Article Summary
Adhyaatmvishyak Den(अध्यात्मविषयक देन)
Adhyaatmvishyak Den(अध्यात्मविषयक देन)
जोइन्दुने बास्मद्रव्यके विशेष विवेचनक्रममें आत्माके तीन प्रकार बत लाये हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। जो शरीर आदि परगव्योंको अपना रूप मानकर उनकी ही प्रिय भोग-सामग्रीमें आसक्त रहता है वह बहिर्मुख जीव बहिरात्मा है । जिन्हें स्वपरविवेक या भेदविज्ञान उत्पन्न हो गया है, जिनकी शरीर आदि बाह्य पदार्थोंसे आत्मदृष्टि हट गयी है वे सम्यग्दृष्टि अन्तरारमा हैं। जो समस्त कर्ममलकलंकोंसे रहित होकर शुद्ध चिन्मात्रस्वरूपमें मग्न हैं वे परमात्मा हैं। यह संसारी आत्मा अपने स्वरूपका यथार्थ परिज्ञान कर अन्तर्दष्टि हो क्रमशः परमात्मा बन जाता है।
आचार्यों ने चारित्र-साधनाका मुख्याधार जीवतत्वके स्वरूप और उसके समान अधिकारकी मर्यादाका तत्त्वज्ञान ही माना है। जब हम यह अनुभव करते हैं कि जगतमें वर्तमान सभी आत्माएँ अखण्ड और मूलतः एक-एक स्वतन्त्र समान शक्तिवाले दव्य हैं। जिस प्रकार हमें अपनी हिंसा रुचिकर नहीं है, उसी प्रकार अन्य आत्माओंको भी नहीं है। अतएव सर्वात्मसमत्वकी भावना ही अहिंसाकी साधनाका मुख्य आधार है। आत्मसमानाधिकरणका झान और उसको जीवनमें उतारनेकी दृढ़ निष्ठा ही सर्वोदयकी भूमिका है और इसी भूमिकासे चारित्रका विकास होता है।
अहिंसा, संयम, तपकी साधनाएं आत्मशोधनका कारण बनती हैं । सम्यक् श्रद्धा, सम्यक्सान और सम्यकारित्र ही आत्मस्वातंत्र्यकी प्राप्तिमें कारण है।
प्रबुद्धाचार्योने तत्त्वज्ञान, प्रमाणवाद, पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि विषयोंका संवर्द्धन किया है। यह सत्य है कि जैसी मौलिक प्रतिमा श्रुत्तधर और सारस्वताचार्यों में प्राप्त होती है; वैसी प्रबुद्धाचार्यों में नहीं। तो भी जिनसेन प्रथम, गुणभद्र, पाल्यकीति, वीरनन्दि, माणिक्यनन्दि, प्रभा चन्द्र, महासेन, हरिषेण, सोमदेव, वसुनन्दि, रामसेन, नयसेन, माधनन्दि, आदि आचार्योंने श्रुतकी अपूर्व साधना की है। इन्होंने चारों अनुयोगोंके विषयोंका नये रूपमें ग्रथन, सम्पादन एवं नयी व्याख्याएँ प्रस्तुत कर तीर्थकरवाणीको समृद्ध बनाया है।
अध्यात्मके क्षेत्रमें आचार्य कुन्दकुन्दने जिस सरिताको प्रवाहित किया, उसे स्थिर बनाये रखनेका प्रयास सारस्वत और प्रबुद्धाचार्योने किया है। इन्होंने व्यक्तित्व के विकासके लिए आध्यात्मिक और नैतिक जीबनके यापनपर जोर दिया है। जब तक मनुष्य भौतिकवाद में भटकता रहेगा, तब तक उसे सुख, शान्ति और संतोषकी प्राप्ति नहीं हो सकती। जैन संस्कृतिका लक्ष्य भोग नहीं, त्याग है; संघर्ष नहीं, शान्ति है: विषाद नहीं, आनन्द है । जीवनके शोधनका कार्य आध्यात्मिकता द्वारा ही संभव होता है। भोगवादी दृष्टिकोण मानव-जीबनमें मिराशा, अतृप्ति और कुण्ठाओंको उत्पन्न करता है। जिससे शक्ति, अधिकार और स्वत्वकी लालसा अहर्निश बढ़ती जाती है। प्रतिशोध एवं विद्वेषके दावानलसे झुलसती मानवताका नाण अध्यात्मवाद ही कर सकता है । यह अध्यात्मवाद कहीं बाहरसे आनेवाला नहीं; हमारी आत्माका धर्म है। हमारी चेतनाका धर्म है और है हमारी संस्कृतिका प्राणभूत तत्व ।
मनुष्यजीवन में दो प्रधान तत्व हैं-दृष्टि और सृष्टि । दृष्टिका अर्थ है बोध, विवेक, विश्वास और बिचार । सृष्टिका अर्थ है-क्रिया, कृति, संयम और आचार । मनुष्यके आचारको परखनेकी कसौटी उसका विचार और विश्वास होता है । वास्तव में मनुष्य अपने विश्वास, विचार और आचारका प्रतिफल है। दृष्टिकी विमलतासे जीबन अमल और धवल बन सकता है। यही कारण है कि आचार्योंने विचार और आचारके पहले दृष्टिकी विशुद्धिपर विशेष जोर दिया; क्योंकि विश्वास और विचारको समझनेका प्रयत्न हो अपने स्वरूपको समझनेका प्रयत्न है।
