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समाधि सम्राट - स्वर्गीय परम पूज्यनीय बाल ब्रह्मचारी श्री 108 सुपार्श्वसागरजी (आचार्य श्री 108 चा च शान्तिसागरजी महाराज की परम्परा में) के शिष्य बाल ब्रह्मचारी तपोनिष्ठ चारित्र - चक्रवर्ती आचार्य श्री 108 सीमंधरसागरजी महाराज का जीवन चरित्र एक सिंहावलोकन है
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आचार्य श्री १०८ सीमंधर सागरजी महाराज
मुनि अवस्था में प्रथम चातुर्मास कन्नड़ (महाराष्ट्र) में किया । तदन्तर अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ, शिरड सापुर, अतिशय क्षेत्र नवागढ़ अनसिंग (महाराष्ट्र) चातुर्मास लौटकर शिरड सापुर चातुर्मास, संघ सहित श्री सम्मेद शिखरजी की यात्रा लौटकर यवतमाल, वर्धा, रामटेक अतिशय क्षेत्र, सुशिवनी, जबलपुर, कटनी, रीवा, मिर्जापुर, बनारस, ईसरी में चातुर्मास, वैजनाथजी, श्री मंदारगिरि, भागलपुर, नवादा, पावापुरी, गुणावा, पटना, आरा, कटनी (चातुर्मास) दमोह, कुंडलपुर, अतिशय क्षेत्र - पपोराजी, अहारजी, टीकमगढ़, सोनागिर, लश्कर (ग्वालियर) (चातुर्मास), शौरीपुर, अलीगढ़, मेरठ (चातुर्मास) - गिरनारजी के लिये प्रस्थान, दिल्ली होते हुए - जयपुर, अजमेर, सिद्धक्षेत्र तारंगाजी, मेहसाना, राजकोट, जूनागढ़, गिरनारजी, अहमदाबाद (चातुर्मास) सिद्धक्षेत्र शत्रुन्जय से श्रवण वेलगोल (गोमटस्वामी के अभिषेक के समय) पावागढ़, मांगी तुंगी, गजपंथा, औरंगाबाद, कचनेर, कुंथलगिरि, मैसूर, हुबली, इन्डी (चातुर्मास ), लातुर, हैदराबाद, (चातुर्मास), पूसद महाराष्ट्र (चातुर्मास), सम्मेद शिखरजी की संघ सहित यात्रा के लिये प्रस्थान-आरा, राजगिर, शिरडी, सम्मेद शिखरजी (चातुर्मास), रांची (चातुर्मास ), टिकेत नगर (चातुर्मास ), त्रिलोकपुर ( आचार्य पदवी से विभूषित) टिकेत नगर (पंच कल्याणक प्रतिष्ठा ), बहराइच (चातुर्मास ), महमूदाबाद ( चातुर्मास ), इटावा (चातुर्मास ), अलवर, मालपुरा नासरदा, उदयपुर, अतिशय क्षेत्र अडिन्दा पार्श्वनाथ, फुलेज, आष्टा, सूरत, खुड़ई, कन्नोज सभी में (चातुर्मास ) देश की राजधानी दिल्ली में दो बार चातुर्मास किये ।
आर्जवसागर मुनिराज को दिया आचार्यपद
आचार्य श्री सीमंधरसागरजी कहते हैं की 12 वर्ष की सल्लेखना सम्पूर्ण होने वाली है और मुझे अपनी चा.च. आ. शान्तिसागरजी की परम्परा के कोई प्रभावक, चारित्रवान, साधक साधु यहीं पर उपलब्ध होंगे, जिन्हें कि मैं अपनी परम्परा का उत्तरदायित्त्व सौंप सकूँगा। जिससे कि हमारे उत्तरदायित्त्व को ग्रहण करने वाले चा.च. आ. शान्तिसागरजी की जयकार ध्वनि हमेशा गुंजायमान करते रहें । वैसा ही योग बना कि कुछ वर्षों से इंदौर के लोग गुरुवर आर्जवसागरजी मुनिराज को आपका स्वास्थ आदि शुभ समाचार देते-लेते रहते थे । एक दिन इस भारत में भद्रबाहु जैसा संघ लेकर विचरण करने वाले चतुर्थ कालीन चर्या के साधक सन्त शिरोमणी आ. विद्यासागरजी महाराज के प्रियतम शिष्य सत्ताईस वर्षों से दीक्षित, बहु भाषाविद् साहित्य सृजक, धर्मप्रभावक मुनिवर