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Dravyagun Paryayvishyak
Dravyagun Paryayvishyak
द्रव्यविवेचनके क्षेत्रमें श्रुतधराचार्य कुन्दकुन्दने जो मान्यताएं प्रतिष्ठित की थों, उनका विस्तार एलाचायं, अमृतचन्द्र, अमिताँत, वीरसेन, जोइन्दु आदि आचार्योने किया है । जीव', पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों और उनके गुण-पर्यायोंका निरूपण किया गया है । जीवका चैतन्य आसा धारण गुण है। बाह्य और अभ्यन्तर कारणोंसे इस चतन्यके ज्ञान और दर्शन रूपसे दो प्रकारके परिणमन होते हैं | जिस समय चैतन्य 'स्व'से भिन्न किसी ज्ञेयको जानता है, उस समय वह ज्ञान कहलाता है। और जब चैतन्यमात्र चैतन्याकार रहता है तब वह दर्शन कहलाता है। जीवमें शान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुण पाये जाते हैं ।
पुद्गलद्रव्यमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुण रहते हैं। जो द्रव्य स्कन्ध अवस्था में पूरण अर्थात् अन्य-अन्य परमाणुओंसे मिलन और गलन अर्थात् कुछ परमाणुओंका बिछुड़ना, इस तरह उपचय और अपचयको प्राप्त होता है वह पुद गल कहलाता है । समस्त दृश्य जगत इस पुद्गलका ही विस्तार है। मूल दुष्टिसे पुद्गलद्रव्य परमाणुरूप ही है । अनेक परमाणुओंसे मिलकर जो स्कन्ध बनता है वह संयुक्तद्रव्य है । स्कन्धोंका बनाव और मिटाब परमाणुओंकी बन्धशक्तिऔर भेदशक्तिके करण होता है ।
प्रत्येक परमाणुमें स्वभावसे एक रस, एक रूप, एक गन्ध और दो स्पर्श होते हैं। परमाणु अवस्था ही पुद्गलकी स्वाभाविक पर्याय और स्कन्ध अवस्था विभाव पर्याय है । परमाणु परमातिसूक्ष्म है, अविभागी है, शब्दका कारण होकर भी स्वयं अशब्द है । शाश्वत होकर भी उत्पाद और ब्यय युक्त है।
स्कन्ध अपने परिणभनकी अपेक्षासे छह प्रकारका है-१. बादर-बादर जो स्कन्ध छिन्न-भिन्न होने पर स्वयं न मिल सकें, वे लकड़ी, पत्थर, पर्वत, पृथ्वी आदि बादर-बादर स्कन्ध कहलाते हैं । २. बादर-जो स्कन्ध छिन्न-भिन्न होने पर स्वयं आपसमें मिल जाये, ये बादर स्कन्ध है; जेसे दूध, घी, तेल, पानी आदि। ३. बादर-सूक्ष्म-जो स्कन्ध दिखने में तो स्थूल हों, लेकिन छेदने-भेदने और ग्रहण करने में न आवें, वे छाया,प्रकाश, अन्धकार, चाँदनी आदि बादर सूक्ष्म स्कन्ध हैं । ४. सूक्ष्म-बादर---जो सूक्ष्म होकरके भी स्थूलरूपमें दिखें, वे पाँचों इन्द्रियों के विषय-स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द सूक्ष्म-बादर स्कन्ध हैं। ५. सूक्ष्म-जो सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण न किये जा सकते हों, वे कर्मवर्गणा आदि सूक्ष्म स्कन्ध हैं। ६. अतिसूक्ष्म-कर्मवर्गणासे भी छोटे वणुक स्कन्ध तक अतिसूक्ष्म है।
समान्यत: पुद्गलके स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु ये चार विभाग हैं। अनन्तान्त परमाणुओंसे स्कन्ध बनता है। उससे आधा स्कन्धदेश और स्कन्धदेशका आधा स्कन्धप्रदेश कहलाता है। परमाणु सर्वतः अविभागी होता है। शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद, अन्धकार, छाया, प्रकाश, उद्योत और गर्मी आदि पुद्गलद्रव्यके ही पर्याय हैं।
अनन्त आकाशमें जीव और पुद्गलोंका गमन जिस द्रव्य के कारण होता है गह वर्गद्रव्य है। यहाँ भन्या एका पर्यायवाची नहीं । यह असंख्यातप्रदेशी द्रव्य है। जीव और पुदगल स्वयं गतिस्वभाववाले हैं। अतः इनके गमन करनेमें जो साधारण कारण होता है वह धर्मद्रव्य है। यह किसी जीव या पुदगलको प्रेरणा करके नहीं चलाता, किन्तु जो स्वयं गति कर रहा है उसे माध्यम बनकर सहारा देता है। इसका अस्तित्व लोकके भीतर तो है ही, पर लोकसीमाओंपर नियंत्रकके रूपमें है। धर्मद्रब्यके कारण ही समस्त जीव और पुद्गल अपनी यात्रा उसी सीमा तक समाप्त करनेको विवश हैं। उससे आगे नहीं जा सकते।
जिस प्रकार गतिके लिए एक साधारण कारण धर्मद्रव्य अपेक्षित है, उसो तरह जीव एवं पुद्गलोंकी स्थितिके लिए एक साधारण कारण अधर्मद्रव्य अपे क्षित है। यह लोकाकाशके बराबर है । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्दसे रहित, अमूर्तिक, निष्क्रिय और उत्पाद-व्ययके परिणमनसे युक्त नित्य है। अपने स्वाभाविक संतुलन रखनेवाले अनन्त अगुरुलघुगुणोंसे उत्पाद-व्यय करता हुमा यह स्थितशील जीव-पुद्गलोंको स्थितिमें साधारण कारण होता है। धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य लोक और अलोक विभागके सद्भावसूचक प्रमाण हैं।
