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#chirantacharyamaharaj

श्रुतधराचार्यों की परंपरामें आचार्य चिरन्तनाचार्यका नाम भी आता है। चिरन्तनाचार्यका उल्लख जयघवलाटीकामें प्राप्त होता है। इसमें बताया है-
"भेदामावादोचिरंतणाइरियवक्वाणं पि एत्य अप्पणो पढमपुढविक्क्खाणसमाणं।"
अर्थात चिरंतनाचार्यका व्याख्यान प्रथम पृथ्वीके समान है। चिरन्तनाचार्यका एक अन्य उल्लेख और प्राप्त होता है, जिसमें उन्हें चिरन्तन व्याख्या नाचार्य कहा गया है-
"संपहि चिरंतणवक्खाणाइरियाणमप्पाबहुअ वतइस्सामो।"
इनका समय वप्पदेवाचार्यसे कुछ पूर्व होना चाहिये। 'कसायपाहुड' पर चूर्णिसूत्रोंके पश्चात् उच्चारणवृत्ति-पद्धतिके आधार पर तुम्बलूराचार्यने षट् खण्डागमके प्रारंभिक पाँच खण्डों पर तथा 'कषायपाहुड' पर ८४००० श्लोक प्रमाण चूडामणि नामकी टीका रची। शामकुण्डाचार्यने पद्धति नामक टीका १२८०० श्लोक प्रमाण लिखी। बताया है-
"चतुरधिकाशीतिसहस्रग्रन्थरचनाया युक्ताम्।
कर्णाटभाषयाकृत महती चुडामणि व्याख्याम्।।'
"प्राकृतसंस्कृतकर्णाटभाष्या पद्धतिः परा रचिता।।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतधराचार्यसे युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
श्रुतधराचार्यों की परंपरामें आचार्य चिरन्तनाचार्यका नाम भी आता है। चिरन्तनाचार्यका उल्लख जयघवलाटीकामें प्राप्त होता है। इसमें बताया है-
"भेदामावादोचिरंतणाइरियवक्वाणं पि एत्य अप्पणो पढमपुढविक्क्खाणसमाणं।"
अर्थात चिरंतनाचार्यका व्याख्यान प्रथम पृथ्वीके समान है। चिरन्तनाचार्यका एक अन्य उल्लेख और प्राप्त होता है, जिसमें उन्हें चिरन्तन व्याख्या नाचार्य कहा गया है-
"संपहि चिरंतणवक्खाणाइरियाणमप्पाबहुअ वतइस्सामो।"
इनका समय वप्पदेवाचार्यसे कुछ पूर्व होना चाहिये। 'कसायपाहुड' पर चूर्णिसूत्रोंके पश्चात् उच्चारणवृत्ति-पद्धतिके आधार पर तुम्बलूराचार्यने षट् खण्डागमके प्रारंभिक पाँच खण्डों पर तथा 'कषायपाहुड' पर ८४००० श्लोक प्रमाण चूडामणि नामकी टीका रची। शामकुण्डाचार्यने पद्धति नामक टीका १२८०० श्लोक प्रमाण लिखी। बताया है-
"चतुरधिकाशीतिसहस्रग्रन्थरचनाया युक्ताम्।
कर्णाटभाषयाकृत महती चुडामणि व्याख्याम्।।'
"प्राकृतसंस्कृतकर्णाटभाष्या पद्धतिः परा रचिता।।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतधराचार्यसे युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा।
आचार्य श्री १०८ चिरंताचार्य महाराजजी (प्राचीन)
| Name | Phone/Mobile 1 | Which Sangh/Maharaji/Aryika Ji you are associated with |
|---|---|---|
| Sangh Common Number | +919844033717 | #VardhamanSagarJiMaharaj1950DharmSagarJi |
| Hemal Jain | +918690943133 | #SunilSagarJi1977SanmatiSagarJi |
| Abhi Bantu | +919575455473 | #SunilSagarJi1977SanmatiSagarJi |
| Purnima Didi | +918552998307 | #SunilSagarJi1977SanmatiSagarJi |
| Varna Manish Bhai | +919352199164 | #KanaknandiJiMaharajKunthusagarji |
| Ankit Test | +919730016352 | #AcharyaShriVidyasagarjiMaharaj |
| Santosh Khule | +919850774639 | #PavitrasagarJiMaharaj1949SanmatiSagarJi1927 |
| Madhok Shaha | +919928058345 | #KanaknandiJiMaharajKunthusagarji |
| Siddharth jain Baddu | +917987281995 | #AcharyaShriVidyasagarjiMaharaj, #VishalSagarJiMaharaj1977VidyaSagarJi |
| Akshay Adadande | +919765069127 | #AcharyaShriVidyasagarjiMaharaj, #NiyamSagarJiMaharaj1957VidyaSagarJi |
| Mayur Jain | +918484845108 | #SundarSagarJiMaharaj1976SanmatiSagarJi, #VibhavSagarJiMaharaj1976ViragSagarJi, #PrabhavsagarjiPavitrasagarJiMaharaj1949, #MayanksagarjiRayansagarJiMaharaj1955 |
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara.
श्रुतधराचार्यों की परंपरामें आचार्य चिरन्तनाचार्यका नाम भी आता है। चिरन्तनाचार्यका उल्लख जयघवलाटीकामें प्राप्त होता है। इसमें बताया है-
"भेदामावादोचिरंतणाइरियवक्वाणं पि एत्य अप्पणो पढमपुढविक्क्खाणसमाणं।"
अर्थात चिरंतनाचार्यका व्याख्यान प्रथम पृथ्वीके समान है। चिरन्तनाचार्यका एक अन्य उल्लेख और प्राप्त होता है, जिसमें उन्हें चिरन्तन व्याख्या नाचार्य कहा गया है-
"संपहि चिरंतणवक्खाणाइरियाणमप्पाबहुअ वतइस्सामो।"
इनका समय वप्पदेवाचार्यसे कुछ पूर्व होना चाहिये। 'कसायपाहुड' पर चूर्णिसूत्रोंके पश्चात् उच्चारणवृत्ति-पद्धतिके आधार पर तुम्बलूराचार्यने षट् खण्डागमके प्रारंभिक पाँच खण्डों पर तथा 'कषायपाहुड' पर ८४००० श्लोक प्रमाण चूडामणि नामकी टीका रची। शामकुण्डाचार्यने पद्धति नामक टीका १२८०० श्लोक प्रमाण लिखी। बताया है-
"चतुरधिकाशीतिसहस्रग्रन्थरचनाया युक्ताम्।
कर्णाटभाषयाकृत महती चुडामणि व्याख्याम्।।'
"प्राकृतसंस्कृतकर्णाटभाष्या पद्धतिः परा रचिता।।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतधराचार्यसे युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara.
Acharya Shri Chirantacharya
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Acharya Shri Chirantacharya Maharajji (Prachin)
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