आर्जवसागरजी मुनिराज को आपने अपने उत्तरदायित्त्व के योग्य जानकर स्मरण किया और उन्हें अपने पास बुलाया। तब गुरुवर आर्जवसागरजी महाराज की करुणा देखो कि मात्र करीब 10 दिन में सुबह, शाम विहार करते हुए अपने घुटने का दर्द, और पैरों के छालों को भी न देखते हुए मानो उड़ते पैर ही इतनी सुदूर करीब साढ़े तीन सौ किलोमीटर हरदा से सिद्धवरकूट होते हुए वैय्यावृत्ति और सेवा के निमित्त बड़े वात्सल्य पूर्वक इन्दौर के पास विराजमान आ. सीमंधरसागर जी के पास पहुँचे । आगम में कहते हैं कि अगर कोई मुनि संघ सम्मेद शिखरजी की यात्रा को भी जा रहे हों तो और उन्हें यह ज्ञात हो जाय कि कहीं पर मुनिराज की सल्लेखना चल रही है तो सम्मेद शिखर जैसी महत्त्वपूर्ण यात्रा को स्थगित कर सर्व प्रथम समाधि को देखें। क्योंकि अपने जीवन में भी इसे अवश्य धारण करना है। इससे महत्त्वपूर्ण और क्या कार्य हो सकता है? ऐसे उत्तम समय में क्षपक मुनिराज का दर्शन करना बहुत महत्त्वपूर्ण और दुर्लभ बात होती है ।
समाधि सम्राट - स्वर्गीय परम पूज्यनीय बाल ब्रह्मचारी श्री 108 सुपार्श्वसागरजी (आचार्य श्री 108 चा च शान्तिसागरजी महाराज की परम्परा में) के शिष्य बाल ब्रह्मचारी तपोनिष्ठ चारित्र - चक्रवर्ती आचार्य श्री 108 सीमंधरसागरजी महाराज का जीवन चरित्र एक सिंहावलोकन है
आ. सीमंधरसागरजी ने अपनी समाधि का अन्तिम काल निकट जानकर माघ शुक्ल षष्ठी वीर. नि. संवत् 2541 ता. 25.1.2015 को देश, कुल, जाति से शुद्ध मुनिवर आर्जवसागरजी को चतुर्विध संघ के बीच अपना आचार्य पद सौंप दिया। यह समाचार जानकर अपूर्व आनन्द हुआ। हम पहले से ही जानते थे कि जिन्होंने सन् 1984 से बुन्देलखण्ड की भूमि से वैराग्य धारणकर आचार्य विद्यासागरजी संघ को स्वीकारा और उन्हीं गुरु के चरणों में ब्रह्मचर्य व्रत लेकर सप्तम प्रतिमा, और क्षुल्लक, ऐलक तथा मुनि पद को धारण कर इस भारत के तेरह प्रदेशों में अपूर्व प्रभावना की । तथाहि ऐसे गुरुवर आर्जवसागरजी द्वारा 'तीर्थोदय काव्य' एक अनोखी कृति है जिस में तीर्थंकर बनाने वाली षोडसभावानाओं को सात सौ पद्यों में ज्ञानोदय छन्द और मुरज बंध के भी दोहों के साथ रचा गया है ऐसी कृति कई शताब्दियों से भी देखने को नहीं मिल सकती । इस काव्य कृति में सम्यग्दर्शन का सम्पूर्ण वर्णन और सम्पूर्ण श्रावकाचार और सम्पूर्ण मुनि आचार समाहित है। भव्य लोग मुक्तकण्ठ से इसे गाकर फूले नहीं समाते । वास्तव में गुरुवर की ऐसे ही 'जैनागम संस्कार' कृति इक्कीस अध्यायों में आठ सौ प्रश्नोत्तरों में है। इसका तमिल, कन्नड़, मराठी आदि अनेक भाषाओं में अनुवाद पूर्वक प्रकाशन हो चुका है। जिसे उत्तर से दक्षिण तक के लोग स्वाध्याय में अध्ययन कर अपना मोक्षमार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। 