समस्त जीव, अजीव आदि द्रव्योंको जो अवगाह देता है अर्थात् जिसमें ये समस्त द्रव्य मुगपत् अवकाश पाते हैं, वह आकाशद्रव्य है । आकारा अनन्त प्रदेशी है। इसके मध्य भागमें चौदह राजू ऊंचा पुरुषाकार लोक स्थित है, जिसके कारण आकाश लोकाकाश और अलोकाकाशके रूपमें विभाजित हो जाता है। लोकाकाश असंख्यातप्रदेशों में है। शेष अनन्त प्रदेशोंमें अलोक है, जहाँ केवल आकाश ही आकान है। यह निष्क्रिय है और रूप, रस, गन्ध, स्पर्श एवं शब्द आदिसे रहित होनेके कारण अमूर्तिक है।
समस्त द्रव्यों के उत्पादादिरूप परिणमनमें सहकारी कालद्रव्य होता है। इसका स्वरूप 'वर्तना' लक्षण है। यह स्वयं परिणमन करते हुए अन्य द्रव्योंके परिणमनमें सहकारी होता है । यह भी अन्य द्रव्यों के समान उत्पाद, व्यय,नोव्य युक्त है । प्रत्येक लोकाकाशके प्रदेशपर एक-एक कालाणुद्रच्य अपनी स्वतंत्र सत्ता रखता है। धर्म और अधर्म द्रव्यके समान यह कालद्रव्य एक नहीं है, यत: प्रत्येक लोकाकाशके प्रदेशपर समय-भेद स्थित रहनेसे यह अनेक रत्नोंकी राशिके समान पिण्डद्रव्य है । द्रव्योंमें परत्व, अपरत्व, पुरातनत्व, नूतनत्व, अतीत, वर्तमान और अनागतत्त्वका व्यवहार कालद्व्यक कारण ही होता है।
प्रत्येक द्रव्यमें सामान्य और विशेष गुण पाये जाते हैं।प्रत्येक गुणका भी प्रतिसमय परिणमन होता है। गुण और द्रव्यका कथञ्चित् तदात्म्यसम्बन्ध है । द्रव्यसे गुणको पृथक नहीं किया जा सकता । इसलिए वह अभिन्न है और संज्ञा, संख्या, प्रयोजन आदिके भेदसे उसका विभिन्न रूपसे निरूपण किया जाता है, अत: वह भिन्न है। इस दृष्टिसे द्रव्यमें जितने गुण हैं उतने उत्पाद और व्यय प्रत्तिसमय होते हैं। प्रत्येक गुण अपने पूर्व पर्यायको त्यागकर उत्तरपर्यायको धारण करता है । पर उन सबको द्रव्यसे भिन्न सत्ता नहीं रहती है। सूक्ष्मतया देखनेपर पर्याय और गुणको छोड़कर व्यका कोई पृथक अस्तित्व नहीं है, गुण और पर्याय ही द्रव्य है। पर्यायोंमें परिवर्तन होनेपर भी जो एक अनच्छि न्नताका नियामक अंश है, वही तो गुण है । गुणोंको सहभावी एवं अन्वयी तथा पर्यायोंको व्यक्तिरेकी और क्रमभावी माना जाता है। पर्याय, गुणोंका परिणाम या विकार होती हैं।
द्रव्य, गुण और पर्यायके विवेचनके साथ जीव, अजीब, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका निरूपण भी किया गया है । आसव, बन्ध, संबर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्व दो-दो प्रकारके होते हैं-द्रव्य और भावरूप । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूप आत्मपरिणामोंसे कर्मपुद्ग लोका आगमन, जिन भावोसे होता है वे भावासव कहलाते हैं । और पुद्गलोंका साना ध्यान्नव है। भावानव जीवगत पर्याय है और व्यास्रव पुद्गल गत । जिन कषायोंसे कर्म बन्धते हैं, वे जीवगत कषायादि भावभावबन्ध हैं और पुद्गलकर्मका आत्मसे सम्बन्ध हो जाना द्रव्यबन्ध है। भावबन्ध जीवरूप है और द्रव्यबन्ध पुद्गलरूप । व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परिषहजयरूप भावोंसे कर्मोके आनेको रोकना भावसंबर है। और कोका रुक जाना द्रव्यसंवर है। इसी प्रकार पूर्व संचित कोका निर्जरण जिन तपादिभावोंसे होता है ये भावनिर्जरा हैं और कमोंका झड़ना द्रव्यनिर्जरा है। जिन ध्यान आदि साधनोंसे मुक्ति प्राप्ति होती है वे भाव भाव मोक्ष हैं और कर्मपुद्गलोका आत्मासे छूट जाना द्रव्यमोक्ष है। इस प्रकार आस्रव, बन्ध, संवर. निर्जरा और मोक्ष ये पांच तत्व भावरूपमें जीवके पर्याय हैं और द्रव्यरूपमें पुद्गलके । जिनके भेदविज्ञानसे कैवल्यकी प्राप्ति होती है, उन आत्मा और में में सातों नन्न समाहित हो जाते हैं ! वस्तुत: जिस 'पर' की परतन्त्रताको दूर करना है और जिस 'स्व'को स्वतन्त्र होना है, उस 'स्व' और 'पर' के ज्ञानमें तत्वज्ञानको पूर्णता हो जाती है।
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 9 June 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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