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#RatnamatiMataji1914Dharmasagarji
आर्यिका रत्नमती माताजी : एक अद्भुत व्यक्तित्व
अहिंसा के महान सिद्धांत का आश्रय लेकर देशभर के जनसमुदाय को अहिंसात्मक स्वतंत्रता के लिए कटिबद्ध कर देने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी विश्वप्रसिद्ध व्यक्तित्व हैं, उन महापुरुष की चारित्रिक ऊँचाइयों को दृष्टिगोचर करके सहज ही उनके मूलबिंदु पर ध्यान आकृष्ट होता है कि वह कौन सी माँ होगी, जिन्होंने मोहनदास करमचंद गांधी जैसे पुत्ररत्न को जन्म दिया होगा क्योंकि शैशवावस्था में माँ के द्वारा दिये गये संस्कारों के बल पर ही उनका भविष्य इतना महान बना था।
इसी प्रकार बीसवीं सदी में प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी बनकर दीक्षित होने वाली, नारी-स्वातंत्र्य की मसीहा, नारी- शक्ति की प्रतिबिम्ब स्वरूपा पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की उच्च उपलब्धियों एवं सफलता के शिखर को छूते प्रभावी व्यक्तित्व को देखकर सहज ही उन 'माँ' की ओर दृष्टि जाती है, जिनकी पावन कोख ने ऐसा रत्न संसार को प्रदान किया। यह बहुत ही स्वाभाविक है कि ऐसी माँ भी विशेष ही गुणों को धारण करने वाली रही होंगी।
ब्र. रवीन्द्र कुमार
-आर्यिका स्वर्णमती (संघस्थ)
जैन द्वारा त्याग मार्ग को अंगीकार करने के साथ-साथ उनकी अन्य सभी संतानें गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए धर्मभावनाओं से ओतप्रोत हैं। पुनः व्रतिक जीवन व्यतीत करते हुए सन् 1969 में 25 दिसम्बर को अपने पति के उत्तम समाधिमरण में पूर्ण सहयोग प्रदान किया तथा स्वयं सप्तम प्रतिमा के व्रतों का पालन करके मोक्षमार्ग पर कदम आगे बढ़ाने लगीं। प्रारंभ से ही वैराग्यमयी परिणामों में रची-पची माँ मोहिनी ने 57 वर्ष की आयु में आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज से अजमेर में सन् 1971 में मगशिर कृ. 3 को आर्यिका दीक्षा धारण करके 'रत्नमती' नाम प्राप्त किया। जिनशासन की प्रभावना हेतु समाज को प्राप्त गणिनी ज्ञानमती माताजी जैसे रत्नों को प्रसूत करने वाली माँ का नाम सार्थक ही रखा गया। दीक्षा लेने के पश्चात् गुरुआज्ञा
29वीं पुण्यतिथि
माघ कृ. नवमी, दिनाँक 25 जनवरी 2014 के अवसर पर
वास्तव में, सन् 1914 में महमूदाबाद (जि.-सीतापुर, उ.प्र.) में मगशिर कृ. पंचमी को जन्मी कन्या 'मोहिनी' में कुछ ऐसे ही गुण समाविष्ट थे। बचपन से ही जैनधर्म के संस्कारों में संस्कारित इस कन्या का विवाह ग्राम-टिकैतनगर (जि. बाराबंकी, उ. प्र.) के श्रेष्ठी श्री छोटेलाल जैन के साथ सन् 1932 में जब सम्पन्न हुआ, तब अद्भुत दहेज के रूप में 'पद्मनंदिपंचविंशतिका' ग्रंथ प्राप्त करना ही आगामी स्वर्णिम इतिहास की नींव बन गया क्योंकि सन् 1934 में 'माता मोहिनी' की प्रथम संतान के रूप में जन्मी कन्यारत्न 'मैना' ने बचपन से ही इसी ग्रंथ को पढ़कर प्राप्त हुए वैराग्य के द्वारा आगे चलकर गणिनी ज्ञानमती माताजी के रूप में जगत्पूज्य पद को प्राप्त किया।
सन् 1932 से सन् 1960 तक आदर्श गृहस्थधर्म का पालन करते हुए माता मोहिनी ने क्रम से 13 संतानों को जन्म दिया, जिनमें 9 पुत्रियाँ एवं 4 पुत्र हैं। यह उनकी उत्कट धर्मभावना का ही परिणाम था कि श्री ज्ञानमती माताजी के अतिरिक्त आर्यिकारत्न श्री अभयमती माताजी, प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी एवं कर्मयोगी से
