परदो ण वि य से परदो।
जिस प्रकार उत्तम जातिका अश्व वेगपूर्वक दौड़ता है, उसी प्रकार जिन्हा भी आहारका रसास्वादन करने के लिए वेगसे दौड़तो है। यद्यपि जिन्हाका अग्र भाग ही रसास्वाद लेता है, तो भी उदरस्थ आहारका अत्यल्प अंश सुखानु भूतिका कारण होता है| आहारका अधिक भाग तो उदरमें समाविष्ट हो जाता है, और उसके उदरस्थ होनेपर रसास्वाद नहीं आता। अतएव रसास्वादजन्य सुखानुभूति अत्यल्प है।
आहारके प्रति गद्धताका त्याग करानेके लिए आचार्य दरिद्री पुरुषको उपमाका प्रयोग करते हैं। उनका कथन है कि आहारलम्पटता अत्यधिक दुखःका कारण है। जिसप्रकार धनादि पदार्थोंकी चिरकालस अभिलाषा करने वाला दारद्री पुरुष दुःख प्राप्त करता है, उसो प्रकार आहारलम्पटी भी। आहारके प्रति साधकको विचार-जन्य वितृष्णाका होना परमावश्यक है-
दुक्खं गिद्धोधत्थस्साहट्टतस्स होइ बहुगं च।।
चिरमाहट्टियदुग्गयचडस्स व अण्णगिद्धोए।।
इस गाथामें प्रयुक्त उपमान-उपमेयभाव विषयके स्पष्टीकरणमें सशक्त है। जो क्षपक मृत्यु के समय अनुचित आहारकी अभिलाषा करता है, वह मधुलिप्त तलवारकी धारको चाटनेके समान कष्ट प्राप्त करता है।
महुलिप्तं असिधारं लेहइ भु जइ य सो सविसमण्णं||
जो मरणदेसयाले पत्थिज्ज अकप्पियाहार।।
अर्थात् मृत्युके समय आहारकी अभिलाषासे संक्लेश परिणाम होते है, जो दुर्गतिका कारण है। क्षपक मृत्युके समय यदि आहारकी अभिलाषा करता है, तो उसकी यह अभिलाषा विषमिश्रित अन्न अथवा मधुलिप्त तलवारकी घारके समान कष्टदायक है।
सुभासित या सुक्तिके रूपमें अनेक गाथाएँ अंकित की गयी हैं। यहाँ केवल दो गाथाएँ उस की जाती है-
असिधारं व विसं वा दासं पुरिसस्स कुणइ एयभवे।।
कुणइ हु मुणिणो दोर्स अकप्पसेवा भवसएमु।
तलवार या विष एक ही भवमें मनुष्यको हानि पहुंचाते हैं, पर मुनियों के लिए अयोग्य आहारका सेवन सैकड़ों भवों में हानिकर होता है।
छंडिय रयणागि जहा रमणद्दोवे हरिज्ज कट्टाणि।।
माणुसभवे वि छंडिय धम्मं भोगेमिलसदि तहा।।
जैसे कोई मनुष्य रत्नद्वीपमें जाकर रत्नोका त्यागकर काष्ठ खरीद लेता है, उसी प्रकार मनुष्य भवमें भी कोई धर्म छोड़कर विषय-भोगोंकी अभिलाषा करता है। अभिप्राय यह है कि बड़ी कठिनाईसे रत्नदीपमें पहुंचनेपर कोई रत्न न खरीदकर ईंधन खरीदे, तो वह व्यक्ति मूर्ख ही समझा जायगा। इसी प्रकार इस अलभ्य मनुष्यजन्मको प्राप्तकर रत्नत्रयकी साधना न करे और विषयसुखोंमें इस मनुष्यभवको व्यतीत कर दे, तो वह व्यक्ति भी उपर्युक्त व्यक्तिके समान ही मूर्ख माना जायगा।
कोई व्यक्ति नन्दनवनमें पहुंचकर अमृतका त्यागकर विषपान करे, तो उसे महामूर्ख ही कहा जायगा। इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्मको छोड़ विषय भोगोंकी अभिलाषा करता है वह भी विवेकहीन है और नन्दनवनमें पहुंचे हुए व्यक्तिके समान ही मूर्ख है।
इसप्रकार भगवती आराधनामें मनुष्यभवको सार्थक करने के लिए सल्लेखना या समाधिमरणको सिद्धिकी आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया है। शिवार्यने इस ग्रंथमें प्राचीन समयकी अनेक परम्पराओंको निबद्धकर साधक जीवनकी सफलतापर प्रकाश डाला है।
शिवार्य आराधनाके अतिरिक्त तत्कालीन स्वसमय योर परसमयके भी ज्ञाता थे। उन्होंने अपने विषयका उपस्थितिकरण काव्यशैलीमें किया है। वे आगम-सिद्धान्तके साथ नीति, सदाचार एवं प्रचलित परम्पराओंसे सुपरिचित थे। आचार्यने जीवनके अनेक चित्रोंके रंग, नाना अनुभूतियोंके माध्यमसे प्रस्तुत किये हैं। विविध दशाओंमें आयो हुई ये अनुभूतियाँ मनोविज्ञानके एक प्रदर्शनी कक्षमें सुसज्जित की जा सकती हैं। आचार्यकी अभिव्यञ्जना प्रतिभा न तो कथाकारके समान कल्पनात्मक ही है और न कविकी प्रतिभाके समान चमत्कारात्मक हो। तथ्यनिरूपणको यथार्थ भूमिपर स्थित ही आचार्यने संसार, शरीर और मेराको निरशासक निदर्शन, उदाहरण, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि अलङ्कारों द्वारा अभिव्यक्तकर ग्राह्यता प्रदान की है। साहित्य निर्माताके लिए मानव-प्रवृत्तियोंके विश्लेषण और प्रस्तुतीकरणमें जिस रागात्मकताको आवश्यकता होती है वह रागात्मकता भी आचार्यमें विद्यमान है। शब्द और अर्थका ऐसा रुचिर योग कम ही स्थानों पर पाया जाता है। कतिपय गाथाओंमें तो भावोंका इतना सपन सन्निवेश विद्यमान है, जिससे अभिव्यंजनाकौशलद्वारा भाव-स्फोटनकी क्रिया उपस्थित रहती है।
