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#ChandraSagarJiMaharaj(Nandgaon)ShantiSagarJi
Muni Shri 108 Chandra Sagar Ji Maharaj was born on Saka Samvat 1905. Vikram Samvat 1940, Magha Krishna 13 and he took initiation from Acharya Shri 108 Shanti Sagar Ji Maharaj (Charitra Chakravarti) on Veer Nirvana Samvat 2456, Margashirsha Krishna 15 at Sonagiri Siddha Kshetra.
मुनि श्री १०८ चन्द्र सागर जी महाराज
संक्षिप्त परिचय
जन्म: शक संवत १९०५ .विक्रम संवत १९४० ,माघ कृष्णा १३
जन्म नाम : खुशालचन्द्र
जन्म स्थान : नंदगाँव (महाराष्ट्र)
माता जी नाम : श्रीमती सीता जी
पिताजी नाम : श्री नथमल जैन
ब्रह्मचर्य व्रत :
क्षुल्लक दीक्षा : फाल्गुन शुक्ला ७,वीर निर्वाण संवत २४५०
क्षुल्लक दीक्षा स्थान :
क्षुल्लक दीक्षा गुरु : आचार्य श्री १०८ शांति सागर जी महाराज
ऐलक दीक्षा : आश्विन शुक्ला ११ ,वीर निर्वाण संवत २४५०
ऐलक दीक्षा स्थान : समडोली
ऐलक दीक्षा गुरु : आचार्य श्री १०८ शांति सागर जी महाराज
मुनि दीक्षा : वीर निर्वाण संवत २४५६ ,मार्गशीर्ष कृष्णा १५
मुनि दीक्षा स्थान : सोनागिरी सिद्ध क्षेत्र
मुनि दीक्षा गुरु : आचार्य श्री १०८ शांति सागर जी महाराज
समाधि मरण : २६ फरवरी १९४५
मुनि श्री चन्द्रमागरजी महाराज
__ भारत देश के महाराष्ट्र प्रान्त में नांदगांव नामक एक नगर है । वहां खण्डेलवाल जाति में जैनधर्म परायण नथमल नामक श्रावकरत्न रहते थे। उनकी भार्या का नाम सीता था । वास्तव में, वह सीता ही थी अर्थात् शीलवती और पति की आज्ञानुसार चलने वाली थी। सेठ नथमलजी और सीताबाई का सम्बन्ध जयकुमार सुलोचना के समान था । शालिवाहन संवत् १६०५ विक्रम संवत् १६४० मिती माघ कृष्णा
त्रयोदशी, शनिवार की रात्रि को पूर्वाषाढा नक्षत्र में सीताबाई की पवित्र कुक्षि से एक पुत्ररत्न ने जन्म लिया। जिसकी रूप-राशि लखकर सूर्य चन्द्रमा भी लज्जित हुए। पुत्र के मुखदर्शन से माता को अपार हर्ष हुआ। पिता ने हर्षित होकर कुटुम्बी जनों को उपहार दिये । सभी पारिवारिक जन हर्षित थे। दसवें दिन बालक का नामकरण संस्कार किया गया । जन्म नक्षत्रानुसार तो जन्म नाम भूरामल, भीमसेन, आदि होना चाहिये था परन्तु पुत्रोत्पत्ति से माता पिता को अपूर्व खुशी हुई थी अतः उन्होंने बालक का नाम खुशालचन्द्र रखा हो ऐसा अनुमान लगाया जाता है। महाराजश्री के हस्तलिखित गुटके में जो जन्म तिथि पौष कृष्णा त्रयोदशी शनिवार पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में रात्रि के समय लिखी गई है वह महाराष्ट्र देश की अपेक्षा है । मरुस्थलीय और महाराष्ट्र के कृष्ण पक्ष में एक माह का अन्तर है । शुक्ल पक्ष दोनों के समान हैं अतः माघ कृष्णा त्रयोदशी कहो या पौष कृष्ण त्रयोदशी, दोनों का एक ही अर्थ है ।
बालक खुशालचन्द्र द्वितीया के चन्द्रवत वृद्धिंगत हो रहा था। जिस प्रकार चन्द्रमा की वृद्धि से समुद्र वृद्धिंगत होता है उसी प्रकार खुशालचन्द्र की वृद्धि से कुटुम्बी जनों का हर्ष रूपी समुद्र भी बढ़ रहा था। विवाह : पत्नी वियोग : ब्रह्मचर्यव्रत :
अभी खुशालचन्द्र ८ वर्ष के भी नहीं हुए थे कि पूर्वोपाजित पाप कर्म के उदय से पिता की छत्रछाया आपके सिर से उठ गई । पिताश्री के निधन से घर का सारा भार आपकी विधवा माताजी पर आ पड़ा । उस समय आपके बड़े भाई की उम्र २० बर्ष की थी। और छोटे भाई की चार वर्ष की। घर की परस्थिति नाजक थी, ऐसी परिस्थिति में बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था कैसे हो सकती है, इसे कोई भुक्त भोगी ही जान सकता है । बालक खुशालचन्द्र की बुद्धि तीक्ष्ण थी किन्तु शिक्षण का साधन नहीं होने के कारण उन्हें छठी कक्षा के बाद १४ वर्ष की अवस्था में ही अध्ययन छोड़कर व्यापार के लिए उद्यम करना पड़ा। पढ़ने की तीव्र इच्छा होते हुए भी पढ़ना छोड़ना पड़ा-ठीक ही है, कर्मों की गति बड़ी विचित्र है । इस संसार में किसी को भी इच्छाएँ पूरी नहीं होती हैं । युवक खुशालचन्द्र की इच्छा के विपरीत कुटुम्बी जनों ने बीस बर्ष की अवस्था होने पर उसकी शादी कर दी । विवाह से आपको सन्तोष नहीं था, पत्नी रुग्गा रहती थी। डेढ साल बाद ही आपकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया । आपके लिये मानो "रवात् नो रत्नवृष्टि" आकाश से रत्नों की वर्षा ही हो गई, क्योंकि आपकी रुचि भोगों में नहीं थी । इस समय आप इक्कीस वर्ष के थे। अंग अंग में यौवन फूट रहा था, भाल देदीप्यमान था । तारुण्यश्री से आपका शरीर समलंकृत था अतएव कुटुम्बीजन आपको दूसरे विवाह बंधन में बांधकर सासांरिक विषय भोगों में फंसाने का प्रयत्न करने लगे। परन्तु खुशालचन्द्र को प्रात्मा अब सब प्रकार से समर्थ थे। सांसारिक यातनाओं से भयभीत थी अत: आपने मकड़ी के समान अपने मुख की लार से अपना जान बना कर और उसी में फंसकर जीवन गॅवाने की चेष्टा नहीं की । आपने अनादिकालीन विषयकासनाओं पर विजय प्राप्त कर आत्मतत्त्व की उपलब्धि के लिए दुर्बलता के पोषक, दुःख और अशान्त के कारण गृहवास को तिलाञ्जलि देकर दिगम्बर मुद्रा अंगोकार करने का विचार किया । अत: आपने ज्येष्ठ शुक्ला नवमी विक्रम संवत् १९६२ के दिन आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत स्वीकार कर लिया। खिलते यौवन में ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर आपने अद्भुत एवं महान वीरता का काम किया ।
पांचवीं प्रतिमा :
वीर संवत् २४४६ में श्री १०५ ऐलक पन्नालालजी का चातुर्मास नांदगांव में हुआ तब आपने आषाढ़ शुक्ला दशमी के दिन तीसरी सामायिक प्रतिमा धारण की । श्री ऐलक महाराज के प्रसाद से आपकी विरक्ति प्रतिदिन बढ़ती गई । भाद्रपद शुक्ला पंचमी को आपने सचित्तत्याग नाम की पांचवीं प्रतिमा धारण की।
चातुर्मास पूरा होने के बाद आपने ऐलक महाराज के साथ महाराष्ट्र के ग्रामों और नगरों में चार माह तक भ्रमण कर जैन धर्म का प्रचार केया, फिर आपने समस्त तीर्थक्षेत्रों की यात्रा की। क्षेत्रों में शक्त्यनुसार दान भी किया।
उस समय इस भू तल पर दिगम्बर मुनियों के दर्शन दुर्लभ थे। महानिधि के समान दिगम्बर साधु कहीं कहीं दृष्टिगोचर होते थे । अापका हृदय मुनिदर्शन हेतु निरन्तर छटपटाता रहता था। आप निरन्तर यही विचार करते थे कि अहो ! वह शुभ घड़ी कब आएगी जिस दिन मैं भी दिगम्बर होकर आत्मकल्याण में अग्रसर हो सकूग।
आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज के वशंन :
