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Starting of Jain Literature
Starting of Jain Literature
तीर्थंकर महावीरको आचार्यपरम्परा गौतम गणघरसे आरम्भ होती है. और यह परम्परा अंगसाहित्य और पूर्वसाहित्यका निर्माण, संवद्धन एवं पोषण करती चली आ रही है। यों तो अंग और पूर्व-साहित्यको परम्परा आदितीर्थकर भगवान ऋषभदेवके समयसे लेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीरके काल तक अनवच्छिन्नरूपसे चली आयी है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि अंग साहित्यका विषय-प्रथन प्रत्येक तीर्थकरके समयमें सिद्धान्तोंके समान रहनेपर भी अपने युगानुसार होता है। स्पष्टीकरणके लिए यों कहा जा सकता है कि उपासकाध्ययनमें प्रत्येक तीर्थकरके समयमें उपासकोंकी ऋद्धिविशेष, बोधि लाभ, सम्यक्त्वशुद्धि, सल्लेखना, स्वर्गगमन, मनुष्यजन्म, संयम-धारण, मोक्ष प्राप्ति आदिका निरूपण किया जाता है। पर प्रत्येक तीर्थकरके काल में उपा सकोंको ऋद्धि, स्वर्गगमन आदि विषयों में परिवर्तन होना स्वाभाविक है। यतः उपासकोंकी जेसी ऋद्धि, यतोवास एवं बोधिलाभकी स्थिति ऋषभदेव के समयमें थी, बेसी महावीरके समयमें नहीं रही होगी। इसी प्रकार अन्तः कृतदशांगमें प्रत्येक तीर्थकरके समयमें होनेवाले अन्तःकृतकेवलियोंका जीवनवृत्त, तपश्चरण, केवलझान आदिका वर्णन रहता है । निश्चयतः तीर्थकर ऋषभदेवके समयके अन्तःकृतदशकेवली महावीरके अन्त कुतदशकेवलियोंसे भिन्न हैं। अतः स्पष्ट है कि अंगसाहित्यका विषय प्रत्येक तीर्थकरके समयमें युगानुसार कुछ परिवर्तित होता है।
पूर्वसाहित्यका विषय परम्परानुसार एक-सा ही चलता रहता है । ज्ञान, सत्य, आत्मा, कर्म और अस्तिनास्तिवादरूप विचार-धारणाएं प्रत्येक तीर्थकर के तीर्घकालमें समान ही रहती हैं। असः पूर्वसाहित्य समस्त तीर्थकरों के समयमें एकरूपमें वर्तमान रहता है। उसमें विषयका परिवर्तन नहीं होता है । जो शाश्वतिक सत्य हैं और जिन ल्यान कालिक स्थायित्व है, उन मूल्योंमें कभी परिवर्तन नहीं होता । वे अनादि हैं। उनमें किसी भी तीर्थकरके तीर्धकालमें किञ्चित् परिवर्तन दिखलाई नहीं पड़ता।
श्रुतधराचार्योंने अंग और पूर्व साहित्यकी परम्पराको जीवन्त बनाये रखने में अपूर्व योगदान दिया है । गणघर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि, आय मन, नागहस्ति, वच्चनश, चिरन्तनाचार्य, यतिवृषभ, उच्चारणाचार्य, वापदेव, कुन्द कुन्द, बट्टकेर, शिवार्य, स्वामीकुमार एवं गृद्धपिच्छाचार्य आदिने कर्मप्रभृत साहित्यका सम्बद्धन एवं प्रणयन किया है।
इन आचार्योंने कर्म और आत्माके सम्बन्धसे जन्य विभिन्न क्रिया-प्रति क्रियाओंके विवेचन के लिए 'पेवदोसपाहुड', 'षट्वाण्डागम', 'चूणिसूत्र', 'व्या ख्यानसूत्र', 'उच्चारणवृति' आदिका प्रणयन कर सिद्धान्त-साहित्यको समृद्ध किया है । यहाँ यह स्मरणीय है कि कर्मसाहित्यका मूल उद्गमस्थान कर्म प्रवाद नामक अष्टम पूर्व है और इस पूर्वका कथन बर्तमान कल्पमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवसे अन्तिम तीर्थकर महाबीर तक समानरूपसे होता आया है। कम का स्वरूप, कर्मद्रव्य, कर्म और आत्माका सम्बन्ध, सम्जन्य अशुद्धि एवं आत्माको विभिन्न अवस्थाओंका विवेचन कर्मसिद्धान्तका प्रधान वर्ण्य विषय है। बा चार्योने कर्म एवं आत्माके सम्बन्धको अनादि स्वीकार कर भी कमंकी विभिन्न अवस्थाओं एवं स्वरूपोंका प्रतिपादन किया है।
गणधर और धरसेनने कर्म-सिद्धान्सका विवेचन सूत्ररूपमें किया है। पुष्पदन्त और भूतलिने 'षटखण्डागम' के रूपमें सूमोंका अवतारकर-जीव ट्ठाण, खुद्दाबन्ध, बंधसामिविषय, वेदना, वग्गणा और महाबन्ध, इन छह खण्डरूपों में सूत्रोंका प्रणयन कर कर्मसिद्धान्तका विस्तारपूर्वक निरूपण किया । अनन्तर वीरसेनाचार्य और जिनसेनाचार्य ने 'धवला' एवं 'जयधक्ला' टीकाओं द्वारा उसकी विस्तृत व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं ।
उद्गमस्थान में जिस प्रकार नदीका स्रोत बहुत ही छोटा होता है और उसको पतली धाराको गति भी मन्द ही रहती है। पर जैसे-जैसे नदीका यह स्रोत उत्तरोत्तर आगे बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उसकी धारा बृहद और तीव होती जाती है। समतल भूमिपर पहुंचकर इस पाराका आयाम स्वतः विस्तृत हो जाता है। इसी प्रकार कर्म-साहित्यको यह धारा तीर्थंकर महावीरके मुखसे निसकोणलर-गुलरियों न मायागयो नासकर विकसित एवं समद हुई है।
यह सार्वजनीन सत्य है कि युगके अनुकूल जीवन और जगत् सम्बन्धी आवश्यकताएँ उत्पन्न होती हैं। विषारक आचार्य इन बाबश्यकताओंकी पूतिके लिए नये चिन्तन और नये आयाम उपस्थित करते हैं। असः किसी भी प्रकारके साहित्यमें विषय विस्तृत होना ध्रुव नियम है ! जब किसी भी विचार को साहित्यको तकनीकमें अथित किया जाता है, तो वह छोटा-सा विचार भी एक सिद्धान्त या अन्यका रूप धारण कर लेता है । 'कर्मप्रवाद में कमकै बन्ध, उदय, उपशम, निर्जरा आदि अवस्थाओंका, अनुभागबन्ध एवं प्रदेशबन्धक आधारों तथा कर्मोको जमन्य, मध्य, उत्कृष्ट स्थितियोंका कथन किया गया है। 'कर्मप्रवाद'का यह विषय आगमसाहित्यमें गणस्थान और मार्गणाकि भेदक क्रमानुसार विस्तृत और स्पष्ट रूपमें अंकित है ।
Sanjul Jain Created Article On Date 9 June 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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