आचार्यने निदानका वर्णन करते हुए अपनी अभिव्यञ्जना कलाका सुन्दर प्रस्तुतीकरण किया है। जिसके मनमें भोगका निदान है वह मुनि नटके समान अपने शील-व्रतका प्रदर्शन करता है। निदान करनेसे भोग-लालसा तृप्त नहीं हो सकती है। निदान बाँधनेवाला व्यक्ति अहर्निश भोग-वृत्तिको वृद्धिंगत करता रहता है। यथा-
सपरिग्गहस्स अब्बंभचारिणो अविरदस्स से मणमा।
कारण सील-वहणं होदि हु णडसमणरु्वं चं व॥
रोगं कंखेज्ज जहा परियारसुहस्स कारणा कोई।
तह अण्णेसदि दुक्खं सणिदाणो भोगतम्हाए।
जह कोढिल्लो अग्गि तप्पंतो णेव सवसमं लभदि।
तह भोगे भुंजतो खणं पि णो उवसम लभदि।
कच्छं क्डडयमाणो सुहाभिमाणं करेदि जह दुक्खे।
दुक्खे सुहाभिमाणं मेहुण-आर्दीहिं कुणदि तहा॥
भोग निदान करनेवाले मुनिके मनमें विषयाभिलाषा है। अतः वह परिग्रही है। उसका मन मैथुनकर्ममें प्रवृत्त होनेकी अभिलाषासे पराङ्मुख नहीं है। अत: वह शरीरसे शील-व्रत धारण करनेवाले नटके समान अन्तरङ्गमें मुनि-भावसे च्यूत है। यहां निदर्शना द्वारा आचार्यमे निदानकी निस्सारता व्यक्त की है। प्रस्तुत सन्दर्भमें दो वाक्यखण्ड हैं- पहला वाक्य निदान बांधनेवाला शीलधारी मुनि और दूसरा वाक्य शीलका अभिनय प्रदर्शित करनेवाला नट है। ये दोनों वाक्यखण्ड परस्परमें सापेक्ष हैं। अर्थके लिए दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं। साधारणत: दोनों वाक्यखण्ड असम्बद दिखलाई पड़ते हैं, पर है दोनोंमें अर्थसंगति और इस अर्थसंगतिका आधार है सादृश्ययोजना। इस प्रकार निदर्शनाद्वारा आचार्यने भावाभिव्यक्ति की है।
औषधि द्वारा जैसे कोई व्यक्ति नीरोग देखा जाता है, अत: इस सुखाभिलाषासे कि औषधिका सेवन कर रोग-मुक्त हो जाऊंगा, अतः रोगोत्पत्तिकी इच्छा करे, उसी प्रकार भोगकी लालसासे निदान करनेवाला मुनि भी दुःखप्राप्तीकी इच्छा करता है। यहाँपर भी आचार्यने दो वाक्योंकी योजना की है। प्रथम वाक्यमें सादृश्यमूलक उदाहरण है, जिसके द्वारा द्वितीय वाक्यकी पुष्टि हो रही है। इस गाथामें लक्षणा और व्यन्जना शक्तियाँ भी समाविष्ट हैं। ओषधिलाभकी आकांक्षासे कोई रोगोत्पत्ति नहीं करता। यदि वह रोगोत्पत्ति करता है तो उससे बढ़कर अन्य कोई बुद्धीहीन नहीं। इसी प्रकार भोगौपभोगोको लालसासे प्रेरित होकर जो निदान करता है वह मुनि भी निर्बुद्धि ही है।
इस गाथामें दृष्टान्तालद्वारकी योजना है। कुष्टी मनुष्यके अग्नि-तापका उदाहरण देकर निदानको असारता चित्रित की गयी है। जिस प्रकार कुष्टी मनुष्य अग्निसे शरीर तपनेपर भी उपशमको प्राप्त नहीं होता, प्रत्युत बुद्धीगत होता है, उसी प्रकार विषयमार्गोंकी अभिलाषा भोग-शक्तिकी उपशामक नहीं, अपितु वर्धक है।
खुजलीरोगको नखोंसे खुजलानेवाला मनुष्य अपनेको सुखी समझता है, उसी प्रकार स्पर्शन, आलिङ्गन आदि दुःखोंसे भी अपनेको सुखी मानता है।
उक्त दोनों गाथाओंमें आचार्यने उदाहरणालङ्कारकी योजना की है। यहां यथा और तथा शब्द प्रयुक्त होकर भाव-साम्य उपस्थित करते हैं। उपमेय और उपमान इन दोनोंमें बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव है। निदानजन्म भोगाभिलाषाको व्यर्थ सिद्ध करनेके लिए आचार्यने कुष्ठीका अग्नि-ताप एवं कण्डयूमानताको तुष्टि आदिके उदाहरण प्रयुक्त किये हैं। इस प्रकार धार्मिक विषयोंको सरस और चमत्कृत बनानेके लिए अलङ्कृत शैलीका व्यवहार किया है।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा।
आचार्य श्री १०८ शिवार्य महाराजजी
श्रुतघराचार्यों की परंपरामें आचार्य शिवार्य का भी नाम आता है। जीवन-परिचय- मुनि-आचारपर शिवार्यकी 'भगवती आराधना' अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है। इसके अन्तमें जो प्रशस्ति दी गयी है उससे उनकी गुरु परम्परा एवं जीवनपर प्रकाश पड़ता है। प्रशस्तिमें बताया है-
अज्जजिणणंदिगणि-सव्वगुत्तगणि-अज्जमित्तणंदीणं।
