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#GyansagarJiMaharaj-1891ShivSagarji
Acharya Jnansagar or Acharya Gyansagar (1891–1973) was a Digambara Jain Acharya of 20th century who composed many Sanskrit epics. He initiated Acharya Vidyasagar in 1968 as a monk and 1972 as an Acharya.
पूज्य साहित्य मनीषी आचार्य प्रवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज का जीवन परिचय
संक्षिप्त परिचय
पूर्व नाम : श्री भूरामल जी शास्त्री
पिता : श्री चतुर्भुज जी छावड़ा
माता : श्रीमती घृतवरी देवी छावड़ा
जन्म : 24-8-1897, भाद्रपद कृष्ण एकादशी
जन्म स्थान : राणोली, जिला सीकर, राजस्थान
शिक्षा : संस्कृत साहित्य एवं जैन दर्शन की उच्च शिक्षा
स्यादवाद विद्यालय, बनारस
ब्रह्मचर्य व्रत : 26-6-1947, अजमेर, राजस्थान
(सातवीं प्रतिमा)
क्षुल्लक दीक्षा : 25-4-1955, मंसूरपुर, मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश)
ऐलक दीक्षा : 1957
मुनि दीक्षा : 22-6-1959, जयपुर, राजस्थान
दीक्षा गुरु : आचार्य श्री शिव सागर जी महाराज
आचार्य पद : 7-2-1969, अजमेर, राजस्थान
चरित्र चक्रवर्ती पद : 20-10-1972, अजमेर, राजस्थान
आचार्य पद त्याग : 22-11-1972 नसीराबाद, अजमेर (राजस्थान)
समाधि : 1 जून 1973 नसीराबाद, अजमेर (राजस्थान)
जीवन परिचय:–
परम पूज्य आचार्य प्रवर ज्ञान सागर जी महाराज महान तपस्वी, बाल ब्रह्मचारी, कवि ह्रदय, संस्कृत और हिंदी में अनेक महाकाव्यों की रचना करने वाले, स्वाध्याय प्रेमी, लेखनी के धनी, करुणा और वात्सल्य की मूर्ति, शांति प्रिय, बहुत विनय शील और उदार हृदय रखने वाले आचार्य थे। जीवन के अंतिम समय में उन्होंने अपने शिष्य को ही अपना गुरु बना लिया और उनसे समाधि देने के लिए प्रार्थना की। आचार्य प्रवर ज्ञानसागर जी महाराज, आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के गुरु और मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज के दादा गुरु (गुरु के गुरु) थे।
जन्म और परिवार:–
आचार्य प्रवर ज्ञान सागर जी महाराज का जन्म 24 अगस्त 1897, भाद्रपद कृष्ण एकादशी को राजस्थान के सीकर जिले के राणोली गांव में हुआ था। उनका गृहस्थ अवस्था का नाम “भूरामल” जी था। उन्हें “शांति कुमार” के नाम से भी पुकारा जाता था। उनकी माता का नाम श्रीमती घृतवरी देवी जी और पिता का नाम श्री चतुर्भुज छावड़ा जी था। भूरामल जी पांच भाई थे, जिनमें उनका नंबर दूसरा था। उनका परिवार एक सादा जीवन जीने वाला मध्यम वर्गीय परिवार था।
स्वभाव:–
बचपन से भूरामल जी बहुत सरल स्वभाव के थे। वे बहुत मधुर वाणी वाले थे और कम बोलते थे। पढ़ाई में वे बहुत होशियार थे और ज्यादा से ज्यादा ज्ञान प्राप्त करने में उनकी रुचि रहती थी। वे सभी के प्रति विनय भाव रखते थे और निस्वार्थ भाव से सेवा करते थे। दया, करुणा, परोपकार के गुण उनके अंदर भरे हुए थे। जैन धर्म के प्रति बचपन से ही उनके अंदर लगाव और आकर्षण था। उनका रंग गोरा और शरीर पतला दुबला था।
