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#suparshwamatimatajiShriveersagarjiMaharaj
आर्यिका श्री सुपार्श्वमती माताजी का जन्म राजस्थान प्रान्त के नागौर जिले के मेनसर ग्राम में हुआ। उनका जन्म फाल्गुन सुदी नवमी संवत् 1985 वार शुक्रवार मृगशिर नक्षत्र की पावन बेला में हुआ। उनका नाम भंवरी बाई रक्खा गया। उनसे बड़े भाई भंवरलालजी थे और सागरमलजी, निहालचन्दजी, गणपति बाई, गणपतजी एवं संपतलालजी छोटे भाई बहिनथे। कुल सात भाई बहिन थे। उनकी माता का नाम अणची देवी और पिता का नाम श्री हरखचंदजी चूड़ीवालथा।
उनके बचपन की दिनचर्या: लुका-छिपी, गट्टा, लंगड़ी खेल, रस्सी कूद का खेल खेतना, घर के काम-काज में हाथ बंटाना, मां-दादी व बुजुर्ग महिलाओं के वार्तालाप में एकाग्रचित्त होना, यही उनके बाल्यकाल की दिनचर्या थी। गुड्डे-गुड्डी का खेल तो उनके बाल जीवन का अटूट अंग था।
पंडित गौरीलालजी शास्त्री से सात वर्ष की उम्र में बालिका भंवरी जैन धर्म के भाग १, २, ३ व ४ का अध्ययन किया। पंडितजीने भंवरी बाई की रूचि देखकर उन्हें ‘षट्कर्मोपदेश' पढणे के लिये दिया। बालिका भंवरी ने सात वर्ष की उम्र में आचार्य चन्द्रसागरजी के दर्शन किये पंडित गौरीलालजी जिंके साथ थे।
बारह वर्ष की छोटी उम्र में विवाह की परिभाषा से अनभिजन भंवरी का ब्याह नागौर के छोगमलजी बड़जात्या के सुपुत्र श्री इन्द्रचन्दजी से माघ सुदी दशमी संवत् 1997 मंगलवार के दिन सम्पन्न हुआ।
विवाह के पांच सात दिन उपरान्त भंवरी द्वारा अपने मायके के चौके में घी भरा मटका ऊपर रखते वक्त फूट गया और वह घी से भर गयी तो, घी गिरने से कुछ अनहोनी होने की आशंका से मां का मन कांपने लगा तो पिता ने कहा कि डरने की कोई बात नहीं है। ये जिधर भी जायेगी, घी के दिये जल उठेंगे।
विवाह के तीन माह उपरान्त जब नव वधु अपने मायके में आई हुई थी तो घर में नव वधू के प्रवेश की शहनाई मुखरित हुई ही थी कि क्रूर काल बेरहमी से कुंवर इन्द्रचन्द को अपने आगोश में ले लिया और नवोदित श्रृंगार को वैधव्य का बाना पहना दिया। भंवरी बाई को अपनी सास प्यारी देवी के साथ प्रथम बार तीर्थराज सम्मेद शिखर जाने का पुण्य अवसर प्राप्त हुआ। वैधव्य के पश्चात् भंवरी ने अपनी रूचि का मोड़ धार्मिक क्रियाकलापों, तीर्थ यात्रा, विधान, साधु-संतों के सानिध्य में जप-तप व ध्यान आदि की ओर प्रवृत्त किया। इस दु:ख भरे जीवन में उनको माता का सम्बल नहीं मिला, उनकी माता कुछ समय उपरान्त क्षय रोग से ग्रसित होकर देवलोक सिधार गई। विवाह के करीब छह वर्ष उपरान्त 18 वर्ष की छोटी उम्र में शुद्र जल का नियम लेकर उन्होंने प्रथम आहार आचार्य चन्द्रसागरजी द्वारा दीक्षित क्षुल्लिका इन्दुमतीजी को बिना नमक का आहार करवाकर स्वयं आजीवन नमक का त्याग कर दिया। भंवरी बाई ने धवल वस्त्रधारी आचार्य चन्द्रसागरजी ने जो धर्म बीज बोया उसी बीज को क्षुल्लिका इन्दुमती माताजी ने पल्लवित पुष्पित किया, उनके दर्शन कर मेनसर ग्राम में प्रथम दर्शन कर वैराग्य का बीज पल्लवित पुष्पित किया। उनकी शिक्षा व दिशा के आधार स्तम्भ ब्रह्मचारी श्री (स्वर्गीय आचार्यश्री अजितसागरजी) ने करवाया। उस वक्त नागौर में श्री आदिसागरजी, तीन क्षुल्लक श्री धर्मसागरजी, श्री शिवसागरजी, श्री सिद्धसागरजी, चार आर्यिका श्री वीरमतीजी, सुमतिमतीजी, विमलमतीजी, पारसमतीजी क्षल्लिका इन्दुमतीजी, सिद्धमतीजी, शांतिमतीजी ने कुल बारा पिच्छी धारण कर्ता सन्तों ने चातुर्मास किया। उन्होंने इन्दुमती माताजी से ब्रह्मचर्य व्रत व सप्तम प्रतिमा के व्रत अंगीकार किये और धर्म साधना पथ पर प्रथम कदम रखा। क्षुल्लिका रत्न इन्दुमतीजी ने विक्रम संवत् 2005 आश्चिन शुक्ल ग्यारस को नागौर में मुनि वीरसागरजी से आर्यिका दीक्षा ली।
मेड़ता रोड में भंवरी बाई को तीर्थराज सम्मेदशिखरजी की पैदल यात्रा का महत्त्व प्रकाशित करने वाले सूर्य प्रकाश ग्रन्थ' के स्वाध्याय का सुअवसर प्राप्त हुआ।
मेडता सिटी में आकर बचपन से पिता के मुह से सुना णमोकार महामंत्र की महत्ता का अवलम्बन लेकर तीर्थराज की पैदल वंदना करने की भावना भाने के लिए भंवरी बाई ने श्री आदिनाथ प्रभु की प्रतिमा के समक्ष अटूट श्रद्धान रखते हुए णमोकार मंत्र का जाप किया और 'ॐ ह्रीं अनंतानंत परम सिद्धेभ्यो नम: नमोस्तु सर्व सिद्धेभ्य:' का अखंड जाप किया। जाप के परिणामस्वरूप पन्द्रह दिन बाद फुलेरा से ब्रह्मचारी चांदमलजी का तार के माध्यम से संदेश आया की पूज्य वीरसागरजी ससंघ तीर्थराज की यात्रा पर जा रहे हैं। आप भी साथ अवश्य चलें। मेड़ता सिटी से बारह सौ मील की तीर्थराज की पैदल यात्रा तय करनी थी। भंवरी बाई ने पूज्य इन्दुमतीजी, पूज्य वीरसागरजी ससंघ ने 75 श्रावक श्राविका के साथ वंदना परिक्रमा कर तीर्थराज की रज को मस्तक पर लगाकर धन्य किया। अगला चातुर्मास संघ ने ईसरी में कर मधुबन का पुन: दर्शन करते हुए श्री सोनागिरिजी सिद्ध क्षेत्र विहार किया। सोनागिरिजी सिद्धक्षेत्र में आचार्य महावीर कीर्तिजी का मिलन हुआ और विमलसागरजी की मुनि दीक्षा सम्पन्न हुई। 'भ्रमण ही श्रमण की नियति है' इसे चरितार्थ करते हुए आर्यिका इन्दुमतीजी संघ ने आचार्य महावीरकीर्तिजी के संग बुन्देलखण्ड की यात्रा की। बंधा क्षेत्र में आचार्य महावीरकीर्तिजी के निर्देशानुसार अभिषेक कर णमोकार मंत्र का जाप करते हुए सूखे कुएँ में गंधोदक डालने से कुआँ पानी से लबालब भर गया। बुन्देलखण्ड की यात्रा कर संघ ने मधुबन में प्रथम बार चातुर्मास किया, उससे पर्व किसी अन्य संत ने वहाँ चातुर्मास नहीं किया था। इससे तीर्थराज पर करने का द्वार खुल गया। भंवरी बाई ने ईसरी के दो चातुर्मास में मुनि विमलसागरजी महाराज से ज्ञान अर्जन किया। चातुर्मास के मध्य उन्होंने खण्डगिरि-उदयगिरि की यात्रा की। ब्रह्मचर्य अवस्था में भंवरी बाई ने महामंत्र नमस्कार मंत्र, पार्श्वनाथ स्तोत्र की हिन्दी टीका की। भंवरी बाई ने वीरसागरजी से आचार्य महावीरकीर्तिजी, आर्यिका इन्दुमती माताजी तीनों के सान्निध्य में दीक्षा लेने की इच्छा व्यक्त की।
'तुमसे तो एकेन्द्रिय जीव अच्छा है जो प्रतिवर्ष विकसित होकर नवीनता को प्राप्त करता है। तुमने तो सात-आठ वर्षों में जरा भा उन्नति नहीं की।' क्षुल्लक श्रुतसागरजी की विनोदवश कही गयी ये बात भवरी बाई को साधु समागम में आने के ध्येय को चिंतन करायी। मुनि वीरसागरजी को आचार्य शांतिसागरजी द्वारा प्रदत्त प्रथम पट्टाचार्य का पद जयपुर में संवत् 2013 में आचार्य महावीरकीर्तिजी, इन्दुमतीजी सहित अन्य 30 साधु संघ के सान्निध्य में दिया गया। विक्रम संवत् 2014 का खानियांजी का चातुर्मास आचार्य वीरसागरजी, आचार्य महावीरकीर्तिजी व आर्यिका इन्दुमतीजी के संघ का त्रिवेणी बनकर प्रस्फुटित हुआ। भंवरी बाई ने आर्यिका बनने की भावना पूज्य मातृ तुल्य गुरू मां इन्दुमतीजी माताजी के समक्ष रक्खी।
आर्यिका बनने के मनोभाव व्यक्त करने के उपरान्त भंवरी बाई ने क्षुल्लक श्रुतसागरजी को विस्मृत कर्त्तव्य का स्मरण करवाया की “महाराज! दो वर्ष से तो आप क्षुल्लक रूप में ही हैं और मैं तो आर्यिका बनूंगी। क्या आप क्षुल्लक रहकर मुझे नमस्कार करेंगे?”
भाद्रपद शुक्ल षष्ठी के सत्रह वर्ष पूर्व भंवरी बाई विवाह मंडप की वेदी पर बैठी हुई थी। विवाह वेदी की क्रियायें क्षणिक सुख के लिए थी और दीक्षा वेदी की क्रियायें सत्य का साक्षात्कार कराने वाली भव-सागर को तिराने वाली नौका सदृश और स्त्रीलिंग को छेदन के लिए ब्रह्मास्त्र सदृश थी। दीक्षा वेदी पर बैठकर उन्होंने बारह भावना का चिन्तवन किया। नमन पहले ही था, और आजीवन मीठा का भी त्याग कर दिया। जिन बालों की लहराती चोटियों को देखकर मचल उठती थी उन्हीं केशों को जमीन से घासफूस उखाडने सदृश कार्य का प्रयास भंवरी देवी सातवी प्रतिमा लेने के बाद निरन्तर से कर रही थी।
वह भाद्र शुक्ला षष्ठी संवत् 2014, रविवार, स्वाति नक्षत्र, सन् 1957 की तिथि थी जब खानियांजी के प्रांगण में आचार्य आर्यिका इन्दुमती माताजी सहित 27 मुनिराज के विशाल संघ सहित धवल परिधान में लिपटी भंवरी बाई को आर्यिका के सर्वोच्च पद पर आसीन होने की छटा प्रदान कर रहा था।
आचार्य वीरसागरजी ने शुभ मुहूर्त देखकर मंत्रोच्चारण करते हुए मस्तक पर केशर चंदन से स्वास्तिक बनाया और लवंग की स्थापना की।
उस शुभ तिथि को श्री 1008 सुपार्श्वनाथ भगवान का गर्भ कल्याण था, अत: उनका नाम आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी दिया। आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी ने सप्तम प्रतिमा से सीधे आर्यिका दीक्षा ली। आर्यिका श्री ब्रह्मचारिणी से सीधे आर्यिका बनने वाली सर्वप्रथम कडी थी।
आचार्य महावीरकीर्तिजी ने अपने निमित्त ज्ञान व ज्योतिष ज्ञान से एवं अपनी पारखी दृष्टि से नव दीक्षित आर्यिका की भावी झलक का दर्शन कर कहा- “यह कुंभ राशि वाली सुपार्श्वमती आर्यिका पद की गरिमा को सर्वोच्चता के शिखर पर आरूढ़ करेगी। जिस प्रकार अगस्त्य ऋषि ने समुद्र मंथन कर अमृत कुंभ निकाला था, उसी प्रकार यह भी शास्त्रों के सागर का मंथन कर जन-जन को अमृत बांटेगी व भवसागर का शोषण करेगी।“
आचार्य वीरसागरजी ने कुछ समय पश्चात् आसोज कृष्णा अमावस्या को मध्याह्न बेला में 31 साधु-साध्वी के समक्ष अपनी नश्वर देह का त्याग किया। आचार्य वीरसागरजी से दीक्षित बीसवीं सदी की दो आर्यिका ज्ञानमती माताजी, आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी है जो जैन धर्म की आन, बान, शान हैं, साक्षात सरस्वती स्वरूप है।
आर्यिका द्वय इन्दुमतीजी व सुपार्श्वमतीजी ने दीक्षा उपरान्त अपना पहला चातुर्मास नागौर में आचार्य महावीरकीर्तिजी संघ सहित किया। आर्यिकाश्री की दीक्षा उपरान्त मुनि धर्मसागरजी का दर्शन संवत् 2015 में हुआ। आचार्य शिवसागरजी के कर-कमलों द्वारा नेमीचंदजी बाकलीवाल की पुत्री शांति बाई ने दीक्षा ली और आर्यिका द्वय ने विद्यामतीजी संग त्रिवेणी का रूप ले लिया। त्रिवेणी संगम आर्यिका संघ ने अजमेर आदि भ्रमण करते हुए संवत् 2022 (सन् 1965) में सनावद में चातुर्मास किया। आर्यिकाश्री के प्रवचनों से हुई अगाढ़ आस्था व श्रद्धा से नव युवा यशवंत कुमार (वर्तमान आचार्य वर्द्धमानसागरजी) और मोतीचन्द्र सर्राफ (वर्तमान क्षुल्लक मोतीसागरजी) अन्तर हृदय में वैराग्य का बीजारोपण उत्पन्न हुआ। दोनों भव्य प्राणी संघ के साथ जाने को उद्यत हए लेकिन आचार्य शांतिसागरजी की आगमोक्त परम्परा को अक्षुण्ण बनाते हुये शिथिलाचार से कोसों दूर अनुशासन हेतु संघ में पुरुष को साथ न ले जाने के कारण आर्यिका संघ ने मना कर दिया। लगभग नौ वर्ष उपरान्त महावीरकीर्तिजी के दर्शन गजपंथा सिद्ध क्षेत्र में हुये। गजपंथा में आचार्यश्री से उन्होंने निमित्त ज्ञान, व्याधियों के उपचार, ज्योतिष ज्ञान का अर्जन किया। आर्यिकाश्री ने सदैव समय के मूल्य को पहचाना और कभी समय व्यर्थ न गँवाया। कुंभोज बाहुबली में आर्यिका त्रय में एक नई कडी जुडी बह्मचारिणी बहिन प्रभावती ने आचार्य समन्तभद्रजी से आर्यिका दिक्षा ली और नाम पाया-सुप्रभामतीजी।
अकलूजमें असाता वेदनीय कर्म के तीव्र प्रकोप से जब माताजी ग्रासित थे तब दौ सौ मील का दुर्गम रास्ता तय कर आचार्य महावीरकीर्तिजीने श्रावकों को उचित उपचार करने को कहा और कहा कि समाज की अमूल्य, सरस्वती की साक्षात मूर्ति की हमें हर हाल में रक्षा करनी है। इसके द्वारा समाज व जैन संस्कृति का बहुत प्रचार-प्रसार होने वाला है।
जबलपुर प्रवेश में आर्यिकाश्री के प्रवचनों ने बालिका प्रमिला को अन्तर्मन से प्रभावित किया। संघ में रहकर भी बालिका प्रमिला ने बी.ए., एम.ए. (संस्कृत, प्राकृत) में कर षट्खंडागम के गुणस्थानों के स्वरूप पर शोधपूर्ण कार्य किया और रानी दुर्गावती विद्यालय से पी.एच.डी. की। बालिका ने आजीव ब्रह्मचर्य व्रत सन् 1971 को और सप्तमप्रतिमाधारण सन् 1984 को शिखरजी में लेकर प्रथम कदम रखा। आर्यिका संघ का बंगाल की सुदूरवर्ती धरा पर विक्रम संवत् 2029 आषाढ़ शुक्ला 6, दिनांक 16.7.1972 को प्रथम चरण रखा। कोलकाता के साढ़े आठ माह के प्रवास में माताजी को असाता वेदनीय कर्म के उदय से अल्सर रोग का तीन बार तीव्र प्रकोप हुआ जो समाज द्वारा णमोकार का अखंड जाप करने से मन्द हुआ। भक्त ने फाल्गुन शुक्ला नवमी को 45वां वर्षवर्द्धन दिवस 45 दीपक से आरती कर 45 पुष्पों के पुंज चढ़ाकर मनाया व 31 मार्च 1973 चैत्र कृष्णा द्वादशी को कोलकाता से विहार किया। बंगाल बिहार का सीमावर्ती देश किशनगंज जिसे आसाम का द्वार भी कह सकते हैं वहाँ माताजी के तपोबल व णमोकार मंत्र के अटूट श्रद्धान के परिणामस्वरूप उस स्थान पर छोटे-बड़े सभी प्रकार के सर्प होते हुए भी कोई भी साधु व श्रावक को सर्प दंश का भाजन नहीं होना पड़ा। किशनगंज प्रवास में माताजी ने अन्य पांच श्राविका के साथ कवलायण व्रत किया जो अवमौदर्य तप में आता है। यह व्रत आसोज कृष्णा अमावस्या से शुरू होकर कार्तिक कृष्णा अमावस्या को पूर्ण होता है। प्रारम्भ में उपवास, उसके बाद एक ग्रास, दो ग्रास वृद्धि करते हए पूर्णिमा को उपवास, एकम को 14 ग्रास लेते हुये कम करते हुये होता है। माताजी ने आसाम की ओर प्रथम चरण 8 दिसम्बर 1974 को प्रारंभ किया। जिस पूर्वांचल आसाम प्रान्त की धरा पर किसी सन्त आर्यिका के चरण न पड़े उस धरा पर प्रथम चातुर्मास आर्यिका संघ ने संवत् 2032 में नव निर्मित महावीर भवन गुवाहाटी में किया। महावीर उद्यान गुवाहाटी में भगवान महावीर का 2500वां निर्वाण महोत्सव मनाया गया। आसाम से वापस आते समय भागलपुर पंचकल्याणक महोत्सव पर माताजी को सिद्धान्त वारिधि की उपाधि दी गयी।
