Article Summary
Darshnik Yug Or Syadvad
Darshnik Yug Or Syadvad
दार्शनिक युगके सर्वप्रथम आचार्य समन्तभद्रने सैद्धान्तिक एवं आगमिक परिभाषाओं और शब्दोंको दार्शनिक रूप प्रदान किया है। इन्होंने एकान्त बादोंकी आलोचनाके साथ-साथ अनेकान्तका स्थापन, स्याद्वादका लक्षण, सुनय दुनयकी व्याख्या और अनेकान्तमें अनेकान्त लगानेको प्रक्रिया बतलायी है। प्रमाणका लक्षण 'स्वपरावभासक बुद्धि को बतलाया है। समन्तभद्रने बत लाया है कि तत्व बनेकान्तरूप हैं और अनेकान्त चिरोधी दो धमोंके युगल के आश्नयसे प्रकाशमें आनेवाले वस्तुगत सात धौंका समुच्चय है और ऐसे-ऐसे अनन्त धर्मसमुच्चय विराट अनेमसत्य-सागरमें अनन्त लहरोंके समान तरंगित हो रहे हैं और उसमें अनन्त सप्तभंगियाँसमाहित हैं। वक्ता किसी धर्मावशेषको विवक्षावश मुख्य या गौणरूपमें प्रण करता है । इस प्रकार समन्तभद्रने सप्तभंगोका परिष्कृत प्रयोग कर अनेकान्तको व्यवस्था प्रदर्शित की है। यथा
१. स्यात् सद्रूप ही तत्त्व है।
२. स्यात् असदुरूप ही तत्त्व है।
३. स्यात् उभयरूप ही तत्व है।
४. स्यात् अनुभम् ( अबक्तव्य) रूप ही तत्त्व है ।
५. स्यात् सद् और अवक्तब्य रूप ही तत्त्व है।
६. स्यात् असद् और अवक्तव्य रूप ही तत्व है।
७ स्यात् सद् और असद् तथा अवक्तरूप ही तत्व है।'
इन सप्तभङ्गोंमें प्रथम भंग स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षासे, द्वितीय पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षासे, तृतीय दोनोंकी सम्मिलित अपेक्षाओंसे, चतुर्थ दोनों सत्त्व-असत्त्वको एक साथ कह न सकनेसे, पंचम प्रथम-चतुर्थक संयोगसे, षष्ठ द्वितीय-चतुर्थके मेलसे, सप्तम तृतीय-चतुर्थक सम्मिलित रूपसे विवक्षित हैं। प्रत्येक भंगका प्रयोजन पृथक्-पृथक रूपमें अभीष्ट है।
समन्तभद्रने सदसद्के स्याद्वादके समान अद्वैत-द्वैतवाद, शाश्वत-अशाश्वतवाद, वक्तव्य-श्रवक्तव्यबाद, अन्यता अनन्यताबाद, अपेक्षा अनपेक्षाबाद, हेतु-अहेतुवाद, विशान-बहिरर्थवाद, देवपुरुषार्थवाद, पाप-पुण्यवाद और बन्ध मोक्षकारणबाद पर भी विचार किया है। तथा सप्तभंगीकी योजना कर स्यादवादको स्थापना की है। इस प्रकार समन्तभद्रने तत्त्वविचारको स्यादवादष्टि प्रदान कर विचारसंघर्षको समाप्त किया है। समन्तभद्रका अभिमत है कि तात्विक विचारणा अथवा आचार-व्यवहार, जो कुछ भी हो, सब अनेकान्तदष्टिके आधारपर किया जाना चाहिए। अतः समस्त आंचार और विचारको नींव अनेकान्तदृष्टि ही है । यही दृष्टि वैयक्तिक और सामष्टिक समस्याओंके समा धानके लिए कुंजी है।
समन्तभद्रको सप्तभंगीका स्वरूप आचार्य कुन्द-कुन्दसे विरासतके रूप में प्राप्त हुआ था। उन्होंने इस रूपको पर्याप्त विकसित और सुव्यवस्थित किया है। विचारसहिष्णुता और समता लानेका उनका यह प्रयत्न श्लाघनीय है।
