Article Summary
Acharyon Dwara Prabhavit Rajvansh
Acharyon Dwara Prabhavit Rajvansh
दिगम्बर जैनाचार्यों ने विभिन्न राजवंशों और राजाओंको प्रभावित कर जैन शासनका उद्योत किया है। राजाओंके अतिरिक्त अमात्य, सामन्त एवं सेना पतिओंने भी शासनके प्रचार एवं प्रसारमें योगदान किया है।
आचार्य भद्रबाहुके शिष्य मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्तने उज्जयिनीम श्चमण दीक्षा ग्रहण कर दक्षिणकी ओर विहार किया। भद्रबाहुस्वामीने अपना अन्तिम समय जानकर श्रमणबेलगोलाके कटवन पर्वतपर समाधिमरण ग्रहण किया। चन्द्रगुप्तने भद्रबाहुस्वामीके साथ रहकर उनको अन्तिम अवस्था तक सेवा की और वर्षों तक मुनिसंघका संचालन किया। मौर्यवंशने अहिंसक होनेका एक कारण चन्द्रगुप्तका जैन दीक्षा ग्रहण करना भी है। अशोक अपने जीवनके पूर्वाद्ध में जेन था और उत्तरार्द्ध में वह बौद्धधर्म में दीक्षित हुआ। सम्राट सम्प्रति ने तो जैन शासनके अभ्युत्थानक हेतु अनेक स्था, स्। एवं महामोगा निर्माण कराया।
चेदिवशके सम्राट [ल खारवेलने जैन शासनकी उन्नति के लिए अनेक कार्य किये । उसने मगधपर आक्रमण कर बहुमूल्य रत्नादिकके साथ कलिंग जिनकी बह प्रसिद्ध मूर्ति भी उपलब्ध की, जिसे नन्दराज कलिंगसे ले आये थे । खारवेलने कुमारीपर्वतपर जैन मुनि और पण्डितगणोंका सम्मेलन बुलाया तथा जेना गमको संशोधित कर नये रूपमें निबद्ध करनेका प्रयास किया । जैनसंघने उसे भिक्षुराज, धर्मराज और खेमराजको उपाधियोंसे विभूषित किया । उसने अपना अन्तिम जीवन कुमारीपर्वतपर स्थित्त अर्हत् मन्दिरमें भक्ति और धर्म ध्यानमें संलग्न किया । उसने जैन मुनियोंके लिए गुफाएँ एवं चत्य बनवाये। खारवेल द्वारा उत्कीणित एक अभिलेख उदयगिरि पर्वतकी गुफामें ई० पू० १७० का मिलता है ! खारवेलका स्वर्गवास ई० पू० १५२में हुआ है।
ई. सन्की द्वितीय शतीसे पंचमी शती तक गंगवंशके राजाओंने जैन शासनकी उन्नति में योगदान दिया है। ई० सनकी दूसरी शताब्दीके लगभग इस बंशके दो राजकुमार दक्षिण आये | उनके नाम दडिग और माधव थे । पेरूर नामक स्थानमें इनकी भेंट आचार्य सिंहनन्दिसे हुई। सिंहनन्दिने उन दोनोंको शासन कार्य की शिक्षा दी । एक पाषाण-स्तम्भ साम्राज्यदेवीके प्रवेशको रोक रहा था । अतः सिंहनन्दिको आज्ञासे माधवने उसे काट डाला । आचार्य सिंहनन्दिने उन्हें राज्यका शासक बनाते हुए उपदेश दिया-'यदि तुम अपने बचनको पुरा न करोगे, या जिन शासनको साहाय्य दोगे, दूसरोंकी स्त्रियांका अपहरण करोगे, मद्य-मांसका सेवन करोगे, या नीचोंकी संगतिमें रहोगे, आवश्यक होनेपर भी दूसरों को अपना धन नहीं दोगे और यदि युद्ध के मैदानमें पीठ दिखाओगे, तो तुम्हारा बंश नष्ट हो जायेगा"।