भ्रमण करते समय आर्यिका संघ यत्र-तत्र पंचकल्याणक वेदी प्रतिष्ठा आदि करवाते हुए सम्मेदशिखर गुरूमाता इन्दुमतीजी का स्वास्थ्य नरम होने के कारण उन्होंने अंतिम समय शाश्वत तीर्थराज पर व्यतीत करने के भाव व्यक्त किये।
गुरूमाता का स्वास्थ्य अति निर्बल होने के बावजूद भी आर्यिकाश्री की प्रबल इच्छा जानकर संघ को सम्मेदशिखरजी से साढ़े तीन सौ मील दर खण्डगिरि उदयगिरि के वंदनार्थ जाने की अनुमति दी। साढ़े तीन सौ मील की यात्रा उन्होंने चौबीस (24) दिनों में पूर्ण की। सम्मेदशिखरजी लौटकर उन्होंने वृहत् इन्द्रध्वज विधान किया उसमे एक सौ पचास जोड़ा बैठे। कोई मठ, संस्थान न बानाने की भावना होते हुये भी इन्द्रध्वज मंडल को स्थायी रूप देने के लिए मध्य लोक शोध संस्थान के निर्माण की भूमिका बनायी। फाल्गुन माह की अष्टान्तिका में ब्रह्मचारी सूरजमलजी ने 2 मार्च 1982 को आर्यिकाश्री के चरणों में पूज्य आचार्यश्री 108 धर्मसागरजी अभिनंदन ग्रन्थ समर्पित किया। गुरूमाता इन्दुमतीजी ने सल्लेखना तीर्थराज पर कोई साधु सन्त नरहने के कारण आर्यिकाश्री ने गुरूमाता को भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा के सम्मुख शास्त्रोक्त विधिपूर्वक त्याग करवाया। गुरूमाता इन्दुमतीजी की 6 दिन की यम सल्लेखना आषाढ़ मास में 16 जून 1987 को हुई और निर्यापकाचार्य बनी आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी एवं सहयोगिनी बनी प्रमिला बहन एवं संघ की अन्य माताजी।
संघ ने यत्र तत्र विहार करते हुए कानकी में संघस्था देवकी बाई और जयश्री बाई को दीक्षा दी, और नाम पाया- आर्यिका क्रमश: नेममतीजी व निर्मलमतीजी। आसाम प्रांत में भोग विलास की भावना से ग्रासित अडंगाबाद की बसंती बाई ने बाह्य अन्तरंग परिग्रह का त्याग कर आर्यिका का उत्कृष्ट पद पाया और नाम पाया भक्तिमतीजी। डीमापुर प्रवास में माताजी ने दीपावली के दिन रात्रि से 24 घंटे तक लगातार एक ही आसन से जाप करते हुए देखा। नागा लोग रात्रि में जब माताजी के दर्शनार्थ आये तो उन्होंने कहा कि ये तो देवता है। इस तरह धर्म की खूब प्रभावना हुई। आसाम के चातुर्मास में संघस्थ ब्रह्मचारी कैलाशजी ने सोलहकारण के 32 उपवास कर इतिहास रचा। यही व्रत गौरीपुर चातुर्मास में आर्यिकाश्री ने सोलहकारण के सोलह और भक्तिमती माताजी ने बत्तीस उपवास किये। आसाम, बिहार से भ्रमण करते हुए सम्मेदशिखर तीर्थराज पहुँचकर तेइस वर्ष उपरान्त विमलसागरजी के दर्शन हुये और उन्होंने अपने निमित्त ज्ञान द्वारा आर्यिकाश्री की प्रज्ञा को जानते हुए उन्हें 'आर्यिका प्रमुख' की उपाधि देकर पिच्छिका भेंट की।
आचार्यश्री विमलसागरजी ने मध्यलोक रचना का कार्य शीघ्र पूर्ण करने की इच्छा व्यक्त की लेकिन इसी बीच आचार्यश्री मात्र दो दिन के ज्वर से नश्वर देह को छोड़कर चल बसे।
मध्यलोक शोध संस्थान की प्रतिष्ठा में प्रतिष्ठाचार्य ब्रह्मचारी सूरजमलजी के प्रतिष्ठाचार्यत्व में 108 आचार्यश्री संभवसागरजी, 108 आचार्यश्री भरतसागरजी, आचार्यश्री सिद्धान्तसागरजी, 108 आचार्यश्री सन्मतिसागरजी, आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी ससंघसहित शताधिक मुनि आर्यिका के सान्नीद्ध में भव्य पंचकल्याणक महोत्सव सम्पन्न हुआ। बिहार के राज्यपाल महामहिम श्री किदवईजी की उपस्थिति भी रही। कोलकाता के ज्ञान पिपासु की प्यास बुझाने के लिए आपने शिविर व प्रवचन के माध्यम से भक्तामर स्तोत्र, तत्त्वार्थ सूत्र, द्रव्य संग्रह, छह ढ़ाला, चर्चा शतक, चौबीस ठाणा व जैनधर्म प्रवेशिका के चारों भागों का अध्ययन करवाया।
माताजी ने प्रवचन के माध्यम से प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान के दस भव सभी भक्तों को याद कराये जिसकी स्मृति आज भी हृदय पटल पर अंकित हैं।
कोलकाता नगर में एक चातुर्मास बड़ा बाजार के अहिंसा प्रचार समिति सभागार और एक हावड़ा डबसन रोड में हुआ। उन्हें कोलकाता में 'समाधि साम्राज्ञी' से विभूषित किया गया। कोलकाता में ब्रह्मचारिणी शांति बाई और कुसुम बाई ने संघ में प्रवेश किया। कोलकाता चातुर्मास के बाद आर्यिका संघ ने केसरीचन्द पूसराज फर्म के विजयकुमार शांतिकुमार के संघपतित्व में बुन्देलखंड की यात्रा की। दो माह की यात्रा पूर्ण करने पर आर्यिकाश्री ने जबलपुर में 31 जनवरी को प्रमिला दीदी की मातुश्री पुत्री देवी की समाधी करायी जिनका नाम निश्चलमती माताजी रखा जिन्होंने 'गणिनी सुपार्श्वमती मात, आज थारी आरती उतारू' लिखकर माताजी के गुणों का गान किया था। बीना बारहा में आचार्य विद्यासागरजी से आपका मिलन हुआ। आर्यिका संघ ने संवत् 2055 सन् 1999 में शांतिवीरनगर श्री महावीरजी में 34 वर्ष बाद आचार्य वर्द्धमानसागरजी के दर्शन कर अपने नेत्र तृप्त किये। लगभग 38 वर्ष के बाद आचार्य वीरसागरजी की आगमोक्त परम्परा अनुसार आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी को 20 आर्यिका व 9 मुनि संघ का जहाँ प्रवेश हुआ उन दोनों संघ का चातुर्मास जयपुर में भट्टारकजी की नशियां में सम्पन्न हुआ। 700 शिष्य शिविर में बैठे थे। चांदखेड़ी में संघस्थ भक्तिमती माताजी की समाधि के पश्चात् जयपुर से विहार कर मेनसर, डेह, नागौर, लाडनू आदि होते हुए सुजानगढ़ में सल्लेखना की नई कड़ी जुड़ी संघस्थ टिकी बाई जो रोशनमती माताजी बनी। बरह्मचारिणी हरखी बाई जो मनोज्ञमती माताजी बनी उनकी दिक्षा कुचामण में हुई। आर्यिकाश्री ने अपने खानियां जयपुर चातुर्मास में 15 माह में सात सल्लेखना करवायी। माताजी ने बड़का बालाजी फार्म हाउस में चार सल्लेखना कराई। इन चार सल्लेखना में एक सल्लेखना उनके गृहस्थ अवस्था के देवर श्री हुक्मीचंदजी बड़जात्या (कोलकाता निवासी) की भाद्र शुक्ला चतुर्दशी के दिन सल्लेखना करवायी जिसमें मुनि 108 श्री अनेकान्तसागरजी का सान्निध्य रहा। हुक्मीचंदजी की अनुत्तरसागरजी बनकर सल्लेखना हुई।
नागौर, कुचामन, लूणबां होते हुये जन्म ग्राम मेनसर में एक पाठशाला का उद्घाटन माताजी के सानिध्य में हुआ उसका सुपार्श्वमती कन्या पाठशाला नाम रखा गया। सीकर नगर में पर्युषण पर्व में लगभग 40 वर्षों से संघस्थ माताजी से दीक्षित प्रथम आर्यिका विद्यामतीजी की सल्लेखना भाद्र पद शुक्ला नवमी प्रात: 10.30 बजे हुई। सीकर से 550 किमी. दूर स्थित नन्दनवन जाकर गणिनी आर्यिका विशुद्धमती माताजी की समाधि 22 जनवरी को कराई। धरियावाद से तीन किमी. दूर स्थित नन्दनवन में दोनों गणिनी द्वय का 22 दिन का समागम रहा और आचार्य वर्द्धमानसागरजी ससंघ एवं मुनि पुण्यसागरजी भी वहीं विराजमान थे। चातुर्मास समाप्त कर धरियाबाद में माताजी ने अपनी प्रभावोत्पादक वाणी व चातुर्य से 60 वर्षों से चल रहे भूगर्भ से निकली आदिनाथ भगवान की प्रतिमा का विवाद मौन तप से सुलझा दिया। धरियाबाद से विहार कर आर्यिका संघ ने लगभग 27 दिनों के विहार के बाद गिरनार सिद्धक्षेत्र की यात्रा की। गिरनार यात्रा करने के बाद आर्यिका श्री प्रथम बार उदयपूर प्रवेश किया जहाँ 10 से 12 मार्च 2003 तक हीरक जयन्ती महोत्सव मनाया गया। उदयपुर में मनोज्ञमती माताजी की सल्लेखना हुई और चातुर्मास स्थापना पर माताजी ने लगातार एक ही आसन में 14-15 घंटे तक जाप किया। पारसोला में प्रवेश के बाद वहाँ जिनवाणी संरक्षक सुप्रभामती माताजी की सल्लेखना हुई और कमला बाई और शांति बाई ने समस्त आरम्भ परिग्रह का त्यागकर आर्यिका का सर्वोत्कृष्ट पद पाया और नाम पाया-सहजमतीजी और स्वभावमतीजी। पारसोला में आचार्य वर्द्धमानसागरजी और आचार्य सम्मतिसागरजी का वात्सल्य मिलन हुआ। इनके अलावा भरतसागरजी का भी वहाँ जब समागम हुआ तो 75 से भी अधिक साधुओं के बीच एक श्वेत वस्त्रधारी माताजी शंका समाधान करती थी तब ऐसा लगता था, मानो समवशरण लगा हो जिसमें श्वेत वस्त्रधारी सरस्वती ही साक्षात आकर बोल रही हो। पारसोला में चतुर्विध संघ के समक्ष संघस्थ सुप्रभामती माताजी ने दस दिन तक अन्न-पानी त्याग कर यम सल्लेखना ली।
संघ जब पुन: पारसोला आया तो विक्रम संवत् 2062, वीर संवत् 2531 दिनांक 17.04.2005 चैत्र शुक्ला चतुर्दशी को पारसोला ग्राम के सुपार्श्वमती रत्नत्रय भवन में महावीर भगवान, चन्द्रप्रभु व बाहुबली के बिम्ब के समक्ष शनिवार मध्याह्न डेढ़ बजे 12 वर्ष की समाधि की दृढ़ प्रतिज्ञा का संकल्प कर गुरुओं को नमन कर कायोत्सर्ग किया। उनकी चार वर्ष पूर्व समाधि की तीव्र भावना थीं लेकिन कोई नग्न दिगम्बर मुनि के दर्शन न होने से उनको बहुत कसक थी। ऐसा उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है। निम्बाहड़ा, नीमच की तरफ बिहार करते हुए जावद में माताजी ने जयपुर के प्रसन्नकुमारजी बाकलीवाल को प्रसन्नसागरजी यथानाम देकर आचार्यश्री के आदेशानुसार मुनि दीक्षा देकर सल्लेखना करवायी।
परम पूज्य गणिनी आर्यिका 105 श्री सुपार्श्वमती माताजी का दीक्षा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव 17 से 21 अक्टूबर 2007 जयपुर नेमिसागर में मनाया।
ब्रह्मचारिणी प्रमिला दीदी जो 34 वर्षों से तन, मन, धन से समर्पित माताजी की मानो छाया हो, स्वर्ण जयंती महोत्सव में आसोज शुक्ला दशमी को प्रमिला बहिन ने आर्यिका के सर्वोत्कृष्ट को प्राप्त कर 105 आर्यिका गौरवमती नाम पाकर संघ के गौरव को बढ़ाया है और उनके साथ मधु व सरिता बहिनने भी दीक्षा लेकर नाम पाया गंभीरमतीजी व गरिमामतीजी।
आर्यिका संघ बड़का बालाजी 26 जनवरी 2011 प्रात:काल को पहुँचा।
सावन, भाद्रपद के माह में व अष्टान्तिका पर्व में आर्यिकाश्री अन्न का त्याग रखते थे। आर्यिकाश्री लगभग सात वर्षों से एकान्तर व्रत किया करती थी। उन्होंने अपने जीवनकाल में माताजी की डायरी के आधार पर सन् 2003 तक 5000 से ऊपर व्रत किये थे और उसके बाद एकान्तर व्रत के आधार पर साढ़े तीन वर्ष यानि 1275 व्रत हुए। इस प्रकार 6500 करीबन व्रत उन्होंने अपने जीवनकाल में किये। उन्हें नमक,मीठा, तेल, दही चार रसका त्याग था। 65 वर्ष से नमक व 54 वर्ष से चीनी व तेल रस का त्याग था। उन्होंने 52 कृति का सृजन, टीका की। उन्होंने शांतिसागरजी आचार्य की अक्षुण्ण आगमोक्त परम्परा का पालन किया। पूज्य गौरवमती माताजी 38 वर्षों से उनकी छाया बनकर रही और वैय्यावृत्ति की। माताजी विजातीय विवाह, विधवा विवाह, आजीवन शुद्र जल का त्याग, जनेऊ और चंदोवा आदि के बिना आहार नहीं लेती थी। कुआँ का पानी बिना वाहन का, हाथ की चक्की में पिसा आटा, दूध जैन या ब्राह्मण का दुहा हुआ, अंगीठी में बना आहार करती थी। चतुर्दशी के दिन माताजी 8000 जाप यानि पूरी 80 माला भी पूर्ण कर लेती थी। इनके अलावा णमोकार का तो जाप उनके हर समय चलता था। माताजी की धारणा इतनी प्रखर थी कि एक बार मिला व्यक्ति चाहे वह 40 साल से भी मिला हो, उसको भी सहजता से पहचान लेती थी। पर्युषण पर्व में माताजी के मुखारविन्द से माताजी बिना जिनवाणी का अवलम्बन लिए जब तत्वार्थ सूत्र का वाचन करती थी तो मानो 5-5,6-6 घंटे तक धारा प्रवाह सरस्वती ही कंठ में विराजमान हो जाती थी।