अवगमिय पादमूले सम्म सुत्तं च अत्थं च॥
पुव्वारियणिबद्धा उपजीवित्ता इमा ससतिए।
आराहणा सिवज्जेण पाणिदलभोइणा रइदा॥
छदुमत्थदाइ एत्य दु जं वद्धं होज्ज पवयण-विरुद्ध।
सोधंतु सुगीदत्था पवयणवच्छल्लदाए दु॥
आराहणा भगवदो एवं भत्तीए वण्णिदा संती।
संघस्स सिवजस्स य समाधिवरमुत्तमं देउ॥
अर्थात् आर्य जिननन्दि गणि, आर्य सर्वगुप्त गणि और आय मित्रनन्दिके चरणोंके निकट मूलसूत्रों और उनके अर्थको अच्छी तरह समझकर पूर्वाचार्यों द्वारा निबद्ध की गयी रचनाके आधारसे पाणितलभोजी शिवायने यह आराधना अपनी शक्तिके अनुसार रची है। छयस्थता या ज्ञानकी अपूर्णताके कारण इसमें कुछ प्रवचनविरुद्ध लिखा गया हो, तो विद्वज्जन प्रवचन-वात्सल्यसे उसे शुद्ध कर लें। इस प्रकार भक्तिपूर्वक वर्णन की हुई भगवति आराधना संघको और शिवार्यकी उत्तम समाधि दे।
उपर्युक प्रशस्तिसे निम्नलिखित तथ्य निःसृत होते हैं-
१. शिवार्य पाणितलभोजी होने के कारण दिगम्बर परम्परानुयायी हैं।
२. आर्यशब्द एक विशेषण है। अतः प्रेमोजीके अनुमानके अनुसार इनका नाम शिवनन्दि, शिवगुप्त या शिवकोटि होना चाहिए।
३. भगवती अराधनाकी रचना पूर्वाचार्यों द्वारा निबद्ध ग्रन्थोंके आधारपर हुई हैं।
४. शिवार्य विनीत, सहिष्णु और पूर्वाचायोंके भक्त हैं।
५. इन्होंने गुरुओंसे सूत्र और उसके अर्थकी सम्यक् जानकारी प्राप्त की है। जिनसेनाचार्यने आदिपुराणके प्रारम्भमें शिवकोटि मुनिको नमस्कार किया है।
शीतीभूतं जगद्दस्य आचाराध्य चतुष्टयम्।
मोक्षमार्ग स पायान: शिवकोटिमुनीश्वरः।।
अर्थात् जिनके वचनोंसे प्रकट हुए चारों आराधनारूप मोक्ष-मार्गको आराधना कर जगत्के जीव सुखी होते है वे शिवकोटि मुनीश्वर हमारी रक्षा करें।
उपर्युक्त पद्य में जिस रूपमें जिनसेन आचार्यने शिवकोटि मुनीश्वरका स्मरण किया है उससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि शिवकोटि मुनीश्वर भगवती आराधनाके कर्ता हैं। अतएव दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूप चार प्रकारकी आराधनाओंका विस्तृत वर्णन करनेवाले शिवार्यका ही शिवकोटि नाम होना चाहिए है।
प्रभाचन्द्रके आराधनाकथाकोष और देवचन्द्रके राजावलिकथे (कन्नडग्रन्थ) में शिवकोटिको स्वामी समन्तभद्रका शिष्य बतलाया है। ये शिवकोटिकाशी या कांचीके शैव राजा थे और समन्तभद्रके चमत्कारको देखकर उनके शिष्य बन गये थे। पर इन कथाओंका ऐतिहासिक मूल्य कितना है, यह नहीं कहा जा सकता। यदि वस्तुत: शिवकोटि समन्तभद्रके शिष्य होते, तो इतने बड़े ग्रंथमें वे अपने उपकारी गुरु समन्तभद्रका उल्लेख न करें, यह सम्भव नहीं है।
हरिषेणकृत कथाकोषमें समन्तभद्रकी उक्त कथा नहीं है। यह अन्य विक्रम सं. ९८८ में लिखा गया है। अतः उपलब्ध कथाकोषोंमें यह सबसे प्राचीन है। इस कथाकोषमें शिवकोटिसे सम्बद्ध समन्तभद्रवाली कथाके न मिलनेसे शिवकोटिका समन्तभद्रका शिष्य होना शंकास्पद है।
शिवकोटिका सबसे पुरातन उल्लेख आदिपुराणमें मिलता है। आदिपुराणके रचयिता जिनसेनके समय में यदि शिवकोटि और समन्तभद्रका शिष्यगुरुत्व प्रसिद्ध होता तो वे समन्तभद्रके पश्चात् ही शिवकोटिकी स्तुति करते। पर ऐसा न कर उन्होंने श्रीदत्त, यशोभद्र और प्रभाचन्द्रको स्तुति लिखकर शिवकोटिका स्मरण किया है।
कवि हस्तिमल्लने विक्रान्तकौरवमें समन्तभद्रके शिवकोटि और शिवायन दो शिष्य बतलाये हैं और उन्हीके अन्वयमें वीरसेन, जिनसेनको बतलाया है। पर इस बातका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है कि समन्तभद्रकी शिष्यपरम्परामें वीरसेन एवं जिनसेन हुए हैं। शिवकोटिका तो उल्लेख मिलता भी है। पर शिवायनका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। शिवायनका अन्यत्र भी कहीं नाम नहीं आता। भगवती-आराधनाके रचयिता शिवकोटि समन्तभद्रके शिष्य थे, इसका साधक कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेख नं. १०५ में शिवकोटिको तत्त्वार्थसूत्रका टीकाकार बतलाया है। यह अभिलेख विक्रम सं. १४५५ का है। इसमें आया हुआ 'एतत्' शब्द विचारणीय है। श्री पं. जुगलकिशोरजी मुख्तारका यह अनुमान है कि-
