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#wajrayashmaharaj
श्रुतघराचार्यों की परंपरामें आचार्य वज्रयश का नाम आता है। 'तिलोयप्रण्णत्ती’ में आचार्य वज्रयशका उल्लेख है और उन्हें अन्तिम प्रज्ञा श्रमण बताया गया है। लिखा है-
पण्णसमणेसु चरिमो वइरजसो णाम ओहिणाणीसु।
चरिमो सिरिणामो सुदविणयसुसीलादिसंपण्णो।
यहाँ प्रज्ञाश्रमणोंमें अन्तिम प्रज्ञाश्रमण वज्रयश या 'वइरजस'का स्पष्ट निर्देश है। यदि ये ‘वइरजस' श्वेताम्बर पट्टावलियोंमें उल्लिखित वज्रयश ही हों, तो कोई आश्चर्य नहीं। तत्वार्थवात्तिकमें पदानुसारित्व और प्रज्ञामश्रणत्व इन दो ऋद्धियोंको एक ही बुद्धि-ऋद्धिके उपभेद कहा है। षट्खण्डागमके वेदना खण्डमें निबद्ध गौतम स्वामीकृत मंगलाचरणमें इन दोनों ऋद्धियोंके धारक आचार्योको नमस्कार किया है-
१. णमो पदाणुसारीणं
पदानुसारी ऋद्धिके धारकोंको नमस्कार हो। पदानुसारी बुद्धिके तीन भेद हैं- १. पदानुसारो बुद्धि, २ प्रतिसारी बुद्धि और ३. तदुभयसारी बुद्धि। जो बुद्धि बीजपदके अधस्तन पदोंको बीजपदस्थित हेतुरूपसे जानती है वह पदानुसारी बुद्धि है। जो उसके विपरीत उससे उपरिम पदोंको ही जानती है वह प्रतिसारी बुद्धि कहलाती है। जो उक्त बीजपदके पाश्र्वभागोंमें स्थित पदोंको नियमसे अथवा बिना नियम भी जानती है उसे तदुभयसारा बुद्धि कहते हैं।
२. णमो पच्नसमणाणं
प्रज्ञाश्रमणोंको नमस्कार हो। प्रज्ञा चार प्रकारको होती है- १. औत्पत्तिकी, २. वैनयिको, ३. कर्मजा और ४. पारिणामिकी। जो पूर्वजन्मसम्बन्धी चार प्रकारकी निर्मलबुद्धिके बलसे विनयपूर्वक बारह अंगों का अवधारण, पठन, श्रवण आदि करते हैं वे औत्गात्तिका प्रज्ञाश्रमण कहलाते हैं। छ: मासके उपवाससे कृश होते हुए भी अपनी बुद्धिके प्रभावसे चौदहपूर्वोके विषयका भी उत्तर देते हैं तथा विनयपूर्वक बारह अंगोंको पढ़ते हैं उन्हें वेनयिकोप्रज्ञाश्रमण कहते हैं। परोपदेशसे उत्पन्न बुद्धि भी वेनयिकी प्रज्ञा कहलाती हैं। गुरू उपदेशके बिना तपश्चरणके प्रभावसे जो बुद्धि उत्पन्न होती है उसका नाम कर्मजा प्रज्ञा है। जातिधिशेषसे उत्पन्न हुई बुद्धि पारिणामिको कहलाती है।
इस प्रकार तिलोयपण्णत्तीके अनुसार वज्रयश एक बड़े आचार्य हुए हैं, जो प्रज्ञाश्रमण ऋद्धिके धारक थे और जिनका बड़ी श्रद्धासे नामोल्लेख किया जाता था।
आचार्य 'वज्रयश' या 'वइरजस' उनका उल्लेख करनेवाले आचार्य यति वृषभके पूर्ववर्ती हैं।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
श्रुतघराचार्यों की परंपरामें आचार्य वज्रयश का नाम आता है। 'तिलोयप्रण्णत्ती’ में आचार्य वज्रयशका उल्लेख है और उन्हें अन्तिम प्रज्ञा श्रमण बताया गया है। लिखा है-
पण्णसमणेसु चरिमो वइरजसो णाम ओहिणाणीसु।
चरिमो सिरिणामो सुदविणयसुसीलादिसंपण्णो।
यहाँ प्रज्ञाश्रमणोंमें अन्तिम प्रज्ञाश्रमण वज्रयश या 'वइरजस'का स्पष्ट निर्देश है। यदि ये ‘वइरजस' श्वेताम्बर पट्टावलियोंमें उल्लिखित वज्रयश ही हों, तो कोई आश्चर्य नहीं। तत्वार्थवात्तिकमें पदानुसारित्व और प्रज्ञामश्रणत्व इन दो ऋद्धियोंको एक ही बुद्धि-ऋद्धिके उपभेद कहा है। षट्खण्डागमके वेदना खण्डमें निबद्ध गौतम स्वामीकृत मंगलाचरणमें इन दोनों ऋद्धियोंके धारक आचार्योको नमस्कार किया है-
१. णमो पदाणुसारीणं
पदानुसारी ऋद्धिके धारकोंको नमस्कार हो। पदानुसारी बुद्धिके तीन भेद हैं- १. पदानुसारो बुद्धि, २ प्रतिसारी बुद्धि और ३. तदुभयसारी बुद्धि। जो बुद्धि बीजपदके अधस्तन पदोंको बीजपदस्थित हेतुरूपसे जानती है वह पदानुसारी बुद्धि है। जो उसके विपरीत उससे उपरिम पदोंको ही जानती है वह प्रतिसारी बुद्धि कहलाती है। जो उक्त बीजपदके पाश्र्वभागोंमें स्थित पदोंको नियमसे अथवा बिना नियम भी जानती है उसे तदुभयसारा बुद्धि कहते हैं।