सर्वार्थ सिद्धि न्याय, व्याकरण जैसे क्लिष्ट ग्रन्थों की टीका करते समय धर्मसभा या कोलाहल में भी माताजी की लेखनी ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम अति तीव्र होने के कारण न्याय जैसे क्लिष्ट ग्रन्थों को निरन्तर लेखन करने बावजूद धर्मसभा में कही वक्ता की प्रत्येक बात का उत्तर सहजता से देती थी। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान रूपी डालियों को माताजी ने चारित्र की जड़ को मजबूत करना बताया। माताजी ने बताया की सम्यक्दृष्टि की कषाय दूध का उफान है जो पानी डालने से शांत हो जाता है तथा मिथ्यादृष्टि की कषाय घी का उफान है जो पानी डालने से भभक जाएगा। जिनवाणी में एक भी अक्षर कम ज्यादा करने से माताजी कहा करती थीं की “आज जिनवाणी में मिलावट होने लगी है। कुछ भी जोड़ देते हैं और कुछ भी हटा देते हैं जिससे ज्ञानावरणी कर्म का बंध होता है।“ माताजी का अंतिम 84वां वर्षवर्द्धन दिवस बड़का बालाजी फार्म हाउस 14 मार्च 2012 फाल्गुन सुदी नवमी को प्रभात बेला में भक्ति करते हुए थाल बजाकर,मध्याह्न बेला में पाद प्रक्षालन, शास्त्र भेंट पूजन, आरती करते हुए मनाया गया। समाधि के कुछ माह पूर्व श्रावक रमेशकुमारजी जयकुमारजी के आने का समय होते ही माताजी की प्रतिक्रिया दोपहर में समाज के प्रबुद्धगण रमेशजी, जयकुमारजी के आने का समय होते ही तत्व चर्चा कर सुखद अनुभूति प्राप्त कर हर्षित होती थी। माताजी की समाधि पूर्व गणिनी आर्यिका स्यादवादमती माताजी बड़का बालाजी में दर्शनार्थ 6 अप्रैल 2012 को पहुँची। आचार्य चैत्यसागरजी ने 11 अप्रैल सायं 4 बजे पदार्पण किया। आचार्यश्री के सान्निध्य में माताजी ने एक दिन पूर्व रत्नों की प्रतिमाओं के दर्शन किये और समाधि के पूर्व प्रात:काल पूर्ण चैतन्य अवस्था में आचार्यश्री और गणिनी प्रमुख स्यादवादमती माताजी व समस्त संघ के सान्निध्य में 108 अंगुल/9 फुट की सफेद पाषाण की चन्द्रप्रभुजी की मुखावलोकन किया। उस प्रतिमा का शिलान्यास 19 जनवरी 2013 को हुआ। 12 अप्रैल को आचार्य वर्द्धमानसागरजी ने वीडियो दूरवार्ता के जरिये माताजी को कहा- “माताजी, कलश चढ़ाने का समय आ गया है।“ तत्पश्चात माताजी ने आचार्यश्री का चरण वन्दन किया।
माताजी की सल्लेखना बड़का बालाजी जयपुर में बैशाख कृष्णा अष्टमी दिनांक 13.4.2012 प्रात: 9 बजकर 24 मिनट पर चारों प्रकार का आहार त्याग, परिग्रह त्याग कर अरहंत सिद्ध नामोच्चारण करते हुए माताजी की समाधि हुई। अंत समय में माताजी के पास आचार्य चैत्यसागरजी ससंघ, मुनि अनेकान्तसागरजी, मुनिश्री विश्रुतसागरजी ससंघ (आचार्य विरागसागरजी संघस्थ), आर्यिका गणिनी स्याद्वादमती माताजी, आर्यिकासुपार्थमती माताजी ससंघ, क्षुल्लक प्रसिद्धसागरजी का संगम था। माताजी के संघ में माताजी- आर्यिका वैराग्यमतीजी, स्वभावमतीजी, आर्यिका गौरवमती माताजी, आर्यिका संयममतीजी, क्षुल्लिका आदर्शमतीजी, ब्रह्मचारिणी दीदी हिना दीदी, सारिका दीदी, स्वेता दीदी, कंवरी बाई, कीर्ति दीदी, किरण दीदी, कुसुम दीदी, मुन्नी बाई, विमला दीदी, गड़बड़ी बाई संघस्थ हैं। रमेशजी, जयकुमारजी के द्वारा 20 मिनट पूर्व माताजी से पुछा क्या चल रहा है तो माताजी ने कहा- “मैं अपने में हूँ, अरिहन्त सिद्ध चल रहा है।“
माताजी की अंतिम यात्रा बड़का बालाजी फार्म हाउस में हुई। समाधि मरण करने वाला आठ भव से अधिक संसार में परिभ्रमण नहीं करता। आधि, व्याधि, उपाधि से परे माताजी समाधि का ज्ञान दे गई। माताजी की समाधि के दूसरे दिन बड़का बालाजी में सभी साधु सन्त के सानिध्य में आचार्य धर्मसागरजी महाराज का चौदहवां समाधि दिवस वैशाख कृष्णा नवमी को मनाया गया।
माताजी के प्रथम समाधि दिवस के उपलश चुडीवाल परिवार द्वारा मध्यलोक शोध संस्थान सम्मेदशिखर में त्यागी, व्रती साधु संत के लिये आहारशाला का उद्घाटन 11 अप्रैल को किया गया।
माताजी ने अपने आर्यिका दीक्षा उपरान्त चातुर्मास - 54 हुए, आर्यिका दीक्षा-22 क्षुल्लक दीक्षा - 4, क्षुल्लिका-3, समाधि - 34, प्रतिष्ठा निर्माण 26 करवाये।
माताजी के 50वीं दीक्षा जयन्ती अवसर पर उसी माह आचार्य शांतिसागरजी की आगमोक्त परम्परा के 50वीं पुण्य तिथि वीरसागरजी, 50वां दीक्षा दिवस श्रुतसागरजी, 50वां दीक्षा दिवस सुपार्श्वमतीजी, 50वां दीक्षा दिवस अजितसागरजी व पूज्य गौरवमतीजी का दीक्षा पर्व मनाया गया।
माताजी के निर्देशानुसार संघस्थ ब्रह्मचारिणी दीदी को संस्कृत भाषा व व्याकरण सिखाने हेतु प्रतिदिन संस्कृत भाषा व व्याकरण का ग्रन्थ कातंत्रमाला का अध्ययन करवाने पंडित धर्मचन्दजी शास्त्री प्रतिदिन आते हैं। “सुन मेरे भगवन ! निकले तन से प्राण मेरे सामने खुला है तेरा दर हो तेरे दर पे प्रभुजी मेरा सर हो।“ माताजी प्रतिदिन वीतरागी प्रभु के दर्शन वंदन कर ये भजन गाकर अपनी भावना व्यक्त करती थीं।
परम पूज्य गणिनी आर्यिकाश्री 105 श्री सुपार्श्वमती माताजी ने रत्यत्रय की आराधना के साथ संस्कृत व प्राकृत ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद, मौलिक सृजन, पूजन, विधान की रचना कर प्राणी मात्र पर असीम उपकार किया है। उनकी करीब 52 कृति में कुछ मौलिक लेखन व अनुवाद - (1) आचार्य अकलंकदेव कृत राजवार्तिक पांच खण्ड (2) आचार्य श्रुतसागरसूरि कृत तत्त्वार्थ वृत्ति (3) आचार्य सोमदेव सूरि कृत योगसार (4) आचार्य कुलभूषणविरचित सार समुच्चय (5) पंडित आशाधर विरचित सागार धर्मामृत (6) इंद्रनंदी विरचित नीतिसार समुच्चय (7) आचार्य वीरनंदी विरचित आचारसार (8) आचार्य देवसेन विरचित आराधनासार (9)आचार्य कुन्दकुन्द विरचित षट् प्राभृत श्रुतसागर सूरि की टीका (10) सर्वार्थ सिद्धि (11) प्रमेय कमल मार्तण्ड (12) श्लोक वार्तिक (13) वैराग्यमणी माला (14) स्वरूप संबोधन (15) रत्नकरण्ड श्रावकाचार (16) रविचंद्राचार्य विरचित आराधनासार (17) शुभचन्द्राचार्य विरचित अंगपण्णति।
स्तोत्र एवं मौलिक रचनायें
भक्तामर स्तोत्र, कल्याण मंदिर स्तोत्र, एकीभाव स्तोत्र, विषापहार स्तोत्र. पाहुडभूपाल चतुर्विशति स्तोत्र, स्वयंभू स्तोत्र, समाधि शतक. इष्टोपदेश, प्रतिक्रमण पंजिका, दशलक्षण धर्म विवेचन अजितसागरजी व शिवसागरजी की संस्कृत पूजन, मेरा चिन्तवन, भवपार चलोगे, नारी चातुर्य, मोक्ष की अमरबेल रत्नत्रय, वरांग चरित्र, पांडव पुराण सार, द्रव्य संग्रह, कर्मरेख, जिन गुण सम्पत्ति विधान, नैतिक शिक्षाप्रद कहानियां भाग 1 से 10 तक।
1.Charitrachakravarti Acharya Shri Shanti Sagar Ji Maharaj 1872 | ||
2. Aacharya Shri 108 Veer Sagar Ji Maharaj 1876 | ||
Aryika Shri 105 Suparshwamati Mataji |
आर्यिका श्री सुपार्श्वमती माताजी का जन्म राजस्थान प्रान्त के नागौर जिले के मेनसर ग्राम में हुआ। उनका जन्म फाल्गुन सुदी नवमी संवत् 1985 वार शुक्रवार मृगशिर नक्षत्र की पावन बेला में हुआ। उनका नाम भंवरी बाई रक्खा गया। उनसे बड़े भाई भंवरलालजी थे और सागरमलजी, निहालचन्दजी, गणपति बाई, गणपतजी एवं संपतलालजी छोटे भाई बहिनथे। कुल सात भाई बहिन थे। उनकी माता का नाम अणची देवी और पिता का नाम श्री हरखचंदजी चूड़ीवालथा।
उनके बचपन की दिनचर्या: लुका-छिपी, गट्टा, लंगड़ी खेल, रस्सी कूद का खेल खेतना, घर के काम-काज में हाथ बंटाना, मां-दादी व बुजुर्ग महिलाओं के वार्तालाप में एकाग्रचित्त होना, यही उनके बाल्यकाल की दिनचर्या थी। गुड्डे-गुड्डी का खेल तो उनके बाल जीवन का अटूट अंग था।
पंडित गौरीलालजी शास्त्री से सात वर्ष की उम्र में बालिका भंवरी जैन धर्म के भाग १, २, ३ व ४ का अध्ययन किया। पंडितजीने भंवरी बाई की रूचि देखकर उन्हें ‘षट्कर्मोपदेश' पढणे के लिये दिया। बालिका भंवरी ने सात वर्ष की उम्र में आचार्य चन्द्रसागरजी के दर्शन किये पंडित गौरीलालजी जिंके साथ थे।
बारह वर्ष की छोटी उम्र में विवाह की परिभाषा से अनभिजन भंवरी का ब्याह नागौर के छोगमलजी बड़जात्या के सुपुत्र श्री इन्द्रचन्दजी से माघ सुदी दशमी संवत् 1997 मंगलवार के दिन सम्पन्न हुआ।
विवाह के पांच सात दिन उपरान्त भंवरी द्वारा अपने मायके के चौके में घी भरा मटका ऊपर रखते वक्त फूट गया और वह घी से भर गयी तो, घी गिरने से कुछ अनहोनी होने की आशंका से मां का मन कांपने लगा तो पिता ने कहा कि डरने की कोई बात नहीं है। ये जिधर भी जायेगी, घी के दिये जल उठेंगे।
विवाह के तीन माह उपरान्त जब नव वधु अपने मायके में आई हुई थी तो घर में नव वधू के प्रवेश की शहनाई मुखरित हुई ही थी कि क्रूर काल बेरहमी से कुंवर इन्द्रचन्द को अपने आगोश में ले लिया और नवोदित श्रृंगार को वैधव्य का बाना पहना दिया। भंवरी बाई को अपनी सास प्यारी देवी के साथ प्रथम बार तीर्थराज सम्मेद शिखर जाने का पुण्य अवसर प्राप्त हुआ। वैधव्य के पश्चात् भंवरी ने अपनी रूचि का मोड़ धार्मिक क्रियाकलापों, तीर्थ यात्रा, विधान, साधु-संतों के सानिध्य में जप-तप व ध्यान आदि की ओर प्रवृत्त किया। इस दु:ख भरे जीवन में उनको माता का सम्बल नहीं मिला, उनकी माता कुछ समय उपरान्त क्षय रोग से ग्रसित होकर देवलोक सिधार गई। विवाह के करीब छह वर्ष उपरान्त 18 वर्ष की छोटी उम्र में शुद्र जल का नियम लेकर उन्होंने प्रथम आहार आचार्य चन्द्रसागरजी द्वारा दीक्षित क्षुल्लिका इन्दुमतीजी को बिना नमक का आहार करवाकर स्वयं आजीवन नमक का त्याग कर दिया। भंवरी बाई ने धवल वस्त्रधारी आचार्य चन्द्रसागरजी ने जो धर्म बीज बोया उसी बीज को क्षुल्लिका इन्दुमती माताजी ने पल्लवित पुष्पित किया, उनके दर्शन कर मेनसर ग्राम में प्रथम दर्शन कर वैराग्य का बीज पल्लवित पुष्पित किया। उनकी शिक्षा व दिशा के आधार स्तम्भ ब्रह्मचारी श्री (स्वर्गीय आचार्यश्री अजितसागरजी) ने करवाया। उस वक्त नागौर में श्री आदिसागरजी, तीन क्षुल्लक श्री धर्मसागरजी, श्री शिवसागरजी, श्री सिद्धसागरजी, चार आर्यिका श्री वीरमतीजी, सुमतिमतीजी, विमलमतीजी, पारसमतीजी क्षल्लिका इन्दुमतीजी, सिद्धमतीजी, शांतिमतीजी ने कुल बारा पिच्छी धारण कर्ता सन्तों ने चातुर्मास किया। उन्होंने इन्दुमती माताजी से ब्रह्मचर्य व्रत व सप्तम प्रतिमा के व्रत अंगीकार किये और धर्म साधना पथ पर प्रथम कदम रखा। क्षुल्लिका रत्न इन्दुमतीजी ने विक्रम संवत् 2005 आश्चिन शुक्ल ग्यारस को नागौर में मुनि वीरसागरजी से आर्यिका दीक्षा ली।
मेड़ता रोड में भंवरी बाई को तीर्थराज सम्मेदशिखरजी की पैदल यात्रा का महत्त्व प्रकाशित करने वाले सूर्य प्रकाश ग्रन्थ' के स्वाध्याय का सुअवसर प्राप्त हुआ।
मेडता सिटी में आकर बचपन से पिता के मुह से सुना णमोकार महामंत्र की महत्ता का अवलम्बन लेकर तीर्थराज की पैदल वंदना करने की भावना भाने के लिए भंवरी बाई ने श्री आदिनाथ प्रभु की प्रतिमा के समक्ष अटूट श्रद्धान रखते हुए णमोकार मंत्र का जाप किया और 'ॐ ह्रीं अनंतानंत परम सिद्धेभ्यो नम: नमोस्तु सर्व सिद्धेभ्य:' का अखंड जाप किया। जाप के परिणामस्वरूप पन्द्रह दिन बाद फुलेरा से ब्रह्मचारी चांदमलजी का तार के माध्यम से संदेश आया की पूज्य वीरसागरजी ससंघ तीर्थराज की यात्रा पर जा रहे हैं। आप भी साथ अवश्य चलें। मेड़ता सिटी से बारह सौ मील की तीर्थराज की पैदल यात्रा तय करनी थी। भंवरी बाई ने पूज्य इन्दुमतीजी, पूज्य वीरसागरजी ससंघ ने 75 श्रावक श्राविका के साथ वंदना परिक्रमा कर तीर्थराज की रज को मस्तक पर लगाकर धन्य किया। अगला चातुर्मास संघ ने ईसरी में कर मधुबन का पुन: दर्शन करते हुए श्री सोनागिरिजी सिद्ध क्षेत्र विहार किया। सोनागिरिजी सिद्धक्षेत्र में आचार्य महावीर कीर्तिजी का मिलन हुआ और विमलसागरजी की मुनि दीक्षा सम्पन्न हुई। 'भ्रमण ही श्रमण की नियति है' इसे चरितार्थ करते हुए आर्यिका इन्दुमतीजी संघ ने आचार्य महावीरकीर्तिजी के संग बुन्देलखण्ड की यात्रा की। बंधा क्षेत्र में आचार्य महावीरकीर्तिजी के निर्देशानुसार अभिषेक कर णमोकार मंत्र का जाप करते हुए सूखे कुएँ में गंधोदक डालने से कुआँ पानी से लबालब भर गया। बुन्देलखण्ड की यात्रा कर संघ ने मधुबन में प्रथम बार चातुर्मास किया, उससे पर्व किसी अन्य संत ने वहाँ चातुर्मास नहीं किया था। इससे तीर्थराज पर करने का द्वार खुल गया। भंवरी बाई ने ईसरी के दो चातुर्मास में मुनि विमलसागरजी महाराज से ज्ञान अर्जन किया। चातुर्मास के मध्य उन्होंने खण्डगिरि-उदयगिरि की यात्रा की। ब्रह्मचर्य अवस्था में भंवरी बाई ने महामंत्र नमस्कार मंत्र, पार्श्वनाथ स्तोत्र की हिन्दी टीका की। भंवरी बाई ने वीरसागरजी से आचार्य महावीरकीर्तिजी, आर्यिका इन्दुमती माताजी तीनों के सान्निध्य में दीक्षा लेने की इच्छा व्यक्त की।
'तुमसे तो एकेन्द्रिय जीव अच्छा है जो प्रतिवर्ष विकसित होकर नवीनता को प्राप्त करता है। तुमने तो सात-आठ वर्षों में जरा भा उन्नति नहीं की।' क्षुल्लक श्रुतसागरजी की विनोदवश कही गयी ये बात भवरी बाई को साधु समागम में आने के ध्येय को चिंतन करायी। मुनि वीरसागरजी को आचार्य शांतिसागरजी द्वारा प्रदत्त प्रथम पट्टाचार्य का पद जयपुर में संवत् 2013 में आचार्य महावीरकीर्तिजी, इन्दुमतीजी सहित अन्य 30 साधु संघ के सान्निध्य में दिया गया। विक्रम संवत् 2014 का खानियांजी का चातुर्मास आचार्य वीरसागरजी, आचार्य महावीरकीर्तिजी व आर्यिका इन्दुमतीजी के संघ का त्रिवेणी बनकर प्रस्फुटित हुआ। भंवरी बाई ने आर्यिका बनने की भावना पूज्य मातृ तुल्य गुरू मां इन्दुमतीजी माताजी के समक्ष रक्खी।
आर्यिका बनने के मनोभाव व्यक्त करने के उपरान्त भंवरी बाई ने क्षुल्लक श्रुतसागरजी को विस्मृत कर्त्तव्य का स्मरण करवाया की “महाराज! दो वर्ष से तो आप क्षुल्लक रूप में ही हैं और मैं तो आर्यिका बनूंगी। क्या आप क्षुल्लक रहकर मुझे नमस्कार करेंगे?”
