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श्रुतघराचार्यों की परंपरामें आचार्य वट्टकेर का भी नाम आता है। आचार्य वट्टकेर कुन्दकुन्दाचार्यसे भिन्न हैं या अभिन्न, इस सम्बन्धमें मतभेद है। श्री जुगलकिशोर मुख्तारने इन्हें कुन्दकुन्दसे अभिन्न माना है। डॉ. ज्योतिप्रसाद भी इसी मतके समर्थक हैं।
डॉ. हीरालाल जैनने वट्टकेरको कुन्दकुन्दसे भिन्न स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा है- "वट्टकरस्वामीकृत. मूलाचार दिगम्बर सम्प्रदायमें मुनिधर्मके लिए सर्वोपरि प्रमाण माना जासा है। कहीं-कहीं यह ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्यकृत भी कहा गया है। यद्यपि यह बात सिद्ध नहीं होता, तथापि उससे इस ग्रंथके प्रति समाजका महान् आदरभाव प्रकट होता है।"
डॉ. जैनके उक्त उद्धरणसे दो निष्कर्ष उपस्थित होते हैं।
१. श्रद्धा, भक्ति और मान्यताके अतिरेकके कारण मूलाचारके कर्ता कुन्दकुन्द मान लिये गये हैं। कुन्दकुन्द दिगम्बर परम्पराके युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य हैं, अतएव वट्टकेरके नामपर उत्तरवर्ती साक्षियोंमें मूलाचार का नाम निर्देश कर लिया गया।
२. मूलाधार दिगम्बर परम्पराका आचारांग ग्रन्थ है। इसी कारण इस ग्रन्थका सम्बन्ध कुन्दकुन्दसे जोड़ा गया है। वट्टकेर आचार्यकी अन्य कृतियाँ उपलब्ध नहीं होती। अतएव इतने महान् ग्रन्थका रचयिता इनको स्वीकार करने में उत्तरवर्ती लिपिकारोंको आशंका हुई।
आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमालामें प्रकाशित सटीक मूलाचार प्रतिकी पुष्पिकाके आधारपर इस ग्रन्थको कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीत बतलाया है। पुष्पिका निम्न प्रकार है-
"इति मूलाचारविवृत्तौ द्वादशो अध्यायः। कुन्दकुन्दाचार्यप्रणोतमूलाचाराच्यविवृति:। क्रतिरियं वसुनन्दिनः श्रीश्रमणस्य"।
इस पुष्पिकाके आधारसे श्रीजुगलकिशोर मुख्तार वट्टकेरको कुन्दकुन्दसे अभिन्न मानते हैं।
डॉ. ए. एन. उपाध्येने अपनी प्रवचनसारकी महत्त्वपूर्ण प्रस्तावनामें मुलाचारको दक्षिण भारतकी पाण्डुलिपियोंके आधारपर कुन्दकुन्दकृत लिखा है। पर एक निवन्धमें मूलाचारको संग्रह-ग्रन्थ सिद्ध किया है, और इसके संग्रहकर्ता सम्भवतः वट्टकेर थे, यह अनुमान लगाया है।
आचार्य वसुनन्दिने मूलाचारकी संस्कृत-टीका लिखी है और इस टीकाकी प्रशस्तिमें इस ग्रन्थके कर्ताको वट्टकेर, वट्टकेर्याचार्य, तथा वट्टेरकाचार्यके रूपमें उल्लिखित किया है। इन नामोंमें पहला नाम टीकाके प्रारम्भिक प्रस्तावना वाक्यमें, दूसरा नवम, दशम और एकादश अधिकारोंके सन्धिवाक्योंमें और तृतीय नाम सप्तम अधिकारके सन्धिवाक्यमें पाया जाता है।
यह सत्य है कि वट्टकेर नामका समर्थन न तो किसी गुर्वावलिसे होता है, न पट्टावलिसे, न अभिलेखोसे और न ग्रन्थ-प्रशस्तियोंसे ही। इसी कारण श्री पं. नाथूरामजी प्रेमीने अपने एक निबन्धमें इस समस्याका समाधान प्रस्तुत करनेका प्रयास किया है। उन्होंने बताया है कि दक्षिण भारतमें वेट्टगेरि या वेट्टकेरी नामके ग्रामका अस्तित्व पाया जाता है। अतः इस ग्रामके निवासी होने के कारण मूलाचारके कर्ताको वट्टकेर या वेट्टकेरी कहा गया होगा। जिस प्रकार कोण्डकुन्दपुरके रहनेवाले होनेसे कुन्दकुन्द नाम प्रसिद्ध हुआ, उसी प्रकार वेट्टकेरिके रहनेवाले होनेसे मूलाचारके कर्ता वट्टकेर कहलाये। अतः मूलाचार कुन्दकुन्दकी रचना नहीं है और न वट्टकेर ही कुन्दकुन्दसे अभिन्न हैं।
श्रीजुगलकिशोर मुख्तारने अपना अभिमत प्रकट करते हुए लिखा है कि "वट्टकका अर्थ वर्तक- प्रवर्तक है, इर गिरा, वाणी, सरस्वतीको कहते है, जिसकी वाणी प्रवर्तिका हो- जनतामें सन्मार्ग सथा सदाचारमें लगानेवाली हो- उसे वट्टकेर समझना चाहिये। दूसरे, वट्टको- प्रवर्तकोंमें जो 'इरि' गिरि, प्रधान, प्रतिष्ठित हो, अथवा ईरि- समर्थ- शक्तिशाली हो, उसे वट्टकेरि जानना चाहिए। तीसरे वट्ट नाम वर्तन- आचरणका है और 'ईरक' प्रेरक तथा प्रवर्तकको कहते हैं, सदाचारमें जो प्रवृत्ति करानेवाला हो उसका नाम वट्टकेर है"। इस प्रकार मुख्तार साहबने वट्टकेरका अर्थ प्रवर्तक, प्रधानपदपर प्रतिष्ठित अथवा श्रेष्ठ आचारनिष्ठ किया है, और इसे कुन्दकुन्दाचार्यका विशेषण बतलाया है। अतएव इनके मतसे कुन्दकुन्द ही वट्टकेर हैं।