एक दिन आपने आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की ललित कीर्ति सुनी । आपका मन गुरुवर के दर्शनों के लिए लालायित हो उठा । उनके दर्शनों के बिना आपका मन जल के बिना मछली के समान तड़फने लगा। इसी समय ब्र० हीरालालजी गंगवाल आचार्यश्री के दर्शनार्थ दक्षिण की मोर जाने लगे । यह वार्ता सुनकर आपका मन मयूर नृत्य करने लगा और आपने भी उनके साथ प्रस्थान किया । आचार्यश्री उस समय ऐनापुर के पास पास विहार कर रहे थे। आप दोनों महानुभाव उनके पास चले गये। तेजोमय मूत्ति शान्तिसागरजी महाराज के चरण कमलों में आपने अतीव भक्ति से नमस्कार किया, आपके चक्षु पटलानिनिमेष दृष्टि से उस संयमति की ओर निहारते ही रह गये । आपका मानस अानन्द की तरंगों से व्याप्त हो गया । आपने आचार्यश्री की शान्त मुद्रा को देखकर निश्चय कर लिया कि यदि संसार में कोई मेरे गुरु हो सकते हैं तो यही महानुभाव हो सकते हैं और कोई नहीं । आपका चित्त आचार्यश्री के पादमूल में रहने के लिये ललचाने लगा। आप गोम्मट स्वामी की यात्रा कर वापस आये और उनसे सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये । कुछ दिन घर में रहकर आचार्यश्री के पास वीर निवर्गम संवत २४५० फाल्गुन शुक्ला सप्तमी के दिन क्षुल्लक के व्रत ग्रहण किये । अब आप निरन्तर प्राचार्यश्री के समीप ही ध्यान अध्ययन में रत रहने लगे । प्राचार्य श्री ने समडोली में चातुर्मास वित्या । आश्विन शुक्ला एकादशी वीर निर्वाण संवत् २४५० में आपने ऐलक दीक्षा ग्रहण की। आफना नाम चन्द्रसागर रखा गया। वास्तव में आप चन्द्र थे । अापका गौर वर्ण उन्नत भाल चन्द्र क् समान था । आपके धवल यश की किरणें चन्द्रमा के समान समस्त संसार में फैल गई । वीर संवत २४५० में आचार्यश्री ने सम्मेदशिखरजी की यात्रा के लिए प्रस्थान किया । ऐलक चन्द्रसागरजी भी साथ में थे। संघ फाल्गुन में शिखरजी पहुंचा, तीर्थराज की वन्दना कर सबने अपने को कृतकृत्य समझा । तीर्थराज पर संघपति पूनमचन्द घासीलाल ने पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करवाई। लाखो नर नारी दर्शनार्थ आये। धर्म की अपूर्व प्रभावना हुई। वहां से विहार कर, कटनी, ललितपुर, जम्बूस्वामी सिद्धक्षेत्र मथुरा में चातुर्मास करके अनेक ग्रामों में धर्मामृत की वर्षा करते हुए सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पर पहुंचे । वहाँ पर आपने वीर संवत २४५६ मार्गशीर्ष शुक्ला १५ सोमवार मृग नक्षत्र मकर लग्न में दिन के १० बजे आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज के चरणसानिध्य में दिगम्बर दीक्षा ग्रहण की । समस्त कृत्रिम वस्त्राभूषण त्याग कर आपने पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्तिरूप आभूषण तथा २८ मुलगुणरूप वस्त्रों से स्वयं को सुशोभित किया।
दिगम्बर मुद्रा धारण करना सरल और मूलभ नहीं है, अत्यन्त कठिन है। धीर वीर महापुरुष हो इस मुद्रा को धारण कर सकते हैं । आपने इस निर्विकार मुद्रा को धारण कर अनेक नगरों व ग्रामों में भ्रमण किया तथा अपने धर्मोपदेश से जन जन के हृदय पटल के मिथ्यान्धकार को दूर किया । सुना जाता है कि आपकी वक्तृत्व शक्ति प्रद्भुत थी। प्रापका तपोबल, आचारबल, श्रुतबल, वचनबल, पात्मिकबल और धैर्य प्रशंसनीय था।
सिंहवृत्तिधारक :
जिसप्रकार सिंह के समक्ष श्याल नहीं ठहर सकते उसीप्रकार आपके समक्ष वादीगण भी नहीं ठहर सकते थे । श्याल अपनी मण्डली में ही उह उह कर शोर मचा सकते हैं परन्तु सिंह के सामने चुप रह जाते हैं, वैसे ही दिगम्बरत्व के विरोधी जन शास्त्र के मर्म को नहीं जानने वाले अज्ञानी दूर से ही आपका विरोध करते थे परन्तु सामने लाने के बाद मूक के समान हो जाते थे।
सुना है कि जिस समय आचार्यश्री का संघ दिल्ली में आया था। उस समय एक सरकारी आदेश द्वारा दिगम्बर साधुओं के नगर विहार पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। जब यह वार्ता निर्भीक चन्द्रसिन्धु के कानों में पड़ी तो उन्होंने विचार किया अहो ! ऐसे तो मुनि मार्ग रुक ही जाएगा इसलिये उन्होंने पाहार करने के लिये शुद्धि की, और वीतराग प्रभु के समक्ष कायोत्सर्ग कर हाथ में कमण्डलु लेकर शहर में जाने लगे। श्रावक चिन्तित हो गए क्या होगा ? परन्तु महाराजश्री के मुखमण्डल पर अपूर्व तेज था । आप सिंह के समान निर्भय और शान्त भाव से चले जा रहे थे। जब अंग्रेज साहब की कोठी के पास से निकले तो बाहर खड़ा साहब इनकी शान्त मुद्रा को देखकर नतमस्तक हो गया, इनकी भूरि भूरि प्रशंसा करने लगा । सत्य हो है महापुरुषों का प्रभाव अपूर्व होता है।
रत्नत्रय की मूर्तिमन्त प्रतिमा :
वास्तव में मुनिराज श्री चन्द्रसागरजी को देखकर रत्नत्रय की मूर्तिमन्त प्रतिमा को देखने का सन्तोष प्राप्त होता था । महाराजश्री का जीवन हिमालय की तरह उत्तुग, सागर की तरह गम्भीर, चन्द्रमा की तरह शीतल, तपस्या में सूर्य की तरह प्रवर, स्फटिक की तरह अत्यन्त निर्दोष, प्रकाश की तरह अन्तर्बाह्य खुली किताब, महाव्रतों के पालन में वज्र की तरह कठोर, मेरु सदृश अडिग एवं गंगा की तरह अत्यन्त निर्मल था।
बे साधुओं में महासाधु, तपस्वियों में बठोर तपस्वी, योगियों में आत्मलीन योगी, महाव्रतियों में निरपेक्ष महाव्रती और मुनियों में अत्यन्त निर्मोही मुनि थे । वास्तव में ऐसे निर्मल, निःस्पृह और स्थितिप्रज्ञ साधुओं से हो धर्म की शोभा है । विश्व के प्राणी ऐसे ही सत्साधुओं के दर्शन, समागम और सेवा से अपने जीवन को धन्य बना पाते हैं।
पूज्य तरणतारण महामुनिराज श्री चरूसागरजी महाराज अपने दीक्षा गुरु परम पूज्य श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी महाराज की शिष्य परम्परा में और साधु जीवन में न केवल ज्येष्ठता में श्रेष्ठ थे वरन् श्रेष्ठता में भी श्रेष्ठ थे । उनके पाचन पद विहार से धरा धन्य हो गई। सच्चा अध्ययन जगमगा उठा और आत्महितैषियों को आन्मपथ पर चलने के लिए प्रकाशस्तम्भ मिल गया। वास्तव में वे लोग महाभाग्यशाली हैं जिन्हें ऐसे लोकोत्तर असाधारण महानतपस्वी सच्चे आगमनिष्ठ साधु के दर्शन का सुयोग मिला ।
आपको यही भावना रहती थी कि "सर्वो भवन्तु सुखिनः" । आप संसारो जीवों को धर्माभिमुख करने हेतु सतत् प्रयत्नशील रहते थे । गुरुदेव को तपस्या केवल आत्मकल्याण के लिए हो नहीं अपितु इस युग की धर्म और मर्यादा का विरोधा करने वाली दूषित पापवृत्तियों को रोकने के लिए भी थी। मानच को पापवृत्तियों को देखकर उनका चित्त आशंकित था। महाराजश्री ने इनका नाश करने का प्रयत्न असीम साहस और धैर्य के सभ्य किया। धर्मभावनाशून्य मूढ़ लोगों ने इनके पथ में पत्थर बरसाने में कोई कमी नहीं रखो परन्तु मुनिश्री ने एक परम साहसो सैनानी को भांति अपनी गति नहीं बदली । यश और वैभव को ठुकराने वाले क्या कभी विरोधियों की परवाह कर सकते हैं, कभी नहीं।