भाद्रपद शुक्ल षष्ठी के सत्रह वर्ष पूर्व भंवरी बाई विवाह मंडप की वेदी पर बैठी हुई थी। विवाह वेदी की क्रियायें क्षणिक सुख के लिए थी और दीक्षा वेदी की क्रियायें सत्य का साक्षात्कार कराने वाली भव-सागर को तिराने वाली नौका सदृश और स्त्रीलिंग को छेदन के लिए ब्रह्मास्त्र सदृश थी। दीक्षा वेदी पर बैठकर उन्होंने बारह भावना का चिन्तवन किया। नमन पहले ही था, और आजीवन मीठा का भी त्याग कर दिया। जिन बालों की लहराती चोटियों को देखकर मचल उठती थी उन्हीं केशों को जमीन से घासफूस उखाडने सदृश कार्य का प्रयास भंवरी देवी सातवी प्रतिमा लेने के बाद निरन्तर से कर रही थी।
वह भाद्र शुक्ला षष्ठी संवत् 2014, रविवार, स्वाति नक्षत्र, सन् 1957 की तिथि थी जब खानियांजी के प्रांगण में आचार्य आर्यिका इन्दुमती माताजी सहित 27 मुनिराज के विशाल संघ सहित धवल परिधान में लिपटी भंवरी बाई को आर्यिका के सर्वोच्च पद पर आसीन होने की छटा प्रदान कर रहा था।
आचार्य वीरसागरजी ने शुभ मुहूर्त देखकर मंत्रोच्चारण करते हुए मस्तक पर केशर चंदन से स्वास्तिक बनाया और लवंग की स्थापना की।
उस शुभ तिथि को श्री 1008 सुपार्श्वनाथ भगवान का गर्भ कल्याण था, अत: उनका नाम आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी दिया। आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी ने सप्तम प्रतिमा से सीधे आर्यिका दीक्षा ली। आर्यिका श्री ब्रह्मचारिणी से सीधे आर्यिका बनने वाली सर्वप्रथम कडी थी।
आचार्य महावीरकीर्तिजी ने अपने निमित्त ज्ञान व ज्योतिष ज्ञान से एवं अपनी पारखी दृष्टि से नव दीक्षित आर्यिका की भावी झलक का दर्शन कर कहा- “यह कुंभ राशि वाली सुपार्श्वमती आर्यिका पद की गरिमा को सर्वोच्चता के शिखर पर आरूढ़ करेगी। जिस प्रकार अगस्त्य ऋषि ने समुद्र मंथन कर अमृत कुंभ निकाला था, उसी प्रकार यह भी शास्त्रों के सागर का मंथन कर जन-जन को अमृत बांटेगी व भवसागर का शोषण करेगी।“
आचार्य वीरसागरजी ने कुछ समय पश्चात् आसोज कृष्णा अमावस्या को मध्याह्न बेला में 31 साधु-साध्वी के समक्ष अपनी नश्वर देह का त्याग किया। आचार्य वीरसागरजी से दीक्षित बीसवीं सदी की दो आर्यिका ज्ञानमती माताजी, आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी है जो जैन धर्म की आन, बान, शान हैं, साक्षात सरस्वती स्वरूप है।
आर्यिका द्वय इन्दुमतीजी व सुपार्श्वमतीजी ने दीक्षा उपरान्त अपना पहला चातुर्मास नागौर में आचार्य महावीरकीर्तिजी संघ सहित किया। आर्यिकाश्री की दीक्षा उपरान्त मुनि धर्मसागरजी का दर्शन संवत् 2015 में हुआ। आचार्य शिवसागरजी के कर-कमलों द्वारा नेमीचंदजी बाकलीवाल की पुत्री शांति बाई ने दीक्षा ली और आर्यिका द्वय ने विद्यामतीजी संग त्रिवेणी का रूप ले लिया। त्रिवेणी संगम आर्यिका संघ ने अजमेर आदि भ्रमण करते हुए संवत् 2022 (सन् 1965) में सनावद में चातुर्मास किया। आर्यिकाश्री के प्रवचनों से हुई अगाढ़ आस्था व श्रद्धा से नव युवा यशवंत कुमार (वर्तमान आचार्य वर्द्धमानसागरजी) और मोतीचन्द्र सर्राफ (वर्तमान क्षुल्लक मोतीसागरजी) अन्तर हृदय में वैराग्य का बीजारोपण उत्पन्न हुआ। दोनों भव्य प्राणी संघ के साथ जाने को उद्यत हए लेकिन आचार्य शांतिसागरजी की आगमोक्त परम्परा को अक्षुण्ण बनाते हुये शिथिलाचार से कोसों दूर अनुशासन हेतु संघ में पुरुष को साथ न ले जाने के कारण आर्यिका संघ ने मना कर दिया। लगभग नौ वर्ष उपरान्त महावीरकीर्तिजी के दर्शन गजपंथा सिद्ध क्षेत्र में हुये। गजपंथा में आचार्यश्री से उन्होंने निमित्त ज्ञान, व्याधियों के उपचार, ज्योतिष ज्ञान का अर्जन किया। आर्यिकाश्री ने सदैव समय के मूल्य को पहचाना और कभी समय व्यर्थ न गँवाया। कुंभोज बाहुबली में आर्यिका त्रय में एक नई कडी जुडी बह्मचारिणी बहिन प्रभावती ने आचार्य समन्तभद्रजी से आर्यिका दिक्षा ली और नाम पाया-सुप्रभामतीजी।
अकलूजमें असाता वेदनीय कर्म के तीव्र प्रकोप से जब माताजी ग्रासित थे तब दौ सौ मील का दुर्गम रास्ता तय कर आचार्य महावीरकीर्तिजीने श्रावकों को उचित उपचार करने को कहा और कहा कि समाज की अमूल्य, सरस्वती की साक्षात मूर्ति की हमें हर हाल में रक्षा करनी है। इसके द्वारा समाज व जैन संस्कृति का बहुत प्रचार-प्रसार होने वाला है।
जबलपुर प्रवेश में आर्यिकाश्री के प्रवचनों ने बालिका प्रमिला को अन्तर्मन से प्रभावित किया। संघ में रहकर भी बालिका प्रमिला ने बी.ए., एम.ए. (संस्कृत, प्राकृत) में कर षट्खंडागम के गुणस्थानों के स्वरूप पर शोधपूर्ण कार्य किया और रानी दुर्गावती विद्यालय से पी.एच.डी. की। बालिका ने आजीव ब्रह्मचर्य व्रत सन् 1971 को और सप्तमप्रतिमाधारण सन् 1984 को शिखरजी में लेकर प्रथम कदम रखा। आर्यिका संघ का बंगाल की सुदूरवर्ती धरा पर विक्रम संवत् 2029 आषाढ़ शुक्ला 6, दिनांक 16.7.1972 को प्रथम चरण रखा। कोलकाता के साढ़े आठ माह के प्रवास में माताजी को असाता वेदनीय कर्म के उदय से अल्सर रोग का तीन बार तीव्र प्रकोप हुआ जो समाज द्वारा णमोकार का अखंड जाप करने से मन्द हुआ। भक्त ने फाल्गुन शुक्ला नवमी को 45वां वर्षवर्द्धन दिवस 45 दीपक से आरती कर 45 पुष्पों के पुंज चढ़ाकर मनाया व 31 मार्च 1973 चैत्र कृष्णा द्वादशी को कोलकाता से विहार किया। बंगाल बिहार का सीमावर्ती देश किशनगंज जिसे आसाम का द्वार भी कह सकते हैं वहाँ माताजी के तपोबल व णमोकार मंत्र के अटूट श्रद्धान के परिणामस्वरूप उस स्थान पर छोटे-बड़े सभी प्रकार के सर्प होते हुए भी कोई भी साधु व श्रावक को सर्प दंश का भाजन नहीं होना पड़ा। किशनगंज प्रवास में माताजी ने अन्य पांच श्राविका के साथ कवलायण व्रत किया जो अवमौदर्य तप में आता है। यह व्रत आसोज कृष्णा अमावस्या से शुरू होकर कार्तिक कृष्णा अमावस्या को पूर्ण होता है। प्रारम्भ में उपवास, उसके बाद एक ग्रास, दो ग्रास वृद्धि करते हए पूर्णिमा को उपवास, एकम को 14 ग्रास लेते हुये कम करते हुये होता है। माताजी ने आसाम की ओर प्रथम चरण 8 दिसम्बर 1974 को प्रारंभ किया। जिस पूर्वांचल आसाम प्रान्त की धरा पर किसी सन्त आर्यिका के चरण न पड़े उस धरा पर प्रथम चातुर्मास आर्यिका संघ ने संवत् 2032 में नव निर्मित महावीर भवन गुवाहाटी में किया। महावीर उद्यान गुवाहाटी में भगवान महावीर का 2500वां निर्वाण महोत्सव मनाया गया। आसाम से वापस आते समय भागलपुर पंचकल्याणक महोत्सव पर माताजी को सिद्धान्त वारिधि की उपाधि दी गयी।
भ्रमण करते समय आर्यिका संघ यत्र-तत्र पंचकल्याणक वेदी प्रतिष्ठा आदि करवाते हुए सम्मेदशिखर गुरूमाता इन्दुमतीजी का स्वास्थ्य नरम होने के कारण उन्होंने अंतिम समय शाश्वत तीर्थराज पर व्यतीत करने के भाव व्यक्त किये।
गुरूमाता का स्वास्थ्य अति निर्बल होने के बावजूद भी आर्यिकाश्री की प्रबल इच्छा जानकर संघ को सम्मेदशिखरजी से साढ़े तीन सौ मील दर खण्डगिरि उदयगिरि के वंदनार्थ जाने की अनुमति दी। साढ़े तीन सौ मील की यात्रा उन्होंने चौबीस (24) दिनों में पूर्ण की। सम्मेदशिखरजी लौटकर उन्होंने वृहत् इन्द्रध्वज विधान किया उसमे एक सौ पचास जोड़ा बैठे। कोई मठ, संस्थान न बानाने की भावना होते हुये भी इन्द्रध्वज मंडल को स्थायी रूप देने के लिए मध्य लोक शोध संस्थान के निर्माण की भूमिका बनायी। फाल्गुन माह की अष्टान्तिका में ब्रह्मचारी सूरजमलजी ने 2 मार्च 1982 को आर्यिकाश्री के चरणों में पूज्य आचार्यश्री 108 धर्मसागरजी अभिनंदन ग्रन्थ समर्पित किया। गुरूमाता इन्दुमतीजी ने सल्लेखना तीर्थराज पर कोई साधु सन्त नरहने के कारण आर्यिकाश्री ने गुरूमाता को भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा के सम्मुख शास्त्रोक्त विधिपूर्वक त्याग करवाया। गुरूमाता इन्दुमतीजी की 6 दिन की यम सल्लेखना आषाढ़ मास में 16 जून 1987 को हुई और निर्यापकाचार्य बनी आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी एवं सहयोगिनी बनी प्रमिला बहन एवं संघ की अन्य माताजी।
संघ ने यत्र तत्र विहार करते हुए कानकी में संघस्था देवकी बाई और जयश्री बाई को दीक्षा दी, और नाम पाया- आर्यिका क्रमश: नेममतीजी व निर्मलमतीजी। आसाम प्रांत में भोग विलास की भावना से ग्रासित अडंगाबाद की बसंती बाई ने बाह्य अन्तरंग परिग्रह का त्याग कर आर्यिका का उत्कृष्ट पद पाया और नाम पाया भक्तिमतीजी। डीमापुर प्रवास में माताजी ने दीपावली के दिन रात्रि से 24 घंटे तक लगातार एक ही आसन से जाप करते हुए देखा। नागा लोग रात्रि में जब माताजी के दर्शनार्थ आये तो उन्होंने कहा कि ये तो देवता है। इस तरह धर्म की खूब प्रभावना हुई। आसाम के चातुर्मास में संघस्थ ब्रह्मचारी कैलाशजी ने सोलहकारण के 32 उपवास कर इतिहास रचा। यही व्रत गौरीपुर चातुर्मास में आर्यिकाश्री ने सोलहकारण के सोलह और भक्तिमती माताजी ने बत्तीस उपवास किये। आसाम, बिहार से भ्रमण करते हुए सम्मेदशिखर तीर्थराज पहुँचकर तेइस वर्ष उपरान्त विमलसागरजी के दर्शन हुये और उन्होंने अपने निमित्त ज्ञान द्वारा आर्यिकाश्री की प्रज्ञा को जानते हुए उन्हें 'आर्यिका प्रमुख' की उपाधि देकर पिच्छिका भेंट की।
आचार्यश्री विमलसागरजी ने मध्यलोक रचना का कार्य शीघ्र पूर्ण करने की इच्छा व्यक्त की लेकिन इसी बीच आचार्यश्री मात्र दो दिन के ज्वर से नश्वर देह को छोड़कर चल बसे।
मध्यलोक शोध संस्थान की प्रतिष्ठा में प्रतिष्ठाचार्य ब्रह्मचारी सूरजमलजी के प्रतिष्ठाचार्यत्व में 108 आचार्यश्री संभवसागरजी, 108 आचार्यश्री भरतसागरजी, आचार्यश्री सिद्धान्तसागरजी, 108 आचार्यश्री सन्मतिसागरजी, आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी ससंघसहित शताधिक मुनि आर्यिका के सान्नीद्ध में भव्य पंचकल्याणक महोत्सव सम्पन्न हुआ। बिहार के राज्यपाल महामहिम श्री किदवईजी की उपस्थिति भी रही। कोलकाता के ज्ञान पिपासु की प्यास बुझाने के लिए आपने शिविर व प्रवचन के माध्यम से भक्तामर स्तोत्र, तत्त्वार्थ सूत्र, द्रव्य संग्रह, छह ढ़ाला, चर्चा शतक, चौबीस ठाणा व जैनधर्म प्रवेशिका के चारों भागों का अध्ययन करवाया।
माताजी ने प्रवचन के माध्यम से प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान के दस भव सभी भक्तों को याद कराये जिसकी स्मृति आज भी हृदय पटल पर अंकित हैं।