अपने विशुद्ध स्वरूपको समझनेके लिए निश्चयष्टिको आवश्यकता है। यह सत्य है कि व्यवहारको छोड़ना एक बड़ी भल हो सकती है। पर निश्चय को छोड़ना उससे भी अधिक भयंकर भूल है । अनन्त जन्मों में अनन्त बार इस जीवने व्यवहारको ग्रहण करने का प्रयत्न किया है, किन्तु निश्चयदृष्टिको पकड़ने और समझनेका प्रयल एक बार भी नहीं किया है। यही कारण है कि शुद्ध आत्माको उपलब्धि इस जीवको नहीं हो सकी और यह तब तक प्राप्त नहीं हो सकेगी, जब तक आत्माके विभावके द्वारको पारकर उसके स्वभावके भव्यद्वारमें प्रवेश नहीं किया जायेगा |
दुःख एवं क्लेशप्रद परिणाम होनेसे पाप त्याज्य है । प्राणियोंको दुःखरूप होनेसे ही पाप रुचिकर नहीं है। पुण्य आत्माको अच्छा लगता है, क्योंकिउसका परिणाम सुख एवं समृद्धि है । इस प्रकार सुख एवं दुःख प्राप्तिकी दृष्टिसे संसारी आत्मां पापको छोड़ता है और पुण्यको ग्रहण करता है, किन्तु विवेक शील ज्ञानी आत्मा विचार करता है कि जिस प्रकार पाप बन्धन है, उसी प्रकार पुण्य भी एक प्रकारका बन्धन है। यह सत्य है कि पुण्य हमारे जीवन-विकासमें उपयोगी है, सहायक है। यह सब होते हुए भी पुण्य उपादेय नहीं है, अन्ततः वह हेय ही है। जो हेय है, वह अपनी वस्तु कैसे हो सकती है ? आस्रव होनेके कारण पुण्य भी आत्माका विकार है, वह विभाव है, आत्माका स्वभाव नहीं । निश्चयदृष्टिसम्पन्न आत्मा विचार करता है कि संसारमें जितने पदार्थ हैं, वे अपने-अपने भावके कर्ता हैं, परभावका कर्त्ता कोई पदार्थ नहीं । जैसे कुम्भकार घट बनानेरूप अपनी क्रियाका का व्यवहार या उपचार मात्रसे है। वास्तवमें घट बननेरूप क्रियाका कर्ता घट है। घट बननेरूप क्रियामें कुम्मकार सहायक निमित्त है, इस सहायक निमित्तको ही उपचारसे कर्ता कहते हैं । तथ्य यह है कि फकि दो भेद है-परमार्थ कर्ता और उपचारित कर्ता ! क्रियाका उपादान कारण ही परमार्थ कर्ता है, अतः कोई भी क्रिया परमार्थ कत्र्ताक बिना नहीं होती है। सजाएर झाला अपने ज्ञान, दर्शन आदि चेतनभावोंका ही कर्ता है, राग-द्वेष-मोहादिका नहीं । आचार्य नेमिचन्द्र ने बताया है
पुग्गलकम्मादीणं कत्ता चबहारदो दुणिच्छयदो ।
चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं ।'
व्यवहारनयसे आत्मा पुद्गलकर्म आदिका कर्ता है, निश्चयसे चेतन कर्मका, और शुद्धनयकी अपेक्षा शुद्ध भावोंका कर्ता है।
तथ्य यह है कि जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के साथ बन्धको प्राप्त होता है, उस समय उसका अशुद्ध परिणमन होता है। उस अशुद्ध परिणमनमें दोनों द्रव्योंके गुण अपने स्वरूपसे च्युत होकर विकृत भावको प्राप्त होते हैं। जीवन व्यके गुण भी अशुद्ध अबस्थामें इसी प्रकार बिकारको प्राप्त होते रहते हैं। जीवद्रव्यके अशुद्ध परिणमनका मुख्य कारण वैभाविकी शक्ति है और सहायकनिमित्त जीवके गुणोंका विकृत परिणमन है। अतएव जीवका पुदमलके साथ अशुद्ध अवस्थामें ही बन्ध होता है, शुद्ध अवस्था होनेपर विकृत परिणमन नहीं होता । विकृत परिणमन ही बन्धका सहायकनिमित्त है ।
Sanjul Jain Created Article On Date 10 June 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
You cannot copy content of this page