महाराज श्री हमेशा ही सत्य, सिद्धान्त और प्रागमपथ के अनुयायी रहे । सिद्धान्त के आगे आप किसी को कोई महत्व नहीं देते थे । यदि शास्त्र की परिपालना में प्राणों की भी आवश्यकता होती तो आप निःसंकोच देने को तैयार रहते थे। जिनधर्म के मर्म को नहीं जानने वाले, द्वेषाग्नि दग्ध अज्ञानियों ने महाराजश्री पर वर्णनातीत अत्याचार किए जिन्हें लेखनी से लिखा भी नहीं जा सकता । परन्तु धीर वीर मुनिश्री ने इतने घोरोपसर्ग प्राने पर भी न्यायमार्ग एवं अपने सिद्धान्त को नहीं छोड़ा । सत्य है "न्यायात्पथः प्रविचल न्ति पदं न मीरा" घोरोपसर्ग पाने पर भी धीर-वीर न्यायमार्ग से विचलित नहीं होते । आपत्तियों को दृढ़ता सहन करने पर ही गुणों को प्रतिष्ठा होती है । गुरुदेव ने घोर आपत्तियों का सामना किया जिससे साज भी उनका नाम अजर अमर है । मारवाड़ के सुधारक:
___जिस समय हमारे श्रावक गरण चारित्र से न्युत हो धर्मविहीन बनते जा रहे थे। उस समय आपने जैन समाज को धर्मोपदेश देकर सन्मार्ग में लगाया । आप अनेकों ग्रामों और नगरों में भ्रमण करके अपने वचनामृत के द्वारा धर्मपिपासु भव्यप्राणियों को सन्तुष्ट करते हुए राजस्थान प्रान्त के सुजानगढ़ नगर में पधारे । वि० सं० १९६२ में आपने यहां चातुर्मास किया। इस मारवाड़ देश की उपमा प्राचार्यों ने संसार से दी है । यहां उष्णता भी अधिक है तो ठण्ड भी अधिक पड़ती है। गर्मी के दिनों में भीषण सूर्य किरणों से तप्तायमान धूलि से ज्वाला निकलतो है । आपने जिस समय राजस्थान में पदार्पण किया उस समय यहाँ के निवासी मुनियों को चर्या से अनभिज्ञ थे, खान-पान अशुद्ध हो चला था । आपने अपने मार्मिक उपदेशों से श्रावकों को सम्बोधित किया, उनके योग्य. आचार से उन्हें अवगत कराया, आपके सदुपदेश से कई क्रती बने । मारवाड़ प्रान्त के लोगों के सुधार का श्रेय आपको ही है। डेह में प्रभावना :
लाडनू से मंगसिर सुदी चतुर्दशी को आचार्य जल्पश्री ने विहार किया। साथ में थे मुनि निर्मलसागरजी, ऐलक हेमसागरजी, क्षुल्लक गुप्तिसागरजी और ब्र० गौरीलालजी।
मिती पौष कृष्णा दूज वि० सं० १९९२ के प्रातः ९ बजे मुनिसंघ का डेह में प्रवेश हुआ। सारा ग्राम मानो उलट पड़ा, विशाल शोभायात्रा निकाली गई। जागोरदार का सरकारी लवाजमा तथा बैण्ड भी जुलूस में सम्मिलित था । लगभग २००० स्वो पुरुष और बच्चे सोत्साह जय जयकार
कर रहे थे। साधुओं ने पहले श्री पार्श्वनाथ नसिगाँजी के दर्शन किए, अनन्तर प्राचीन मन्दिर और नवीन मन्दिर के दर्शन करते हुए संघ श्री दिगम्बर जैन पाठशाला में पहुंचा। प्राचार्यकल्पश्री के उद्बोधन के बाद सभा विजित हुई।
सैकड़ों वर्षों से इस प्रदेश में दिगम्बर जैन साधुओं का प्रागमन न होने से सब लोग साधुनों की क्रियाओं से अनभिज्ञ थे । संघ की चयाँ देख देखकर सब लोग आश्चर्यान्वित होते थे । पूज्य चन्द्रसागरजी महाराज ने श्रावकों की शिथिलता और अशुद्ध खानपान को भांप लिया था प्रतः आपके उपदेश का विषय प्राय: यही होता था । आपके उपदेशों से प्रभावित होकर और सच्चा मार्ग ज्ञात कर अनेक श्रावक श्राविकाओं ने दूसरी प्रतिमा के व्रत ग्रहण किए, जिनमें मोहनीबाई (अधुना आयिका इन्दुमतीजी) व इनके भाई-भाभी भी थे । अनेकानेक ने मद्य मांस का त्याग किया। रात्रि भोजन छोड़ा तथा जल छान कर पीने का नियम लिया । यों कहना चाहिये कि आपके आगमन से डेह वासियों का जीवन सर्वथा परिवर्तन हो गया अबके सब शुद्ध खान पान और नियमों की ओर प्राकृष्ट हुए। उत्कृष्ट धर्म प्रचारक :
गुरुओं की गरिमा गाथा गाई नहीं जा सकती। आपके वचनों में सत्यता और मधुरता, हृदय में विवक्षा, मन में मृदुता, भावना में भव्यात्रा, नयन में परीक्षा, बुद्धि में समीक्षा, दृष्टि में विशालता, व्यवहार में कुशलता और अन्तःकरण में कोमलता कूट कूट कर भरी हुई थी। इसलिये आपने मनुष्य को पहचान कर अर्थात् पात्र की पर्ग:क्षा कर व्रत दिये, जन जन के हृदय में संयम की सुवास भरी।
गगन का चन्द्र अन्धकार को दूर करता है। परन्तु चन्द्रसागरजी रूपी निर्मल चन्द्र प्रज्ञानियों के मन मन्दिर में ज्ञान का प्रकाश फैला था । आपने धर्मोपदेश देकर जन जन का प्रज्ञान दूर किया । देश-देशान्तरों में विहार कर जिगधर्म का प्रचार किया। उनका यह परमोपकार कल्पान्त काल तक स्थिर रहेगा । उनके वचनों में ओज था। उपदेश की शैली अपूर्व थी। मधुर भाषणों से उनके जैन सिद्धान्त के अभूतपूर्व मर्मज्ञ हीने की प्रखर प्रतिभा का परिचय स्वतः ही मिलता था आपके सरल वाक्य रश्मियों से साक्षात् शान्ति सुमारस विकीर्ण होता था जिसका पान कर भक्त जन झूम उठते और अपूर्व शान्ति लाभ लेते थे। अपूर्व मनोबल :
___महाराजश्री की वृत्ति सिंहवृत्ति थी अमएव उनके अनुशासन तथा नियंत्रण में माता का लाड न था बल्कि सच्चे पिता को सो परम हितैषिणी कट्टरता थी। जिसके लिये उन्होंने अपने जीवनोपाजित यश की बलि चढ़ाने में जरा सा भी संकोच नहीं किया।
इन्दौर में सरसेठ हुकमीचन्दजी ने प्राचार्यत्री को हथकड़ी पहनाने की पूर्ण कोशिश की पर सेठ सा० की कोशिश व्यर्थ गई तथा प्राचार्यश्री का सिंहवृत्ति से सरकारी वर्ग के विशिष्ट लोग आपके चरणों में नतमस्तक हो गए तथा सेठ जी के मायाजाल का भण्डा फूट गया ।
अनेक क्षेत्रों और स्थानों में विहार करते हुए मुनिश्री संघ सहित संवत् २००१ फाल्गुन सुदी अष्टमी के सायंकाल बावनगजा में पधारे । उस समय आपके इस भौतिक शरीर को ज्वर के वेग ने पकड़ लिया था । इसलिये आपका शरीर यद्यपि दुर्बल हो गया था फिर भी मानसिक बल अपूर्व था। बड़वानी सिद्धक्षेत्र में श्री चांदमल धन्नालाक की ओर से मानस्तम्भ प्रतिष्ठा थी। आपने रुग्णावस्था में भी अपने हाथ से प्रतिष्ठा कराई ।
पूज्य गुरुदेव को शारीरिक स्थिति अधिकाधिक निर्बल होती गई तो भी महाराजश्री ने फाल्गुन सुदी १२ को फरमाया कि मुझे चूलगिरि के दर्शन कराओ। लोगों ने कहा :
"महाराज ! शरीर स्वस्थ होने पर पहाड़ पर जाना उचित होगा, गुरुदेव बोले "शरीर का भरोसा नहीं । यदि शरीर ही नहीं रहा तो हमारे दर्शन रह जायेंगे।"
महाराज श्री दर्शनार्थ पर्वत परं पधारे । उस समय उन्हें १०५ डिग्री ज्वर था, निर्बलता भी काफी थी। महाराजश्री ने बड़े उत्साह और हर्ष पूर्वक दर्शन किये । संन्यास भी ग्रहण कर लिया। अर्थात् अन्न का त्याग कर दिया । फाल्गुन शुक्ला १३ को मात्र जल लिया ।
अन्तिम सन्देश :
त्रयोदशी को ही अन्न जल त्याग कर संन्यास धारण करते समय आपने पूछा था कि प्रप्टाह्निका की पूर्णता परसों ही है न ?