"तस्यैव शिष्यविशवकोटिसूरिस्तपोलसालम्बनदेहयष्टिः।
संसार-बाराकर-पोतमेतत्तत्वार्थसूत्रं तदलन्चकार'।”
उपर्युक्त पद्म तत्त्वार्थसूत्रकी उसी शिक्षकोटिकृत टीकाकी प्रशस्तिका एक पद्म है जो शिलालेखमें एक विचित्र ढंगसे शामिल कर लिया गया है। अन्यथा शिलालेखके पद्योंके अनुक्रममें 'एतद' शब्दकी संगति नहीं बैठ सकती। अतएव शिवार्यको तत्त्वार्थसूत्रपर कोई अवश्य टीका रही है। भले ही वे शिवार्य आराधनाके कर्तासे भिन्न हों। यह भी सम्भव है कि शिलालेख में उल्लिखित समन्तभद्र ही उनके गुरु हों। अष्टसहस्रोपर विषमपदतात्पर्य टीकाके रचयिता एक लघुसमन्तभद्र हुए हैं, जिनका समय अनुमानत: विक्रमको १३ वी शताब्दी है।
यदि भगवती आराधनाके रचयिता शिवार्य या शिवकोटिकी तत्त्वार्थसूत्रकी कोई टीका होती तो उसका उल्लेख तत्त्वार्थसूत्रके अन्य टीकाकार अवश्य करते। पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि टीकामें भी उसका निर्देश अवश्य मिलता। अतः न तो भगवती आराधनाके रचयिता शिवकोटिकी तत्वार्थसूत्रपर कोई टीका ही है, और न वे समन्तभद्रके शिष्य ही जान पड़ते हैं।
एक अन्य प्रमाण श्रीपण्डित परमानन्दजी शास्त्रीने अपने एक निबन्धमें उपस्थित किया है। उन्होंने लिखा है कि शिवार्यने गाथा २०७१ - ८३ में स्वामी समन्तभद्राकी तरह गुणव्रतोंमें भोगोपभोगपरिमाणको न गिनाकर देशावकाशिकको ग्रहण किया है और शिक्षाव्रतोंमें देशावकाशिकको न लेकर भोगोपभोगपरिमाणका विधान किया है। यदि वे समन्तभद्रके शिष्य होते तो इस विषय में उनका अवश्य अनुसरण करते। इस प्रकार आराधनाके रचयिताके साथ समन्तभद्रका सम्बन्ध घटित नहीं होता।
दिगम्बर सम्प्रदायकी पट्टावलियों, अभिलेखों, ग्रन्थ-प्रशस्तियों एवं श्रुतावतार आदिमें जो परम्पराएं उपलब्ध होती हैं, उनमेंसे किसी भी परम्परामें शिवार्य द्वारा उल्लिखित अपने गुरुओं- जिननन्दि, सर्वगुप्त और मित्रनन्दिके नाम नहीं मिलते। शाकटायन व्याकरण में- "उपसर्वगुप्तं व्याख्यातार:।" अर्थात् समस्त व्याख्याता सर्वगुप्तसे नीचे हैं- उन जैसा कोई दूसरा व्याख्याता नहीं। बहुत सम्भव है कि इन्हीं सर्वगुप्तके चरणों में बैठकर शिवार्यने सूत्र और उनका अर्थ अच्छी तरह ग्रहण किया हो और तत्पश्चात् आराधनाकी रचना की हो। श्री प्रेमोजीने शाकटायनके उक्त उल्लेखिके आधारपर शिवार्य या शिवकोटि को यापनीय संघका आचार्य बताया है। उन्होंने अपने कथनकी पुष्टिके लिए निम्नलिखित प्रमाण उपस्थित किये है-
१. भगवती आराधनाकी उपलब्ध टीकाओंमें सबसे पुरानी टीका अपराजित सूरिकी है और जैसा कि आगे बतलाया जायगा वे निश्चयसे यापनीय संघके हैं। ऐसी दशामें मूलग्रंथकर्ता शिवार्यको भी यापनीय होनेको अधिक सम्भावना है।
२. यापनीय संघ श्वेताम्बरोंके समान सूत्रग्रन्धोंको मानता है और अपरा जित सूरिकी टोकामें सैकड़ों गाथाएँ ऐसी हैं जो सूत्रनन्थों में मिलती हैं।
३. दश स्थितकल्पोंके नामों वाली गाथा जातकल्पभाष्य और अनेक श्वेताम्बर टीकाओं और निर्मुक्तियों में मिलती हैं। आचार्य प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेय कमलमार्तण्ड में भी इसे श्वेताम्बर गाथा माना है।
४. आराधनाकी ५६५-५६६ नम्बरकी गाथाएँ दिगम्बर मुनियोंके आचारसे मेल नहीं खाती। उनमें बीमार मुनिके लिए चार मुनियोंके द्वारा भोजन-पान लानेका निर्देश है।
५. आराधनाकी ४२८वीं गाथा आचारांग और जोतकल्प ग्रंथोका उल्लेख करति है, जो श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्रसिद्ध ग्रंथ है।
६. शिवार्यने अपनेको पाणितलभोजी लिखा है। यापनीय संघके साधु श्वेताम्बर साधुओंके समान पात्रभोजी नहीं बल्कि दिगम्बरोंके समान करपात्र भोजी थे।
इस प्रकार श्री प्रेमीजीने शिवार्य या शिवकोटिको यापनीय संघका आचार्य मना है और इनके गुरुका नाम प्रशस्तिके आधारपर सर्वगुप्त सिद्ध किया है।