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कल्लगुड्डके इस अभिलेखमें सिंहनन्दि द्वारा दिये गये राज्यका विस्तार भी अकित है। दलिगने राज्य प्राप्त कर जैनधर्म और जेनसंस्कृति के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये। इसने मण्डलिनामक प्रमुख स्थानपर एक भव्य जिनालय का निर्माण कराया, जो काष्ठ द्वारा निर्मित था। दहितका पुत्र लघुमाधव और लधुमाधधका पुत्र हरिवर्मा हुआ । हरिवर्माने जैनशासनको उन्नसिके लिए अनेक कार्य किये । इसी वंश में राजा साल माधवका उत्तराधिकारी उसका पुत्र अविनीत हुआ । 'नोड़ मंगल-दानपत्र से, जो उसने अपने राज्यके प्रथम वर्षमें अंकित कराया था, ज्ञात होता है कि उसने अपने परमगुरु अर्हत् विजयकीतिके उपदेशसे मूलसंघके चन्द्रनन्दि आदि द्वारा प्रतिष्ठापित उणू र जिनालयको वैन्नेलकरीण गाँव और पेझर एवानि अडिगल जिनालयको बाहरी चुगीका चौथाई कार्षापण दिया | श्री लईस राइसने इस ताम्रपत्रका समय ४२५ ई निश्चित किया है।
मर्कराके ताम्रपत्रसे अवगत होता है कि अविनीत जैनधर्मका अनुयायी था। अविनीसके पुत्र दुविनीतने भी जैन शासनके विकासमें सहयोग प्रदान किया । इसने कांगलि नामक स्थानपर चेन्नपार्श्ववस्ति नामक जिनालयका निर्माण कराया था। दुविनीतके पुत्र मुक्कर या मोक्करने मोक्करवसित नामक जिनालयका निर्माण कराया था । मोक्करके पश्चात् श्रीविक्रम राजा हुआ और उसके भूविक्रम और शिवमार ये दो पुत्र हए । शिवमारने श्रीचन्द्रसेनाचार्यको जिनमन्दिरके लिये एक गाँध प्रदान किया था ।
श्रीपुरुषके पुत्र शिबमार द्वितीयने श्रवणबेलगोलाकी छोटी पहाड़ीपर चन्द्रनाथवसतिका निर्माण कराया था। मैसूर जिलेके हेगड़े देवन ताल्लुकेके हेब्बल गुप्पेके आञ्जनेय मन्दिरके निकटसे प्राप्त अभिलेखमें लिखा है कि श्री नरसिंगेरे अपर दुग्गमारने कोयलवसतिको भूमि प्रदान की | गंगवंशमें मरूलका सौतेला भाई मारसिंह भी शासनप्रभावनाकी दृष्टिसे उल्लेखनीय है। इसका राज्यकाल ई० सन् २६१-२७४ है।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेखसंख्या ३८से विदित होता है कि मारसिंहने जैनधर्मका अनुपम उद्योत किया और भक्तिके अनेक कार्य करते हुए मृत्युसे एक वर्षे पुर्व उसने राज्यका परित्याग किया और उदासीन श्रावकके रूपमें जीवन ध्यतीत किया । अन्त में तीन दिनके संल्लेखनाव्रत द्वारा बंकापुरके अपने गुरु अजितसेन भट्टारकके चरणों में समाधिमरण ग्रहण किया । मारसिंहने अनेक जैन विद्वानोंका संरक्षण किया।
गंगवंशके राजाओके अतिरिक्त कदम्बवंशके राजाओंमें काकुस्थवर्माके पौत्र मगेश वर्माने ५वीं शताब्दीमें राज्य किया। राज्यके तीसरे वर्ष में अक्ति किये गये ताम्रपत्रसे ज्ञात होता है कि इसने अभिषेक, उपलेपन, कूजन, भग्न संस्कार (मरम्मत) और प्रभावनाके लिये भूमि दान दी । एक अन्य ताम्रपत्रसे विदित है कि मृगेशवर्माने अपने राज्यके ८वें वर्ष में अपने स्वर्गीय पिताकी स्मृति में पलाशिका नगरमें एक जिनालय बनवाया था और उसकी व्यवस्थाके लिये भूमि दान में दी थी। यह दान उसने पापनियों तथा कूर्वक सम्प्रदायके नग्न साधुओंके निमित्त दिया था। इस दानके