लोगों के हाँ करने पर महाराज ने फरमाया "सब लोग धर्म का सेवन न भूलें । आत्मा
अमर है।"
फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी को शक्ति और भी कोण हो गई। डाक्टरों ने महाराजश्री को देखकर कहा कि महाराज का हृदय बड़ा दृढ़ है । औषधि लेने पर तो तिया स्वस्थ हो सकते हैं परन्तु गुरुदेव कैसी औषधि लेते ? उनके पास तो मुक्ति में पहुंचाने वाली परम वीतरागतारूप आदर्श महौषधि थी।
शरीर त्याग:
फाल्गुन शुक्ला १५ के दिन बारह बजार बीस मिनट पर गुरुदेव ने इस विनाशशील शरीर को छोड़कर अमरतत्व प्राप्त कर लिया । यह सन् १९४५ की २६ फरवरी का दिन था । इस दिन अष्टाह्निका की समाप्ति थी। दिन भी चन्द्रगर था। परमाराध्य गुरुदेव चन्द्रसागर ने पूर्ण चन्द्रिका चन्द्रवार के दिन सिद्धक्षेत्र पर होलिका की प्राग में अपने कर्मों को शरीर के साथ फूंक दिया। समस्त भक्तजन बिलखते रह गये, सबकी आँखें भर आई। चरण वन्दना :
दृढ़ तपस्वी, शीर्षमार्ग के कट्टर पोषक, वीतरागी, परम विद्वान्, निर्भीक, प्रसिद्ध उपदेशक, प्रागम मर्मस्पर्शी, अनर्थ के शत्रु, सत्य के पुजारी, गोक्ष मार्ग के पथिक, संसारी प्राणियों के तारक, आत्मबोधी, स्वपर-उपकारी, अपरिग्रही, तारण-तरण, सन्तापहरण स्व० गुरुदेव के चरण कमलों में शत-शत बन्दन ! शत-शत वन्दन !!
भारत देश के महाराष्ट्र प्रान्त में नांदगांव नामक एक नगर है । वहां खण्डेलवाल जाति में जैनधर्म परायण नथमल नामक श्रावकरत्न रहते थे। उनकी भार्या का नाम सीता था । वास्तव में, वह सीता ही थी अर्थात् शीलवती और पति की आज्ञानुसार चलने वाली थी। सेठ नथमलजी और सीता बाई का सम्बन्ध जयकुमार सुलोचना के समान था । शालि वाहन संवत् १६०५ विक्रम संवत् १६४० मिती माघ कृष्णा
त्रयोदशी, शनिवार की रात्रि को पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में सीताबाई की पवित्र कुक्षि से एक पत्ररत्न ने जन्म लिया। जिसकी रूप-राशि लखकर सूर्य चन्द्रमा भी लज्जित हुए। पुत्र के मुखदर्शन से माता को अपार हर्ष हुआ। पिता न हषित होकर कुटुम्बी जनों को उपहार दिये । सभी पारिवारिक जन हषित थे। दसवें दिन बालक का नामकरण संस्कार किया गया। जन्म नक्षत्रानुसार तो जन्म नाम भूरामल, भीमसेन, आदि हाना चाहिये था परन्तु पुत्रोत्पत्ति से माता पिता को अपूर्व खुशी हुई थी अतः उन्होंने बालक का नाम खुशालचन्द्र रखा हो ऐसा अनुमान लगाया जाता है । महाराजश्री के हस्तलिखित गुटके में जो जन्म तार कृष्णा त्रयोदशी शनिवार पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में रात्रि के समय लिखी गई है वह महाराष्ट्र देश की अपेक्षा है । मरुस्थलीय और महाराष्ट्र के कृष्ण पक्ष में एक माह का अन्तर है । शुक्ल पक्ष दोनों के समान हैं अतः माघ कृष्णा त्रयोदशी कहो या पौष कृष्णा त्रयोदशी, दोनों का एक ही अर्थ है ।
बालक खुशालचन्द्र द्वितीया के चन्द्रवत वृद्धिगत हो रहा था। जिस प्रकार चन्द्रमा की वृद्धि से समुद्र वृद्धिगत होता है उसी प्रकार खुशालचन्द्र की वृद्धि से कुटुम्बी जनों का हर्ष रूपी समुद्र भी बढ़ रहा था।
___ अभी खुशालचन्द्र ८ वर्ष के भी नहीं हुए थे कि पूर्वोपाजित पाप कर्म के उदय से पिता की छत्रछाया आपके सिर से उठ गई। पिताश्री के निधन से घर का सारा भार आपकी विधवा माताजी पर आ पड़ा । उस समय आपके बड़े भाई की उम्र २० वर्ष की थी । और छोटे भाई की चार वर्ष को । घर की परस्थिति नाजुक थी, ऐसी परिस्थिति में बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था कैसे हो सकती है, इसे कोई भुक्त भोगी ही जान सकता है। बालक खुशालचन्द्र की बुद्धि तीक्ष्ण थी किन्तु शिक्षण का साधन नहीं होने के कारण उन्हें छठी कक्षा के बाद १४ वर्ष की अवस्था में ही अध्ययन छोड़कर व्यापार के लिए उद्यम करना पड़ा। पढ़ने की तीव्र इच्छा होते हुए भी पढ़ना छोड़ना पड़ा-ठीक ही है, कर्मों की गति बड़ी विचित्र है । इस संसार में किसी की भी इच्छाएँ पूरी नहीं होती हैं । युवक खुशालचन्द्र की इच्छा के विपरीत कुटुम्बी जनों ने बीस वर्ष की अवस्था होने पर उसकी शादी कर दी । विवाह से आपको सन्तोष नहीं था, पत्नी रुग्ण रहती थी। डेढ साल बाद ही आपकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया। आपके लिये मानो "रवात् नो रत्नवृष्टि" आकाश से रत्नों की वर्षा ही हो गई, क्योंकि आपकी रुचि भोगों में नहीं थी। इस समय आप इक्कीस वर्ष के थे। अंग अंग में यौवन फूट रहा था, भाल देदीप्यमान था । तारुण्यश्री से आपका शरीर समलंकृत था अतएव कुटुम्बी जन आपको दूसरे विवाह बंधन में बांधकर सासांरिक विषय भोगों में फँसाने का प्रयत्न करने लगे। परन्तु खुशालचन्द्र को प्रात्मा अब सब प्रकार से समर्थ थी, सांसारिक यातनाओं से भयभीत थी अतः आपने मकड़ी के समान अपने मुख की लार से अपना जाल बना कर और उसी में फँसकर जोबन गैवाने की चेष्टा नहीं की। आपने अनादिकालीन विषयवासनाओं पर विजय प्राप्त कर आत्मतत्त्व की उपलब्धि के लिए दुर्बलता के पोषक, दुःख और अशान्ति के कारण गृहवास को तिलाञ्जलि देकर दिगम्बर मुद्रा अंगीकार करने का विचार किया । अतः आपने ज्येष्ठ शुक्ला नवमी विक्रम संवत् १९६२ के दिन आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत स्वीकार कर लिया । खिलते यौवन में ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर आपने अद्भुत एवं महान वीरता का काम किया ।
। बीर संवत् २४४६ में श्री १०५ ऐलक पन्नालालजी का चातुर्मास नांदगांव में हुआ तब आपने आषाढ़ शुक्ला दशमी के दिन तीसरी सामायिक प्रतिमा धारण की । श्री ऐलक महाराज के प्रसाद से आपकी विरक्ति प्रतिदिन बढ़ती गई । भाद्रपद शुक्ला पंचमी को आपने सचित्तत्याग नाम की पांचवीं प्रतिमा धारण की।
चातुर्मास पूरा होने के बाद आपने ऐलक महाराज के साथ महाराष्ट्र के ग्रामों और नगरों में चार माह तक भ्रमण कर जैन धर्म का प्रचार किया, फिर आपने समस्त तीर्थक्षेत्रों की यात्रा की। क्षेत्रों में शक्त्यनुसार दान भी किया।
उस समय इस भू तल पर दिगम्बर मुनियों के दर्शन दुर्लभ थे। महानिधि के समान दिगम्बर साधु कहीं कहीं दृष्टिगोचर होते थे । आपका हृदय मुनिदर्शन हेतु निरन्तर छटपटाता रहता था । आप निरन्तर यही विचार करते थे कि अहो ! वह शुभ घड़ी कब आएगी जिस दिन मैं भी दिगम्बर होकर आत्मकल्याण में अग्रसर हो सकूगा।
आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज के दर्शन :