संघर्ष का जीवन:–
भूरामल जी का जीवन बचपन से ही संघर्षों से घिर गया था। जब वे सिर्फ 10 वर्ष के थे, उनके पिता का देहांत हो गया। बड़े भाई भी उस समय सिर्फ 12 वर्ष के थे। पिता के देहान्त के कारण परिवार की आर्थिक स्थिति खराब हो गई थी। भूरामल जी ने उस समय तक गांव के स्कूल में ही शिक्षा प्राप्त की थी, उसको भी छोड़ना पड़ा।
उनके बड़े भाई छगनलाल जी घर की आर्थिक स्थिति संभालने के लिए काम की खोज में बिहार के “गया” चले गए। कुछ समय बाद भूरामल जी भी अपने बड़े भाई के पास चले गए और वहां एक जैन व्यवसायी के यहां काम सीखने लगे। इस समय आर्थिक तंगी के कारण उनकी पढ़ाई छूट चुकी थी। एक दिन वे स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी के कुछ छात्रों से मिले तो उनके मन में भी वहां जाकर शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा हुई, पर आर्थिक तंगी के कारण उस समय उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो पायी।
उच्च शिक्षा के लिए प्रयास:–
भूरामल जी आगे शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे। अभी उनकी उम्र सिर्फ 15 वर्ष ही थी, वे शिक्षा प्राप्त करने के लिए वाराणसी चले गए। वहां पर स्याद्वाद महाविद्यालय में अध्ययन करना शुरू कर दिया। धन की कमी थी इसलिए अपना और पढ़ाई का खर्चा चलाने के लिए वे शाम को गंगा के घाट पर गमछे बेचने लगे। वे स्वाभिमानी थे इसलिए उन्होंने किसी से धन नहीं मांगा बल्कि अपने को आत्मनिर्भर बना लिया।
जैन व्याकरण, न्याय, साहित्य का अध्ययन:–
वाराणसी में उन्होंने जैन आचार्यों के द्वारा लिखे गए दर्शन, व्याकरण, न्याय और साहित्य के ग्रंथों का खूब अध्ययन किया। ज्ञान प्राप्त करने में उनकी हमेशा बहुत रूचि रहती थी। वहां पर उन्होंने अपना उद्देश्य ज्ञान प्राप्त करना रखा, ना कि सिर्फ परीक्षा पास करना। वहां जिस किसी भी शिक्षक के पास अवसर मिलता, अलग-अलग ग्रंथों का वे खूब अध्ययन करते। इस तरह उन्होंने सभी ग्रंथों का अध्ययन पूरा करके, क्रीन्स कॉलेज काशी से शास्त्री की परीक्षा पास कर ली। इसके साथ ही स्याद्वाद महाविद्यालय से जैन दर्शन और संस्कृत साहित्य की उच्च शिक्षा भी प्राप्त कर ली।
अध्ययन काल में लिए गए संकल्प:–
जब भूरामल जी अध्ययन कर रहे थे तो उस समय उन्हें जैन आगम में साहित्य और काव्य की कुछ कमी महसूस हुई। उन्होंने शिक्षा प्राप्ति के बाद काव्य और साहित्य की कमी को दूर करने का संकल्प किया। इसके साथ ही उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर, जैन साहित्य एवं धर्म के प्रचार और सेवा में लगे रहने का निश्चय किया। यही नहीं, उन्होंने कठिन प्रयास और दूसरे लोगों के सहयोग से जैन व्याकरण और न्याय के ग्रंथों को काशी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में भी शामिल कराया।
शिक्षा पूरी होने के बाद निस्वार्थ सेवा:–