भगवती आराधना या मूलाराधनाके कर्ता शिवार्य कब हुए, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है। उन्होंने अपने समयका निर्देश कहीं नहीं किया है। परवर्ती आचार्योंमें जिनसेनाचार्यने ही सर्वप्रथम उनका उल्लेख किया है। जिनसेनका समय नवम शताब्दी होनेसे शिवार्य के समयकी सबसे ऊपरी सोमा ई. सन् नवम शताब्दी मानी जा सकती है। शाकटायनके निर्देशानुसार सर्वगुप्त उनके गुरु हैं। शाकटायनका काल भी शिवार्यके समयकी अपनी सीमा हो सकता है। अब प्रश्न यह है कि शिवार्यको जिनसेन और पाल्यकीर्तीसे कितना पहले माना जाय। ग्रन्थका अन्तरङ्ग अध्ययन करनेपर ज्ञात होता है कि आराधनाके ४० वें विजहना नामक अधिकारमें आराधक मुनियोंके भृतक संस्कार वर्णित हैं, उनसे ग्रन्थकी प्राचीनतापर प्रकाश पड़ता है। इसके अनुसार उस समय मुनिके मृतक शरीरको वनमें किसी अच्छी जगहपर यों ही छोड़ दिया जाता था। और उसे पशु-पक्षी समाप्त कर देते थे।
इस ग्रंथपर अपराजित सूरि द्वारा विरचित 'विजयोदया' नामक संस्कृत टीका उपलब्ध है। इस टीकासे भी इस ग्रन्थकी प्राचीनता प्रकट होती है। अन्य टोका-टिप्पणोंसे यह अवगत होता है कि इस ग्रन्थपर प्राकृत-टीकाएँ भी उपलब्ध थों । इन टीकाओंका उल्लेख टीकाकारोने टोहाना "प्राकृतटीकायाम्" कहकर किया है। मूलाराधनादर्पण-टीकामें अनेक स्थलोंपर प्राकृतटीकाका निर्देश आया है। यथा- "प्राकृतटीकायां तु अष्टाविशतिमूलगुणाः। आचार वत्वादयश्चाष्टी इति षटत्रिशत्।"
प्राकृतटीकायां पुनरिदमुक्त- उत्तरापथे चर्मरंगम्लेचविषये म्लेच्छा जलो- काभिर्मानुषरुधिरं गृहीत्वा भंडकेषु स्थापयन्ति। ततस्तेन रुधिरेण कतिपय- दिवसोत्पन्नविपन्नकुमिकेणोर्णासूत्रं रंजयित्वा कंबलं वयंति। सोध्यं कृमिरागकंबल इत्युच्यते। स चातोव रुधीरवर्णो भवति, तस्य हि वन्हिना दग्धस्यापि स कृमिरागो नापगच्छतोति। सोधो शुक्लतापादनं। जदुरागवच्छसोधी सिन्धुदेशलाक्षारक्तटसरिवस्त्रशुद्धिः। अवि अपिः सम्भावने। किहइ कथंचित्। आयासेन। ण इमा सल्लुद्धरणसोधो इयं गुरूपचारपूर्विकालोचनया रत्नत्रयशुद्धिः।
प्राकृतटीकायां तु कम्ममलविप्पमुक्को कम्ममलेण मेल्लिदो सिद्धि णिव्वाणं पत्तो त्ति प्राप्त इति।
इन अवतरणोंसे यह स्पष्ट है कि मूलाराधना या भगवती आराधनापर प्राकृतटीका रही है। प्राकृत्तटीका लिखे जानेका समय विक्रम संवत् ६ठी शताब्दीसे पूर्व है। प्राकृतग्रन्थोंकी प्राकृत भाषामें टीका लिखनेकी परम्परा ५ वी- ६ ठी शताब्दी तक ही मिलती है। इसके पश्चात् तो संस्कृत भाषामें टीका लिखनेकी परम्परा प्रारम्भ हो चुकी थी। अतएव मूलाराधनाका समय विक्रम ६ठी शतीके पूर्व होना चाहिए। डॉ. हीरालालजी जैनने लिखा है- 'कल्पसूत्रकी स्थविरावलीमें एक शिवभूति आचार्यका उल्लेख आया है तथा आवश्यकमूलभाष्यमें शिवभूतिको वीरनिर्वाणसे ६०९ वर्ष पश्चात् वोडिक- दिगम्बर संघका संस्थापक कहा है। कुन्दकुन्दाचार्यने भावराहुडमें कहा है कि शिवभूतिने भाव-विशुद्धि द्वारा केवलज्ञान प्राप्त किया। जिनसेनने अपने हरिवंशपुराणमें लोहार्यके पश्चाद्वर्ती आचार्यो में शिवगुप्त मुनिका उल्लेख किया है। जिन्होंने अपने गुणोंसे अर्हद वलि पदको धारण किया था - ग्रन्थ सम्भवतः ई. की प्रारम्भिक शत्ताब्दियोंका है।"
स्पष्ट है कि डॉ. हीरालालजी इस ग्रंथका काल ई. सन द्वितीय- तृतीय शती मानते हैं। इस ग्रन्थपर अपराजित सूरि द्वारा लिखी गयी टीका ७वीं- ८वीं शताब्दीकी है। अतः इससे पूर्व शिवार्यका समय सुनिश्चित है। डॉ. ज्योतिप्रसाद जैनने शिवार्यके समयका विचार करते हुए लिखा है-
शिवार्य सम्भवतः श्वेताम्बर परम्पराके शिवभूति हैं। ये उत्तरापथकी मथुरा नगरीसे सम्बद्ध हैं और इन्होंने कुछ समय तक पश्चिमी सिन्धमें निवास किया था। बहुत सम्भव है कि शिवायं भी कुन्दकुन्दके समान सरस्वती आन्दोलनसे सम्बद्ध रहे हों। वस्तुत: शिवायं ऐसी जैन मुनियोंकी शाखासे सम्बन्धित है जो उन दिनों न तो दिगम्बर शाखाके ही अन्तर्गत थी और न श्वेताम्बर शाखाके ही। यापनीय संघके ये आचार्य थे। अतएव मथुरा अभिलेखोंसे प्राप्त संकेतोंके आधारपर इनका समय ई. सन् की प्रथम शताब्दी माना जा सकता है।
