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Digambar Jain Article on Praman Or Apraman Topic
Digambar Jain Article on Praman Or Apraman Topic
प्रमाणके क्षेत्रमें सारस्वताचार्य और प्रबुद्धाचार्योंने विशेष कार्य किया है।शान, प्रमाण और प्रमाणाभासको व्यवस्था बाह्य अर्थके प्रतिभास होने और प्रतिभासके अनुसार उसके प्राप्त होने और न होनेपर निर्भर है। इन आचाोंने आगमिक क्षेत्रमें तत्वज्ञानसम्बन्धी प्रमाणकी परिभाषाको दार्शनिक चिन्तनक्षेत्रमें उपस्थित कर प्रमाणसम्बन्धी सुक्ष्म चर्चाएँ निबद्ध की हैं। प्रमाणता और अन्नमाणताका निर्धारण बाह्य अर्थकी प्राप्ति और अप्राप्तिसे सम्बन्ध रखता है। आचार्य अकलंकदेवने अविसंवादको प्रमाणसाका आधार मानकर एक विशेष बात यह बतलाई है कि हमारे ज्ञानोंमें प्रमाणता और अन्नमामलामी को स्पिति है। कोई भी शान एकान्तसे प्रमाण या अप्रमाण नहीं कहा जा सकता । इन्द्रियदोषसे होनेवाला द्विचन्द्रज्ञान भी चन्द्रांशमें अविसंवादी होनेके कारण प्रमाण है, पर द्वित्व अंशमें विसंवादी होनेके कारण अप्रमाण । इस प्रकार अकलंकने ज्ञानकी एकांतिक प्रमाणता या अप्रमाणताका निर्णय नहीं किया है, यत्तः इन्द्रियजन्ध बायोपामिक ज्ञानोंकी स्थिति पुर्ण विश्वसनीय नहीं मानी जा सकती। स्वल्पशक्तिक इन्द्रियोंकी विचित्र रचनाके कारण इन्द्रियोंके द्वारा प्रतिभासित पदार्थ अन्यथा भी होता है। यही कारण है कि आगमिक परम्परामें इन्द्रिय और मनोजन्य मतिज्ञान और श्र तज्ञानको प्रत्यक्ष न कहकर परोक्ष ही कहा गया है ।
प्रामाण्य और अनामाण्यकी उत्पत्ति परसे ही होती है, ज्ञप्ति अभ्यासदशामें स्वत: और अनभ्यासदशामें परत: हुआ करती है । जिन स्थानोंका हमें परिचय है उन जलाशयादिमें होनेवाला शान या मरीचि ज्ञान अपने आप अपनी प्रमाणता और अप्रमाणता बता देता है, किन्तु अनिश्चित स्थानमें होनेवाले जलज्ञानकी प्रमाणताका ज्ञान अन्य अविनाभावी स्वत: प्रमाणभूत ज्ञानोंसे होता है। इस प्रकार प्रमाण और प्रामाण्यका विचार कर तदुपत्ति, तदाकारता, इन्द्रियसन्निकर्ष, कारकमाकल्य आदिकी विस्तारपूर्वक समीक्षा की है । प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणोके भेदोंका प्रतिपादन कर अन्य दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत प्रमाण-भेदोंकी समीक्षा की गयी है।
अकलंकदेबने प्रमाणसंग्रहमें श्रुतके प्रत्यक्षनिमित्तक, अनुमाननिमित्तक और आगमनिमित्तक ये तीन भेद किये हैं। परोपदेशसे सहायता लेकर उत्पन्न होनेवाला श्रुतै प्रत्यक्षपूर्वक श्रुत है, परोपदेश सहित हेतुसे उत्पन्न होनेवाला श्रुत अनुमानपूर्वक श्रुत और केवल परोपदेशसे उत्पन्न होनेवाला श्रुत आगम निमित्तक श्रत है । प्रमाणचिन्तनके पश्चात् प्रमाणाभासोंका विचार कियागया है । द्वैत-अद्वैतसमीक्षाके अनन्तर सर्वज्ञ-सिद्धि, स्थावादसिद्धि, सप्त भैगी आदिका विचार किया गया है । निश्चयतः जैन लेखकोंकी प्रमाणमीमांसा भारतीय प्रमाणमीमांसा में अपना विशिष्ट स्थान रखती है ।
Sanjul Jain Created Article On Date 10 June 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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