शिक्षा पूरी करने के बाद वे अपने गांव वापस आ गए। उन्होंने अपनी डिग्री को कमाई का माध्यम नहीं बनाया। गांव में ही उन्होंने जैन बच्चों को निस्वार्थ भाव से पढ़ाना शुरू कर दिया और उसके लिए कोई शुल्क नहीं लिया, जबकि उस समय उनके घर की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी। उन्होंने अपने गांव में ही बड़े भाई के साथ मिलकर व्यवसाय शुरू किया जिससे छोटे भाइयों का पालन पोषण किया जा सके और घर की आर्थिक स्थिति ठीक की जा सके।
साहित्य लेखन शुरू किया:–
कुछ समय बाद उन्होंने व्यवसाय की जिम्मेदारी छोटे भाइयों को सौंप दी और अपने को अध्ययन, अध्यापन और लेखन में पूरी तरह लगा दिया। वह दिन में अधिकांश समय अध्ययन और लेखन में लगे रहते। राजस्थान के रामगढ़ में उन्हें संस्कृत पढ़ाने के लिए बुलाया गया, वहां भी उन्होंने कोई वेतन नहीं लिया और निस्वार्थ भाव से छात्रों को संस्कृत का अध्ययन कराया। इसके साथ-साथ, वे जैन आगम में साहित्य और काव्य की कमी को दूर करने के लिए संस्कृत और हिंदी के ग्रंथों की रचना करते रहे।
संयम पथ पर बढ़े कदम:–
ज्ञान प्राप्ति की इच्छा उनके मन में हमेशा रहती थी जिसके कारण वह हमेशा नए-नए ग्रंथों के अध्ययन और लेखन में लगे रहते थे। जैसे-जैसे उनका चिंतन – मनन बढ़ता गया, उनके मन में वैराग्य भाव भी बढ़ने लगा। ब्रह्मचर्य व्रत तो वे अध्ययन काल में ही ले चुके थे। 26-6-1947 को, अजमेर में उन्होंने आचार्य श्री वीर सागर जी महाराज से सातवीं प्रतिमा के रूप में ब्रह्मचर्य व्रत को धारण किया।
अब ब्रह्मचारी भूरामल जी के कदम तेजी से संयम पथ पर बढ़ने लगे। ब्रह्मचर्य व्रत के 2 वर्ष बाद उन्होंने अपने घर का त्याग कर दिया। 25-4-1955 को उन्हें मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) के मंसूरपुर में आचार्य श्री वीर सागर जी महाराज से क्षुल्लक दीक्षा मिली। अब उनको क्षुल्लक श्री “ज्ञान भूषण” जी के नाम से जाना जाने लगा। 2 वर्ष बाद 1957 में, उनको आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज द्वारा ऐलक दीक्षा प्रदान की गई।
मुनि दीक्षा:–
22-6-1959 को खनिया जी की नसिया, जयपुर राजस्थान में आचार्य शिव सागर जी महाराज ने ऐलक ज्ञान भूषण जी को मुनि दीक्षा प्रदान की और उनको “ज्ञान सागर” नाम दिया। संयम पथ पर आगे बढ़ते हुए मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज निरंतर ग्रंथों के स्वाध्याय, अध्यापन और लेखन में लगे रहे। वे संघ में अन्य मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी सभी को ग्रंथों का अध्ययन कराते रहते थे। उनके इसी ज्ञान और रुचि के कारण उनको संघ का उपाध्याय बना दिया गया।
आचार्य पद और चारित्र चक्रवर्ती पद:–
7-2-1969 को अजमेर (राजस्थान) के नसीराबाद में जैन समाज ने मुनि श्री ज्ञान सागर जी महाराज को आचार्य पद पर विभूषित किया। आचार्य पद रहते हुए ज्ञान सागर जी महाराज ने अनेक शिष्यों को मुनि दीक्षा दी। इनमें से एक, आज के प्रसिद्ध महान तपस्वी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज भी हैं। आचार्य पद पर रहते हुए श्री ज्ञान सागर जी महाराज का स्वाध्याय, ज्ञान अध्ययन खूब चलता रहा। वे अपने सभी शिष्यों को अधिकांश समय स्वाध्याय, अध्ययन कराते और इस तरह उनके ज्ञान को बढ़ाते रहते थे। 20-10-1972 को आचार्य श्री ज्ञानसागर महाराज के प्रति बहुत अधिक श्रद्धा और भक्ति भाव से भरकर जैन समाज ने उनको चारित्र चक्रवर्ती पद से सुशोभित किया।