२. णमो पच्नसमणाणं
प्रज्ञाश्रमणोंको नमस्कार हो। प्रज्ञा चार प्रकारको होती है- १. औत्पत्तिकी, २. वैनयिको, ३. कर्मजा और ४. पारिणामिकी। जो पूर्वजन्मसम्बन्धी चार प्रकारकी निर्मलबुद्धिके बलसे विनयपूर्वक बारह अंगों का अवधारण, पठन, श्रवण आदि करते हैं वे औत्गात्तिका प्रज्ञाश्रमण कहलाते हैं। छ: मासके उपवाससे कृश होते हुए भी अपनी बुद्धिके प्रभावसे चौदहपूर्वोके विषयका भी उत्तर देते हैं तथा विनयपूर्वक बारह अंगोंको पढ़ते हैं उन्हें वेनयिकोप्रज्ञाश्रमण कहते हैं। परोपदेशसे उत्पन्न बुद्धि भी वेनयिकी प्रज्ञा कहलाती हैं। गुरू उपदेशके बिना तपश्चरणके प्रभावसे जो बुद्धि उत्पन्न होती है उसका नाम कर्मजा प्रज्ञा है। जातिधिशेषसे उत्पन्न हुई बुद्धि पारिणामिको कहलाती है।
इस प्रकार तिलोयपण्णत्तीके अनुसार वज्रयश एक बड़े आचार्य हुए हैं, जो प्रज्ञाश्रमण ऋद्धिके धारक थे और जिनका बड़ी श्रद्धासे नामोल्लेख किया जाता था।
आचार्य 'वज्रयश' या 'वइरजस' उनका उल्लेख करनेवाले आचार्य यति वृषभके पूर्ववर्ती हैं।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा।
आचार्य श्री १०८ वज्रयश महाराजजी (प्राचीन)
श्रुतघराचार्यों की परंपरामें आचार्य वज्रयश का नाम आता है। 'तिलोयप्रण्णत्ती’ में आचार्य वज्रयशका उल्लेख है और उन्हें अन्तिम प्रज्ञा श्रमण बताया गया है। लिखा है-
पण्णसमणेसु चरिमो वइरजसो णाम ओहिणाणीसु।
चरिमो सिरिणामो सुदविणयसुसीलादिसंपण्णो।
यहाँ प्रज्ञाश्रमणोंमें अन्तिम प्रज्ञाश्रमण वज्रयश या 'वइरजस'का स्पष्ट निर्देश है। यदि ये ‘वइरजस' श्वेताम्बर पट्टावलियोंमें उल्लिखित वज्रयश ही हों, तो कोई आश्चर्य नहीं। तत्वार्थवात्तिकमें पदानुसारित्व और प्रज्ञामश्रणत्व इन दो ऋद्धियोंको एक ही बुद्धि-ऋद्धिके उपभेद कहा है। षट्खण्डागमके वेदना खण्डमें निबद्ध गौतम स्वामीकृत मंगलाचरणमें इन दोनों ऋद्धियोंके धारक आचार्योको नमस्कार किया है-
१. णमो पदाणुसारीणं
पदानुसारी ऋद्धिके धारकोंको नमस्कार हो। पदानुसारी बुद्धिके तीन भेद हैं- १. पदानुसारो बुद्धि, २ प्रतिसारी बुद्धि और ३. तदुभयसारी बुद्धि। जो बुद्धि बीजपदके अधस्तन पदोंको बीजपदस्थित हेतुरूपसे जानती है वह पदानुसारी बुद्धि है। जो उसके विपरीत उससे उपरिम पदोंको ही जानती है वह प्रतिसारी बुद्धि कहलाती है। जो उक्त बीजपदके पाश्र्वभागोंमें स्थित पदोंको नियमसे अथवा बिना नियम भी जानती है उसे तदुभयसारा बुद्धि कहते हैं।
२. णमो पच्नसमणाणं
प्रज्ञाश्रमणोंको नमस्कार हो। प्रज्ञा चार प्रकारको होती है- १. औत्पत्तिकी, २. वैनयिको, ३. कर्मजा और ४. पारिणामिकी। जो पूर्वजन्मसम्बन्धी चार प्रकारकी निर्मलबुद्धिके बलसे विनयपूर्वक बारह अंगों का अवधारण, पठन, श्रवण आदि करते हैं वे औत्गात्तिका प्रज्ञाश्रमण कहलाते हैं। छ: मासके उपवाससे कृश होते हुए भी अपनी बुद्धिके प्रभावसे चौदहपूर्वोके विषयका भी उत्तर देते हैं तथा विनयपूर्वक बारह अंगोंको पढ़ते हैं उन्हें वेनयिकोप्रज्ञाश्रमण कहते हैं। परोपदेशसे उत्पन्न बुद्धि भी वेनयिकी प्रज्ञा कहलाती हैं। गुरू उपदेशके बिना तपश्चरणके प्रभावसे जो बुद्धि उत्पन्न होती है उसका नाम कर्मजा प्रज्ञा है। जातिधिशेषसे उत्पन्न हुई बुद्धि पारिणामिको कहलाती है।
इस प्रकार तिलोयपण्णत्तीके अनुसार वज्रयश एक बड़े आचार्य हुए हैं, जो प्रज्ञाश्रमण ऋद्धिके धारक थे और जिनका बड़ी श्रद्धासे नामोल्लेख किया जाता था।
आचार्य 'वज्रयश' या 'वइरजस' उनका उल्लेख करनेवाले आचार्य यति वृषभके पूर्ववर्ती हैं।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara.
Acharya Shri Wajrayash Maharajji (Prachin)
Acharya Shri Wajrayash
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