उपर्युक्त मत-भिन्नसाओंके आलोकमें मूलाचारका अध्ययन करनेसे ज्ञात होता है कि वट्टकेर एक स्वतन्त्रवाचार्य हैं और ये कुन्दकुन्दाचार्यसे भिन्न हैं। ग्यारहवीं शताब्दीके विद्वान् वसुनन्दिने वट्टकेरका उल्लेख स्पष्ट रूपसे किया है। अतः इस ग्रंथके रचयिता आचार्य वट्टकर हैं और वे आचार्य कुन्दकुन्दसे भित्र सम्भव हैं।
वट्टकेरके सम्बन्धमें अभी तक पट्टावलि, गुर्वावलि, अभिलेख एवं प्रशस्तियों में सामग्रो उपलब्ध नहीं हो सकी है। अत: निश्चित रूपसे उनके समयके सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। मूलाचारकी विषयवस्तुके अध्ययनसे इतना स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ प्राचीन है। इससे मिलती-जुलती अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर प्राचीन सुत्रग्रन्थ दशवेकालिकमें भी उपलब्ध हैं। प्रत्येक प्रकरणके आदिमें मंगलस्तवनके अंकित रहनेसे इसे संग्रह-ग्रन्थ होनेका अनुमान किया जाता है, पर हमारी नम्र सम्मति में यह संग्रह-ग्रन्थ न होकर स्वतंत्र ग्रन्थ है। प्रत्येक प्रकरणके आदि अथवा ग्रंथके आदि, मध्य और अन्त में मंगलस्तवन लिखनेकी प्रथा प्राचीन समयमें स्वतन्त्ररूपसे लिखित ग्रन्थोंमें वर्तमान थी। तिलोयपण्णत्तीमें इस प्रथाको देखा जा सकता है। गोम्मटसारके आदि, मध्य और अन्तमें भी मंगलस्तवन निबद्ध है।
मुलाचारका ग्रंथन एक निश्चित रूपरेखाके आधारपर हुआ है। अत: उसके सभी प्रकरण आपसमें एक दूसरेसे सम्बद्ध हैं। यदि यह संकलन होता, तो इसके प्रकरणोंमें आद्यन्त एकरूपता एवं प्रौढ़ताका निर्वाह सम्भव नहीं था। अतएव आचार्य वट्टकेरका समय कुन्दकुन्दके समकालीन या उनसे कुछ ही पश्चाद्वर्ती होना चाहिए।
वस्तुतः प्राचीन गुरुपरम्परामें ऐसी अनेक गाथाएँ विद्यमान थी, जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो ही मान्यताओंके ग्रन्थोंका स्रोत हैं। एक ही स्थानसे अथवा गुरूपरम्पराके प्रचलनसे गाथाओंको ग्रहण कर, दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही मान्यताओंके आचार्योने समानरूपसे उनका उपयोग किया है। मुनि- आचार- सम्बन्धी, या कर्मप्राभृत-सम्बन्धी जिन सिद्धान्तों में मतभेद नहीं था, उन सिद्धान्तों सम्बन्धी गाथाओंको एक ही स्रोतसे ग्रहण किया गया है।
तथ्य यह है कि परम्पराभेद होने के पूर्व अनेक गाथाएँ आरातियोंके मध्य प्रचलित थी, और ऐसे कई आरातोय थे, जो दोनों ही सम्प्रदायोंमें समानरूपसे प्रतिष्ठित थे। अतः वर्तमानमें मूलाचार, उत्तराध्ययन, दशवकालिक प्रभूति ग्रन्थों में उपलब्ध होनेवाली समान गाथाओंका जो अस्तित्व पाया जाता है, उसका कारण यह नहीं है कि वे गाथाएँ किसी एक सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें, दूसरे सम्प्रदायके ग्रन्थोंसे ग्रहण की गयी हैं, बल्कि इसका कारण यह है कि उन गाथाओंका मल स्रोत अन्य कोई प्राचीन भाण्डार रहा है, जो प्राचीन श्रुतपर म्परामें विद्यमान था।
वट्टकेर आचार्यका यही एक ग्रंथ उपलब्ध है। इसमें १२ अधिकार और १२५२ गाथाएँ हैं। पहले मूलगुण-अधिकारमें पांच महाव्रत, पाँच समिति, पंच इन्द्रियोंका निरोघ, षट्आवश्यक, केशलुञ्च, अचेलकत्व, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थित-भोजन और एक बार भोजन, इस प्रकार मुनिके अट्ठाईस मूलगुणोंका निरूपण किया है। बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तव- अधिकारमें क्षपकको समस्त पापोंका त्यागकर मृत्युके समयमें दर्शनाराधना आदि चार आराधनाओंमें स्थिर रहने और क्षुधादि परोषहोंको जीतकर निष्कषाय होनेका कथन किया है। संक्षेपमें प्रत्याख्यानाधिकारमें सिंह, व्याघ्र आदिके द्वारा आकस्मिक मृत्यु उपस्थित होनेपर कषाय और आहारका त्यागकर समताभाव धारण करनेका निर्देश किया है। सम्यकआचाराधिकारमें दश प्रकारके आचारोंका वर्णन है। अर्यिकाओंके लिए भी विशेष नियम वर्णित है। पंचाचाराधिकारमें दर्शनाचार, ज्ञानाचार आदि पाँच आचारों और उनके प्रभेदोंका विस्तार सहित वर्णन है। लोकादि मूढ़ताओंमें प्रसिद्ध होनेवालोंके उदाहरण भी प्रस्तुत किये गये हैं। स्वाध्याय सम्बन्धी नियमोंमें आगम और सुत्रग्रन्थोंके स्वरूप भी बतलाये गये हैं। पिण्डशुद्धि- अधिकारके आठ भेद हैं। इन सभी भेदोंका विस्तारपूर्वक कथन किया है। मुनियोंके आहार- सम्बन्धी नियम, उसके दोष तथा उन दोषोंके भेद प्रभेदोंका कथन आया है। मुनि शरीरधारणके हेतु आहार ग्रहण करते हैं और शरीर धर्म- साधनाका कारण है। अतः उसका भरण-पोषण कर आत्म साधनाके मार्गमें गतिशील होना परमावश्यक है। एषणा समिति, आहारयोग्य काल, भिक्षार्थगमन करनेकी प्रवृत्ति- विशेष आदिका भी वर्णन आया है।