'पर्यूषण पीयूष' तो ऐसी कृति है जिसमें विस्तृत रूप में दश धर्मों पर व्याख्यान किया गया है। साधु, विद्वानों के लिए तो ये बहुत अमूल्य कृति है । इसी तरह वर्तमान परिपेक्ष में जैनदर्शन के अनुसार ध्यान कैसे करना इसके लिए 'सम्यक् ध्यान शतक' दोहा काव्य में रची गयी है। इसी प्रकार चाहे 'परमार्थसाधना' कृति हो या 'बचपन का संस्कार' और 'जैन धर्म में कर्म व्यवस्था' कृति ये सभी कृतियाँ पचासों शास्त्रों के संदर्भ पूर्वक सारे जैनागम के निचोड़ या सार रूप से रची गई हैं ऐसा समझना चाहिए। गुरुवर द्वारा अनेक भाषाओं में शताधिक कविताओं सह छन्दोबद्ध और छन्द मुक्त कविताओं वाली कृति 'आर्जव कविताएँ' तो लोक प्रसिद्ध है। इन सबको देखा जाय तो ऐसा प्रतीत होते हैं इन कृतियों की रचना से गुरुवर आर्जवसागरजी महाराज को पी. एच. डी. ही नहीं डी.लिट्. की उपाधि देने के समान है, लेकिन साधु चर्या केसामने ये उपाधियाँ सब नगण्य मानी जाती हैं ।
ऐसा तीर्थोदय काव्य सुनाकर हजारों लोगों को सोलहकारण कराने वाले, विभिन्न राज्यों में धार्मिक पाठशालाओं की स्थापना कराने वाले, गोम्मटेश बाहुबली, पोन्नूरमलै, सम्मेदशिखरजी, गिरनार, हस्तिानापुर महावीरजी आदि क्षेत्रों हेतु करीब 15000 कि.मी. विहार करने वाले, अमूल्य कृतियों की रचना और अपनी ओजस्वी वाणी से हजारों सम्यकदृष्टि बनाने वाले, एक वर्ष तक मौन धारण करने वाले, आडम्बर रहित, कम से कम वस्तु रखने वाले, वृत्ति परिसंख्यान रूप एक चौके में जाने के बाद लौटने पर अलाभ मानने वाले, रसादि में नमक, शक्कर, खोवा, पकवान, विभिन्न मेवों का त्याग करने वाले, हजारों किलोमीटर अनियत विहार करने वाले, विद्वत् संगोष्ठी, डाक्टर्स सम्मेलन, अहिंसा सम्मेलन, कवि सम्मेलन, धार्मिक पाठशाला सम्मेलन कराने वाले, दशलक्षण पर्व और ग्रीष्मकाल आदि में अनेक शिविर कराने वाले, हिन्दी, तमिल, कन्नड़, मराठी आदि में अनेक काव्य रचना करने वाले, सूर्य प्रकाश में विहार करने वाले, कुएँ के पानी से बने चौके में आहार लेने वाले, कोई धन, वाहन, लौकिक साधन नहीं रखने वाले और जिनके पास हमने उनसे ही दीक्षित सदलगा तक साथ आये मुनिश्री सुभद्रसागरजी को दक्षिण में देखा है । क्षुल्लक तथा ऐलक बने श्री अर्पणसागरजी को देखा है । क्षुल्लक बने श्री हर्षितसागरजी को भी देखा है। इन तीनों को दीक्षित कर अनेक प्रतिमाधारी बनाकर उन ब्रह्मचारी भैय्या, बहिनों को प्रतिमा आदिक के व्रत देकर मोक्षमार्ग बतलाने वाले और जिनके पास से ब्रह्मचर्य व प्रतिमा के व्रत लेकर आगे बढ़े और आचार्य श्री विद्यासागरजी से दीक्षित हुए हैं वे मुनि पायसागरजी व मुनि नमिसागरजी तथा आर्यिका उपशममति और आर्यिका संगतमति बनी। ऐसे धर्म प्रभावक और आत्म साधक; पद की आशा से विरहित, निस्पृह वृत्ति से चर्या करने वाले, की गरिमा बढ़ाने वाले, गुरुवर 108 आर्जवसागरजी महाराज इस पद के लायक तो पूर्व में ही ज्ञात होते थे। लेकिन किन्हीं लोगों के द्वारा धोखे से भी आचार्य पुकारे जाने पर डाँट लगा दिया करते थे; कि हमारे तो एक ही आचार्य हैं वे हैं आचार्य विद्यासागरजी ऐसा कह दिया करते थे। लेकिन परिस्थिति वश उन्हें किसी आचार्य की आत्मिक शान्ति हेतु उनकी सल्लेखना में उनको निर्भर करने हेतु यह पद स्वीकार करना पड़ा।