गृहस्थावस्था की अपनी पुत्री आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के प्रति स्वयं को समर्पित कर देने वाली ऐसी माँ का उदाहरण कठिनाई से ही उपलब्ध हो पाएगा। नितप्रति अपनी चर्या में संलग्न, गृहस्थी एवं संसार की विषय- वस्तुओं से अत्यन्त निःस्पृह रहने वाली, अत्यन्त वात्सल्यमयी, सरल स्वभावी आर्यिका श्री रत्नमती माताजी ने 13 वर्षों तक आर्यिका दीक्षा के कठोर चारित्र को साकार करके अपनी आत्मा का अधिकतम कल्याण किया । पुनः पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के चरण सानिध्य में सल्लेखना धारण करके आपने 15 जनवरी 1985 (माघ कृ. नवमी) को उत्कृष्ट समाधिमरण प्राप्त किया। निश्चित ही स्वर्ग में देवपर्याय को प्राप्त कर वह पावन आत्मा अपने आत्मकल्याण के मार्ग को और भी अधिक प्रशस्त कर रही होगी, ऐसा विश्वास है। किसी पावन तीर्थ क्षेत्र पर समाधि धारण करने की उनकी इच्छा भलीभांति परिपूर्ण हुई क्योंकि तीन तीर्थंकर भगवन्तों के 4-4 कल्याणकों से पावन भूमि हस्तिनापुर में स्थित विश्वप्रसिद्ध जम्बूद्वीप रचना में उन्होंने वीरतापूर्वक मृत्यु का वरण किया एवं नारी पर्याय के सर्वोत्कृष्ट लक्ष्य को प्राप्त किया। जिनेन्द्र प्रभु से यही प्रार्थना है कि उनको शीघ्र ही मोक्ष लक्ष्मी का लाभ हो एवं उनके जैसा आदर्श जीवन जीकर मैं भी अन्त में समाधिमरण को प्राप्त कर सकूँ ।
Aryika Shri 105 Gyanmati Mataji - Daughter
https://encyclopediaofjainism.com/birth-centenary-of-pujya-aryika-shri-ratnamati-mataji/
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आर्यिका श्री १०५ रत्नमती माताजी
Acharya Shri 108 Dharm Sagarji Maharaj 1914
आचार्य श्री १०८ धर्म सागरजी महाराज १९१४ Acharya Shri 108 Dharm Sagarji Maharaj 1914
संतोष खुले (जैन) जी ने यह विकी पेज बनाया है | दिनांक 08 June 2023
Santosh Khule (Jain) Created this Wikipage On Date 08 June 2023
DharmSagarJiMaharaj1914
आर्यिका रत्नमती माताजी : एक अद्भुत व्यक्तित्व
अहिंसा के महान सिद्धांत का आश्रय लेकर देशभर के जनसमुदाय को अहिंसात्मक स्वतंत्रता के लिए कटिबद्ध कर देने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी विश्वप्रसिद्ध व्यक्तित्व हैं, उन महापुरुष की चारित्रिक ऊँचाइयों को दृष्टिगोचर करके सहज ही उनके मूलबिंदु पर ध्यान आकृष्ट होता है कि वह कौन सी माँ होगी, जिन्होंने मोहनदास करमचंद गांधी जैसे पुत्ररत्न को जन्म दिया होगा क्योंकि शैशवावस्था में माँ के द्वारा दिये गये संस्कारों के बल पर ही उनका भविष्य इतना महान बना था।
इसी प्रकार बीसवीं सदी में प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी बनकर दीक्षित होने वाली, नारी-स्वातंत्र्य की मसीहा, नारी- शक्ति की प्रतिबिम्ब स्वरूपा पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की उच्च उपलब्धियों एवं सफलता के शिखर को छूते प्रभावी व्यक्तित्व को देखकर सहज ही उन 'माँ' की ओर दृष्टि जाती है, जिनकी पावन कोख ने ऐसा रत्न संसार को प्रदान किया। यह बहुत ही स्वाभाविक है कि ऐसी माँ भी विशेष ही गुणों को धारण करने वाली रही होंगी।
ब्र. रवीन्द्र कुमार
-आर्यिका स्वर्णमती (संघस्थ)