सप्तम पड़ावश्यकाधिकार है। आनदराशब्दका निउक्ति सामायिकके छ: भेद, भावसामायिक और द्रव्यसामायिककी व्याख्याएँ, छेदोपस्थापनाका स्वरूप, चातुर्वीशतिस्तव, नाम ओर भाव स्तवन, तीर्थका स्वरूप, वन्दनीय साधु, कृति कर्म, कायोत्सर्गके दोष आदिका वर्णन है। आठवें अनगारभावनाधिकारमें लिंग, व्रत, वसति, विहार, भिक्षा, ज्ञान, शरीर, संस्कारत्याग, वाक्य, तप और ध्यानसम्बन्धो शुद्धियोंके पालनपर जोर दिया गया है। नवम द्वादशानुप्रेक्षाधिकार है। इसमें अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, सवर, निर्जरा, धर्म, बोधि आदि अनुप्रेक्षाओंके चिन्तनका वर्णन है। दशम समयसाराधिकार है। इसमें शास्त्रके सारका प्रतिपादन करते हुए चारित्रको सर्वश्रेष्ठ कहा है। तप, ध्यानका वर्णन भी इसी अधिकारके अन्तर्गत है। अचेलकत्व, अनौद्देशिकाहार, शय्यागृहत्याग, राजपिण्डत्याग, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मासस्थितिकल्प और पर्यास्थितिकल्पका भी प्रतिपादन आया है। प्रतिलेखनक्रियाका वर्णन करते हुए पांच गुणोंका चित्रण किया है | आहार शुद्धिके प्रकरणमें विभिन्न प्रकारकी शुद्धियों का निरूपण आया है। यह अधिकार बहुत विस्तृत है। ग्यारहवें पर्याप्ति-अधिकारमें षड्पर्याप्तीयोंका निरूपण है। पर्याप्तिके संज्ञा, लक्षण, स्वामित्व, संख्या, परिमाण, निवृत्ति और स्थिति कालके छ: भेद किये हैं। इन सभी भेदोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। बारहवें शीलगुणाधिकारमें शीलोंके उत्पत्तिका क्रम, पृथिव्यादि भेदोंका विवेचन, श्रमण धर्मका स्वरूपविवेचन, अक्षसंक्रमणके द्वारा शीलका उच्चारण, गुणोंकी उत्पत्ति का क्रम, आलोचनाके दोष, गुणोंकी उत्पत्तिका प्रकार, संख्या और प्रस्तारके निकालनेकी विधिका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। नष्टोद्दिष्ट द्वारा अक्षानयन की विधिका भी निरूपण है।
इस प्रकार इस महाग्रंथमें मुनिके आचारका बहुत ही विस्तृत एवं सुन्दर वर्णन किया गया है। यतिधर्मको अवगत करनेके लिए एक स्थानपर इससे अधिक सामग्रीका मिलना दुष्कर है। भाषा और शैलीकी दृष्टिसे भी यह ग्रंथ प्राचीन प्रतीत होता है। उत्तरवर्ती अनेक ग्रन्थकारोंने इसकी गाथाओंके उद्धरणपूर्वक उसकी प्रामाणिकता प्रकट की है।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
श्रुतघराचार्यों की परंपरामें आचार्य वट्टकेर का भी नाम आता है। आचार्य वट्टकेर कुन्दकुन्दाचार्यसे भिन्न हैं या अभिन्न, इस सम्बन्धमें मतभेद है। श्री जुगलकिशोर मुख्तारने इन्हें कुन्दकुन्दसे अभिन्न माना है। डॉ. ज्योतिप्रसाद भी इसी मतके समर्थक हैं।
डॉ. हीरालाल जैनने वट्टकेरको कुन्दकुन्दसे भिन्न स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा है- "वट्टकरस्वामीकृत. मूलाचार दिगम्बर सम्प्रदायमें मुनिधर्मके लिए सर्वोपरि प्रमाण माना जासा है। कहीं-कहीं यह ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्यकृत भी कहा गया है। यद्यपि यह बात सिद्ध नहीं होता, तथापि उससे इस ग्रंथके प्रति समाजका महान् आदरभाव प्रकट होता है।"
डॉ. जैनके उक्त उद्धरणसे दो निष्कर्ष उपस्थित होते हैं।
१. श्रद्धा, भक्ति और मान्यताके अतिरेकके कारण मूलाचारके कर्ता कुन्दकुन्द मान लिये गये हैं। कुन्दकुन्द दिगम्बर परम्पराके युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य हैं, अतएव वट्टकेरके नामपर उत्तरवर्ती साक्षियोंमें मूलाचार का नाम निर्देश कर लिया गया।
२. मूलाधार दिगम्बर परम्पराका आचारांग ग्रन्थ है। इसी कारण इस ग्रन्थका सम्बन्ध कुन्दकुन्दसे जोड़ा गया है। वट्टकेर आचार्यकी अन्य कृतियाँ उपलब्ध नहीं होती। अतएव इतने महान् ग्रन्थका रचयिता इनको स्वीकार करने में उत्तरवर्ती लिपिकारोंको आशंका हुई।
आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमालामें प्रकाशित सटीक मूलाचार प्रतिकी पुष्पिकाके आधारपर इस ग्रन्थको कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीत बतलाया है। पुष्पिका निम्न प्रकार है-
"इति मूलाचारविवृत्तौ द्वादशो अध्यायः। कुन्दकुन्दाचार्यप्रणोतमूलाचाराच्यविवृति:। क्रतिरियं वसुनन्दिनः श्रीश्रमणस्य"।
इस पुष्पिकाके आधारसे श्रीजुगलकिशोर मुख्तार वट्टकेरको कुन्दकुन्दसे अभिन्न मानते हैं।
डॉ. ए. एन. उपाध्येने अपनी प्रवचनसारकी महत्त्वपूर्ण प्रस्तावनामें मुलाचारको दक्षिण भारतकी पाण्डुलिपियोंके आधारपर कुन्दकुन्दकृत लिखा है। पर एक निवन्धमें मूलाचारको संग्रह-ग्रन्थ सिद्ध किया है, और इसके संग्रहकर्ता सम्भवतः वट्टकेर थे, यह अनुमान लगाया है।
आचार्य वसुनन्दिने मूलाचारकी संस्कृत-टीका लिखी है और इस टीकाकी प्रशस्तिमें इस ग्रन्थके कर्ताको वट्टकेर, वट्टकेर्याचार्य, तथा वट्टेरकाचार्यके रूपमें उल्लिखित किया है। इन नामोंमें पहला नाम टीकाके प्रारम्भिक प्रस्तावना वाक्यमें, दूसरा नवम, दशम और एकादश अधिकारोंके सन्धिवाक्योंमें और तृतीय नाम सप्तम अधिकारके सन्धिवाक्यमें पाया जाता है।
यह सत्य है कि वट्टकेर नामका समर्थन न तो किसी गुर्वावलिसे होता है, न पट्टावलिसे, न अभिलेखोसे और न ग्रन्थ-प्रशस्तियोंसे ही। इसी कारण श्री पं. नाथूरामजी प्रेमीने अपने एक निबन्धमें इस समस्याका समाधान प्रस्तुत करनेका प्रयास किया है। उन्होंने बताया है कि दक्षिण भारतमें वेट्टगेरि या वेट्टकेरी नामके ग्रामका अस्तित्व पाया जाता है। अतः इस ग्रामके निवासी होने के कारण मूलाचारके कर्ताको वट्टकेर या वेट्टकेरी कहा गया होगा। जिस प्रकार कोण्डकुन्दपुरके रहनेवाले होनेसे कुन्दकुन्द नाम प्रसिद्ध हुआ, उसी प्रकार वेट्टकेरिके रहनेवाले होनेसे मूलाचारके कर्ता वट्टकेर कहलाये। अतः मूलाचार कुन्दकुन्दकी रचना नहीं है और न वट्टकेर ही कुन्दकुन्दसे अभिन्न हैं।
श्रीजुगलकिशोर मुख्तारने अपना अभिमत प्रकट करते हुए लिखा है कि "वट्टकका अर्थ वर्तक- प्रवर्तक है, इर गिरा, वाणी, सरस्वतीको कहते है, जिसकी वाणी प्रवर्तिका हो- जनतामें सन्मार्ग सथा सदाचारमें लगानेवाली हो- उसे वट्टकेर समझना चाहिये। दूसरे, वट्टको- प्रवर्तकोंमें जो 'इरि' गिरि, प्रधान, प्रतिष्ठित हो, अथवा ईरि- समर्थ- शक्तिशाली हो, उसे वट्टकेरि जानना चाहिए। तीसरे वट्ट नाम वर्तन- आचरणका है और 'ईरक' प्रेरक तथा प्रवर्तकको कहते हैं, सदाचारमें जो प्रवृत्ति करानेवाला हो उसका नाम वट्टकेर है"। इस प्रकार मुख्तार साहबने वट्टकेरका अर्थ प्रवर्तक, प्रधानपदपर प्रतिष्ठित अथवा श्रेष्ठ आचारनिष्ठ किया है, और इसे कुन्दकुन्दाचार्यका विशेषण बतलाया है। अतएव इनके मतसे कुन्दकुन्द ही वट्टकेर हैं।
उपर्युक्त मत-भिन्नसाओंके आलोकमें मूलाचारका अध्ययन करनेसे ज्ञात होता है कि वट्टकेर एक स्वतन्त्रवाचार्य हैं और ये कुन्दकुन्दाचार्यसे भिन्न हैं। ग्यारहवीं शताब्दीके विद्वान् वसुनन्दिने वट्टकेरका उल्लेख स्पष्ट रूपसे किया है। अतः इस ग्रंथके रचयिता आचार्य वट्टकर हैं और वे आचार्य कुन्दकुन्दसे भित्र सम्भव हैं।
वट्टकेरके सम्बन्धमें अभी तक पट्टावलि, गुर्वावलि, अभिलेख एवं प्रशस्तियों में सामग्रो उपलब्ध नहीं हो सकी है। अत: निश्चित रूपसे उनके समयके सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। मूलाचारकी विषयवस्तुके अध्ययनसे इतना स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ प्राचीन है। इससे मिलती-जुलती अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर प्राचीन सुत्रग्रन्थ दशवेकालिकमें भी उपलब्ध हैं। प्रत्येक प्रकरणके आदिमें मंगलस्तवनके अंकित रहनेसे इसे संग्रह-ग्रन्थ होनेका अनुमान किया जाता है, पर हमारी नम्र सम्मति में यह संग्रह-ग्रन्थ न होकर स्वतंत्र ग्रन्थ है। प्रत्येक प्रकरणके आदि अथवा ग्रंथके आदि, मध्य और अन्त में मंगलस्तवन लिखनेकी प्रथा प्राचीन समयमें स्वतन्त्ररूपसे लिखित ग्रन्थोंमें वर्तमान थी। तिलोयपण्णत्तीमें इस प्रथाको देखा जा सकता है। गोम्मटसारके आदि, मध्य और अन्तमें भी मंगलस्तवन निबद्ध है।