आचार्य सीमान्धर सागरजी महाराज को तपस्वी जीवन-यापन करते हुए 42 वर्षों से अधिक का समय हो रहा है। आगामी 26 मई 1995 को वे अपने इस जीवन के 70वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। हम लोगों की कामना है कि रागद्वेष के अधीन न होकर स्वात्मोत्थ परमानन्द की ओर सतत् प्रयत्नशील रहें एवं हम लोगों को धर्म का सदुपदेश देते रहें । उन्हें शत्-शत् नमन ।
इस प्रकार आचार्य सीमंधरसागरजी के 23 मई 1995 में मई ग्रीष्मकालीन प्रवास पर ग्वालियर वालों ने यह परिचय प्रस्तुत किया था, तथा महावीर ट्रस्ट इन्दौर से सन् 2008 में प्रकाशित 'अखिल भारतीय दिगम्बर जैन मन्दिर निर्देशिका' पुस्तक के पेज क्र. 48 में दिये गये चा. च. आ. शान्तिसागरजी की परम्परा के चार्ट में दर्शाया है कि आ. शान्तिसागरजी के बाद क्रमशः आ. वीरसागरजी को, आ. वीरसागरजी से आ. शिवसागरजी को और आ. शिवसागरजी को आचार्य पद मिलने के बाद एक साथ इनकी परम्परा की चार धारायें उत्पन्न हुयीं। जिसमें एक धारा आ. धर्मसागरजी से आ. अजितसागरजी वाली, और एक धारा आ. ज्ञानसागरजी से आ. विद्यासागरजी वाली, और एक धारा मुनिश्री सम्मानसागरजी से मुनिश्री दयासागरजी वाली और एक धारा आ. सुपार्श्वसागरजी से आ. सीमंधरसागरजी वाली दर्शायी गई है। इस धारा के अनुसार आ. सीमंधरसागरजी आ. शान्तिसागरजी के चतुर्थ आचार्य सिद्ध होते हैं। ये आचार्य विद्यासागरजी के समकक्ष रहे। लेकिन अन्तर इतना ही है आचार्य विद्यासागरजी का आचार्यपद 1972 में हुआ और आ. सीमंधरसागरजी को आचार्य पद 1974 में हुआ । इसलिए आचार्य विद्यासागरजी गुरु भाई के नाते वयोवृद्ध आ. सीमंधरसागरजी की स्वास्थ आदि की जानकारी लेकर वात्सल्य प्रकट किया करते थे।
तदुपरान्त कुछ देखी, सुनी खबरों से ज्ञात हुआ कि आ. सीमंधरसागरजी ने मध्यप्रेदश के आष्टा, बानापुरा, बनेड़िया में भी वर्षायोग किये। इसी तरह 17 दिसम्बर 2000 से इन्दौर के उपनगर छावनी में 2001, 2002 का वर्षायोग, छत्रपति नगर में 2003 का, फिर छावनी में 2004 का, जँवरीबाग की नसिया में 2005 का, तिलक नगर में 2006, 2007, 2008 का, इसके बाद एम. एस. जे. फार्म हाऊस, आदि तथा अन्तिम वर्षायोग बड़नगर में सम्पन्न किया। आपने इस प्रकार करीब 15 वर्षों से अपनी सल्लेखना की साधना हेतु मध्यप्रदेश की भूमि को और यहाँ के श्रावक और व्रतियों की भावनाओं को अपने सुयोग्य उत्कृष्ट समझते हुए उपयुक्त माना था।
आर्जवसागर मुनिराज को दिया आचार्यपद
आचार्य श्री सीमंधरसागरजी कहते हैं की 12 वर्ष की सल्लेखना सम्पूर्ण होने वाली है और मुझे अपनी चा.च. आ. शान्तिसागरजी की परम्परा के कोई प्रभावक, चारित्रवान, साधक साधु यहीं पर उपलब्ध होंगे, जिन्हें कि मैं अपनी परम्परा का उत्तरदायित्त्व सौंप सकूँगा। जिससे कि हमारे उत्तरदायित्त्व को ग्रहण करने वाले चा.