--एक दिन आपने आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की ललित कीर्ति सुनी । आपका मन कुरुबर के दर्शनों के लिए लालायित हो उठा । उनके दर्शनों के बिना आपका मन जल के बिना मछली के समान तड़कने लगा। इसी समय ब्र० हीरालालजी गंगवाल आचार्यश्री के दर्शनार्थ दक्षिण को शोर जाने लये । यह कार्ता सुनकर आपका मन मयूर नृत्य करने लगा और आपने भी उनके साथ प्रस्थान किया । आचार्यश्री उस समय ऐनापुर के पास पास बिहार कर रहे थे। आप दोनों नमहानुभाव उनके पास चले गये । लेजोमय मूत्ति शान्तिसागरजी महाराज के चरण कमलों में आपने असोच भक्ति से नमस्कार किया, आपके चक्षु पटल निनिमेष दृष्टि से उस संयमति की ओर निहारते ही रह गये । अापका मानस अानन्द की तरंगों से व्याप्त हो गया। आपने आचार्यश्री की शान्त मुद्रा को देखकर निश्चय कर लिया कि यदि संसार में कोई मेरे गुरु हो सकते हैं तो यही महानुभाव, हो सकते हैं और कोई नहीं । आपका चित्त प्राचार्यश्री के पादमूल में रहने के लिये ललचाने लगा। आप गोम्मट स्कामी की यात्रा कर वापस आये और उनसे सप्तम प्रतिमा के क्रन ग्रहण किये । कुछ दिन घर में रहकर आचार्यश्री के पास बीर निर्धारण संवत २४५० फाल्गुन शुक्ला सप्तमी के दिन क्षुल्लक के व्रत ग्रहण किये । अब आप निरन्तर प्राचार्यश्री के समीप ही ध्यान अध्ययन में स्त रहने लगे । आचार्य श्री ने समडोली में चातूमसि किया। प्राश्विन शुक्ला एकादशी वीर निर्वाण संवत् २४५० में आपने ऐलक दीक्षा ग्रहण की। आपका नाम चन्द्रसागर रखा गया । वास्तव में आप चन्द्र थे । आपका गौर वर्ण उन्नत भाल चन्द्र के समान था। आपके धवल यश की किरणें बन्दमा के समान समस्त संसार में फैल गई । बीर संवत २४५० में प्राचार्य श्री ने सम्मेदशिखरजी की यात्रा के लिए प्रस्थान किया । ऐलक चन्द्रसागरजी भी साथ में थे। संघ फाल्गुन में शिखरजा पहुंचा, तीर्थराज की वन्दना कर सबने अपने को कृतकृत्य समझा । तीर्थराज पर संघपति पूनमचन्द घासीलाल ने पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करवाई। लाखों नर नारी दर्शनार्थ आये। धर्म की अपूर्व प्रभावना हुई । वहां से विहार कर, कटनी, ललितपुर, जम्बूस्वामी सिद्धक्षेत्र मथुरा में चातुर्मास करके अनेक ग्रामों में धर्मामृत की वर्षा करते हुए सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पर पहुंचे । वहाँ पर आपने वीर संवत २४५६ मार्गशीर्ष शुक्ला १५ सोमवार मृग नक्षत्र मकर लग्न में दिन के १० बजे आचार्य श्री शान्ति सागरजी महाराज के चरणसान्निध्य में दिगम्बर दीक्षा ग्रहण की । समस्त कृत्रिम वस्त्राभूषण त्याग कर आपने पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्तिरूप आभूषण तथा २८ मुलगुणरूप वस्त्रों से स्वयं को सुशोभित किया।
दिगम्बर मुद्रा धारण करना सरल और सुलभ नहीं है, अत्यन्त कठिन है। धीर वीर महापुरुष हो इस मुद्रा को धारण कर सकते हैं । आपने इस निर्विकार मुद्रा को धारण कर अनेक नगरों व ग्रामों में भ्रमण किया तथा अपने धर्मोपदेश से जन जन के हृदय पटल के मिथ्यान्धकार को दूर किया । सुना जाता है कि आपकी वक्तृत्व शक्ति अद्भुत थी । आपका तपोबल, आचारबल, श्रुतबल, वचनबल, आत्मिकबल और धैर्य प्रशंसनीय था ।
- जिसप्रकार सिंह के समक्ष श्याल नहीं ठहर सकते उसी प्रकार आपके समक्ष वादीगण भी नहीं ठहर सकते थे । श्याल अपनी मण्डली में ही उहु उहु कर शोर मचा सकते हैं परन्तु सिंह के सामने चुप रह जाते हैं, वैसे ही दिगम्बरत्व के विरोधी जिन शास्त्र के मर्म को नहीं जानने वाले अज्ञानी दूर से ही आपका विरोध करते थे परन्तु सामने आने के बाद मूक के समान हो जाते थे।
सुना है कि जिस समय आचार्यश्री का संघ दिल्ली में आया था। उस समय एक सरकारी आदेश द्वारा दिगम्बर साधुओं के नगर विहार पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। जब यह वार्ता निर्भीक चन्द्र सिन्धु के कानों में पड़ी तो उन्होंने विचार किया अहो ! ऐसे तो मुनि मार्ग रुक ही जाएगा इसलिये उन्होंने आहार करने के लिये शुद्धि की, और वीतराग प्रभु के समक्ष कायोत्सर्ग कर हाथ में कमण्डलु लेकर शहर में जाने लगे। श्रावक चिन्तित हो गए—क्या होगा ? परन्तु महाराजश्री मुखमण्डल पर अपूर्व तेज था। आप सिंह के समान निर्भय और शान्त भाव से चले जा रहे थे। अंग्रेज साहब को कोठी के पास से निकले तो बाहर खड़ा साहब इनकी शान्त मुद्रा को देखकर नतमस्तक हो गया, इनकी भूरि भूरि प्रशंसा करने लगा । सत्य हो है महापुरुषों का प्रभाव होता है।
वास्तव में मुनिराज श्री चन्द्रसागरजी को देखकर रत्नत्रय की मूर्तिमन्त प्रतिमा को देखने का सन्तोष प्राप्त होता था । महाराजश्री का जीवन हिमालय की तरह उत्तुग, सागर की तरह गम्भीर. चन्द्रमा की तरह शीतल, तपस्या में सूर्य की तरह प्रखर, स्फटिक की तरह अत्यन्त निर्दोष, आकाश की तरह अन्तर्बाह्य खुली किताब, महाव्रतों के पालन में वज्र की तरह कठोर, मेरु सदृश अडिग एवं गंगा की तरह अत्यन्त निर्मल था।
वे साधुओं में महासाधु, तपस्वियों में कठोर तपस्वी, योगियों में आत्मलीन योगी, महा व्रतियों में निरपेक्ष महाव्रती और मुनियों में अत्यन्त निर्मोही मुनि थे । वास्तव में ऐसे निर्मल, निःस्पृह और स्थितिप्रज्ञ साधुओं से हो धर्म की शोभा है । विश्व के प्राणी ऐसे ही सत्साधुओं के दर्शन, समागम और सेवा से अपने जीवन को धन्य बना पाते हैं।
पूज्य तरणतारण महामुनिराज श्री चन्द्रसागरजी महाराज अपने दीक्षा गुरु परम पूज्य श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी महाराज की शिष्य परम्परा में और साधु जीवन में न केवल ज्येष्ठता में श्रेष्ठ थे वरन् श्रेष्ठता में भी श्रेष्ठ थे। उनके पावन पद विहार से धरा धन्य हो गई। सच्चा: अध्ययन जगमगा उठा और आत्महितैषियों को आत्मपथ पर चलने के लिए प्रकाशस्तम्भ मिल गया। वास्तव में वे लोग महाभाग्यशाली हैं जिन्हें ऐसे लोकोत्तर असाधारण महानतपस्वी सच्चे आगम निष्ठ साधु के दर्शन का सुयोग मिला।
आपको यही भावना रहती थी कि “सर्वे भवन्तु सुखिनः" । आप संसारो जीवों को धर्माभि मुख करने हेतु सतत् प्रयत्नशील रहते थे । गुरुदेव की तपस्या केवल आत्मकल्याण के लिए हो नहीं अपित इस युग की धर्म और मर्यादा का विरोध करने वाली दुषित पापवृत्तियों को रोकने के लिए भी थी। मानव की पापवृत्तियों को देखकर उनका चित्त आशंकित था। महाराजश्री ने इनका नाश करने का प्रयत्न असीम साहस और धैर्य के साथ किया। धर्मभावनाशून्य मूढ़ लोगों ने इनके में पत्थर बरसाने में कोई कमी नहीं रखो परन्तु मुनिश्री ने एक परम साहसो सैनानो को भाति दिगम्बर जैन साधु अपनी गति नहीं बदली । यश और वैभव को ठुकराने वाले क्या कभी विरोधियों की परवाह कर. सकते हैं कभी नहीं।
महाराज श्री हमेशा ही सत्य, सिद्धान्त और प्रागमपथ के अनुयायी रहे । सिद्धान्त के आगे आप किसी को कोई महत्व नहीं देते थे । यदि शास्त्र की परिपालना में प्राणों की भी आवश्यकता होती तो आप निःसंकोच देने को तैयार रहते थे। जिनधर्म के मर्म को नहीं जानने वाले, द्वेषाग्नि दग्ध अज्ञानियों ने महाराजश्री पर वर्णनातीत अत्याचार किए जिन्हें लेखनी से लिखा भी नहीं जा सकता । परन्तु धीर वीर मुनिश्री ने इतने घोरोपसर्ग आने पर भी न्यायमार्ग एवं अपने सिद्धान्त को नहीं छोड़ा । सत्य है "न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीरा' घोरोपसर्ग प्राने पर भी धीर-कीर न्यायमार्ग से विचलित नहीं होते । आपत्तियों को दृढ़ता से सहन करने पर ही गुणों की प्रतिष्ठा होती है। गुरुदेव ने घोर आपत्तियों का सामना किया जिससे अाज भी उनका नाम अजर अमर है।