मुख्य ग्रहीता जैनगुरु दानकीति और सेनापति जयन्त थे । मृगेशवर्माके उत्तराधिकारी रविवर्मा और उसके भाई भानुवर्माने भी जैन शासनकी उन्नत्ति की है । राजा रविवर्माक पुत्र हरिवर्माने अपने राज्यकालके चतुर्थ वर्ष में एक दानपत्र प्रचलित किया था, जिससे ज्ञात होता है कि उसने अपने चाचा शिवरथके उपदेशसे कूक सम्प्रदायके वारिषे णाचार्यको वसन्तवाटक ग्राम दान में दिया था | इस दानका उद्देश्य पलाशिकामें भारद्वाजवंशी सेनापतिसिंहके पुत्र मगेशवर्मा द्वारा निर्मित जिनालयमें वार्षिक अष्टाहलिक पुजाके अवसरपर कृताभिषेक हेतु धन दिये जानेका उल्लेख है। इसी राजाने अपने राज्यके ५ वर्षमें सेन्द्रकवंशके राजा भानुशक्तिकी प्रार्थनासे धर्मात्मा पुरुषोंके उपयोगके लिए तथा मन्दिरको पूजाके लिए 'मरदे' नामक गाँव दान दिया था। इस दानके संरक्षक धर्मनन्दि नामके आचार्य थे।
जैनाचार्योंने राष्ट्रकूट वंशको भी प्रभावित किया है। इस बंशका गोविन्द तृतीयका पुत्र अमोघवर्ष जैनधर्मका महान् उन्नायक, संरक्षक और आश्रयदाता था। इसका समय ई. सन् ८१४-८७८ है । अमोघवर्षने अपनी राजधानी मान्यखेटको सुन्दर प्रासाद, भवन और सरोवरोंसे अलंकृत किया । वीरसेन स्वामौके पट्टशिष्य आचार्य जिनसेनस्वामी इसके धर्मगुरु थे। महावीराचार्य ने अपने गणितसारसंग्रहमें अमोघवर्षकी प्रशंसा की है।
आर्यनन्दिने तमिल देशमें जैनधर्नके प्रचारके लिये अनेक कार्य निये। मतिनिर्माण, गुफा निर्माण, मन्दिर निर्माणका कार्य ई० सन् की ८वीं, दौं शतीमें जोर-शोरके साथं चलता रहा। चितगल नामक स्थानके निकट तिरुचानटु नामकी पहाड़ीपर उकेरी गयो मूर्तियाँ कलाकी दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।होयसल राजबंशके कई राजाओंन जैनकला और जैनधर्मकी उन्नतिके लिए अनेक कार्य किये हैं।
अंगडीसे प्राप्त अभिलेखमें विनयादित्य होयसलके कार्यों का ज्ञान प्राप्त होता है। श्रवणबेलगोलाके गंधवारण वसतिके अभिलेखसे अवगत होता है कि विनयादित्यने सरोवरों और मन्दिरोंका निर्माण कराया था। यह विनयादित्य चालुक्यवंशके विक्रमादित्य षष्ठका सामन्त था । इसकी उपाधि 'सम्यबत्वचूड़ामणि' थी। इसने जीर्णोद्धारके साथ अनेक मन्दिरोंका निर्माण कराया था।
होयसल नरेशोंमें विष्णुबर्द्धन भी जैन शासनका प्रभावक हुआ है । शासनकी उन्नति करनेवाले सामन्तोंमें राष्ट्रकूट सामन्त लोकादित्यका महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसका समर म संवतकी पौ पाताया है। यह दो या पुत्र था और राष्ट्रकूटनरेश कृष्ण द्वितीय अकालवर्षके शासनके अन्तर्गत बनवास देशके बंकापुरका शासक था।