समन्तभद्रके पश्चात् मिल्सेनने नय और अनेकान्तका गंभीर विशद एवं मौलिक विवेचन किया है। समन्तभद्रके प्रमाणके 'स्वपरावभासक लक्षण में 'बाधविजित विशेषण देकर उसे विशेष समुद्ध किया। नानकी प्रमाणता और अप्रमाणताका आधार 'मेनिश्चय'को माना।
पात्रकेसरी और श्रीदत्तने क्रमश: "विलक्षणकदर्थच' एवं 'जल्पनिर्णय' ग्रन्थों की रचना कर 'अन्यथानुपपन्नत्व' रूप हेतुलक्षण प्रतिष्ठित किया तथा वादका सांगोपांग निरूपण कर पर-समयमीमांसा प्रस्तुत की।
आचार्य अकलंकदेवने जैन न्यायशास्त्रको सुदृढ़ प्रतिष्ठा कर प्रमागके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद बतलाये तथा प्रत्यक्षके मुख्य प्रत्यक्ष; सांत्र्यव हारिक प्रत्यक्ष ये दो भेद किये हैं। परोक्षप्रमाणके भेदोंमें स्मति, प्रत्यभिज्ञान, सर्क, अनुमान और आगमको बतलाया है। उत्तरकालिन आचाोंने अकलंक द्वारा प्रतिष्ठापित प्रमाणपद्धतिको पल्लवित और पुष्पित किया है । अकलंक देवने लवीयस्त्रयसवृत्ति, न्यायविनिश्चयसवृत्ति, सिद्धिविनिश्चयसवृत्ति और प्रमाणसंग्रहसत्ति इन मौलिक अन्योंकी रचना की है। तत्त्वार्थवात्तिक और अष्टशती इनके टीकाग्रन्ध हैं । अकलंकने इन ग्रन्थों में प्रमाण और प्रमेयकी व्यवस्थामें पूर्ण सहयोग प्रदान किया है। द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुका प्रमाणविषय त्व तथा अर्थक्रियाकारिलके विवेचनके पश्चात् नित्यैकान्त आदिका निरसन किया है। सुनय, दुर्नय, द्रव्यार्थिक, पर्यायाधिक आदिका स्वरूपविवेचन भी कम महत्वपूर्ण नहीं है । अकलंकके पश्चात् आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक, अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासन परीक्षा जैसे जैन न्यायके मूर्धन्य ग्रन्थोंका प्रणयन कर जैनदर्शनको सुब्यब स्थित बनाया है। ज्ञेयको जानने देखने, समझने और समझानेकी दृष्टियोंका नय और सप्तभंगी द्वारा स्पष्टीकरण किया गया है। विद्यानन्दने विभिन्न दार्शन कारों द्वारा स्वीकृत आप्तोंकी समीक्षा कर आपतत्व एवं सर्वज्ञत्वकी प्रतिष्ठा की है। इन्होंने सविकल्पक एवं निर्विकल्पक ज्ञानकी प्रामाणिकताका भी विचार किया है । अभ्यास, प्रकरण, बुद्धिपाटव आदिसे निर्विकल्पको प्रमाण नहीं माना जा सकता । स्वलक्षणरूप परमाणुपदार्थ ज्ञानका विषय तभी बन सकता है जब स्थूल बाह्य पदार्थोका अस्तित्व स्वीकार किया जाय । विद्यानन्दने पुरुषाद्वैत, शब्दाद्वैत, विज्ञानाद्वैत, चित्राद्वैत, चार्वाक, बौद्ध, सेवरसांख्य, निरीश्वरसांख्य, नैयायिक, वैशेषिक, भाट्ट आदिके मंतव्योंकी समीक्षा की हैं।प्रमेयोंका स्पष्टीकरण बहुत ही सुन्दर रूप में किया गया है ।
Sanjul Jain Created Article On Date 9 June 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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