कृतियाँ एवं रचनाएं:–
आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने अपने अध्ययन काल में, जैन आगम में साहित्य और काव्य की कमी को पूरा करने का जो संकल्प लिया था, उन्होंने उस संकल्प को पूरा करने के लिए बहुत मेहनत की। उन्होंने संस्कृत एवं हिंदी भाषा में, साहित्य और काव्य के रूप में अनेक ग्रंथों की रचना करके जैन आगम को समृद्ध बनाया।
उन्होंने संस्कृत भाषा में इन काव्यों की रचना की ––
संस्कृत महाकाव्य: (1) जयोदय (2) सुदर्शनोदय (3) वीरोदय (4) भद्रोदय
मुक्तक काव्य: (1) मुनि मनोरंजन शीति, (2) सम्यक्त्व सार शतक, (3) संस्कृत शांतिनाथ विधान, (4) ऋषि कैसा होता है
चम्पू काव्य: दयोदय चम्पू
छायानुवाद: (1)प्रवचन सार प्रतिरूपक
हिंदी साहित्य में उन्होंने निम्नलिखित महाकाव्यों और ग्रंथों की रचना की ––
महाकाव्य— (1) ऋषभावतार (2) भाग्योदय (3) गुणसुन्दर वृतांत
टीका ग्रंथ— (1) तत्वार्थ दीपिका (तत्वार्थ सूत्र पर) (2) अष्टपाहुड़ का पद्यानुवाद (3) देवागम स्तोत्र का पद्यानुवाद (4) नियमसार का पद्यानुवाद
हिंदी पद्य— (1) पवित्र मानव जीवन (2) सरल जैन विवाह विधि
हिंदी गद्य– (1) मानव धर्म (2) कर्तव्य पथ प्रदर्शन (3) इतिहास के पन्ने (4) सचित्त विचार (5) सचित्त विवेचन (6) स्वामी कुंदकुंद और सनातन धर्म आदि।
बढ़ती उम्र और सल्लेखना की तैयारी:–
आचार्य श्री ज्ञान सागर जी महाराज बढ़ती उम्र में भी अध्ययन, अध्यापन, स्वाध्याय के अपने कार्य को निरंतर करते रहे। लेकिन धीरे-धीरे उनके शरीर में बीमारियों ने आक्रमण करना शुरू कर दिया। इस समय उनकी उम्र 80 वर्ष से अधिक थी, उनके शरीर के जोड़ों में गठिया वात की वजह से असहनीय दर्द रहने लगा। बढ़ती बीमारी के कारण उन्होंने उस समय यह महसूस किया कि अब उनको आचार्य पद का त्याग कर सल्लेखना की तैयारी शुरू करनी चाहिए।
आचार्य पद का त्याग:–
उस समय आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के मन में यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि वे अपने संघ की जिम्मेदारी किसे दें? वे अपना आचार्य पद त्यागना चाहते थे पर निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि आचार्य पद के लिए कौन योग्य होगा? किसको इसकी जिम्मेदारी सौपी जा सकती है? उनकी इसी मनोदशा को पूज्य मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज ने इस प्रकार अपने एक भजन में प्रस्तुत किया है:—
अस्त हो रहे ज्ञान सूर्य ने, सोचा था इक दिन की शाम।
मेरे ढल जाने के बाद, कौन करेगा मेरा काम।।
अंधकार मय मोह जगत में, ज्ञान प्रकाश भरेगा कौन?
मेरे जीवन की बुझती, ज्योति को और जलाए कौन?