कोलकाता नगर में एक चातुर्मास बड़ा बाजार के अहिंसा प्रचार समिति सभागार और एक हावड़ा डबसन रोड में हुआ। उन्हें कोलकाता में 'समाधि साम्राज्ञी' से विभूषित किया गया। कोलकाता में ब्रह्मचारिणी शांति बाई और कुसुम बाई ने संघ में प्रवेश किया। कोलकाता चातुर्मास के बाद आर्यिका संघ ने केसरीचन्द पूसराज फर्म के विजयकुमार शांतिकुमार के संघपतित्व में बुन्देलखंड की यात्रा की। दो माह की यात्रा पूर्ण करने पर आर्यिकाश्री ने जबलपुर में 31 जनवरी को प्रमिला दीदी की मातुश्री पुत्री देवी की समाधी करायी जिनका नाम निश्चलमती माताजी रखा जिन्होंने 'गणिनी सुपार्श्वमती मात, आज थारी आरती उतारू' लिखकर माताजी के गुणों का गान किया था। बीना बारहा में आचार्य विद्यासागरजी से आपका मिलन हुआ। आर्यिका संघ ने संवत् 2055 सन् 1999 में शांतिवीरनगर श्री महावीरजी में 34 वर्ष बाद आचार्य वर्द्धमानसागरजी के दर्शन कर अपने नेत्र तृप्त किये। लगभग 38 वर्ष के बाद आचार्य वीरसागरजी की आगमोक्त परम्परा अनुसार आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी को 20 आर्यिका व 9 मुनि संघ का जहाँ प्रवेश हुआ उन दोनों संघ का चातुर्मास जयपुर में भट्टारकजी की नशियां में सम्पन्न हुआ। 700 शिष्य शिविर में बैठे थे। चांदखेड़ी में संघस्थ भक्तिमती माताजी की समाधि के पश्चात् जयपुर से विहार कर मेनसर, डेह, नागौर, लाडनू आदि होते हुए सुजानगढ़ में सल्लेखना की नई कड़ी जुड़ी संघस्थ टिकी बाई जो रोशनमती माताजी बनी। बरह्मचारिणी हरखी बाई जो मनोज्ञमती माताजी बनी उनकी दिक्षा कुचामण में हुई। आर्यिकाश्री ने अपने खानियां जयपुर चातुर्मास में 15 माह में सात सल्लेखना करवायी। माताजी ने बड़का बालाजी फार्म हाउस में चार सल्लेखना कराई। इन चार सल्लेखना में एक सल्लेखना उनके गृहस्थ अवस्था के देवर श्री हुक्मीचंदजी बड़जात्या (कोलकाता निवासी) की भाद्र शुक्ला चतुर्दशी के दिन सल्लेखना करवायी जिसमें मुनि 108 श्री अनेकान्तसागरजी का सान्निध्य रहा। हुक्मीचंदजी की अनुत्तरसागरजी बनकर सल्लेखना हुई।
नागौर, कुचामन, लूणबां होते हुये जन्म ग्राम मेनसर में एक पाठशाला का उद्घाटन माताजी के सानिध्य में हुआ उसका सुपार्श्वमती कन्या पाठशाला नाम रखा गया। सीकर नगर में पर्युषण पर्व में लगभग 40 वर्षों से संघस्थ माताजी से दीक्षित प्रथम आर्यिका विद्यामतीजी की सल्लेखना भाद्र पद शुक्ला नवमी प्रात: 10.30 बजे हुई। सीकर से 550 किमी. दूर स्थित नन्दनवन जाकर गणिनी आर्यिका विशुद्धमती माताजी की समाधि 22 जनवरी को कराई। धरियावाद से तीन किमी. दूर स्थित नन्दनवन में दोनों गणिनी द्वय का 22 दिन का समागम रहा और आचार्य वर्द्धमानसागरजी ससंघ एवं मुनि पुण्यसागरजी भी वहीं विराजमान थे। चातुर्मास समाप्त कर धरियाबाद में माताजी ने अपनी प्रभावोत्पादक वाणी व चातुर्य से 60 वर्षों से चल रहे भूगर्भ से निकली आदिनाथ भगवान की प्रतिमा का विवाद मौन तप से सुलझा दिया। धरियाबाद से विहार कर आर्यिका संघ ने लगभग 27 दिनों के विहार के बाद गिरनार सिद्धक्षेत्र की यात्रा की। गिरनार यात्रा करने के बाद आर्यिका श्री प्रथम बार उदयपूर प्रवेश किया जहाँ 10 से 12 मार्च 2003 तक हीरक जयन्ती महोत्सव मनाया गया। उदयपुर में मनोज्ञमती माताजी की सल्लेखना हुई और चातुर्मास स्थापना पर माताजी ने लगातार एक ही आसन में 14-15 घंटे तक जाप किया। पारसोला में प्रवेश के बाद वहाँ जिनवाणी संरक्षक सुप्रभामती माताजी की सल्लेखना हुई और कमला बाई और शांति बाई ने समस्त आरम्भ परिग्रह का त्यागकर आर्यिका का सर्वोत्कृष्ट पद पाया और नाम पाया-सहजमतीजी और स्वभावमतीजी। पारसोला में आचार्य वर्द्धमानसागरजी और आचार्य सम्मतिसागरजी का वात्सल्य मिलन हुआ। इनके अलावा भरतसागरजी का भी वहाँ जब समागम हुआ तो 75 से भी अधिक साधुओं के बीच एक श्वेत वस्त्रधारी माताजी शंका समाधान करती थी तब ऐसा लगता था, मानो समवशरण लगा हो जिसमें श्वेत वस्त्रधारी सरस्वती ही साक्षात आकर बोल रही हो। पारसोला में चतुर्विध संघ के समक्ष संघस्थ सुप्रभामती माताजी ने दस दिन तक अन्न-पानी त्याग कर यम सल्लेखना ली।
संघ जब पुन: पारसोला आया तो विक्रम संवत् 2062, वीर संवत् 2531 दिनांक 17.04.2005 चैत्र शुक्ला चतुर्दशी को पारसोला ग्राम के सुपार्श्वमती रत्नत्रय भवन में महावीर भगवान, चन्द्रप्रभु व बाहुबली के बिम्ब के समक्ष शनिवार मध्याह्न डेढ़ बजे 12 वर्ष की समाधि की दृढ़ प्रतिज्ञा का संकल्प कर गुरुओं को नमन कर कायोत्सर्ग किया। उनकी चार वर्ष पूर्व समाधि की तीव्र भावना थीं लेकिन कोई नग्न दिगम्बर मुनि के दर्शन न होने से उनको बहुत कसक थी। ऐसा उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है। निम्बाहड़ा, नीमच की तरफ बिहार करते हुए जावद में माताजी ने जयपुर के प्रसन्नकुमारजी बाकलीवाल को प्रसन्नसागरजी यथानाम देकर आचार्यश्री के आदेशानुसार मुनि दीक्षा देकर सल्लेखना करवायी।
परम पूज्य गणिनी आर्यिका 105 श्री सुपार्श्वमती माताजी का दीक्षा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव 17 से 21 अक्टूबर 2007 जयपुर नेमिसागर में मनाया।
ब्रह्मचारिणी प्रमिला दीदी जो 34 वर्षों से तन, मन, धन से समर्पित माताजी की मानो छाया हो, स्वर्ण जयंती महोत्सव में आसोज शुक्ला दशमी को प्रमिला बहिन ने आर्यिका के सर्वोत्कृष्ट को प्राप्त कर 105 आर्यिका गौरवमती नाम पाकर संघ के गौरव को बढ़ाया है और उनके साथ मधु व सरिता बहिनने भी दीक्षा लेकर नाम पाया गंभीरमतीजी व गरिमामतीजी।
आर्यिका संघ बड़का बालाजी 26 जनवरी 2011 प्रात:काल को पहुँचा।
सावन, भाद्रपद के माह में व अष्टान्तिका पर्व में आर्यिकाश्री अन्न का त्याग रखते थे। आर्यिकाश्री लगभग सात वर्षों से एकान्तर व्रत किया करती थी। उन्होंने अपने जीवनकाल में माताजी की डायरी के आधार पर सन् 2003 तक 5000 से ऊपर व्रत किये थे और उसके बाद एकान्तर व्रत के आधार पर साढ़े तीन वर्ष यानि 1275 व्रत हुए। इस प्रकार 6500 करीबन व्रत उन्होंने अपने जीवनकाल में किये। उन्हें नमक,मीठा, तेल, दही चार रसका त्याग था। 65 वर्ष से नमक व 54 वर्ष से चीनी व तेल रस का त्याग था। उन्होंने 52 कृति का सृजन, टीका की। उन्होंने शांतिसागरजी आचार्य की अक्षुण्ण आगमोक्त परम्परा का पालन किया। पूज्य गौरवमती माताजी 38 वर्षों से उनकी छाया बनकर रही और वैय्यावृत्ति की। माताजी विजातीय विवाह, विधवा विवाह, आजीवन शुद्र जल का त्याग, जनेऊ और चंदोवा आदि के बिना आहार नहीं लेती थी। कुआँ का पानी बिना वाहन का, हाथ की चक्की में पिसा आटा, दूध जैन या ब्राह्मण का दुहा हुआ, अंगीठी में बना आहार करती थी। चतुर्दशी के दिन माताजी 8000 जाप यानि पूरी 80 माला भी पूर्ण कर लेती थी। इनके अलावा णमोकार का तो जाप उनके हर समय चलता था। माताजी की धारणा इतनी प्रखर थी कि एक बार मिला व्यक्ति चाहे वह 40 साल से भी मिला हो, उसको भी सहजता से पहचान लेती थी। पर्युषण पर्व में माताजी के मुखारविन्द से माताजी बिना जिनवाणी का अवलम्बन लिए जब तत्वार्थ सूत्र का वाचन करती थी तो मानो 5-5,6-6 घंटे तक धारा प्रवाह सरस्वती ही कंठ में विराजमान हो जाती थी।
सर्वार्थ सिद्धि न्याय, व्याकरण जैसे क्लिष्ट ग्रन्थों की टीका करते समय धर्मसभा या कोलाहल में भी माताजी की लेखनी ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम अति तीव्र होने के कारण न्याय जैसे क्लिष्ट ग्रन्थों को निरन्तर लेखन करने बावजूद धर्मसभा में कही वक्ता की प्रत्येक बात का उत्तर सहजता से देती थी। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान रूपी डालियों को माताजी ने चारित्र की जड़ को मजबूत करना बताया। माताजी ने बताया की सम्यक्दृष्टि की कषाय दूध का उफान है जो पानी डालने से शांत हो जाता है तथा मिथ्यादृष्टि की कषाय घी का उफान है जो पानी डालने से भभक जाएगा। जिनवाणी में एक भी अक्षर कम ज्यादा करने से माताजी कहा करती थीं की “आज जिनवाणी में मिलावट होने लगी है। कुछ भी जोड़ देते हैं और कुछ भी हटा देते हैं जिससे ज्ञानावरणी कर्म का बंध होता है।“ माताजी का अंतिम 84वां वर्षवर्द्धन दिवस बड़का बालाजी फार्म हाउस 14 मार्च 2012 फाल्गुन सुदी नवमी को प्रभात बेला में भक्ति करते हुए थाल बजाकर,मध्याह्न बेला में पाद प्रक्षालन, शास्त्र भेंट पूजन, आरती करते हुए मनाया गया। समाधि के कुछ माह पूर्व श्रावक रमेशकुमारजी जयकुमारजी के आने का समय होते ही माताजी की प्रतिक्रिया दोपहर में समाज के प्रबुद्धगण रमेशजी, जयकुमारजी के आने का समय होते ही तत्व चर्चा कर सुखद अनुभूति प्राप्त कर हर्षित होती थी। माताजी की समाधि पूर्व गणिनी आर्यिका स्यादवादमती माताजी बड़का बालाजी में दर्शनार्थ 6 अप्रैल 2012 को पहुँची। आचार्य चैत्यसागरजी ने 11 अप्रैल सायं 4 बजे पदार्पण किया। आचार्यश्री के सान्निध्य में माताजी ने एक दिन पूर्व रत्नों की प्रतिमाओं के दर्शन किये और समाधि के पूर्व प्रात:काल पूर्ण चैतन्य अवस्था में आचार्यश्री और गणिनी प्रमुख स्यादवादमती माताजी व समस्त संघ के सान्निध्य में 108 अंगुल/9 फुट की सफेद पाषाण की चन्द्रप्रभुजी की मुखावलोकन किया। उस प्रतिमा का शिलान्यास 19 जनवरी 2013 को हुआ। 12 अप्रैल को आचार्य वर्द्धमानसागरजी ने वीडियो दूरवार्ता के जरिये माताजी को कहा- “माताजी, कलश चढ़ाने का समय आ गया है।“ तत्पश्चात माताजी ने आचार्यश्री का चरण वन्दन किया।
माताजी की सल्लेखना बड़का बालाजी जयपुर में बैशाख कृष्णा अष्टमी दिनांक 13.4.2012 प्रात: 9 बजकर 24 मिनट पर चारों प्रकार का आहार त्याग, परिग्रह त्याग कर अरहंत सिद्ध नामोच्चारण करते हुए माताजी की समाधि हुई। अंत समय में माताजी के पास आचार्य चैत्यसागरजी ससंघ, मुनि अनेकान्तसागरजी, मुनिश्री विश्रुतसागरजी ससंघ (आचार्य विरागसागरजी संघस्थ), आर्यिका गणिनी स्याद्वादमती माताजी, आर्यिकासुपार्थमती माताजी ससंघ, क्षुल्लक प्रसिद्धसागरजी का संगम था। माताजी के संघ में माताजी- आर्यिका वैराग्यमतीजी, स्वभावमतीजी, आर्यिका गौरवमती माताजी, आर्यिका संयममतीजी, क्षुल्लिका आदर्शमतीजी, ब्रह्मचारिणी दीदी हिना दीदी, सारिका दीदी, स्वेता दीदी, कंवरी बाई, कीर्ति दीदी, किरण दीदी, कुसुम दीदी, मुन्नी बाई, विमला दीदी, गड़बड़ी बाई संघस्थ हैं। रमेशजी, जयकुमारजी के द्वारा 20 मिनट पूर्व माताजी से पुछा क्या चल रहा है तो माताजी ने कहा- “मैं अपने में हूँ, अरिहन्त सिद्ध चल रहा है।“