मुलाचारका ग्रंथन एक निश्चित रूपरेखाके आधारपर हुआ है। अत: उसके सभी प्रकरण आपसमें एक दूसरेसे सम्बद्ध हैं। यदि यह संकलन होता, तो इसके प्रकरणोंमें आद्यन्त एकरूपता एवं प्रौढ़ताका निर्वाह सम्भव नहीं था। अतएव आचार्य वट्टकेरका समय कुन्दकुन्दके समकालीन या उनसे कुछ ही पश्चाद्वर्ती होना चाहिए।
वस्तुतः प्राचीन गुरुपरम्परामें ऐसी अनेक गाथाएँ विद्यमान थी, जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो ही मान्यताओंके ग्रन्थोंका स्रोत हैं। एक ही स्थानसे अथवा गुरूपरम्पराके प्रचलनसे गाथाओंको ग्रहण कर, दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही मान्यताओंके आचार्योने समानरूपसे उनका उपयोग किया है। मुनि- आचार- सम्बन्धी, या कर्मप्राभृत-सम्बन्धी जिन सिद्धान्तों में मतभेद नहीं था, उन सिद्धान्तों सम्बन्धी गाथाओंको एक ही स्रोतसे ग्रहण किया गया है।
तथ्य यह है कि परम्पराभेद होने के पूर्व अनेक गाथाएँ आरातियोंके मध्य प्रचलित थी, और ऐसे कई आरातोय थे, जो दोनों ही सम्प्रदायोंमें समानरूपसे प्रतिष्ठित थे। अतः वर्तमानमें मूलाचार, उत्तराध्ययन, दशवकालिक प्रभूति ग्रन्थों में उपलब्ध होनेवाली समान गाथाओंका जो अस्तित्व पाया जाता है, उसका कारण यह नहीं है कि वे गाथाएँ किसी एक सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें, दूसरे सम्प्रदायके ग्रन्थोंसे ग्रहण की गयी हैं, बल्कि इसका कारण यह है कि उन गाथाओंका मल स्रोत अन्य कोई प्राचीन भाण्डार रहा है, जो प्राचीन श्रुतपर म्परामें विद्यमान था।
वट्टकेर आचार्यका यही एक ग्रंथ उपलब्ध है। इसमें १२ अधिकार और १२५२ गाथाएँ हैं। पहले मूलगुण-अधिकारमें पांच महाव्रत, पाँच समिति, पंच इन्द्रियोंका निरोघ, षट्आवश्यक, केशलुञ्च, अचेलकत्व, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थित-भोजन और एक बार भोजन, इस प्रकार मुनिके अट्ठाईस मूलगुणोंका निरूपण किया है। बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तव- अधिकारमें क्षपकको समस्त पापोंका त्यागकर मृत्युके समयमें दर्शनाराधना आदि चार आराधनाओंमें स्थिर रहने और क्षुधादि परोषहोंको जीतकर निष्कषाय होनेका कथन किया है। संक्षेपमें प्रत्याख्यानाधिकारमें सिंह, व्याघ्र आदिके द्वारा आकस्मिक मृत्यु उपस्थित होनेपर कषाय और आहारका त्यागकर समताभाव धारण करनेका निर्देश किया है। सम्यकआचाराधिकारमें दश प्रकारके आचारोंका वर्णन है। अर्यिकाओंके लिए भी विशेष नियम वर्णित है। पंचाचाराधिकारमें दर्शनाचार, ज्ञानाचार आदि पाँच आचारों और उनके प्रभेदोंका विस्तार सहित वर्णन है। लोकादि मूढ़ताओंमें प्रसिद्ध होनेवालोंके उदाहरण भी प्रस्तुत किये गये हैं। स्वाध्याय सम्बन्धी नियमोंमें आगम और सुत्रग्रन्थोंके स्वरूप भी बतलाये गये हैं। पिण्डशुद्धि- अधिकारके आठ भेद हैं। इन सभी भेदोंका विस्तारपूर्वक कथन किया है। मुनियोंके आहार- सम्बन्धी नियम, उसके दोष तथा उन दोषोंके भेद प्रभेदोंका कथन आया है। मुनि शरीरधारणके हेतु आहार ग्रहण करते हैं और शरीर धर्म- साधनाका कारण है। अतः उसका भरण-पोषण कर आत्म साधनाके मार्गमें गतिशील होना परमावश्यक है। एषणा समिति, आहारयोग्य काल, भिक्षार्थगमन करनेकी प्रवृत्ति- विशेष आदिका भी वर्णन आया है।
सप्तम पड़ावश्यकाधिकार है। आनदराशब्दका निउक्ति सामायिकके छ: भेद, भावसामायिक और द्रव्यसामायिककी व्याख्याएँ, छेदोपस्थापनाका स्वरूप, चातुर्वीशतिस्तव, नाम ओर भाव स्तवन, तीर्थका स्वरूप, वन्दनीय साधु, कृति कर्म, कायोत्सर्गके दोष आदिका वर्णन है। आठवें अनगारभावनाधिकारमें लिंग, व्रत, वसति, विहार, भिक्षा, ज्ञान, शरीर, संस्कारत्याग, वाक्य, तप और ध्यानसम्बन्धो शुद्धियोंके पालनपर जोर दिया गया है। नवम द्वादशानुप्रेक्षाधिकार है। इसमें अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, सवर, निर्जरा, धर्म, बोधि आदि अनुप्रेक्षाओंके चिन्तनका वर्णन है। दशम समयसाराधिकार है। इसमें शास्त्रके सारका प्रतिपादन करते हुए चारित्रको सर्वश्रेष्ठ कहा है। तप, ध्यानका वर्णन भी इसी अधिकारके अन्तर्गत है। अचेलकत्व, अनौद्देशिकाहार, शय्यागृहत्याग, राजपिण्डत्याग, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मासस्थितिकल्प और पर्यास्थितिकल्पका भी प्रतिपादन आया है। प्रतिलेखनक्रियाका