जिस समय हमारे श्रावक गण चारित्र से च्युत हो धर्मविहीन बनते जा रहे थे। उस - समय आपने जैन समाज को धर्मोपदेश देकर सन्मार्ग में लगाया । अाप अनेकों ग्रामों और नगरों में भ्रमण करके अपने वचनामृत के द्वारा धर्मपिपासु भव्यप्राणियों को सन्तुष्ट करते हुए राजस्थान प्रान्तु . के सुजानगढ़ नगर में पधारे । वि० सं० १९६२ में आपने यहां चातुर्मास किया। इस मारवाड़ देश को उपमा प्राचार्यों ने संसार से दी है । यहां उष्णता भी अधिक है तो ठण्ड भी अधिक पड़ती है। गर्मी के दिनों में भीषण सूर्य किरणों से तप्तायमान धूलि से ज्वाला निकलतो है । आपने जिस समय राजस्थान में पदार्पण किया उस समय यहाँ के निवासी मुनियों को चर्या से अनभिज्ञ थे, खान-पान अशुद्ध हो चला था । आपने अपने मार्मिक उपदेशों से श्रावकों को सम्बोधित किया, उनके योग्य आचार से उन्हें अवगत कराया, आपके सदुपदेश से कई व्रती बने । मारवाड़ प्रान्त के लोगों के सुधार का श्रेय आपको ही है।
- लाडनू से मंगसिर सुदी चतुर्दशी को आचार्यकल्पश्री ने विहार किया। साथ में थे मुनि निर्मलसागरजी, ऐलक हेमसागरजी, क्षुल्लक गुप्तिसागरजी और ब्र० गौरीलालजी।
मिती पौष कृष्णा दूज वि० सं० १९९२ के प्रातः ९ बजे मुनिसंघ का डेह में प्रवेश हुआ। सारों ग्राम मानो उलट पड़ा, विशाल शोभायात्रा निकाली गई । जागीरदार का सरकारी लवाजमा . तथा बैण्ड भी जुलूस में सम्मिलित था । लगभग २००० स्त्री पुरुष और बच्चे सोत्साह जय जयकार ,कर रहे थे । साधुओं ने पहले श्री पार्श्वनाथ नसियांजी के दर्शन किए, अनन्तर प्राचीन मन्दिर और नबीन मन्दिर के दर्शन करते हए संघ श्री दिगम्बर जैन पाठशाला में पहुंचा। प्राचार्यकल्पश्री के उद्बोधन के बाद सभा विजित हुई।
सैकड़ों वर्षों से इस प्रदेश में दिगम्बर जैन साधुनों का प्रागमन न होने से सब लोग साधुओं की क्रियानों से अनभिज्ञ थे । संघ की चर्या देख देखकर सब लोग पाश्चर्यान्वित होते थे। पूज्य चन्द्रसागरजी महाराज ने श्रावकों की शिथिलता और अशुद्ध खानपान को भांप लिया था अतः आपके उपदेश का विषय प्रायः यही होता था । आपके उपदेशों से प्रभावित होकर और सच्चा मार्ग ज्ञात कर अनेक श्रावक श्राविकाओं ने दूसरी प्रतिमा के व्रत ग्रहण किए, जिनमें मोहनीबाई (अधुना आयिका इन्दुमतीजी ) व इनके भाई-भाभी भी थे । अनेकानेक ने मद्य मांस का त्याग किया। रात्रि भोजन छोड़ा तथा जल छान कर पीने का नियम लिया । यों कहना चाहिये कि अापके आगमन से डेह वासियों का जीवन सर्वथा परिवर्तन हो गया सबके सब शुद्ध खान पान और नियमों की ओर प्राकृष्ट हुए। उत्कृष्ट धर्म प्रचारक :
गुरुओं की गरिमा गाथा गाई नहीं जा सकती। आपके वचनों में सत्यता और मधुरता, हृदय में विवक्षा, मन में मृदुता, भावना में भव्यता, नयन में परीक्षा, बुद्धि में समीक्षा, दृष्टि में विशालता, व्यवहार में कुशलता और अन्तःकरण में कोमलता कूट कूट कर भरी हुई थी। इसलिये आपने मनुष्य को पहचान कर अर्थात् पात्र की परीक्षा कर व्रत दिये, जन जन के हृदय में संयम की सुवास भरी।
__गगन का चन्द्र अन्धकार को दूर करता है। परन्तु चन्द्रसागरजी रूपी निर्मल चन्द्र - अज्ञानियों के मन मन्दिर में ज्ञान का प्रकाश फैलाता था । आपने धर्मोपदेश देकर जन जन का अज्ञान दूर किया। देश-देशान्तरों में विहार कर जिनधर्म का प्रचार किया। उनका यह परमोपकार कल्पान्त काल तक स्थिर रहेगा। उनके वचनों में प्रोज था । उपदेश की शैली अपूर्व थी। मधुर भाषणों से उनके जैन सिद्धान्त के अभूतपूर्व मर्मज्ञ होने की प्रखर प्रतिभा का परिचय स्वतः ही मिलता था आपके सरल वाक्य रश्मियों से साक्षात् शान्ति सुधारस विकीर्ण होता था जिसका पान कर भक्त जन झूम उठते और अपूर्व शान्ति लाभ लेते थे। अपूर्व मनोबल :
महाराजश्री की वृत्ति सिंह वृत्ति थी अतएव उनके अनुशासन तथा नियंत्रण में माता का लाड न था बल्कि सच्चे पिता को सो परम हितैषिणी कट्टरता थी। जिसके लिये उन्होंने अपने जीवनोपाजित यश की बलि चढ़ाने में जरा सा भी संकोच नहीं किया।
इन्दौर में सरसेठ हुकमीचन्दजी ने प्राचार्यश्री को हथकड़ी पहनाने की पूर्ण कोशिश की परसेठ सा० की कोशिश व्यर्थ गई तथा प्राचार्यश्री की सिंह वृत्ति से सरकारी वर्ग के विशिष्ट लोग प्रापके चरणों में नतमस्तक हो गए तथा सेठ जी के मायाजाल का भण्डा फूट गया।
अनेक क्षेत्रों और स्थानों में विहार करते हुए मुनिश्री संघ सहित संवत् २००१ फाल्गुन सूदी अष्टमी के सायंकाल बावनगजा में पधारे । उस समय आपके इस भौतिक प्रारीर को ज्वर के वेग ने पकड़ लिया था। इसलिये आपका शरीर यद्यपि दुर्बल हो गया था फिर भी मानसिक बल अपूर्व था। बड़वानी सिद्धक्षेत्र में श्री चांदमल धन्नालाल की ओर से मानस्तम्भ प्रतिष्ठा थी। आपने रुग्णावस्था में भी अपने हाथ से प्रतिष्ठा कराई।
पूज्य गुरुदेव को शारीरिक स्थिति अधिकाधिक निर्बल होती गई तो भी महाराजश्री ने फाल्युन सुदी १२ को फरमाया कि मुझे चूलगिरि के दर्शन कराओ। लोगों ने कहा :
"महाराज ! शरीर स्वस्थ होने पर पहाड़ पर जाना उचित होगा, गुरुदेव बोले "शरीर का भरोसा नहीं । यदि शरीर ही नहीं रहा तो हमारे दर्शन रह जायेंगे।"
महाराज श्री दर्शनार्थ पर्वत पर पधारे । उस समय उन्हें १०५ डिग्री ज्वर था, निर्बलता
___त्रयोदशी को ही अन्न जल त्याग कर संन्यास धारण करते समय आपने पूछा था कि अष्टाह्निका की पूर्णता परसों ही है न ?
___लोगों के हाँ करने पर महाराज ने फरमाया "सब लोग धर्म का सेवन न भूलें । आत्मा अमर है।"
फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी को शक्ति और भी क्षीण हो गई। डाक्टरों ने महाराजश्री को देखकर कहा कि महाराज का हृदय बड़ा दृढ़ है । औषधि लेने पर तो शर्तिया स्वस्थ हो सकते हैं परन्तु गुरुदेव कैसी औषधि लेते ? उनके पास तो मुक्ति में पहुंचाने वाली परम वीतरागतारूप आदर्श महौषधि थी।
फाल्गुन शुक्ला १५ के दिन बारह बजकर बीस मिनट पर गुरुदेव ने इस विनाशशील शरीर को छोड़कर अमरतत्व प्राप्त कर लिया। यह सन् १९४५ की २६ फरवरी का दिन था। इस दिन अष्टाह्निका की समाप्ति थी। दिन भी चन्द्रवार था। परमाराध्य गुरुदेव चन्द्रसागर ने पर्ण चन्द्रिका चन्द्रवार के दिन सिद्धक्षेत्र पर होलिका की आग में अपने कर्मों को शरीर के साथ फेंक दिया। समस्त भक्तजन बिलखते रह गये, सबकी आँखें भर आई। चरण वन्दना :
दृढ़ तपस्वी, शीर्षमार्ग के कट्टर पोषक, वीतरागी, परम विद्वान्, निर्भीक, प्रसिद्ध उपदेशक, आगम मर्मस्पर्शी, अनर्थ के शत्रु, सत्य के पुजारी, मोक्ष मार्ग के पथिक, संसारी प्राणियों के तारक, आत्मबोधी, स्वपर-उपकारी, अपरिग्रही, तारण-तरण, सन्तापहरण स्व० गुरुदेव के चरण कमलों में शत-शत वन्दन ! शत-शत वन्दन !!