माताजी की अंतिम यात्रा बड़का बालाजी फार्म हाउस में हुई। समाधि मरण करने वाला आठ भव से अधिक संसार में परिभ्रमण नहीं करता। आधि, व्याधि, उपाधि से परे माताजी समाधि का ज्ञान दे गई। माताजी की समाधि के दूसरे दिन बड़का बालाजी में सभी साधु सन्त के सानिध्य में आचार्य धर्मसागरजी महाराज का चौदहवां समाधि दिवस वैशाख कृष्णा नवमी को मनाया गया।
माताजी के प्रथम समाधि दिवस के उपलश चुडीवाल परिवार द्वारा मध्यलोक शोध संस्थान सम्मेदशिखर में त्यागी, व्रती साधु संत के लिये आहारशाला का उद्घाटन 11 अप्रैल को किया गया।
माताजी ने अपने आर्यिका दीक्षा उपरान्त चातुर्मास - 54 हुए, आर्यिका दीक्षा-22 क्षुल्लक दीक्षा - 4, क्षुल्लिका-3, समाधि - 34, प्रतिष्ठा निर्माण 26 करवाये।
माताजी के 50वीं दीक्षा जयन्ती अवसर पर उसी माह आचार्य शांतिसागरजी की आगमोक्त परम्परा के 50वीं पुण्य तिथि वीरसागरजी, 50वां दीक्षा दिवस श्रुतसागरजी, 50वां दीक्षा दिवस सुपार्श्वमतीजी, 50वां दीक्षा दिवस अजितसागरजी व पूज्य गौरवमतीजी का दीक्षा पर्व मनाया गया।
माताजी के निर्देशानुसार संघस्थ ब्रह्मचारिणी दीदी को संस्कृत भाषा व व्याकरण सिखाने हेतु प्रतिदिन संस्कृत भाषा व व्याकरण का ग्रन्थ कातंत्रमाला का अध्ययन करवाने पंडित धर्मचन्दजी शास्त्री प्रतिदिन आते हैं। “सुन मेरे भगवन ! निकले तन से प्राण मेरे सामने खुला है तेरा दर हो तेरे दर पे प्रभुजी मेरा सर हो।“ माताजी प्रतिदिन वीतरागी प्रभु के दर्शन वंदन कर ये भजन गाकर अपनी भावना व्यक्त करती थीं।
परम पूज्य गणिनी आर्यिकाश्री 105 श्री सुपार्श्वमती माताजी ने रत्यत्रय की आराधना के साथ संस्कृत व प्राकृत ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद, मौलिक सृजन, पूजन, विधान की रचना कर प्राणी मात्र पर असीम उपकार किया है। उनकी करीब 52 कृति में कुछ मौलिक लेखन व अनुवाद - (1) आचार्य अकलंकदेव कृत राजवार्तिक पांच खण्ड (2) आचार्य श्रुतसागरसूरि कृत तत्त्वार्थ वृत्ति (3) आचार्य सोमदेव सूरि कृत योगसार (4) आचार्य कुलभूषणविरचित सार समुच्चय (5) पंडित आशाधर विरचित सागार धर्मामृत (6) इंद्रनंदी विरचित नीतिसार समुच्चय (7) आचार्य वीरनंदी विरचित आचारसार (8) आचार्य देवसेन विरचित आराधनासार (9)आचार्य कुन्दकुन्द विरचित षट् प्राभृत श्रुतसागर सूरि की टीका (10) सर्वार्थ सिद्धि (11) प्रमेय कमल मार्तण्ड (12) श्लोक वार्तिक (13) वैराग्यमणी माला (14) स्वरूप संबोधन (15) रत्नकरण्ड श्रावकाचार (16) रविचंद्राचार्य विरचित आराधनासार (17) शुभचन्द्राचार्य विरचित अंगपण्णति।
स्तोत्र एवं मौलिक रचनायें
भक्तामर स्तोत्र, कल्याण मंदिर स्तोत्र, एकीभाव स्तोत्र, विषापहार स्तोत्र. पाहुडभूपाल चतुर्विशति स्तोत्र, स्वयंभू स्तोत्र, समाधि शतक. इष्टोपदेश, प्रतिक्रमण पंजिका, दशलक्षण धर्म विवेचन अजितसागरजी व शिवसागरजी की संस्कृत पूजन, मेरा चिन्तवन, भवपार चलोगे, नारी चातुर्य, मोक्ष की अमरबेल रत्नत्रय, वरांग चरित्र, पांडव पुराण सार, द्रव्य संग्रह, कर्मरेख, जिन गुण सम्पत्ति विधान, नैतिक शिक्षाप्रद कहानियां भाग 1 से 10 तक।
#suparshwamatimatajiShriveersagarjiMaharaj
गणिनी आर्यिका श्री १०५ सुपार्श्वमती माताजी
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
VeerSagarJiMaharaj1876AcharyaShantiSagarji
आर्यिका श्री सुपार्श्वमती माताजी का जन्म राजस्थान प्रान्त के नागौर जिले के मेनसर ग्राम में हुआ। उनका जन्म फाल्गुन सुदी नवमी संवत् 1985 वार शुक्रवार मृगशिर नक्षत्र की पावन बेला में हुआ। उनका नाम भंवरी बाई रक्खा गया। उनसे बड़े भाई भंवरलालजी थे और सागरमलजी, निहालचन्दजी, गणपति बाई, गणपतजी एवं संपतलालजी छोटे भाई बहिनथे। कुल सात भाई बहिन थे। उनकी माता का नाम अणची देवी और पिता का नाम श्री हरखचंदजी चूड़ीवालथा।
उनके बचपन की दिनचर्या: लुका-छिपी, गट्टा, लंगड़ी खेल, रस्सी कूद का खेल खेतना, घर के काम-काज में हाथ बंटाना, मां-दादी व बुजुर्ग महिलाओं के वार्तालाप में एकाग्रचित्त होना, यही उनके बाल्यकाल की दिनचर्या थी। गुड्डे-गुड्डी का खेल तो उनके बाल जीवन का अटूट अंग था।
पंडित गौरीलालजी शास्त्री से सात वर्ष की उम्र में बालिका भंवरी जैन धर्म के भाग १, २, ३ व ४ का अध्ययन किया। पंडितजीने भंवरी बाई की रूचि देखकर उन्हें ‘षट्कर्मोपदेश' पढणे के लिये दिया। बालिका भंवरी ने सात वर्ष की उम्र में आचार्य चन्द्रसागरजी के दर्शन किये पंडित गौरीलालजी जिंके साथ थे।
बारह वर्ष की छोटी उम्र में विवाह की परिभाषा से अनभिजन भंवरी का ब्याह नागौर के छोगमलजी बड़जात्या के सुपुत्र श्री इन्द्रचन्दजी से माघ सुदी दशमी संवत् 1997 मंगलवार के दिन सम्पन्न हुआ।
विवाह के पांच सात दिन उपरान्त भंवरी द्वारा अपने मायके के चौके में घी भरा मटका ऊपर रखते वक्त फूट गया और वह घी से भर गयी तो, घी गिरने से कुछ अनहोनी होने की आशंका से मां का मन कांपने लगा तो पिता ने कहा कि डरने की कोई बात नहीं है। ये जिधर भी जायेगी, घी के दिये जल उठेंगे।
विवाह के तीन माह उपरान्त जब नव वधु अपने मायके में आई हुई थी तो घर में नव वधू के प्रवेश की शहनाई मुखरित हुई ही थी कि क्रूर काल बेरहमी से कुंवर इन्द्रचन्द को अपने आगोश में ले लिया और नवोदित श्रृंगार को वैधव्य का बाना पहना दिया। भंवरी बाई को अपनी सास प्यारी देवी के साथ प्रथम बार तीर्थराज सम्मेद शिखर जाने का पुण्य अवसर प्राप्त हुआ। वैधव्य के पश्चात् भंवरी ने अपनी रूचि का मोड़ धार्मिक क्रियाकलापों, तीर्थ यात्रा, विधान, साधु-संतों के सानिध्य में जप-तप व ध्यान आदि की ओर प्रवृत्त किया। इस दु:ख भरे जीवन में उनको माता का सम्बल नहीं मिला, उनकी माता कुछ समय उपरान्त क्षय रोग से ग्रसित होकर देवलोक सिधार गई। विवाह के करीब छह वर्ष उपरान्त 18 वर्ष की छोटी उम्र में शुद्र जल का नियम लेकर उन्होंने प्रथम आहार आचार्य चन्द्रसागरजी द्वारा दीक्षित क्षुल्लिका इन्दुमतीजी को बिना नमक का आहार करवाकर स्वयं आजीवन नमक का त्याग कर दिया। भंवरी बाई ने धवल वस्त्रधारी आचार्य चन्द्रसागरजी ने जो धर्म बीज बोया उसी बीज को क्षुल्लिका इन्दुमती माताजी ने पल्लवित पुष्पित किया, उनके दर्शन कर मेनसर ग्राम में प्रथम दर्शन कर वैराग्य का बीज पल्लवित पुष्पित किया। उनकी शिक्षा व दिशा के आधार स्तम्भ ब्रह्मचारी श्री (स्वर्गीय आचार्यश्री अजितसागरजी) ने करवाया। उस वक्त नागौर में श्री आदिसागरजी, तीन क्षुल्लक श्री धर्मसागरजी, श्री शिवसागरजी, श्री सिद्धसागरजी, चार आर्यिका श्री वीरमतीजी, सुमतिमतीजी, विमलमतीजी, पारसमतीजी क्षल्लिका इन्दुमतीजी, सिद्धमतीजी, शांतिमतीजी ने कुल बारा पिच्छी धारण कर्ता सन्तों ने चातुर्मास किया। उन्होंने इन्दुमती माताजी से ब्रह्मचर्य व्रत व सप्तम प्रतिमा के व्रत अंगीकार किये और धर्म साधना पथ पर प्रथम कदम रखा। क्षुल्लिका रत्न इन्दुमतीजी ने विक्रम संवत् 2005 आश्चिन शुक्ल ग्यारस को नागौर में मुनि वीरसागरजी से आर्यिका दीक्षा ली।
मेड़ता रोड में भंवरी बाई को तीर्थराज सम्मेदशिखरजी की पैदल यात्रा का महत्त्व प्रकाशित करने वाले सूर्य प्रकाश ग्रन्थ' के स्वाध्याय का सुअवसर प्राप्त हुआ।
मेडता सिटी में आकर बचपन से पिता के मुह से सुना णमोकार महामंत्र की महत्ता का अवलम्बन लेकर तीर्थराज की पैदल वंदना करने की भावना भाने के लिए भंवरी बाई ने श्री आदिनाथ प्रभु की प्रतिमा के समक्ष अटूट श्रद्धान रखते हुए णमोकार मंत्र का जाप किया और 'ॐ ह्रीं अनंतानंत परम सिद्धेभ्यो नम: नमोस्तु सर्व सिद्धेभ्य:' का अखंड जाप किया। जाप के परिणामस्वरूप पन्द्रह दिन बाद फुलेरा से ब्रह्मचारी चांदमलजी का तार के माध्यम से संदेश आया की पूज्य वीरसागरजी ससंघ तीर्थराज की यात्रा पर जा रहे हैं। आप भी साथ अवश्य चलें। मेड़ता सिटी से बारह सौ मील की तीर्थराज की पैदल यात्रा तय करनी थी। भंवरी बाई ने पूज्य इन्दुमतीजी, पूज्य वीरसागरजी ससंघ ने 75 श्रावक श्राविका के साथ वंदना परिक्रमा कर तीर्थराज की रज को मस्तक पर लगाकर धन्य किया। अगला चातुर्मास संघ ने ईसरी में कर मधुबन का पुन: दर्शन करते हुए श्री सोनागिरिजी सिद्ध क्षेत्र विहार किया। सोनागिरिजी सिद्धक्षेत्र में आचार्य महावीर कीर्तिजी का मिलन हुआ और विमलसागरजी की मुनि दीक्षा सम्पन्न हुई। 'भ्रमण ही श्रमण की नियति है' इसे चरितार्थ करते हुए आर्यिका इन्दुमतीजी संघ ने आचार्य महावीरकीर्तिजी के संग बुन्देलखण्ड की यात्रा की। बंधा क्षेत्र में आचार्य महावीरकीर्तिजी के निर्देशानुसार अभिषेक कर णमोकार मंत्र का जाप करते हुए सूखे कुएँ में गंधोदक डालने से कुआँ पानी से लबालब भर गया। बुन्देलखण्ड की यात्रा कर संघ ने मधुबन में प्रथम बार चातुर्मास किया, उससे पर्व किसी अन्य संत ने वहाँ चातुर्मास नहीं किया था। इससे तीर्थराज पर करने का द्वार खुल गया। भंवरी बाई ने ईसरी के दो चातुर्मास में मुनि विमलसागरजी महाराज से ज्ञान अर्जन किया। चातुर्मास के मध्य उन्होंने खण्डगिरि-उदयगिरि की यात्रा की। ब्रह्मचर्य अवस्था में भंवरी बाई ने महामंत्र नमस्कार मंत्र, पार्श्वनाथ स्तोत्र की हिन्दी टीका की। भंवरी बाई ने वीरसागरजी से आचार्य महावीरकीर्तिजी, आर्यिका इन्दुमती माताजी तीनों के सान्निध्य में दीक्षा लेने की इच्छा व्यक्त की।
'तुमसे तो एकेन्द्रिय जीव अच्छा है जो प्रतिवर्ष विकसित होकर नवीनता को प्राप्त करता है। तुमने तो सात-आठ वर्षों में जरा भा उन्नति नहीं की।' क्षुल्लक श्रुतसागरजी की विनोदवश कही गयी ये बात भवरी बाई को साधु समागम में आने के ध्येय को चिंतन करायी। मुनि वीरसागरजी को आचार्य शांतिसागरजी द्वारा प्रदत्त प्रथम पट्टाचार्य का पद जयपुर में संवत् 2013 में आचार्य महावीरकीर्तिजी, इन्दुमतीजी सहित अन्य 30 साधु संघ के सान्निध्य में दिया गया। विक्रम संवत् 2014 का खानियांजी का चातुर्मास आचार्य वीरसागरजी, आचार्य महावीरकीर्तिजी व आर्यिका इन्दुमतीजी के संघ का त्रिवेणी बनकर प्रस्फुटित हुआ। भंवरी बाई ने आर्यिका बनने की भावना पूज्य मातृ तुल्य गुरू मां इन्दुमतीजी माताजी के समक्ष रक्खी।
आर्यिका बनने के मनोभाव व्यक्त करने के उपरान्त भंवरी बाई ने क्षुल्लक श्रुतसागरजी को विस्मृत कर्त्तव्य का स्मरण करवाया की “महाराज! दो वर्ष से तो आप क्षुल्लक रूप में ही हैं और मैं तो आर्यिका बनूंगी। क्या आप क्षुल्लक रहकर मुझे नमस्कार करेंगे?”