जैन द्वारा त्याग मार्ग को अंगीकार करने के साथ-साथ उनकी अन्य सभी संतानें गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए धर्मभावनाओं से ओतप्रोत हैं। पुनः व्रतिक जीवन व्यतीत करते हुए सन् 1969 में 25 दिसम्बर को अपने पति के उत्तम समाधिमरण में पूर्ण सहयोग प्रदान किया तथा स्वयं सप्तम प्रतिमा के व्रतों का पालन करके मोक्षमार्ग पर कदम आगे बढ़ाने लगीं। प्रारंभ से ही वैराग्यमयी परिणामों में रची-पची माँ मोहिनी ने 57 वर्ष की आयु में आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज से अजमेर में सन् 1971 में मगशिर कृ. 3 को आर्यिका दीक्षा धारण करके 'रत्नमती' नाम प्राप्त किया। जिनशासन की प्रभावना हेतु समाज को प्राप्त गणिनी ज्ञानमती माताजी जैसे रत्नों को प्रसूत करने वाली माँ का नाम सार्थक ही रखा गया। दीक्षा लेने के पश्चात् गुरुआज्ञा
29वीं पुण्यतिथि
माघ कृ. नवमी, दिनाँक 25 जनवरी 2014 के अवसर पर
वास्तव में, सन् 1914 में महमूदाबाद (जि.-सीतापुर, उ.प्र.) में मगशिर कृ. पंचमी को जन्मी कन्या 'मोहिनी' में कुछ ऐसे ही गुण समाविष्ट थे। बचपन से ही जैनधर्म के संस्कारों में संस्कारित इस कन्या का विवाह ग्राम-टिकैतनगर (जि. बाराबंकी, उ. प्र.) के श्रेष्ठी श्री छोटेलाल जैन के साथ सन् 1932 में जब सम्पन्न हुआ, तब अद्भुत दहेज के रूप में 'पद्मनंदिपंचविंशतिका' ग्रंथ प्राप्त करना ही आगामी स्वर्णिम इतिहास की नींव बन गया क्योंकि सन् 1934 में 'माता मोहिनी' की प्रथम संतान के रूप में जन्मी कन्यारत्न 'मैना' ने बचपन से ही इसी ग्रंथ को पढ़कर प्राप्त हुए वैराग्य के द्वारा आगे चलकर गणिनी ज्ञानमती माताजी के रूप में जगत्पूज्य पद को प्राप्त किया।
सन् 1932 से सन् 1960 तक आदर्श गृहस्थधर्म का पालन करते हुए माता मोहिनी ने क्रम से 13 संतानों को जन्म दिया, जिनमें 9 पुत्रियाँ एवं 4 पुत्र हैं। यह उनकी उत्कट धर्मभावना का ही परिणाम था कि श्री ज्ञानमती माताजी के अतिरिक्त आर्यिकारत्न श्री अभयमती माताजी, प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी एवं कर्मयोगी से
गृहस्थावस्था की अपनी पुत्री आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के प्रति स्वयं को समर्पित कर देने वाली ऐसी माँ का उदाहरण कठिनाई से ही उपलब्ध हो पाएगा। नितप्रति अपनी चर्या में संलग्न, गृहस्थी एवं संसार की विषय- वस्तुओं से अत्यन्त निःस्पृह रहने वाली, अत्यन्त वात्सल्यमयी, सरल स्वभावी आर्यिका श्री रत्नमती माताजी ने 13 वर्षों तक आर्यिका दीक्षा के कठोर चारित्र को साकार करके अपनी आत्मा का अधिकतम कल्याण किया । पुनः पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के चरण सानिध्य में सल्लेखना धारण करके आपने 15 जनवरी 1985 (माघ कृ. नवमी) को उत्कृष्ट समाधिमरण प्राप्त किया। निश्चित ही स्वर्ग में देवपर्याय को प्राप्त कर वह पावन आत्मा अपने आत्मकल्याण के मार्ग को और भी अधिक प्रशस्त कर रही होगी, ऐसा विश्वास है। किसी पावन तीर्थ क्षेत्र पर समाधि धारण करने की उनकी इच्छा भलीभांति परिपूर्ण हुई क्योंकि तीन तीर्थंकर भगवन्तों के 4-4 कल्याणकों से पावन भूमि हस्तिनापुर में स्थित विश्वप्रसिद्ध जम्बूद्वीप रचना में उन्होंने वीरतापूर्वक मृत्यु का वरण किया एवं नारी पर्याय के सर्वोत्कृष्ट लक्ष्य को प्राप्त किया। जिनेन्द्र प्रभु से यही प्रार्थना है कि उनको शीघ्र ही मोक्ष लक्ष्मी का लाभ हो एवं उनके जैसा आदर्श जीवन जीकर मैं भी अन्त में समाधिमरण को प्राप्त कर सकूँ ।
Pujya Aryika Shri Ratnamati Mataji was the mother of Pujya Ganini Pramukh Aryika Shiromani Shri Gyanmati Mataji, one of the topmost & widely-known personalities of Digambar Jain tradition of the present-times.