#ChandraSagarJiMaharaj(Nandgaon)ShantiSagarJi
मुनि श्री १०८ चंद्र सागरजी महाराज (नांदगाव)
Acharya Shri 108 Shanti Sagarji Maharaj 1872 (Charitrachakravarti)
आचार्य श्री १०८ शांति सागरजी महाराज १८७२ (चरित्रचक्रवर्ती) Acharya Shri 108 Shanti Sagarji Maharaj 1872 (Charitrachakravarti)
Chaturmas in Katni, Lalitpur, Jambuswami Siddhakshetra Mathura, Sonagiri arrived at Siddhakshetra while showering Dharmamrit in many villages.
Dhaval Patil Pune-9623981049
https://www.facebook.com/dhaval.patil.9461/
Information and Book provided by Rajesh Ji Pancholiya
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Upadted by Sanjul Jain on 07-May-2021
AcharyaShriShantiSagarJiMaharaj1872DevendraKirtiJi
Muni Shri 108 Chandra Sagar Ji Maharaj was born on Saka Samvat 1905. Vikram Samvat 1940, Magha Krishna 13 and he took initiation from Acharya Shri 108 Shanti Sagar Ji Maharaj (Charitra Chakravarti) on Veer Nirvana Samvat 2456, Margashirsha Krishna 15 at Sonagiri Siddha Kshetra.
Muni Shri Chandramagarji Maharaj
__ There is a city called Nandgaon in Maharashtra province of India. There used to live Shravakaratna named Jainadharma Parayan Nathmal in the Khandelwal caste. His name was Sita. In fact, she was Sita i.e. Sheelwati and husband were going to follow the orders. Seth Nathmalji and Sitabai had a similar relationship with Jayakumar Sulochana. Shalivahana Samvat 1605 Vikram Samvat 1640 Miti Magha Krishna
On Trayodashi, Saturday night, a son of a son was born from the holy Kukshi of Sitabai in Purvashada Nakshatra. Surya Moon too was ashamed after writing his appearance. Mother was very happy with the face of the son. The father cheered and gave gifts to the kutumbi people. All the family members were happy. The naming ceremony of the child was performed on the tenth day. According to the birth constellation, the birth name should have been Bhuramal, Bhimsen, etc., but the parents were very happy due to the son-birth, so they have named the child as Khushal Chandra. The birth date Pausha Krishna Trayodashi in Maharajashree's handwritten group is written in the night of Saturday in Purvashada Nakshatra is expected of Maharashtra. There is a difference of one month between the desert region and the Krishna Paksha of Maharashtra. Shukla Paksha is similar to both, so say Magha Krishna Trayodashi or Pausha Krishna Trayodashi, both have the same meaning.
The child was growing in the moonlight of Khushal Chandra Dwitiya. Just as the sea increases with the increase of the moon, similarly the sea of the joyous people of the Kutumbi was also increasing with the increase of Khushal Chandra. Marriage: wife disconnection: celibacy
Khushal Chandra was not even 4 years old now that the rise of pre-ordained sin karma left the father's shadow under your head. Due to the death of father, all the burden of the house fell on your widowed mother. At that time, your elder brother was 20 years old. And younger brother of four. The situation of the house was bad, in such a situation, how can the education of children be arranged, only a bhogi can know it. The child Khushal Chandra's intellect was incisive but due to lack of teaching, he had to leave his studies and venture for business at the age of 18 years after sixth grade. Despite having a strong desire to read, I had to leave reading - well, the pace of actions is very strange. Nobody fulfills wishes in this world. Contrary to the wishes of the young man Khushal Chandra, the Kutumbi men married him when he was twenty years old. You were not satisfied with the marriage, the wife was Rugga. Your wife died after one and half year. As if for you, "Ravat no Ratnavrishti", there was a rain of gems from the sky, because you were not interested in enjoyments. You were twenty-one at this time. Youth was bursting from limb to limb, Bhal was resplendent. Your body was ornamented with Tarunashree, so Kutumbijan started trying to tie you into another marriage bond and entrap you into worldly pleasures. But the soul of Khushal Chandra was now capable in every way. Was afraid of worldly tortures, so you did not try to lose your life like a spider by making saliva out of your mouth and getting trapped in it. You thought of using the Digambara Mudra by overcoming the noxious themes, and for the achievement of self-realization, weakened the house due to debility, sorrow and disturbance. Therefore, you accepted the birth Brahmacharyavrat on the day of Jyeshtha Shukla Navami Vikram Samvat 1962. You did amazing and great heroism by holding Brahmacharyavrata in blooming youth.
Fifth statue:
In the Veer Samvat 2446, Chaturmas of Sri 105 Alak Pannalalji took place in Nandgaon, then you wore the third periodical statue on the day of Ashadh Shukla Dashami. Your disinterest grew with the offerings of Shri Elak Maharaj daily. On Bhadrapada Shukla Panchami, you held the fifth statue named Sachchitagya.
After the completion of the Chaturmas, you traveled to the villages and towns of Maharashtra for four months with Alaq Maharaj and preached Jainism, then you visited all the pilgrimage areas. Also donated power in the areas.
At that time, darshan of Digambar Munis on this ground floor was rare. Like Mahanidhi, Digambar Sadhu was visible somewhere. Your heart used to flicker continuously for inspection. You always used to think that hey! When will that auspicious moment come, on which day I too will be able to move forward in autobiography.
Description of Acharya Shri Shantisagarji Maharaj:
One day you heard Acharya Shri Shantisagarji Maharaj's Lalit Kirti. Your mind became enamored with the darshan of Guruvar. Without his visions, your mind started to feel like a fish without water. At the same time, Mr. Hiralalji Gangwal started going to the peacock of the south to visit Acharyashree. Hearing this talk, your mind started dancing to Peacock and you too departed with them. At that time Acharyashree was staying nearby near Ainapur. Both of you Excellencies went to him. At the feet lotus of Tejomayi Manti Shantisagarji Maharaj, you greeted with immense devotion, your eyes kept looking towards that sampathi from the point of view. Your psyche got pervaded by the waves of joy. Seeing the calm posture of Acharyashree, he decided that if someone in the world can be my guru, then he can be a great person and no one else. Your mind started tempting Acharyashree to stay in the footstool. You came back after visiting Gomat Swami and took the seventh statue fast from him.Staying at home for a few days, near Acharyashree, observed fast on the day of Veer Nirvagam Samvat 2450 Phalgun Shukla Saptami. Now you are constantly engaged in meditation studies near Principal.Started living Principal Shri gave Chaturmas Vitya in Samdoli. In Ashwin Shukla Ekadashi Veer Nirvana Samvat 2450, you took initiation. Aafna was named Chandrasagar. Actually you were Chandra. Your gaur varna was similar to the advanced Bhal Chandra. The rays of your Dhaval Yash spread like the moon to the whole world. In Veer Samvat 2450, Acharyashree departed for the visit of Sammedashikharji. Alak Chandrasagarji was also with him. The Sangh reached Shikharji in Phalgun, all of them considered themselves thankful to the shrine. On pilgrimage, Sanghapati Poonamchand Ghasilal made Panchakalyak prestige. Lakhs of male and female came to visit. Religion came into effect. While traveling from there, after having Chaturmas in Katni, Lalitpur, Jambuswami Siddhakshetra Mathura, Sonagiri arrived at Siddhakshetra while showering Dharmamrit in many villages. There, you took Digambar initiation at the feet of Acharya Shri Shantisagarji Maharaj at Veer Samvat 2456 Margashirsha Shukla 15 Monday in the deer Nakshatra Makar Lagna at 10 am. After sacrificing all the artificial robes, he embellished himself with Panch Mahavrat, Panch Samiti, three Gupta form jewelry and 24 Mulgun Rupa garments.
Holding a Digambar Mudra is not simple and basic, it is very difficult. Dhir Veer can be a great man and can hold this posture. Wearing this formless pose, you traveled to many cities and villages and removed the misconception of people's hearts from your sermon. It is heard that your oratory power was brilliant. Prappaka Tapobal, Acharabal, Srutabal, Vakabal, Patmakabal and Patience were admirable.
Lion Holder:
Just as Singh could not stand before Shyal, similarly, the litigants could not stay in front of you. Shyal can make a noise in his congregation by uh uh but keep quiet in front of the lion, in the same way, ignorant people who do not know the heart of anti-Digambarism, they opposed you from far away, but after being exposed like mute Used to be
It is heard that when Acharyashree's association came to Delhi. At that time a city order of Digambar Sadhus was banned by a government order. When this conversation took place in the ears of the fearless Chandrasindhu, he considered it. In such a way, the path of monks will be stopped, so they purified to consume, and after doing kyotsarg in front of the Lord, they started to go to the city with a kamandalu in their hands. What will happen if the cubs are worried? But Maharajshree was exceptionally strong on his face. You were going like a lion with fearless and peaceful sense. When the British came out of the lord's house, the officer standing outside, bowed down on seeing his calm posture, started admiring him. The truth is that the influence of great men is unique.