भाद्रपद शुक्ल षष्ठी के सत्रह वर्ष पूर्व भंवरी बाई विवाह मंडप की वेदी पर बैठी हुई थी। विवाह वेदी की क्रियायें क्षणिक सुख के लिए थी और दीक्षा वेदी की क्रियायें सत्य का साक्षात्कार कराने वाली भव-सागर को तिराने वाली नौका सदृश और स्त्रीलिंग को छेदन के लिए ब्रह्मास्त्र सदृश थी। दीक्षा वेदी पर बैठकर उन्होंने बारह भावना का चिन्तवन किया। नमन पहले ही था, और आजीवन मीठा का भी त्याग कर दिया। जिन बालों की लहराती चोटियों को देखकर मचल उठती थी उन्हीं केशों को जमीन से घासफूस उखाडने सदृश कार्य का प्रयास भंवरी देवी सातवी प्रतिमा लेने के बाद निरन्तर से कर रही थी।
वह भाद्र शुक्ला षष्ठी संवत् 2014, रविवार, स्वाति नक्षत्र, सन् 1957 की तिथि थी जब खानियांजी के प्रांगण में आचार्य आर्यिका इन्दुमती माताजी सहित 27 मुनिराज के विशाल संघ सहित धवल परिधान में लिपटी भंवरी बाई को आर्यिका के सर्वोच्च पद पर आसीन होने की छटा प्रदान कर रहा था।
आचार्य वीरसागरजी ने शुभ मुहूर्त देखकर मंत्रोच्चारण करते हुए मस्तक पर केशर चंदन से स्वास्तिक बनाया और लवंग की स्थापना की।
उस शुभ तिथि को श्री 1008 सुपार्श्वनाथ भगवान का गर्भ कल्याण था, अत: उनका नाम आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी दिया। आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी ने सप्तम प्रतिमा से सीधे आर्यिका दीक्षा ली। आर्यिका श्री ब्रह्मचारिणी से सीधे आर्यिका बनने वाली सर्वप्रथम कडी थी।
आचार्य महावीरकीर्तिजी ने अपने निमित्त ज्ञान व ज्योतिष ज्ञान से एवं अपनी पारखी दृष्टि से नव दीक्षित आर्यिका की भावी झलक का दर्शन कर कहा- “यह कुंभ राशि वाली सुपार्श्वमती आर्यिका पद की गरिमा को सर्वोच्चता के शिखर पर आरूढ़ करेगी। जिस प्रकार अगस्त्य ऋषि ने समुद्र मंथन कर अमृत कुंभ निकाला था, उसी प्रकार यह भी शास्त्रों के सागर का मंथन कर जन-जन को अमृत बांटेगी व भवसागर का शोषण करेगी।“
आचार्य वीरसागरजी ने कुछ समय पश्चात् आसोज कृष्णा अमावस्या को मध्याह्न बेला में 31 साधु-साध्वी के समक्ष अपनी नश्वर देह का त्याग किया। आचार्य वीरसागरजी से दीक्षित बीसवीं सदी की दो आर्यिका ज्ञानमती माताजी, आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी है जो जैन धर्म की आन, बान, शान हैं, साक्षात सरस्वती स्वरूप है।
आर्यिका द्वय इन्दुमतीजी व सुपार्श्वमतीजी ने दीक्षा उपरान्त अपना पहला चातुर्मास नागौर में आचार्य महावीरकीर्तिजी संघ सहित किया। आर्यिकाश्री की दीक्षा उपरान्त मुनि धर्मसागरजी का दर्शन संवत् 2015 में हुआ। आचार्य शिवसागरजी के कर-कमलों द्वारा नेमीचंदजी बाकलीवाल की पुत्री शांति बाई ने दीक्षा ली और आर्यिका द्वय ने विद्यामतीजी संग त्रिवेणी का रूप ले लिया। त्रिवेणी संगम आर्यिका संघ ने अजमेर आदि भ्रमण करते हुए संवत् 2022 (सन् 1965) में सनावद में चातुर्मास किया। आर्यिकाश्री के प्रवचनों से हुई अगाढ़ आस्था व श्रद्धा से नव युवा यशवंत कुमार (वर्तमान आचार्य वर्द्धमानसागरजी) और मोतीचन्द्र सर्राफ (वर्तमान क्षुल्लक मोतीसागरजी) अन्तर हृदय में वैराग्य का बीजारोपण उत्पन्न हुआ। दोनों भव्य प्राणी संघ के साथ जाने को उद्यत हए लेकिन आचार्य शांतिसागरजी की आगमोक्त परम्परा को अक्षुण्ण बनाते हुये शिथिलाचार से कोसों दूर अनुशासन हेतु संघ में पुरुष को साथ न ले जाने के कारण आर्यिका संघ ने मना कर दिया। लगभग नौ वर्ष उपरान्त महावीरकीर्तिजी के दर्शन गजपंथा सिद्ध क्षेत्र में हुये। गजपंथा में आचार्यश्री से उन्होंने निमित्त ज्ञान, व्याधियों के उपचार, ज्योतिष ज्ञान का अर्जन किया। आर्यिकाश्री ने सदैव समय के मूल्य को पहचाना और कभी समय व्यर्थ न गँवाया। कुंभोज बाहुबली में आर्यिका त्रय में एक नई कडी जुडी बह्मचारिणी बहिन प्रभावती ने आचार्य समन्तभद्रजी से आर्यिका दिक्षा ली और नाम पाया-सुप्रभामतीजी।
अकलूजमें असाता वेदनीय कर्म के तीव्र प्रकोप से जब माताजी ग्रासित थे तब दौ सौ मील का दुर्गम रास्ता तय कर आचार्य महावीरकीर्तिजीने श्रावकों को उचित उपचार करने को कहा और कहा कि समाज की अमूल्य, सरस्वती की साक्षात मूर्ति की हमें हर हाल में रक्षा करनी है। इसके द्वारा समाज व जैन संस्कृति का बहुत प्रचार-प्रसार होने वाला है।
जबलपुर प्रवेश में आर्यिकाश्री के प्रवचनों ने बालिका प्रमिला को अन्तर्मन से प्रभावित किया। संघ में रहकर भी बालिका प्रमिला ने बी.ए., एम.ए. (संस्कृत, प्राकृत) में कर षट्खंडागम के गुणस्थानों के स्वरूप पर शोधपूर्ण कार्य किया और रानी दुर्गावती विद्यालय से पी.एच.डी. की। बालिका ने आजीव ब्रह्मचर्य व्रत सन् 1971 को और सप्तमप्रतिमाधारण सन् 1984 को शिखरजी में लेकर प्रथम कदम रखा। आर्यिका संघ का बंगाल की सुदूरवर्ती धरा पर विक्रम संवत् 2029 आषाढ़ शुक्ला 6, दिनांक 16.7.1972 को प्रथम चरण रखा। कोलकाता के साढ़े आठ माह के प्रवास में माताजी को असाता वेदनीय कर्म के उदय से अल्सर रोग का तीन बार तीव्र प्रकोप हुआ जो समाज द्वारा णमोकार का अखंड जाप करने से मन्द हुआ। भक्त ने फाल्गुन शुक्ला नवमी को 45वां वर्षवर्द्धन दिवस 45 दीपक से आरती कर 45 पुष्पों के पुंज चढ़ाकर मनाया व 31 मार्च 1973 चैत्र कृष्णा द्वादशी को कोलकाता से विहार किया। बंगाल बिहार का सीमावर्ती देश किशनगंज जिसे आसाम का द्वार भी कह सकते हैं वहाँ माताजी के तपोबल व णमोकार मंत्र के अटूट श्रद्धान के परिणामस्वरूप उस स्थान पर छोटे-बड़े सभी प्रकार के सर्प होते हुए भी कोई भी साधु व श्रावक को सर्प दंश का भाजन नहीं होना पड़ा। किशनगंज प्रवास में माताजी ने अन्य पांच श्राविका के साथ कवलायण व्रत किया जो अवमौदर्य तप में आता है। यह व्रत आसोज कृष्णा अमावस्या से शुरू होकर कार्तिक कृष्णा अमावस्या को पूर्ण होता है। प्रारम्भ में उपवास, उसके बाद एक ग्रास, दो ग्रास वृद्धि करते हए पूर्णिमा को उपवास, एकम को 14 ग्रास लेते हुये कम करते हुये होता है। माताजी ने आसाम की ओर प्रथम चरण 8 दिसम्बर 1974 को प्रारंभ किया। जिस पूर्वांचल आसाम प्रान्त की धरा पर किसी सन्त आर्यिका के चरण न पड़े उस धरा पर प्रथम चातुर्मास आर्यिका संघ ने संवत् 2032 में नव निर्मित महावीर भवन गुवाहाटी में किया। महावीर उद्यान गुवाहाटी में भगवान महावीर का 2500वां निर्वाण महोत्सव मनाया गया। आसाम से वापस आते समय भागलपुर पंचकल्याणक महोत्सव पर माताजी को सिद्धान्त वारिधि की उपाधि दी गयी।
भ्रमण करते समय आर्यिका संघ यत्र-तत्र पंचकल्याणक वेदी प्रतिष्ठा आदि करवाते हुए सम्मेदशिखर गुरूमाता इन्दुमतीजी का स्वास्थ्य नरम होने के कारण उन्होंने अंतिम समय शाश्वत तीर्थराज पर व्यतीत करने के भाव व्यक्त किये।
गुरूमाता का स्वास्थ्य अति निर्बल होने के बावजूद भी आर्यिकाश्री की प्रबल इच्छा जानकर संघ को सम्मेदशिखरजी से साढ़े तीन सौ मील दर खण्डगिरि उदयगिरि के वंदनार्थ जाने की अनुमति दी। साढ़े तीन सौ मील की यात्रा उन्होंने चौबीस (24) दिनों में पूर्ण की। सम्मेदशिखरजी लौटकर उन्होंने वृहत् इन्द्रध्वज विधान किया उसमे एक सौ पचास जोड़ा बैठे। कोई मठ, संस्थान न बानाने की भावना होते हुये भी इन्द्रध्वज मंडल को स्थायी रूप देने के लिए मध्य लोक शोध संस्थान के निर्माण की भूमिका बनायी। फाल्गुन माह की अष्टान्तिका में ब्रह्मचारी सूरजमलजी ने 2 मार्च 1982 को आर्यिकाश्री के चरणों में पूज्य आचार्यश्री 108 धर्मसागरजी अभिनंदन ग्रन्थ समर्पित किया। गुरूमाता इन्दुमतीजी ने सल्लेखना तीर्थराज पर कोई साधु सन्त नरहने के कारण आर्यिकाश्री ने गुरूमाता को भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा के सम्मुख शास्त्रोक्त विधिपूर्वक त्याग करवाया। गुरूमाता इन्दुमतीजी की 6 दिन की यम सल्लेखना आषाढ़ मास में 16 जून 1987 को हुई और निर्यापकाचार्य बनी आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी एवं सहयोगिनी बनी प्रमिला बहन एवं संघ की अन्य माताजी।
संघ ने यत्र तत्र विहार करते हुए कानकी में संघस्था देवकी बाई और जयश्री बाई को दीक्षा दी, और नाम पाया- आर्यिका क्रमश: नेममतीजी व निर्मलमतीजी। आसाम प्रांत में भोग विलास की भावना से ग्रासित अडंगाबाद की बसंती बाई ने बाह्य अन्तरंग परिग्रह का त्याग कर आर्यिका का उत्कृष्ट पद पाया और नाम पाया भक्तिमतीजी। डीमापुर प्रवास में माताजी ने दीपावली के दिन रात्रि से 24 घंटे तक लगातार एक ही आसन से जाप करते हुए देखा। नागा लोग रात्रि में जब माताजी के दर्शनार्थ आये तो उन्होंने कहा कि ये तो देवता है। इस तरह धर्म की खूब प्रभावना हुई। आसाम के चातुर्मास में संघस्थ ब्रह्मचारी कैलाशजी ने सोलहकारण के 32 उपवास कर इतिहास रचा। यही व्रत गौरीपुर चातुर्मास में आर्यिकाश्री ने सोलहकारण के सोलह और भक्तिमती माताजी ने बत्तीस उपवास किये। आसाम, बिहार से भ्रमण करते हुए सम्मेदशिखर तीर्थराज पहुँचकर तेइस वर्ष उपरान्त विमलसागरजी के दर्शन हुये और उन्होंने अपने निमित्त ज्ञान द्वारा आर्यिकाश्री की प्रज्ञा को जानते हुए उन्हें 'आर्यिका प्रमुख' की उपाधि देकर पिच्छिका भेंट की।
आचार्यश्री विमलसागरजी ने मध्यलोक रचना का कार्य शीघ्र पूर्ण करने की इच्छा व्यक्त की लेकिन इसी बीच आचार्यश्री मात्र दो दिन के ज्वर से नश्वर देह को छोड़कर चल बसे।
मध्यलोक शोध संस्थान की प्रतिष्ठा में प्रतिष्ठाचार्य ब्रह्मचारी सूरजमलजी के प्रतिष्ठाचार्यत्व में 108 आचार्यश्री संभवसागरजी, 108 आचार्यश्री भरतसागरजी, आचार्यश्री सिद्धान्तसागरजी, 108 आचार्यश्री सन्मतिसागरजी, आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी ससंघसहित शताधिक मुनि आर्यिका के सान्नीद्ध में भव्य पंचकल्याणक महोत्सव सम्पन्न हुआ। बिहार के राज्यपाल महामहिम श्री किदवईजी की उपस्थिति भी रही। कोलकाता के ज्ञान पिपासु की प्यास बुझाने के लिए आपने शिविर व प्रवचन के माध्यम से भक्तामर स्तोत्र, तत्त्वार्थ सूत्र, द्रव्य संग्रह, छह ढ़ाला, चर्चा शतक, चौबीस ठाणा व जैनधर्म प्रवेशिका के चारों भागों का अध्ययन करवाया।
माताजी ने प्रवचन के माध्यम से प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान के दस भव सभी भक्तों को याद कराये जिसकी स्मृति आज भी हृदय पटल पर अंकित हैं।
कोलकाता नगर में एक चातुर्मास बड़ा बाजार के अहिंसा प्रचार समिति सभागार और एक हावड़ा डबसन रोड में हुआ। उन्हें कोलकाता में 'समाधि साम्राज्ञी' से विभूषित किया गया। कोलकाता में ब्रह्मचारिणी शांति बाई और कुसुम बाई ने संघ में प्रवेश किया। कोलकाता चातुर्मास के बाद आर्यिका संघ ने केसरीचन्द पूसराज फर्म के विजयकुमार शांतिकुमार के संघपतित्व में बुन्देलखंड की यात्रा की। दो माह की यात्रा पूर्ण करने पर आर्यिकाश्री ने जबलपुर में 31 जनवरी को प्रमिला दीदी की मातुश्री पुत्री देवी की समाधी करायी जिनका नाम निश्चलमती माताजी रखा जिन्होंने 'गणिनी सुपार्श्वमती मात, आज थारी आरती उतारू' लिखकर माताजी के गुणों का गान किया था। बीना बारहा में आचार्य विद्यासागरजी से आपका मिलन हुआ। आर्यिका संघ ने संवत् 2055 सन् 1999 में शांतिवीरनगर श्री महावीरजी में 34 वर्ष बाद आचार्य वर्द्धमानसागरजी के दर्शन कर अपने नेत्र तृप्त किये। लगभग 38 वर्ष के बाद आचार्य वीरसागरजी की आगमोक्त परम्परा अनुसार आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी को 20 आर्यिका व 9 मुनि संघ का जहाँ प्रवेश हुआ उन दोनों संघ का चातुर्मास जयपुर में भट्टारकजी की नशियां में सम्पन्न हुआ। 700 शिष्य शिविर में बैठे थे। चांदखेड़ी में संघस्थ भक्तिमती माताजी की समाधि के पश्चात् जयपुर से विहार कर मेनसर, डेह, नागौर, लाडनू आदि होते हुए सुजानगढ़ में सल्लेखना की नई कड़ी जुड़ी संघस्थ टिकी बाई जो रोशनमती माताजी बनी। बरह्मचारिणी हरखी बाई जो मनोज्ञमती माताजी बनी उनकी दिक्षा कुचामण में हुई। आर्यिकाश्री ने अपने खानियां जयपुर चातुर्मास में 15 माह में सात सल्लेखना करवायी। माताजी ने बड़का बालाजी फार्म हाउस में चार सल्लेखना कराई। इन चार सल्लेखना में एक सल्लेखना उनके गृहस्थ अवस्था के देवर श्री हुक्मीचंदजी बड़जात्या (कोलकाता निवासी) की भाद्र शुक्ला चतुर्दशी के दिन सल्लेखना करवायी जिसमें मुनि 108 श्री अनेकान्तसागरजी का सान्निध्य रहा। हुक्मीचंदजी की अनुत्तरसागरजी बनकर सल्लेखना हुई।