She was born as the daughter ‘Mohini’ on Magsir Krishna Panchmi in 1914 at Mahmudabad (Distt.-Sitapur) U.P. to the parents- Shri Sukhpaldas & Smt. Matto devi. She was given a unique dowry in the form of the Jain Granth-Padmanandi panchvinshatika in her marriage with Shri Chhotelal Jain of Tikaitnagar (Distt.Barabanki, U.P.) in 1932.
She had the vow of reading this granth everyday in her swadhyaya. In 1934, she gave birth to her first child-daughter Maina, who was also fascinated towards the swadhyaya of ‘Padmanandipanchvinshatika’ granth by mother Mohini since her childhood.
Gradually, Maina developed the true feeling of asceticism and renounced the family-life at the tender age of 18 years in 1952 accepting the vow of celibacy for whole life. At that time, mother Mohini played a pivotal role by giving her consent in written to Acharya Shri Deshbhushanji Maharaj for the adoption of religious vows by Maina.
She also took a promise from Maina that-‘As I have helped you to come out of the vicious circle of the worldly life today, you will also help me in progressing on the religious path in future.’ Maina agreed happily.
The time passed. Mohini Devi gave birth to 12 children after Maina along with performing her religious rites and swadhyaya. Till then, daughter Maina had become ‘Pujya Aryika Shri Gyanmati Mataji’, always indulged in reading & teaching Jain Scriptures.
In 1971, when mother Mohini went for the darshan of ‘Pujya Gyanmati Mataji’ to Ajmer, Mataji remembered the promise made to her in 1952 and accordingly she persuaded her to take Jaineshwari Deeksha. Mohini Devi being 57 years old at that time, still prepared herself for taking Aryika Deeksha at once because of her feelings of renunciation of the world since long.
Thus, she was initiated as ‘Aryika Ratnamati’ on Magsir Krishna Teej in 1971 by the holy hands of Acharya Shri Dharmasagar Ji Maharaj, the 3rd Pattadheesh of Charitra Chakravarti Acharya Shri Shantisagar Ji Maharaj. Acharya Maharaj gave her the name ‘Ratnamati’ because of being the mother of jewels like Aryikaratna Shri Gyanmati Mataji & Aryika Shri Abhaymati Mataji etc.
Later her 12th Child-Km. Madhuri also became Aryika Shri Chandnamati Mataji and son Ravindra Kumar became Peethadheesh Swasti Shri Ravindrakeerti Swamiji, establishing the truth of her name. Aryika Shri Ratnamati Mataji was very simple-hearted, fully-detached from worldly affairs, humble & down-to-earth personality.
She lived under the patronage of her daughter-Aryikaratna Shri Gyanmati Mataji with full reverence for her. She never even called her by the name of ‘Gyanmati Mataji’, but she only used to say ‘Mataji’ for her. For 13 years, she practised the vows of Aryika with full devotion. Ultimately on 15th Jan. 1985, Magh Krishna Navmi, she did a very peaceful Samadhi-Maran under the guidance of Pujya Gyanmati Mataji.
As a matter of fact, she was a real mother, who not only gave us jewel like Ganini Shri Gyanmati Mataji but also made her own life meaningful in the real sense. On the completion of 100 years of her life in 2014, we pay sincere Reverence & Namans in her holy feet. May her soul be salvated soon from the worldly transmigration.
https://encyclopediaofjainism.com/birth-centenary-of-pujya-aryika-shri-ratnamati-mataji/
Aryika Shri 105 Gyanmati Mataji - Daughter
Aryika Shri 105 Ratnamati Mataji
आचार्य श्री १०८ धर्म सागरजी महाराज १९१४ Acharya Shri 108 Dharm Sagarji Maharaj 1914
आचार्य श्री १०८ धर्म सागरजी महाराज १९१४ Acharya Shri 108 Dharm Sagarji Maharaj 1914
Acharya Shri 108 Dharm Sagarji Maharaj 1914
Santosh Khule (Jain) Created this Wikipage On Date 08 June 2023
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DharmSagarJiMaharaj1914
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