वर्णन करते हुए पांच गुणोंका चित्रण किया है | आहार शुद्धिके प्रकरणमें विभिन्न प्रकारकी शुद्धियों का निरूपण आया है। यह अधिकार बहुत विस्तृत है। ग्यारहवें पर्याप्ति-अधिकारमें षड्पर्याप्तीयोंका निरूपण है। पर्याप्तिके संज्ञा, लक्षण, स्वामित्व, संख्या, परिमाण, निवृत्ति और स्थिति कालके छ: भेद किये हैं। इन सभी भेदोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। बारहवें शीलगुणाधिकारमें शीलोंके उत्पत्तिका क्रम, पृथिव्यादि भेदोंका विवेचन, श्रमण धर्मका स्वरूपविवेचन, अक्षसंक्रमणके द्वारा शीलका उच्चारण, गुणोंकी उत्पत्ति का क्रम, आलोचनाके दोष, गुणोंकी उत्पत्तिका प्रकार, संख्या और प्रस्तारके निकालनेकी विधिका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। नष्टोद्दिष्ट द्वारा अक्षानयन की विधिका भी निरूपण है।
इस प्रकार इस महाग्रंथमें मुनिके आचारका बहुत ही विस्तृत एवं सुन्दर वर्णन किया गया है। यतिधर्मको अवगत करनेके लिए एक स्थानपर इससे अधिक सामग्रीका मिलना दुष्कर है। भाषा और शैलीकी दृष्टिसे भी यह ग्रंथ प्राचीन प्रतीत होता है। उत्तरवर्ती अनेक ग्रन्थकारोंने इसकी गाथाओंके उद्धरणपूर्वक उसकी प्रामाणिकता प्रकट की है।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा।
#vattakermaharajji
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा।
आचार्य श्री १०८ वट्टकर महाराजजी
श्रुतघराचार्यों की परंपरामें आचार्य वट्टकेर का भी नाम आता है। आचार्य वट्टकेर कुन्दकुन्दाचार्यसे भिन्न हैं या अभिन्न, इस सम्बन्धमें मतभेद है। श्री जुगलकिशोर मुख्तारने इन्हें कुन्दकुन्दसे अभिन्न माना है। डॉ. ज्योतिप्रसाद भी इसी मतके समर्थक हैं।
डॉ. हीरालाल जैनने वट्टकेरको कुन्दकुन्दसे भिन्न स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा है- "वट्टकरस्वामीकृत. मूलाचार दिगम्बर सम्प्रदायमें मुनिधर्मके लिए सर्वोपरि प्रमाण माना जासा है। कहीं-कहीं यह ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्यकृत भी कहा गया है। यद्यपि यह बात सिद्ध नहीं होता, तथापि उससे इस ग्रंथके प्रति समाजका महान् आदरभाव प्रकट होता है।"
डॉ. जैनके उक्त उद्धरणसे दो निष्कर्ष उपस्थित होते हैं।
१. श्रद्धा, भक्ति और मान्यताके अतिरेकके कारण मूलाचारके कर्ता कुन्दकुन्द मान लिये गये हैं। कुन्दकुन्द दिगम्बर परम्पराके युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य हैं, अतएव वट्टकेरके नामपर उत्तरवर्ती साक्षियोंमें मूलाचार का नाम निर्देश कर लिया गया।
२. मूलाधार दिगम्बर परम्पराका आचारांग ग्रन्थ है। इसी कारण इस ग्रन्थका सम्बन्ध कुन्दकुन्दसे जोड़ा गया है। वट्टकेर आचार्यकी अन्य कृतियाँ उपलब्ध नहीं होती। अतएव इतने महान् ग्रन्थका रचयिता इनको स्वीकार करने में उत्तरवर्ती लिपिकारोंको आशंका हुई।
आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमालामें प्रकाशित सटीक मूलाचार प्रतिकी पुष्पिकाके आधारपर इस ग्रन्थको कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीत बतलाया है। पुष्पिका निम्न प्रकार है-
"इति मूलाचारविवृत्तौ द्वादशो अध्यायः। कुन्दकुन्दाचार्यप्रणोतमूलाचाराच्यविवृति:। क्रतिरियं वसुनन्दिनः श्रीश्रमणस्य"।
इस पुष्पिकाके आधारसे श्रीजुगलकिशोर मुख्तार वट्टकेरको कुन्दकुन्दसे अभिन्न मानते हैं।
डॉ. ए. एन. उपाध्येने अपनी प्रवचनसारकी महत्त्वपूर्ण प्रस्तावनामें मुलाचारको दक्षिण भारतकी पाण्डुलिपियोंके आधारपर कुन्दकुन्दकृत लिखा है। पर एक निवन्धमें मूलाचारको संग्रह-ग्रन्थ सिद्ध किया है, और इसके संग्रहकर्ता सम्भवतः वट्टकेर थे, यह अनुमान लगाया है।
आचार्य वसुनन्दिने मूलाचारकी संस्कृत-टीका लिखी है और इस टीकाकी प्रशस्तिमें इस ग्रन्थके कर्ताको वट्टकेर, वट्टकेर्याचार्य, तथा वट्टेरकाचार्यके रूपमें उल्लिखित किया है। इन नामोंमें पहला नाम टीकाके प्रारम्भिक प्रस्तावना वाक्यमें, दूसरा नवम, दशम और एकादश अधिकारोंके सन्धिवाक्योंमें और तृतीय नाम सप्तम अधिकारके सन्धिवाक्यमें पाया जाता है।