दक्षिण भारतमें जैनधर्मको सुदृढ़ बनाने में जिनदत्तराधका भी हाथ है। इसने जिनदेवके अभिषेकके लिए कुम्भसिकेपुर गाँच प्रदान किया था । तोला पुरुष बिक्रम शान्तरने सन् ८५७ ई में कुन्दकुन्दान्वयके मौनीसिद्धान्त भट्टारकके लिए वसतिका निर्माण कराया था । यह वही विक्रम शान्तर है, जिसने हुम्मच में गुड्डद वसतिका निर्माण कराया था और उसे बाहुर्बालको भेंट कर दिया था । भुजबल शान्तरने अपनी राजधानी पोम्ब च्चमें भुजबल शान्तर जिनालय का निर्माण कराया था और अपने गुरु कनकनन्दिदेवको हरबरि ग्राम प्रदान किया था। उसका भाई नलि शान्तर भी जिनचरणोंका पूजक था। वीर शान्तरके मन्त्री भगुलरसने भी अजिससेन पण्डितदेवके नामपर एक वसतिका शिलान्यास कराया था। यह नयी वसति राजधानी पोम्बुच्चमें पंचवसतिके सामने बनवायी गयी थी । भुजबल मंग पेरम्माडि बमदेव ( सन् १११५ ई०) मुभिचन्द्रका शिष्य था और उसका पुत्र ननियगंग ( सन् ११२२ ई०) प्रभाचन्द्र सिद्धान्तका शिष्य था।
११वौं शती में कोंगालवोंने जैनधर्मकी सुरक्षा और अभिवृद्धिके लिए अनेक कार्य किये हैं। सन् १०५८ ईमें राजेन्द्र कोंगालवने अपने पिताके द्वारा निर्मा पित्त वसत्तिको भूमि प्रदान की थी। राजेन्द्र कोंगालवका गुरु मूलसंघ काणूरगण और तरिगणगच्छका गण्डबिमुक्त सिद्धान्तदेव था। राजेन्द्र ने अपने गुरुको भूमि प्रदान की थी। इस वंशके राजाओंने सत्यवाक्य जिनालयका निर्माण कराया था और उसके लिए प्रभाचन्द्र सिद्धान्तको गांव प्रदान किया था। कालनने नेमिस्वर वसतिका निर्माण कराकर उसके निमित्त अपने गुरु कुमार कीर्ति विद्यके शिष्य पुन्नागवृक्ष मूलगणके महामण्डलाचार्य विजयकीतिको भूमि प्रदान की थी। इस भूमिको आयसे साधुओं तथा धार्मिकोंको भोजन एवं आवास दिया जाता था।
नगरखण्डके सामन्त लोकगाबुण्डने सन् १९७१ ई में एक जैन मन्दिरका निर्माण कराया था और उसकी अष्टप्रकारी पूजाके लिए मूलसंघ काणू रमण, तिन्तिणीगच्छके मुनिचन्द्रदेवके शिष्य भानुकीति सिद्धान्तदेवको भूमि प्रदान की थी। १३वीं शताब्दीके अन्तिम चरणमें होनेवाला कुचीराजाका नाम भी उल्लेखनीय है । यह पानसेन भट्टारकका शिष्य था।
जैनधर्मके संरक्षक और उन्नतिकारकोंमें बीरमार्तण्ड चामुण्डरायका नाम भी उल्लेखनीय है । बिष्णुवर्घनके सेनापति बोप्पने भी जैन शासनके उत्थानमें योगदान दिया है। ई० सन् की १२वीं शताब्दीमें सेनापति हुल्लने भी मन्दिर और मूर्तियोंका निर्माण कराया है। राजा नरसिंहके सेनापति शान्तियण और इनके पुत्र बल्लाल द्वितीयके सेनापति रेचमथ्यकी गणना भी जैनसंस्कृतिके आश्रयदाताओंमें की जाती है । रेचमय्यने आरसीयकेरेमें सहस्रकूट चैत्यालय का निर्माण कराया था । बल्लाल द्वितीयके मन्त्री नागदेवने श्रवणबेलगोलाके पावंदेवके सामने एक रंगशाला तथा पाषाणका चबूतरा बनवाया था।
इस प्रकार दिगम्बराचार्योंने दक्षिण भारतमें सभी राजवंशोंको प्रभावित किया और अनेक राजवंशोंको जैनधर्मका अनुयायी बनाया। उत्तरमें मौर्य, लिच्छवि, भातृवंश, चेदिवश आदिके साथ गुजरेश्वर कुमारपाल आदि भी
उल्लेख्य हैं।
Sanjul Jain Created Article On Date 10 June 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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