Statue of Ratnatraya:
In fact, seeing Muniraj Shri Chandrasagarji, I used to get the satisfaction of seeing the idol of Ratnatray. Maharajshri's life is like the Himalayas, severe like the ocean, cold like the moon, heat like the sun in austerity, very innocent like a crystal, an innocuous open book like light, hard like thunderbolt in the observance of Mahavratas, hard like meru And was very clean like Ganges.
Among the sadhus were Mahasadhu, ascetic ascetic, ascetic yogi among yogis, Absolute Mahavrati among Mahavratis, and the most emaciated monk among sages. In fact, it is the beauty of religion to be from such pure, unassuming and situational monks. The creatures of the world are able to make their lives blessed by the philosophy, intercourse and service of such sattdu.
Pujya Tarn Taran Taran Mahamuniraj Shri Charuasagarji Maharaj was a disciple of his initiation guru Param Pujya Shri 108 Acharya Shantisagarji Maharaj was not only superior in tradition and great in sage life but also superior in excellence. His digestion post got blessed by the Vihara. True study shone and the self-sacrificers got a glimpse to walk on the sidewalk. In fact, those people are great fortune, who got the opportunity to see such a remarkable extraordinary great monk.
You used to have the feeling that "Sarva Bhavantu Sukhinah". You were constantly trying to bend the worldly creatures. The penance for Gurudev was not only for autism, but also to stop the corrupt sinful practices that contradicted the religion and dignity of this era. His mind was apprehensive after seeing Manach on the pauperities. Maharajshri endeavored to destroy them and cultivated them with immense courage and patience. Non-religious fools should not put any stone in his path to throw stones, but Munishree, like a supreme soldier Your speed did not change. Those who reject Yash and Vaibhav can never care about their opponents, never.
Maharaj Shri has always been a follower of Truth, Principle and Pragampath. You did not give importance to anyone before the principle. If there was a need for life in the practice of scripture, then you were ready to hesitate. Those who do not know the heart of Jindharma, the enlightened ignorant ignorantly persecuted Maharajshree, who cannot even be written with writing. But Dheer Veer Munishree did not give up his justice and his principles even on such a cruel attempt. The truth is "Nyayatpath: Prachal Nathi Padam na Meera" Even after getting ghoropsarga, dheere-valiars do not deviate from the path of justice. Virtues gain prestige only when tolerated objections. Gurudev faced severe objections, which is why his name is Azar Amar. Reformers of Marwar:
___ At the time when our listeners were demoralized by the garan character, they were becoming religious. At that time, he gave sermons to the Jain society and planted them in Sanmarg. You visited many villages and cities and visited Sujangarh city of Rajasthan province, satisfying the religious granddaughters of your name. You did Chaturmas here in v. 1962. The principals of this Marwar country have given it to the world. Here the heat is also high and the cold is also high. In the hot days, the sun shines with fierce sun rays. When you made your debut in Rajasthan at that time, the residents of this place were unaware of the chariots, the food and drink had become impure. You addressed the listeners with your poignant teachings, worthy of them. Made them aware of the ethics, many devotions were made from your Sopadesh. You have the credit for the improvement of the people of Marwar province. Effect in deh:
Mangasir Sudi Chaturdashi from Ladnu was given a visit by Acharya Jalpashri. Along with them were Muni Nirmalsagarji, Elak Hemsagarji, Thulak Guptasagarji and Br Gaurilalji.
Munisingh entered Deh at 4 am in Mitti Paush Krishna Dooj World No. 1992. As if the whole village was reversed, a huge procession was taken out. The government's lavajama and band of Jagodar were also included in the procession. Nearly 2000 swo men and children cheers
Was doing. The sages first saw Shri Parshvanath Nasiganji, and after visiting the ancient temple and the new temple, the Sangh reached the Digambar Jain Pathshala. The meeting was won after Principal Kalpashri's address.
Due to the absence of Digambar Jain Sadhus in this state for hundreds of years, everyone was unaware of the actions of the Sadhus. Everybody was surprised to see Sangh's dreams. Pujya Chandrasagarji Maharaj had understood the laxity and impure food of the Shravakas, this was often the subject of your sermon. Influenced by your teachings and knowing the true path, many Shravak Shravikas took the vow of the second statue, including Mohanibai (Adhuna Ayika Indumatiji) and her brother-in-law. Many gave up alcohol. Left the dinner and after drinking water, took the rule of drinking. It should be said that with your arrival, the life of deh people has changed completely, all of them were attracted towards pure food and rules. Excellent evangelist:
The dignity of gurus cannot be sung. Your words were filled with truth and sweetness, probity in heart, softness in mind, goodness in spirit, examination in nayan, review in intellect, greatness in vision, skill in practice and softness in conscience. That is why, after recognizing the human being, that is, the object of the vessel: after fasting, he gave a fast, he felt a sense of restraint in the heart of the people.
Gagan Chandra removes the darkness. But the light of knowledge was spread in the temple of Nirmal Chandra scientists in the form of Chandrasagarji. You gave away the wisdom of the people by giving sermons. He preached jigdharma by traveling across the country. This benevolence of his will remain constant for a period of time. There was ooze in his words. The style of preaching was uncommon. The sweet speeches automatically showed the brilliant talent of penetrating their Jain doctrine, and their simple sentences were radiated with peace and harmony, which the devotees used to chant and avail peace. Uncommon morale:
___ Maharajashree's instinct was lionhood, and in his discipline and control, the mother was not the lad, but the true father was so supremely fanatic. For which he did not hesitate at all to sacrifice his life-saving fame.
In Indore, Sarseth Hukamichandi tried his best to handcuff the Principal, but the attempt of Seth went in vain and due to the disguise of the Principal Shri, the special people of the Government class fell under your feet and the treasure of Seth ji exploded.
Visiting many areas and places, including Munishree Sangh, Samvat 2001, Falgun Sudi visited the evening in Bawangaja. At that time your physical body was caught by fever. Therefore, although your body had become weak, the mental force was unique. In the Badwani Siddhakshetra, Mr. Chandmal Dhannalak had an honorable reputation. You made your own reputation even in ill health.
Even as the physical condition of Pujya Gurudev became more and more weak, Maharajshree asked Falgun Sudi 12 to make me see Chulagiri. people said :
"Maharaj! It would be appropriate to go to the mountain when the body is healthy," Gurudev said. If there is no body then our darshan will remain. "
Maharaj Shri Darshan visited the mountain. At that time he had 105 degree fever, weakness was also enough. Maharajshree appeared with great enthusiasm and joy. Retired as well. That is, abandoned the grain. Falgun Shukla 13 was burned only.
Last Message:
While taking sannyas after sacrificing food and water to Trayodashi itself, you had asked that the completion of the morning is the same day?
When the people said yes, Maharaj ordered "Everybody should not forget the religion. Spirit
Is immortal. "
Falgun Shukla Chaturdashi got even more power. Seeing Maharajshree, the doctors said that Maharaj's heart is very strong. Tiya can be healthy after taking medicine, but what kind of medicine would Gurudev take? He had the ultimate heroic ideal for liberation.
Body sacrifice:
On the day of Falgun Shukla 15, at twelve minutes and twenty minutes, Gurudev left this destructive body and attained immortality. It was the 26th of February, 1945. This day was the end of Ashtahnika. The day was also Chandragar. Paramaradhya Gurudev Chandrasagar blew his deeds with his body in the Prague of Holika on Siddhakshetra on the full moon day. All the devotees kept on crying, everyone's eyes were filled. Charan Vandana:
Steadfast ascetic, arch nerd of the apex, the ascetic, the ultimate scholar, the fearless, the famous preacher, the prerogative, the preacher, the enemy of the evil, the priest of truth, the path of the path of the Goksha, the star of the worldly beings, the self-conscious, the self-benefactor, the indecipherable, the taran-taran , Centenary shut down in the lotus feet of Santvaran Gurudev! 100% Vandan !!
Muni Shri 108 Chandra Sagarji Maharaj (Nandgaon)
आचार्य श्री १०८ शांति सागरजी महाराज १८७२ (चरित्रचक्रवर्ती) Acharya Shri 108 Shanti Sagarji Maharaj 1872 (Charitrachakravarti)
आचार्य श्री १०८ शांति सागरजी महाराज १८७२ (चरित्रचक्रवर्ती) Acharya Shri 108 Shanti Sagarji Maharaj 1872 (Charitrachakravarti)
Acharya Shri 108 Shanti Sagarji Maharaj 1872 (Charitrachakravarti)
Chaturmas in Katni, Lalitpur, Jambuswami Siddhakshetra Mathura, Sonagiri arrived at Siddhakshetra while showering Dharmamrit in many villages.
Acharya Shri 108 Shanti Sagar Ji Maharaj (Charitra Chakravarti)
Dhaval Patil Pune-9623981049
https://www.facebook.com/dhaval.patil.9461/
Information and Book provided by Rajesh Ji Pancholiya
Upadted by Sanjul Jain on 07-May-2021
#ChandraSagarJiMaharaj(Nandgaon)ShantiSagarJi
AcharyaShriShantiSagarJiMaharaj1872DevendraKirtiJi
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500
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