यह सत्य है कि वट्टकेर नामका समर्थन न तो किसी गुर्वावलिसे होता है, न पट्टावलिसे, न अभिलेखोसे और न ग्रन्थ-प्रशस्तियोंसे ही। इसी कारण श्री पं. नाथूरामजी प्रेमीने अपने एक निबन्धमें इस समस्याका समाधान प्रस्तुत करनेका प्रयास किया है। उन्होंने बताया है कि दक्षिण भारतमें वेट्टगेरि या वेट्टकेरी नामके ग्रामका अस्तित्व पाया जाता है। अतः इस ग्रामके निवासी होने के कारण मूलाचारके कर्ताको वट्टकेर या वेट्टकेरी कहा गया होगा। जिस प्रकार कोण्डकुन्दपुरके रहनेवाले होनेसे कुन्दकुन्द नाम प्रसिद्ध हुआ, उसी प्रकार वेट्टकेरिके रहनेवाले होनेसे मूलाचारके कर्ता वट्टकेर कहलाये। अतः मूलाचार कुन्दकुन्दकी रचना नहीं है और न वट्टकेर ही कुन्दकुन्दसे अभिन्न हैं।
श्रीजुगलकिशोर मुख्तारने अपना अभिमत प्रकट करते हुए लिखा है कि "वट्टकका अर्थ वर्तक- प्रवर्तक है, इर गिरा, वाणी, सरस्वतीको कहते है, जिसकी वाणी प्रवर्तिका हो- जनतामें सन्मार्ग सथा सदाचारमें लगानेवाली हो- उसे वट्टकेर समझना चाहिये। दूसरे, वट्टको- प्रवर्तकोंमें जो 'इरि' गिरि, प्रधान, प्रतिष्ठित हो, अथवा ईरि- समर्थ- शक्तिशाली हो, उसे वट्टकेरि जानना चाहिए। तीसरे वट्ट नाम वर्तन- आचरणका है और 'ईरक' प्रेरक तथा प्रवर्तकको कहते हैं, सदाचारमें जो प्रवृत्ति करानेवाला हो उसका नाम वट्टकेर है"। इस प्रकार मुख्तार साहबने वट्टकेरका अर्थ प्रवर्तक, प्रधानपदपर प्रतिष्ठित अथवा श्रेष्ठ आचारनिष्ठ किया है, और इसे कुन्दकुन्दाचार्यका विशेषण बतलाया है। अतएव इनके मतसे कुन्दकुन्द ही वट्टकेर हैं।
उपर्युक्त मत-भिन्नसाओंके आलोकमें मूलाचारका अध्ययन करनेसे ज्ञात होता है कि वट्टकेर एक स्वतन्त्रवाचार्य हैं और ये कुन्दकुन्दाचार्यसे भिन्न हैं। ग्यारहवीं शताब्दीके विद्वान् वसुनन्दिने वट्टकेरका उल्लेख स्पष्ट रूपसे किया है। अतः इस ग्रंथके रचयिता आचार्य वट्टकर हैं और वे आचार्य कुन्दकुन्दसे भित्र सम्भव हैं।
वट्टकेरके सम्बन्धमें अभी तक पट्टावलि, गुर्वावलि, अभिलेख एवं प्रशस्तियों में सामग्रो उपलब्ध नहीं हो सकी है। अत: निश्चित रूपसे उनके समयके सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। मूलाचारकी विषयवस्तुके अध्ययनसे इतना स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ प्राचीन है। इससे मिलती-जुलती अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर प्राचीन सुत्रग्रन्थ दशवेकालिकमें भी उपलब्ध हैं। प्रत्येक प्रकरणके आदिमें मंगलस्तवनके अंकित रहनेसे इसे संग्रह-ग्रन्थ होनेका अनुमान किया जाता है, पर हमारी नम्र सम्मति में यह संग्रह-ग्रन्थ न होकर स्वतंत्र ग्रन्थ है। प्रत्येक प्रकरणके आदि अथवा ग्रंथके आदि, मध्य और अन्त में मंगलस्तवन लिखनेकी प्रथा प्राचीन समयमें स्वतन्त्ररूपसे लिखित ग्रन्थोंमें वर्तमान थी। तिलोयपण्णत्तीमें इस प्रथाको देखा जा सकता है। गोम्मटसारके आदि, मध्य और अन्तमें भी मंगलस्तवन निबद्ध है।
मुलाचारका ग्रंथन एक निश्चित रूपरेखाके आधारपर हुआ है। अत: उसके सभी प्रकरण आपसमें एक दूसरेसे सम्बद्ध हैं। यदि यह संकलन होता, तो इसके प्रकरणोंमें आद्यन्त एकरूपता एवं प्रौढ़ताका निर्वाह सम्भव नहीं था। अतएव आचार्य वट्टकेरका समय कुन्दकुन्दके समकालीन या उनसे कुछ ही पश्चाद्वर्ती होना चाहिए।
वस्तुतः प्राचीन गुरुपरम्परामें ऐसी अनेक गाथाएँ विद्यमान थी, जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो ही मान्यताओंके ग्रन्थोंका स्रोत हैं। एक ही स्थानसे अथवा गुरूपरम्पराके प्रचलनसे गाथाओंको ग्रहण कर, दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही मान्यताओंके आचार्योने समानरूपसे उनका उपयोग किया है। मुनि- आचार- सम्बन्धी, या कर्मप्राभृत-सम्बन्धी जिन सिद्धान्तों में मतभेद नहीं था, उन सिद्धान्तों सम्बन्धी गाथाओंको एक ही स्रोतसे ग्रहण किया गया है।
तथ्य यह है कि परम्पराभेद होने के पूर्व अनेक गाथाएँ आरातियोंके मध्य प्रचलित थी, और ऐसे कई आरातोय थे, जो दोनों ही सम्प्रदायोंमें समानरूपसे प्रतिष्ठित थे। अतः वर्तमानमें मूलाचार, उत्तराध्ययन, दशवकालिक प्रभूति ग्रन्थों में उपलब्ध होनेवाली समान गाथाओंका जो अस्तित्व पाया जाता है, उसका कारण यह नहीं है कि वे गाथाएँ किसी एक सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें, दूसरे सम्प्रदायके ग्रन्थोंसे ग्रहण की गयी हैं, बल्कि इसका कारण यह है कि उन गाथाओंका मल स्रोत अन्य कोई प्राचीन भाण्डार रहा है, जो प्राचीन श्रुतपर म्परामें विद्यमान था।