भगवती आराधनाके वर्ण्य-विषयके अध्ययनसे स्पष्ट है कि इसके अनेक तथ्य ऐसे हैं, जो ई. पू. तीसरी-चौथी शताब्दी में प्रचलित थे। मुनियोंकी अन्त्येष्टिका चित्रण, सल्लेखनाके समय मुनि-परिचर्या, मरणोंके भेद-प्रभेद आदि विषय पर्याप्त प्राचीन हैं। भाषा और शैलीके अध्ययनसे भी यह ध्वनित होता है कि यह ग्रन्थ ई. को आरम्भिक शताब्दियों में अवश्य लिखा जा चुका था। आराधनापर यह एक ऐसी सांगोपांग रचना है, जिसकी समता अन्यत्र नहीं मिलती है।
शिवार्यको भगवती आराधना या मूलाराधना नामकी एक ही रचना उपलब्ध है। इस ग्रन्थमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्त्तप इन चार आराधनाओंका निरूपण किया गया है। इस ग्रंथमें २१६६ गाथाए और चालीस अधिकार है। यह ग्रन्थ इतना लोकप्रिय रहा है, जिससे सातवीं शताब्दीसे ही इसपर टीकाएँ और विवृतियां लिखी जाती रही हैं। अपराजितसूरिकी विजयोदया टीका, आशाधरको मूलाराधनादर्पणटीका, प्रभाचन्द्रकी 'आराधनापंजिका' और शिवजित अरुणकी भावार्थदीपिका नामक टीकाएँ उपलब्ध हैं। इसको कई गाथाएँ 'आवश्यकनियुक्ति', 'बृहत्कल्पभाष्य', 'भक्ति पइण्णा', 'संथारण' आदि श्वेताम्बर ग्रंथोंमें भी पायी जाती हैं। हम यहाँ आदान-प्रदानकी चर्चा न कर इतना ही लिखना पर्याप्त समझते हैं कि प्राचीन गाथाओंका स्रोत कोई एक ही भण्डार रहा है, जिस मूलस्रोतसे ग्रन्थका सृजन किया गया है, वह स्रोत सम्भवतः आचार्यो को श्रुतपरम्परा ही है।
वस्तुतः इस ग्रन्थमें आराध्य, आराधक, आराधना और आराधनाफल इनका सम्यक वर्णन किया गया है। यहाँ रत्नत्रय आराध्य है, निर्मल परिणामवाले भव्यजीव आराधक हैं, जिन उपायोंसे रत्नत्रयकी प्राप्ति होती है, वे उपाय आराधना है और इस रत्नत्रयकी आराधना करनेसे अभ्युदय और मोक्षरूप फलको प्राप्ति होती है, यह आराधनाफल है।
इन चार आराध्यादि पदार्थों की आराधना उद्योतन, उद्यवन, निर्वहण, साधन और निस्तरण इन उपायोंसे होती है। सम्यकदर्शनादिको अतिचारोंसे अलिप्त रखना, उनमें दोष उत्पन्न न होने देना उद्योतन है। आत्मामें बार बार सम्यक्रदर्शनादिकी परिणति करते जाना उद्यवन है। परीषहादिक प्राप्त होनेपर स्थिर चित्त होकर सम्यकदर्शनादिसे च्युत न होना निर्वहण है। अन्य कार्यों में चित्त लगनेसे यदि सम्यग्दर्शनादि तिरोहित होने लगें, तो पुनः उपायोंसे उन्हें पूर्ण करना साधन है। आमरण सम्यकदर्शनादिककी निर्दोष धारण करना निस्तरण है।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यकतप इन चारोंकी उन्नति होनेके लिए पूर्वोक पांचोंकी आवश्यकता है। इस प्रकार प्रत्येकमें उद्योतनादिक पाँच उपाय मान लेने पर बीस भेद होते हैं। इस भगवती आराधना में इन सभी भेद-प्रभेदोंका उल्लेख आया है।
इस ग्रन्थमें १७ प्रकारके मरण बतलाये गये हैं। इनमें पंडितमरण, पंडित पडितमरण और बालपंडितमरणको श्रेष्ट कहा है। पद्धितमरणमें भी भक्त प्रतिज्ञामरणको श्रेष्ठ माना गया है। लिंगाधिकारमें आचेलक्य, लोच, देहसे ममत्वत्याग और प्रतिलेखन ये चार निग्रंथलिंगके चिन्ह बताये हैं। अनयिताधिकारमें नाना देशोंमें विहार करनेके गुणोंके साथ अनेक रीति-रिवाज, भाषा और शास्त्र आदिकी कुशलता प्राप्त करनेका विधान है। भावनाधिकारमें तपोभावना, श्रुतभावना, सत्यभावना, एकत्वभावना और धृतिबलभावनाका प्ररूपण है। सल्लेखनाधिकारमें सल्लेखनाके साथ बाह्य और अन्तरङ्ग तपोंका वर्णन किया है। अर्यिकाओंको संघमें किस प्रकार रहना चाहिए, उनके लिए कोन-कौन विषेय कर्तव्य हैं तथा कोन-कौनसे कार्य त्याज्य है आदिका प्रतिपादन किया है। मार्गणाधिकारमें आचार्यजीत और कल्पका वर्णन है। इस अधिकारमें आचेलक्यका भी समर्थन किया है। अतः इस ग्रंथकी मान्यता दिगम्बर सम्प्रदायमें रही है। प्रसंगवश ध्यान, परिषह, कषाय, छपकश्रेणी आदिका भी वर्णन है।
धार्मिक विषयके साथ काव्यात्मकता भी इस ग्रन्थमें विद्यमान है। कई ऐसी गाथाएँ भी है, जिनमें उपमाका प्रयोग बहुत सुन्दर रूपमें किया गया है। अन्तरङ्ग शुद्धि पर बल देते हुए बताया है-
घोडयलद्दिसमाणस्स तस्स अब्भंतरम्मि कुधिदस्स।
बाहिरकरणं कि से काहिदि बगणिहुदकरणस्स।।
अर्थात् जैसे घोड़ेकी लीद बाहरसे चौकनी दिखलाई पड़ती है, पर भीतरसे दुर्गन्धके कारण महामलिन है, उसी प्रकार जो मुनि बाह्याडम्बर तो धारण करता है, पर अन्तरंग शुद्ध नहीं रखता, उसका आचरण बगुलेके समान होता है।