सब अयोग्य कातर दिखते हैं, कोई ना दिखता है निष्काम।
मेरे ढल जाने के बाद, कौन करेगा मेरा काम।।
धर्म महा है पाथ कठिन है, किसको इसका रहस कहें।
निष्ठा का जो दीप जलाये, ज्ञान चरित में लीन रहे,
तभी एक विद्याधर आया, दूर कहीं से गुरु के धाम।
मेरे ढल जाने के बाद, कौन करेगा मेरा काम।।
इतिहास की अद्भुत घटना:–
आचार्य श्री ज्ञान सागर जी महाराज को अपने प्रश्न का जवाब मिल गया था। वे मन में कुछ निर्णय ले चुके थे। 22-11-1972 को अजमेर के नसीराबाद में, एक सभा में 25000 लोगों के समक्ष, आचार्य श्री ज्ञान सागर महाराज जी ने अपने शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज से कहा – कि मेरा शरीर अब क्षीण हो रहा है। मैं अब आचार्य पद का त्याग करके पूरी तरह आत्म कल्याण में लगना चाहता हूं। जैन आगम के अनुसार – मेरे लिए यह करना इस समय सबसे उचित और आवश्यक है इसलिए मैं आज से अपना आचार्य पद तुम्हें प्रदान करता हूं।
यह सुनते ही सभा में उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए। उन्होंने जिस बात को दूर-दूर तक भी नहीं सोचा था — कि क्या कोई गुरु अपना पद त्याग करके अपने शिष्य को दे देगा, वह आज अपने सामने होते देख रहे थे। मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज भी अपने गुरु की इस बात से एकदम असहज से हो गए, उनका ह्रदय और मन जैसे रो ही पड़ा हो। वे इस बात के लिए अपने को तैयार करने में मुश्किल पा रहे थे। उनके गुरु ने उनके मन की स्थिति को समझा और उन्हें आगम की आज्ञा, गुरु आज्ञा, कर्तव्य भक्ति की बात समझा कर किसी तरह तैयार किया।
शिष्य को गुरु बनाया और समाधि देने की प्रार्थना:–
वहां पर उपस्थित सभी लोग उस समय चल रहे घटनाक्रम को बहुत ही कौतूहल, जिज्ञासा और रूचि के साथ देख रहे थे कि अब क्या होगा। तभी आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने उच्च आसन का त्याग कर उस पर मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को बैठाया। उन्हें आचार्य पद प्रदान किया गया। तब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने विद्यासागर जी महाराज को अपना गुरु मानकर, नीचे आसन पर बैठकर, उनसे समाधि लेने की आज्ञा मांगी। उन्होंने कहा– हे गुरुदेव ! मैं आपसे समाधि ग्रहण करना चाहता हूं, आप मुझ पर कृपा करें। शिष्य से गुरू बने आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने ज्ञान सागर जी महाराज को उनके प्रति श्रद्धा के भाव से भर कर सल्लेखना व्रत दिया।
इस घटना को देख वहां उपस्थित जन समुदाय की आंखों में पानी भर आया। ज्ञान सागर जी महाराज के उदार हृदय और विनय गुण की ऊंचाई देख सबका ह्रदय उनके प्रति श्रद्धा और सम्मान से भर गया। सबके मस्तिष्क उनके चरणों में झुक गए और जयकारों से आकाश गूंज उठा। ऐसी घटना इतिहास में बहुत कम होती है और इन्हें युगो तक याद रखा जाता है।
समाधि एवं देवलोक गमन:–
मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज सल्लेखना के अनुसार पहले अन्न फिर फलों के रस और फिर जल का त्याग करने लगे। 28 मई 1973 को उन्होंने आहार का पूरी तरह त्याग कर दिया और आत्म चिंतन में लीन रहने लगे। आचार्य विद्यासागर जी महाराज एवं संघ के अन्य मुनि जन उनकी सेवा और तत्वों के संबोधन में लगे रहते थे। मुनि श्री ज्ञान सागर जी महाराज ने 1 जून 1973 को प्रातः 10:50 पर समता भाव से और अत्यंत शांत परिणामों के बीच इस नश्वर देह का त्याग कर देवलोक की ओर गमन किया।
इस प्रकार आचार्य ज्ञान सागर जी महाराज ने अपने मनुष्य जीवन को सफल बनाया और सिद्ध शिला की तरफ अपना कदम और आगे बढ़ा दिया। उनके व्यक्तित्व, करुणा, स्नेह, उदारता एवं विनय गुण का वर्णन मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज ने अपने भजन में इस प्रकार किया है:
ग्रीष्म की धूप में, शीत की धुंध में, वर्षा में तरु तले, ठूंठ से जो खड़े।
सबका परमात्मा बन गया आत्मा, खुद में ही खो गए हैं।।
हम उन्हीं के हो गए हैं…..।।
नग्न जर्जर सी देह, ज्ञान करुणा सनेह, शाम का सूर्य था, कृत्य का बोध था।
पदवी को छोड़कर, मोह को तोड़कर, दे उजाला जगत से गए हैं।।
हम उन्हीं के हो गए हैं…..।।
ज्ञान रवि की तपन, विद्याधर का बदन, विद्या ज्योति जली, जग की प्रज्ञा जगी।
शिष्य को गुरु बना, ज्ञान देकर घना, देह को बस बदल जो गए हैं।।
हम उन्हीं के हो गए हैं…..।।
#GyansagarJiMaharaj-1891ShivSagarji
आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागरजी महाराज
आचार्य श्री १०८ शिव सागर जी महाराज १९०१ Aacharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj 1901
ShivSagarJiMaharaj1901VeersagarJi
Acharya Jnansagar or Acharya Gyansagar (1891–1973) was a Digambara Jain Acharya of 20th century who composed many Sanskrit epics. He initiated Acharya Vidyasagar in 1968 as a monk and 1972 as an Acharya.
He was born in 1891 as Bhooramal Chhabra . His father was named Chaturbhuj Chhabra and mother Ghritbhari Devi. He was second of five brothers (Chhaganlal being the eldest and Gangaprasad, Gaurilal and Devdatt being the younger brothers).
After completing primary studies in his village, he further studied Sanskrit and Jain philosophy in Banaras at the famous Syadvad Mahavidyalaya founded by Ganeshprasad Varni. He was initiated a kshullak (Junior monk) by Acharya Veersagar who belonged to the lineage of Acharya Shantisagar. He was then named kshullak Gyanbhusan. He remained a kshullak for 2 years and 2 more years as Ailak before becoming a Muni (Full monk).
He was initiated a monk by Acharya Shivsagar who also belonged to the lineage of Acharya Shantisagar, in Khaniya ji, Jaipur in 1959. He was further elevated to the Acharya status in 1968 at Naseerabad, Rajasthan.
He died on June 1, 1973 in Naseerabad.
As an expert in Sanskrit, he had been a great composer in Sanskrit. At least 30 researchers have studied his works and were honored doctoral degrees. At least 300 scholars have presented research papers on his work.
His works includes 4 Sanskrit epics and 3 more Jain texts and that too in the time when the Sanskrit composition was almost obsolete. These creations have always surprised the modern Sanskrit scholars.
An official Government of India stamp in his memory was issues by minister Sachin Pilot on September 10, 2013 at Kishangarh Rajasthan. He thus became the first Digambar Jain Acharya to have a stamp released in his memory.
He belongs to the tradition established by Acharya Shantisagar:
Acharya Shri 108 Gyansagar Ji Maharaj
आचार्य श्री १०८ शिव सागर जी महाराज १९०१ Aacharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj 1901
आचार्य श्री १०८ शिव सागर जी महाराज १९०१ Aacharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj 1901
#GyansagarJiMaharaj-1891ShivSagarji
ShivSagarJiMaharaj1901VeersagarJi
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GyansagarJiMaharaj-1891ShivSagarji
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