वट्टकेर आचार्यका यही एक ग्रंथ उपलब्ध है। इसमें १२ अधिकार और १२५२ गाथाएँ हैं। पहले मूलगुण-अधिकारमें पांच महाव्रत, पाँच समिति, पंच इन्द्रियोंका निरोघ, षट्आवश्यक, केशलुञ्च, अचेलकत्व, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थित-भोजन और एक बार भोजन, इस प्रकार मुनिके अट्ठाईस मूलगुणोंका निरूपण किया है। बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तव- अधिकारमें क्षपकको समस्त पापोंका त्यागकर मृत्युके समयमें दर्शनाराधना आदि चार आराधनाओंमें स्थिर रहने और क्षुधादि परोषहोंको जीतकर निष्कषाय होनेका कथन किया है। संक्षेपमें प्रत्याख्यानाधिकारमें सिंह, व्याघ्र आदिके द्वारा आकस्मिक मृत्यु उपस्थित होनेपर कषाय और आहारका त्यागकर समताभाव धारण करनेका निर्देश किया है। सम्यकआचाराधिकारमें दश प्रकारके आचारोंका वर्णन है। अर्यिकाओंके लिए भी विशेष नियम वर्णित है। पंचाचाराधिकारमें दर्शनाचार, ज्ञानाचार आदि पाँच आचारों और उनके प्रभेदोंका विस्तार सहित वर्णन है। लोकादि मूढ़ताओंमें प्रसिद्ध होनेवालोंके उदाहरण भी प्रस्तुत किये गये हैं। स्वाध्याय सम्बन्धी नियमोंमें आगम और सुत्रग्रन्थोंके स्वरूप भी बतलाये गये हैं। पिण्डशुद्धि- अधिकारके आठ भेद हैं। इन सभी भेदोंका विस्तारपूर्वक कथन किया है। मुनियोंके आहार- सम्बन्धी नियम, उसके दोष तथा उन दोषोंके भेद प्रभेदोंका कथन आया है। मुनि शरीरधारणके हेतु आहार ग्रहण करते हैं और शरीर धर्म- साधनाका कारण है। अतः उसका भरण-पोषण कर आत्म साधनाके मार्गमें गतिशील होना परमावश्यक है। एषणा समिति, आहारयोग्य काल, भिक्षार्थगमन करनेकी प्रवृत्ति- विशेष आदिका भी वर्णन आया है।
सप्तम पड़ावश्यकाधिकार है। आनदराशब्दका निउक्ति सामायिकके छ: भेद, भावसामायिक और द्रव्यसामायिककी व्याख्याएँ, छेदोपस्थापनाका स्वरूप, चातुर्वीशतिस्तव, नाम ओर भाव स्तवन, तीर्थका स्वरूप, वन्दनीय साधु, कृति कर्म, कायोत्सर्गके दोष आदिका वर्णन है। आठवें अनगारभावनाधिकारमें लिंग, व्रत, वसति, विहार, भिक्षा, ज्ञान, शरीर, संस्कारत्याग, वाक्य, तप और ध्यानसम्बन्धो शुद्धियोंके पालनपर जोर दिया गया है। नवम द्वादशानुप्रेक्षाधिकार है। इसमें अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, सवर, निर्जरा, धर्म, बोधि आदि अनुप्रेक्षाओंके चिन्तनका वर्णन है। दशम समयसाराधिकार है। इसमें शास्त्रके सारका प्रतिपादन करते हुए चारित्रको सर्वश्रेष्ठ कहा है। तप, ध्यानका वर्णन भी इसी अधिकारके अन्तर्गत है। अचेलकत्व, अनौद्देशिकाहार, शय्यागृहत्याग, राजपिण्डत्याग, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मासस्थितिकल्प और पर्यास्थितिकल्पका भी प्रतिपादन आया है। प्रतिलेखनक्रियाका वर्णन करते हुए पांच गुणोंका चित्रण किया है | आहार शुद्धिके प्रकरणमें विभिन्न प्रकारकी शुद्धियों का निरूपण आया है। यह अधिकार बहुत विस्तृत है। ग्यारहवें पर्याप्ति-अधिकारमें षड्पर्याप्तीयोंका निरूपण है। पर्याप्तिके संज्ञा, लक्षण, स्वामित्व, संख्या, परिमाण, निवृत्ति और स्थिति कालके छ: भेद किये हैं। इन सभी भेदोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। बारहवें शीलगुणाधिकारमें शीलोंके उत्पत्तिका क्रम, पृथिव्यादि भेदोंका विवेचन, श्रमण धर्मका स्वरूपविवेचन, अक्षसंक्रमणके द्वारा शीलका उच्चारण, गुणोंकी उत्पत्ति का क्रम, आलोचनाके दोष, गुणोंकी उत्पत्तिका प्रकार, संख्या और प्रस्तारके निकालनेकी विधिका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। नष्टोद्दिष्ट द्वारा अक्षानयन की विधिका भी निरूपण है।
इस प्रकार इस महाग्रंथमें मुनिके आचारका बहुत ही विस्तृत एवं सुन्दर वर्णन किया गया है। यतिधर्मको अवगत करनेके लिए एक स्थानपर इससे अधिक सामग्रीका मिलना दुष्कर है। भाषा और शैलीकी दृष्टिसे भी यह ग्रंथ प्राचीन प्रतीत होता है। उत्तरवर्ती अनेक ग्रन्थकारोंने इसकी गाथाओंके उद्धरणपूर्वक उसकी प्रामाणिकता प्रकट की है।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara.
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