शरीर, आहार और रसलोलुपताका वर्णन भी उपमाओं द्वारा किया गया है। सूक्तिकी दृष्टिसे इस ग्रन्थकी अनेक गाथाएँ रसमय, एवं बोधोत्पादक हैं। यहाँ दो-एक गाथा उदाहरणार्थ प्रस्तुत करते हैं-
जिब्भामूलं बोलेइ वेगऊ वर-हओ व्व आहारो।
तत्थे व रसं जाणइ ण य परदो ण वि य से परदो।
जिस प्रकार उत्तम जातिका अश्व वेगपूर्वक दौड़ता है, उसी प्रकार जिन्हा भी आहारका रसास्वादन करने के लिए वेगसे दौड़तो है। यद्यपि जिन्हाका अग्र भाग ही रसास्वाद लेता है, तो भी उदरस्थ आहारका अत्यल्प अंश सुखानु भूतिका कारण होता है| आहारका अधिक भाग तो उदरमें समाविष्ट हो जाता है, और उसके उदरस्थ होनेपर रसास्वाद नहीं आता। अतएव रसास्वादजन्य सुखानुभूति अत्यल्प है।
आहारके प्रति गद्धताका त्याग करानेके लिए आचार्य दरिद्री पुरुषको उपमाका प्रयोग करते हैं। उनका कथन है कि आहारलम्पटता अत्यधिक दुखःका कारण है। जिसप्रकार धनादि पदार्थोंकी चिरकालस अभिलाषा करने वाला दारद्री पुरुष दुःख प्राप्त करता है, उसो प्रकार आहारलम्पटी भी। आहारके प्रति साधकको विचार-जन्य वितृष्णाका होना परमावश्यक है-
दुक्खं गिद्धोधत्थस्साहट्टतस्स होइ बहुगं च।।
चिरमाहट्टियदुग्गयचडस्स व अण्णगिद्धोए।।
इस गाथामें प्रयुक्त उपमान-उपमेयभाव विषयके स्पष्टीकरणमें सशक्त है। जो क्षपक मृत्यु के समय अनुचित आहारकी अभिलाषा करता है, वह मधुलिप्त तलवारकी धारको चाटनेके समान कष्ट प्राप्त करता है।
महुलिप्तं असिधारं लेहइ भु जइ य सो सविसमण्णं||
जो मरणदेसयाले पत्थिज्ज अकप्पियाहार।।
अर्थात् मृत्युके समय आहारकी अभिलाषासे संक्लेश परिणाम होते है, जो दुर्गतिका कारण है। क्षपक मृत्युके समय यदि आहारकी अभिलाषा करता है, तो उसकी यह अभिलाषा विषमिश्रित अन्न अथवा मधुलिप्त तलवारकी घारके समान कष्टदायक है।
सुभासित या सुक्तिके रूपमें अनेक गाथाएँ अंकित की गयी हैं। यहाँ केवल दो गाथाएँ उस की जाती है-
असिधारं व विसं वा दासं पुरिसस्स कुणइ एयभवे।।
कुणइ हु मुणिणो दोर्स अकप्पसेवा भवसएमु।
तलवार या विष एक ही भवमें मनुष्यको हानि पहुंचाते हैं, पर मुनियों के लिए अयोग्य आहारका सेवन सैकड़ों भवों में हानिकर होता है।
छंडिय रयणागि जहा रमणद्दोवे हरिज्ज कट्टाणि।।
माणुसभवे वि छंडिय धम्मं भोगेमिलसदि तहा।।
जैसे कोई मनुष्य रत्नद्वीपमें जाकर रत्नोका त्यागकर काष्ठ खरीद लेता है, उसी प्रकार मनुष्य भवमें भी कोई धर्म छोड़कर विषय-भोगोंकी अभिलाषा करता है। अभिप्राय यह है कि बड़ी कठिनाईसे रत्नदीपमें पहुंचनेपर कोई रत्न न खरीदकर ईंधन खरीदे, तो वह व्यक्ति मूर्ख ही समझा जायगा। इसी प्रकार इस अलभ्य मनुष्यजन्मको प्राप्तकर रत्नत्रयकी साधना न करे और विषयसुखोंमें इस मनुष्यभवको व्यतीत कर दे, तो वह व्यक्ति भी उपर्युक्त व्यक्तिके समान ही मूर्ख माना जायगा।
कोई व्यक्ति नन्दनवनमें पहुंचकर अमृतका त्यागकर विषपान करे, तो उसे महामूर्ख ही कहा जायगा। इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्मको छोड़ विषय भोगोंकी अभिलाषा करता है वह भी विवेकहीन है और नन्दनवनमें पहुंचे हुए व्यक्तिके समान ही मूर्ख है।
इसप्रकार भगवती आराधनामें मनुष्यभवको सार्थक करने के लिए सल्लेखना या समाधिमरणको सिद्धिकी आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया है। शिवार्यने इस ग्रंथमें प्राचीन समयकी अनेक परम्पराओंको निबद्धकर साधक जीवनकी सफलतापर प्रकाश डाला है।
शिवार्य आराधनाके अतिरिक्त तत्कालीन स्वसमय योर परसमयके भी ज्ञाता थे। उन्होंने अपने विषयका उपस्थितिकरण काव्यशैलीमें किया है। वे आगम-सिद्धान्तके साथ नीति, सदाचार एवं प्रचलित परम्पराओंसे सुपरिचित थे। आचार्यने जीवनके अनेक चित्रोंके रंग, नाना अनुभूतियोंके माध्यमसे प्रस्तुत किये हैं। विविध दशाओंमें आयो हुई ये अनुभूतियाँ मनोविज्ञानके एक प्रदर्शनी कक्षमें सुसज्जित की जा सकती हैं। आचार्यकी अभिव्यञ्जना प्रतिभा न तो कथाकारके समान कल्पनात्मक ही है और न कविकी प्रतिभाके समान चमत्कारात्मक हो। तथ्यनिरूपणको यथार्थ भूमिपर स्थित ही आचार्यने संसार, शरीर और मेराको निरशासक निदर्शन, उदाहरण, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि अलङ्कारों द्वारा अभिव्यक्तकर ग्राह्यता प्रदान की है। साहित्य निर्माताके लिए मानव-प्रवृत्तियोंके विश्लेषण और प्रस्तुतीकरणमें जिस रागात्मकताको आवश्यकता होती है वह रागात्मकता भी आचार्यमें विद्यमान है। शब्द और अर्थका ऐसा रुचिर योग कम ही स्थानों पर पाया जाता है। कतिपय गाथाओंमें तो भावोंका इतना सपन सन्निवेश विद्यमान है, जिससे अभिव्यंजनाकौशलद्वारा भाव-स्फोटनकी क्रिया उपस्थित रहती है।