च. आ. शान्तिसागरजी की जयकार ध्वनि हमेशा गुंजायमान करते रहें । वैसा ही योग बना कि कुछ वर्षों से इंदौर के लोग गुरुवर आर्जवसागरजी मुनिराज को आपका स्वास्थ आदि शुभ समाचार देते-लेते रहते थे । एक दिन इस भारत में भद्रबाहु जैसा संघ लेकर विचरण करने वाले चतुर्थ कालीन चर्या के साधक सन्त शिरोमणी आ. विद्यासागरजी महाराज के प्रियतम शिष्य सत्ताईस वर्षों से दीक्षित, बहु भाषाविद् साहित्य सृजक, धर्मप्रभावक मुनिवर आर्जवसागरजी मुनिराज को आपने अपने उत्तरदायित्त्व के योग्य जानकर स्मरण किया और उन्हें अपने पास बुलाया। तब गुरुवर आर्जवसागरजी महाराज की करुणा देखो कि मात्र करीब 10 दिन में सुबह, शाम विहार करते हुए अपने घुटने का दर्द, और पैरों के छालों को भी न देखते हुए मानो उड़ते पैर ही इतनी सुदूर करीब साढ़े तीन सौ किलोमीटर हरदा से सिद्धवरकूट होते हुए वैय्यावृत्ति और सेवा के निमित्त बड़े वात्सल्य पूर्वक इन्दौर के पास विराजमान आ. सीमंधरसागर जी के पास पहुँचे । आगम में कहते हैं कि अगर कोई मुनि संघ सम्मेद शिखरजी की यात्रा को भी जा रहे हों तो और उन्हें यह ज्ञात हो जाय कि कहीं पर मुनिराज की सल्लेखना चल रही है तो सम्मेद शिखर जैसी महत्त्वपूर्ण यात्रा को स्थगित कर सर्व प्रथम समाधि को देखें। क्योंकि अपने जीवन में भी इसे अवश्य धारण करना है। इससे महत्त्वपूर्ण और क्या कार्य हो सकता है? ऐसे उत्तम समय में क्षपक मुनिराज का दर्शन करना बहुत महत्त्वपूर्ण और दुर्लभ बात होती है ।
Acharya Shri 108 Seemandhar Sagarji Maharaj
मुनि अवस्था में प्रथम चातुर्मास कन्नड़ (महाराष्ट्र) में किया । तदन्तर अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ, शिरड सापुर, अतिशय क्षेत्र नवागढ़ अनसिंग (महाराष्ट्र) चातुर्मास लौटकर शिरड सापुर चातुर्मास, संघ सहित श्री सम्मेद शिखरजी की यात्रा लौटकर यवतमाल, वर्धा, रामटेक अतिशय क्षेत्र, सुशिवनी, जबलपुर, कटनी, रीवा, मिर्जापुर, बनारस, ईसरी में चातुर्मास, वैजनाथजी, श्री मंदारगिरि, भागलपुर, नवादा, पावापुरी, गुणावा, पटना, आरा, कटनी (चातुर्मास) दमोह, कुंडलपुर, अतिशय क्षेत्र - पपोराजी, अहारजी, टीकमगढ़, सोनागिर, लश्कर (ग्वालियर) (चातुर्मास), शौरीपुर, अलीगढ़, मेरठ (चातुर्मास) - गिरनारजी के लिये प्रस्थान, दिल्ली होते हुए - जयपुर, अजमेर, सिद्धक्षेत्र तारंगाजी, मेहसाना, राजकोट, जूनागढ़, गिरनारजी, अहमदाबाद (चातुर्मास) सिद्धक्षेत्र शत्रुन्जय से श्रवण वेलगोल (गोमटस्वामी के अभिषेक के समय) पावागढ़, मांगी तुंगी, गजपंथा, औरंगाबाद, कचनेर, कुंथलगिरि, मैसूर, हुबली, इन्डी (चातुर्मास ), लातुर, हैदराबाद, (चातुर्मास), पूसद महाराष्ट्र (चातुर्मास), सम्मेद शिखरजी की संघ सहित यात्रा के लिये प्रस्थान-आरा, राजगिर, शिरडी, सम्मेद शिखरजी (चातुर्मास), रांची (चातुर्मास ), टिकेत नगर (चातुर्मास ), त्रिलोकपुर ( आचार्य पदवी से विभूषित) टिकेत नगर (पंच कल्याणक प्रतिष्ठा ), बहराइच (चातुर्मास ), महमूदाबाद ( चातुर्मास ), इटावा (चातुर्मास ), अलवर, मालपुरा नासरदा, उदयपुर, अतिशय क्षेत्र अडिन्दा पार्श्वनाथ, फुलेज, आष्टा, सूरत, खुड़ई, कन्नोज सभी में (चातुर्मास ) देश की राजधानी दिल्ली में दो बार चातुर्मास किये ।
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