नागौर, कुचामन, लूणबां होते हुये जन्म ग्राम मेनसर में एक पाठशाला का उद्घाटन माताजी के सानिध्य में हुआ उसका सुपार्श्वमती कन्या पाठशाला नाम रखा गया। सीकर नगर में पर्युषण पर्व में लगभग 40 वर्षों से संघस्थ माताजी से दीक्षित प्रथम आर्यिका विद्यामतीजी की सल्लेखना भाद्र पद शुक्ला नवमी प्रात: 10.30 बजे हुई। सीकर से 550 किमी. दूर स्थित नन्दनवन जाकर गणिनी आर्यिका विशुद्धमती माताजी की समाधि 22 जनवरी को कराई। धरियावाद से तीन किमी. दूर स्थित नन्दनवन में दोनों गणिनी द्वय का 22 दिन का समागम रहा और आचार्य वर्द्धमानसागरजी ससंघ एवं मुनि पुण्यसागरजी भी वहीं विराजमान थे। चातुर्मास समाप्त कर धरियाबाद में माताजी ने अपनी प्रभावोत्पादक वाणी व चातुर्य से 60 वर्षों से चल रहे भूगर्भ से निकली आदिनाथ भगवान की प्रतिमा का विवाद मौन तप से सुलझा दिया। धरियाबाद से विहार कर आर्यिका संघ ने लगभग 27 दिनों के विहार के बाद गिरनार सिद्धक्षेत्र की यात्रा की। गिरनार यात्रा करने के बाद आर्यिका श्री प्रथम बार उदयपूर प्रवेश किया जहाँ 10 से 12 मार्च 2003 तक हीरक जयन्ती महोत्सव मनाया गया। उदयपुर में मनोज्ञमती माताजी की सल्लेखना हुई और चातुर्मास स्थापना पर माताजी ने लगातार एक ही आसन में 14-15 घंटे तक जाप किया। पारसोला में प्रवेश के बाद वहाँ जिनवाणी संरक्षक सुप्रभामती माताजी की सल्लेखना हुई और कमला बाई और शांति बाई ने समस्त आरम्भ परिग्रह का त्यागकर आर्यिका का सर्वोत्कृष्ट पद पाया और नाम पाया-सहजमतीजी और स्वभावमतीजी। पारसोला में आचार्य वर्द्धमानसागरजी और आचार्य सम्मतिसागरजी का वात्सल्य मिलन हुआ। इनके अलावा भरतसागरजी का भी वहाँ जब समागम हुआ तो 75 से भी अधिक साधुओं के बीच एक श्वेत वस्त्रधारी माताजी शंका समाधान करती थी तब ऐसा लगता था, मानो समवशरण लगा हो जिसमें श्वेत वस्त्रधारी सरस्वती ही साक्षात आकर बोल रही हो। पारसोला में चतुर्विध संघ के समक्ष संघस्थ सुप्रभामती माताजी ने दस दिन तक अन्न-पानी त्याग कर यम सल्लेखना ली।
संघ जब पुन: पारसोला आया तो विक्रम संवत् 2062, वीर संवत् 2531 दिनांक 17.04.2005 चैत्र शुक्ला चतुर्दशी को पारसोला ग्राम के सुपार्श्वमती रत्नत्रय भवन में महावीर भगवान, चन्द्रप्रभु व बाहुबली के बिम्ब के समक्ष शनिवार मध्याह्न डेढ़ बजे 12 वर्ष की समाधि की दृढ़ प्रतिज्ञा का संकल्प कर गुरुओं को नमन कर कायोत्सर्ग किया। उनकी चार वर्ष पूर्व समाधि की तीव्र भावना थीं लेकिन कोई नग्न दिगम्बर मुनि के दर्शन न होने से उनको बहुत कसक थी। ऐसा उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है। निम्बाहड़ा, नीमच की तरफ बिहार करते हुए जावद में माताजी ने जयपुर के प्रसन्नकुमारजी बाकलीवाल को प्रसन्नसागरजी यथानाम देकर आचार्यश्री के आदेशानुसार मुनि दीक्षा देकर सल्लेखना करवायी।
परम पूज्य गणिनी आर्यिका 105 श्री सुपार्श्वमती माताजी का दीक्षा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव 17 से 21 अक्टूबर 2007 जयपुर नेमिसागर में मनाया।
ब्रह्मचारिणी प्रमिला दीदी जो 34 वर्षों से तन, मन, धन से समर्पित माताजी की मानो छाया हो, स्वर्ण जयंती महोत्सव में आसोज शुक्ला दशमी को प्रमिला बहिन ने आर्यिका के सर्वोत्कृष्ट को प्राप्त कर 105 आर्यिका गौरवमती नाम पाकर संघ के गौरव को बढ़ाया है और उनके साथ मधु व सरिता बहिनने भी दीक्षा लेकर नाम पाया गंभीरमतीजी व गरिमामतीजी।
आर्यिका संघ बड़का बालाजी 26 जनवरी 2011 प्रात:काल को पहुँचा।
सावन, भाद्रपद के माह में व अष्टान्तिका पर्व में आर्यिकाश्री अन्न का त्याग रखते थे। आर्यिकाश्री लगभग सात वर्षों से एकान्तर व्रत किया करती थी। उन्होंने अपने जीवनकाल में माताजी की डायरी के आधार पर सन् 2003 तक 5000 से ऊपर व्रत किये थे और उसके बाद एकान्तर व्रत के आधार पर साढ़े तीन वर्ष यानि 1275 व्रत हुए। इस प्रकार 6500 करीबन व्रत उन्होंने अपने जीवनकाल में किये। उन्हें नमक,मीठा, तेल, दही चार रसका त्याग था। 65 वर्ष से नमक व 54 वर्ष से चीनी व तेल रस का त्याग था। उन्होंने 52 कृति का सृजन, टीका की। उन्होंने शांतिसागरजी आचार्य की अक्षुण्ण आगमोक्त परम्परा का पालन किया। पूज्य गौरवमती माताजी 38 वर्षों से उनकी छाया बनकर रही और वैय्यावृत्ति की। माताजी विजातीय विवाह, विधवा विवाह, आजीवन शुद्र जल का त्याग, जनेऊ और चंदोवा आदि के बिना आहार नहीं लेती थी। कुआँ का पानी बिना वाहन का, हाथ की चक्की में पिसा आटा, दूध जैन या ब्राह्मण का दुहा हुआ, अंगीठी में बना आहार करती थी। चतुर्दशी के दिन माताजी 8000 जाप यानि पूरी 80 माला भी पूर्ण कर लेती थी। इनके अलावा णमोकार का तो जाप उनके हर समय चलता था। माताजी की धारणा इतनी प्रखर थी कि एक बार मिला व्यक्ति चाहे वह 40 साल से भी मिला हो, उसको भी सहजता से पहचान लेती थी। पर्युषण पर्व में माताजी के मुखारविन्द से माताजी बिना जिनवाणी का अवलम्बन लिए जब तत्वार्थ सूत्र का वाचन करती थी तो मानो 5-5,6-6 घंटे तक धारा प्रवाह सरस्वती ही कंठ में विराजमान हो जाती थी।
सर्वार्थ सिद्धि न्याय, व्याकरण जैसे क्लिष्ट ग्रन्थों की टीका करते समय धर्मसभा या कोलाहल में भी माताजी की लेखनी ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम अति तीव्र होने के कारण न्याय जैसे क्लिष्ट ग्रन्थों को निरन्तर लेखन करने बावजूद धर्मसभा में कही वक्ता की प्रत्येक बात का उत्तर सहजता से देती थी। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान रूपी डालियों को माताजी ने चारित्र की जड़ को मजबूत करना बताया। माताजी ने बताया की सम्यक्दृष्टि की कषाय दूध का उफान है जो पानी डालने से शांत हो जाता है तथा मिथ्यादृष्टि की कषाय घी का उफान है जो पानी डालने से भभक जाएगा। जिनवाणी में एक भी अक्षर कम ज्यादा करने से माताजी कहा करती थीं की “आज जिनवाणी में मिलावट होने लगी है। कुछ भी जोड़ देते हैं और कुछ भी हटा देते हैं जिससे ज्ञानावरणी कर्म का बंध होता है।“ माताजी का अंतिम 84वां वर्षवर्द्धन दिवस बड़का बालाजी फार्म हाउस 14 मार्च 2012 फाल्गुन सुदी नवमी को प्रभात बेला में भक्ति करते हुए थाल बजाकर,मध्याह्न बेला में पाद प्रक्षालन, शास्त्र भेंट पूजन, आरती करते हुए मनाया गया। समाधि के कुछ माह पूर्व श्रावक रमेशकुमारजी जयकुमारजी के आने का समय होते ही माताजी की प्रतिक्रिया दोपहर में समाज के प्रबुद्धगण रमेशजी, जयकुमारजी के आने का समय होते ही तत्व चर्चा कर सुखद अनुभूति प्राप्त कर हर्षित होती थी। माताजी की समाधि पूर्व गणिनी आर्यिका स्यादवादमती माताजी बड़का बालाजी में दर्शनार्थ 6 अप्रैल 2012 को पहुँची। आचार्य चैत्यसागरजी ने 11 अप्रैल सायं 4 बजे पदार्पण किया। आचार्यश्री के सान्निध्य में माताजी ने एक दिन पूर्व रत्नों की प्रतिमाओं के दर्शन किये और समाधि के पूर्व प्रात:काल पूर्ण चैतन्य अवस्था में आचार्यश्री और गणिनी प्रमुख स्यादवादमती माताजी व समस्त संघ के सान्निध्य में 108 अंगुल/9 फुट की सफेद पाषाण की चन्द्रप्रभुजी की मुखावलोकन किया। उस प्रतिमा का शिलान्यास 19 जनवरी 2013 को हुआ। 12 अप्रैल को आचार्य वर्द्धमानसागरजी ने वीडियो दूरवार्ता के जरिये माताजी को कहा- “माताजी, कलश चढ़ाने का समय आ गया है।“ तत्पश्चात माताजी ने आचार्यश्री का चरण वन्दन किया।
माताजी की सल्लेखना बड़का बालाजी जयपुर में बैशाख कृष्णा अष्टमी दिनांक 13.4.2012 प्रात: 9 बजकर 24 मिनट पर चारों प्रकार का आहार त्याग, परिग्रह त्याग कर अरहंत सिद्ध नामोच्चारण करते हुए माताजी की समाधि हुई। अंत समय में माताजी के पास आचार्य चैत्यसागरजी ससंघ, मुनि अनेकान्तसागरजी, मुनिश्री विश्रुतसागरजी ससंघ (आचार्य विरागसागरजी संघस्थ), आर्यिका गणिनी स्याद्वादमती माताजी, आर्यिकासुपार्थमती माताजी ससंघ, क्षुल्लक प्रसिद्धसागरजी का संगम था। माताजी के संघ में माताजी- आर्यिका वैराग्यमतीजी, स्वभावमतीजी, आर्यिका गौरवमती माताजी, आर्यिका संयममतीजी, क्षुल्लिका आदर्शमतीजी, ब्रह्मचारिणी दीदी हिना दीदी, सारिका दीदी, स्वेता दीदी, कंवरी बाई, कीर्ति दीदी, किरण दीदी, कुसुम दीदी, मुन्नी बाई, विमला दीदी, गड़बड़ी बाई संघस्थ हैं। रमेशजी, जयकुमारजी के द्वारा 20 मिनट पूर्व माताजी से पुछा क्या चल रहा है तो माताजी ने कहा- “मैं अपने में हूँ, अरिहन्त सिद्ध चल रहा है।“
माताजी की अंतिम यात्रा बड़का बालाजी फार्म हाउस में हुई। समाधि मरण करने वाला आठ भव से अधिक संसार में परिभ्रमण नहीं करता। आधि, व्याधि, उपाधि से परे माताजी समाधि का ज्ञान दे गई। माताजी की समाधि के दूसरे दिन बड़का बालाजी में सभी साधु सन्त के सानिध्य में आचार्य धर्मसागरजी महाराज का चौदहवां समाधि दिवस वैशाख कृष्णा नवमी को मनाया गया।
माताजी के प्रथम समाधि दिवस के उपलश चुडीवाल परिवार द्वारा मध्यलोक शोध संस्थान सम्मेदशिखर में त्यागी, व्रती साधु संत के लिये आहारशाला का उद्घाटन 11 अप्रैल को किया गया।
माताजी ने अपने आर्यिका दीक्षा उपरान्त चातुर्मास - 54 हुए, आर्यिका दीक्षा-22 क्षुल्लक दीक्षा - 4, क्षुल्लिका-3, समाधि - 34, प्रतिष्ठा निर्माण 26 करवाये।
माताजी के 50वीं दीक्षा जयन्ती अवसर पर उसी माह आचार्य शांतिसागरजी की आगमोक्त परम्परा के 50वीं पुण्य तिथि वीरसागरजी, 50वां दीक्षा दिवस श्रुतसागरजी, 50वां दीक्षा दिवस सुपार्श्वमतीजी, 50वां दीक्षा दिवस अजितसागरजी व पूज्य गौरवमतीजी का दीक्षा पर्व मनाया गया।
माताजी के निर्देशानुसार संघस्थ ब्रह्मचारिणी दीदी को संस्कृत भाषा व व्याकरण सिखाने हेतु प्रतिदिन संस्कृत भाषा व व्याकरण का ग्रन्थ कातंत्रमाला का अध्ययन करवाने पंडित धर्मचन्दजी शास्त्री प्रतिदिन आते हैं। “सुन मेरे भगवन ! निकले तन से प्राण मेरे सामने खुला है तेरा दर हो तेरे दर पे प्रभुजी मेरा सर हो।“ माताजी प्रतिदिन वीतरागी प्रभु के दर्शन वंदन कर ये भजन गाकर अपनी भावना व्यक्त करती थीं।
परम पूज्य गणिनी आर्यिकाश्री 105 श्री सुपार्श्वमती माताजी ने रत्यत्रय की आराधना के साथ संस्कृत व प्राकृत ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद, मौलिक सृजन, पूजन, विधान की रचना कर प्राणी मात्र पर असीम उपकार किया है। उनकी करीब 52 कृति में कुछ मौलिक लेखन व अनुवाद - (1) आचार्य अकलंकदेव कृत राजवार्तिक पांच खण्ड (2) आचार्य श्रुतसागरसूरि कृत तत्त्वार्थ वृत्ति (3) आचार्य सोमदेव सूरि कृत योगसार (4) आचार्य कुलभूषणविरचित सार समुच्चय (5) पंडित आशाधर विरचित सागार धर्मामृत (6) इंद्रनंदी विरचित नीतिसार समुच्चय (7) आचार्य वीरनंदी विरचित आचारसार (8) आचार्य देवसेन विरचित आराधनासार (9)आचार्य कुन्दकुन्द विरचित षट् प्राभृत श्रुतसागर सूरि की टीका (10) सर्वार्थ सिद्धि (11) प्रमेय कमल मार्तण्ड (12) श्लोक वार्तिक (13) वैराग्यमणी माला (14) स्वरूप संबोधन (15) रत्नकरण्ड श्रावकाचार (16) रविचंद्राचार्य विरचित आराधनासार (17) शुभचन्द्राचार्य विरचित अंगपण्णति।
स्तोत्र एवं मौलिक रचनायें
भक्तामर स्तोत्र, कल्याण मंदिर स्तोत्र, एकीभाव स्तोत्र, विषापहार स्तोत्र. पाहुडभूपाल चतुर्विशति स्तोत्र, स्वयंभू स्तोत्र, समाधि शतक. इष्टोपदेश, प्रतिक्रमण पंजिका, दशलक्षण धर्म विवेचन अजितसागरजी व शिवसागरजी की संस्कृत पूजन, मेरा चिन्तवन, भवपार चलोगे, नारी चातुर्य, मोक्ष की अमरबेल रत्नत्रय, वरांग चरित्र, पांडव पुराण सार, द्रव्य संग्रह, कर्मरेख, जिन गुण सम्पत्ति विधान, नैतिक शिक्षाप्रद कहानियां भाग 1 से 10 तक।
1.Charitrachakravarti Acharya Shri Shanti Sagar Ji Maharaj 1872 | ||
2. Aacharya Shri 108 Veer Sagar Ji Maharaj 1876 | ||
Aryika Shri 105 Suparshwamati Mataji |
Ganini Aryika Shri 105 Shri Suparshwmati Mataji
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
Aaryika Ganini Shri 105 Shri Suparshwamati Mataji
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VeerSagarJiMaharaj1876AcharyaShantiSagarji
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