आचार्यने निदानका वर्णन करते हुए अपनी अभिव्यञ्जना कलाका सुन्दर प्रस्तुतीकरण किया है। जिसके मनमें भोगका निदान है वह मुनि नटके समान अपने शील-व्रतका प्रदर्शन करता है। निदान करनेसे भोग-लालसा तृप्त नहीं हो सकती है। निदान बाँधनेवाला व्यक्ति अहर्निश भोग-वृत्तिको वृद्धिंगत करता रहता है। यथा-
सपरिग्गहस्स अब्बंभचारिणो अविरदस्स से मणमा।
कारण सील-वहणं होदि हु णडसमणरु्वं चं व॥
रोगं कंखेज्ज जहा परियारसुहस्स कारणा कोई।
तह अण्णेसदि दुक्खं सणिदाणो भोगतम्हाए।
जह कोढिल्लो अग्गि तप्पंतो णेव सवसमं लभदि।
तह भोगे भुंजतो खणं पि णो उवसम लभदि।
कच्छं क्डडयमाणो सुहाभिमाणं करेदि जह दुक्खे।
दुक्खे सुहाभिमाणं मेहुण-आर्दीहिं कुणदि तहा॥
भोग निदान करनेवाले मुनिके मनमें विषयाभिलाषा है। अतः वह परिग्रही है। उसका मन मैथुनकर्ममें प्रवृत्त होनेकी अभिलाषासे पराङ्मुख नहीं है। अत: वह शरीरसे शील-व्रत धारण करनेवाले नटके समान अन्तरङ्गमें मुनि-भावसे च्यूत है। यहां निदर्शना द्वारा आचार्यमे निदानकी निस्सारता व्यक्त की है। प्रस्तुत सन्दर्भमें दो वाक्यखण्ड हैं- पहला वाक्य निदान बांधनेवाला शीलधारी मुनि और दूसरा वाक्य शीलका अभिनय प्रदर्शित करनेवाला नट है। ये दोनों वाक्यखण्ड परस्परमें सापेक्ष हैं। अर्थके लिए दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं। साधारणत: दोनों वाक्यखण्ड असम्बद दिखलाई पड़ते हैं, पर है दोनोंमें अर्थसंगति और इस अर्थसंगतिका आधार है सादृश्ययोजना। इस प्रकार निदर्शनाद्वारा आचार्यने भावाभिव्यक्ति की है।
औषधि द्वारा जैसे कोई व्यक्ति नीरोग देखा जाता है, अत: इस सुखाभिलाषासे कि औषधिका सेवन कर रोग-मुक्त हो जाऊंगा, अतः रोगोत्पत्तिकी इच्छा करे, उसी प्रकार भोगकी लालसासे निदान करनेवाला मुनि भी दुःखप्राप्तीकी इच्छा करता है। यहाँपर भी आचार्यने दो वाक्योंकी योजना की है। प्रथम वाक्यमें सादृश्यमूलक उदाहरण है, जिसके द्वारा द्वितीय वाक्यकी पुष्टि हो रही है। इस गाथामें लक्षणा और व्यन्जना शक्तियाँ भी समाविष्ट हैं। ओषधिलाभकी आकांक्षासे कोई रोगोत्पत्ति नहीं करता। यदि वह रोगोत्पत्ति करता है तो उससे बढ़कर अन्य कोई बुद्धीहीन नहीं। इसी प्रकार भोगौपभोगोको लालसासे प्रेरित होकर जो निदान करता है वह मुनि भी निर्बुद्धि ही है।
इस गाथामें दृष्टान्तालद्वारकी योजना है। कुष्टी मनुष्यके अग्नि-तापका उदाहरण देकर निदानको असारता चित्रित की गयी है। जिस प्रकार कुष्टी मनुष्य अग्निसे शरीर तपनेपर भी उपशमको प्राप्त नहीं होता, प्रत्युत बुद्धीगत होता है, उसी प्रकार विषयमार्गोंकी अभिलाषा भोग-शक्तिकी उपशामक नहीं, अपितु वर्धक है।
खुजलीरोगको नखोंसे खुजलानेवाला मनुष्य अपनेको सुखी समझता है, उसी प्रकार स्पर्शन, आलिङ्गन आदि दुःखोंसे भी अपनेको सुखी मानता है।
उक्त दोनों गाथाओंमें आचार्यने उदाहरणालङ्कारकी योजना की है। यहां यथा और तथा शब्द प्रयुक्त होकर भाव-साम्य उपस्थित करते हैं। उपमेय और उपमान इन दोनोंमें बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव है। निदानजन्म भोगाभिलाषाको व्यर्थ सिद्ध करनेके लिए आचार्यने कुष्ठीका अग्नि-ताप एवं कण्डयूमानताको तुष्टि आदिके उदाहरण प्रयुक्त किये हैं। इस प्रकार धार्मिक विषयोंको सरस और चमत्कृत बनानेके लिए अलङ्कृत शैलीका व्यवहार किया है।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara.
Acharya Shivarya Maharajji (Prachin)
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