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Vyakaran Vishayak Den
Vyakaran Vishayak Den
जैनाचार्योंने भाषाको सुव्यवस्थित रूप देनेके लिए व्याकरणग्रन्थोंकी रचना की है। आचार्य देवनन्दिने अपने शब्दानुशासनमें श्रीदत्त, अशोभद्र, भूतबलि, प्रभाचन्द्र, सिद्ध सेन और समन्तभद्र इन छ: वैयाकरणोंके नाम निर्दिष्ट किये हैं । देवनन्दिने जैनेन्द्रव्याकरणकी रचना कर कुछ ऐसी मौलिक बाते बत्त लायी हैं, जो अन्यत्र प्राप्त नहीं होती। उन्होंने लिखा है--"स्वाभाविकत्वा दभिधानस्यैकशेषानारम्भः" (१।११९९ ) शब्द स्वभावसे ही एकशेषकी अपेक्षा न कर एकत्व, द्वित्व और बहुत्वमें प्रवृत्त होता है। अतः एकाशेष मानना निर थंक है । यही कारण है कि इनका व्याकरण अनेकाशेष' करलाता है । इन्होंने घान्दोको सिद्धि अनेकान्त द्वारा प्रदर्शित की है-"सिद्धिरनेकान्तात्' (११११११ अर्थात् नित्यत्व, अनित्यत्व, उभयत्व, अनुभयन प्रभृति नाना धर्मोसे विशिष्ट धर्मी रूप शब्दकी सिद्धि अनेकान्तसे ही संभव है। इस प्रकार देवनन्दिने अपने मौलिक विचार प्रस्तुत कर अनेक धर्मविशिष्ट शब्दोंका साधुत्व बतलाया है।
जैनेन्द्र च्याकरणपर. अभयनन्दिकृत महावृत्ति, प्रभाचन्द्र कृत शब्दांभोज भास्करन्यास, श्रुतकीतिकृत पंचवस्तुप्रक्रिया और पण्डित महाचन्द्रकृत वृत्ति, ये चार टोकाएं प्रसिद्ध हैं। .
यापनीय संघ के आचार्य पाल्यकोतिने शाकटायनन्याकरणको रचना की । इस व्याकरणपर सात टीकाएं उपलब्ध हैं। अमोधवृत्ति, शाकटायगन्यास, चिन्तामणि, मणिप्रकाशिका, प्रक्रियासंग्रह, शाकटायनटोका और रूपसिद्धि । ये सभी टीकाएँ महत्त्वपूर्ण हैं । चिन्तामणिके रचयिता यक्षवर्मा हैं औरशाकटायनन्यासके प्रभा चन्द्र । प्रक्रिया-संग्रहको अभयचन्द्रने सिद्धान्तकौमुदीको पद्धतिपर लिखा है । दया पाल मुनिने लघुसिद्धान्तकौमुदीकी शैलीपर रूपसिद्धिकी रचना की है । कात त्ररूपमालाके रचयिता भाबसेन अविद्य हैं । शुभचन्द्रने चिन्तामणिनामक प्राकृतव्याकरण लिखा है। श्रुत्तसागरमूरिका भी एक प्राकृतव्याकरण उपलब्ध है ।
कोषविषयक साहित्य में धनजयकी नाममाला ही सबसे प्राचीन है । इसके अतिरिक्त अनेकार्थनाममाला और अनेकार्थनिघंटु भी इन्होंके द्वारा रचित है। श्रीधरसेनने विश्वलोचन कोषको रचना की है, इसका दूसरा नाम मुक्ता वलीकोष है । धनमित्रने एम सि रचना किती है। मन नपरायः कपन देवने अनेकार्थनामक एक कोष लिखा है । आशाधरद्वारा विरचित्त अमरकोष की क्रिया-कलापटीका भी ज्ञात होती है। इस प्रकार दिगम्बर परम्पराके आचार्योने कोष-साहित्यकी अभिवृद्धि की है।
दिगम्बराचार्योंने कर्मके फलभोक्ताओंका उदाहरण उपस्थित करनेके लिए काव्य, नाटक, कथा और पुराणोंका सृजन किया है । जिस प्रकार आजका वैज्ञा निक अपने किसी सिद्धान्तको प्रमाणित करनेके लिए प्रयोगका आश्रय ग्रहण करता है और प्रयोगविधि द्वारा उसकी सत्यता प्रमाणित कर देता है, उसी प्रकार कर्मसिद्धान्तके व्यावहारिक पक्षको प्रयोगरूपमें ज्ञात करने के लिए आख्यानात्मक साहित्यका सृजन किया जाता है। पुराण, कथा और काव्यों में कर्म के शुभाशुभ फलकी ब्यञ्जना करनेके लिए वेसठ शालाकापुरुषों, अन्य पुण्य पुरुषों एवं ब्रताराधक पुरुषोंके जीवनवृत्त अंकित किये गये हैं । जिन व्यक्तियोंने धर्मको आराधनाद्वारा अपने जीवन में पुण्यका अर्जन कर स्वर्गादि सुखोंको प्राप्त किया है, उनके जीवन-वृत्त साधारणव्यक्तियोंको भी प्रभावित करते हैं । इनका विषय स्मृत्यनुमोदित वर्णाश्रम धर्मका पोषक नहीं है । इसमें जातिवाद के प्रति क्रान्ति प्रदर्शित की गयी है । आश्रम-व्यवस्था भी मान्य नहीं है । समाज सागार और अनागार इन दो बर्गों में विभक्त है । तप, त्याग, संयम अहिंसाको साधना द्वारा मानव-मात्र समानरूपसे आत्मोत्थान करनेका अधिकारी है। आत्मोत्थानके लिए किसी परोक्ष गक्तिकी सहायता अपेक्षित नहीं है। अपने पुरुषार्थ द्वारा कोई भी व्यक्ति सर्वांगीण विकास कर सकता है।
जैन वाङ्मयमें वेसठ शलाकापुरुष उपाधि या पदविशेष हैं | तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र आदिके जीवनमान' निर्धारित है। जो भी तीर्थकर या चक्रवर्ती होगा, उसमें निर्धारित जीवनमूल्योंका रहना परमावश्यक है । तीर्थकरके पञ्चकल्याणक और चक्रवत्तियोंकी विशिष्ट सम्पत्ति परम्परा द्वारा पठित है। अत: असठ गलाकापुरुषोंके जीवनवृत्त अंकनमें परम्परानुमोदित जीवनमूल्योंका समावेश परमावश्यक है।
जैन पुराण और काव्यों में आत्माका अमरत्व एवं जन्म-जन्मान्तरोंके संस्कारों की अपरिहार्यता दिखलाने के लिए पूर्व जन्मके आख्यानोंका संयोजन किया जाता है। प्रसंगवश चार्वाक, तत्त्वोपालबवाद प्रभूति मास्तिकवादोंका निरसन कर आत्माका अमरत्व और कर्मसंस्कारका वैशिष्ट्य निरूपित किया है। पूर्वजन्म के सभी आख्यान नायकोंके जीवन में कलात्मक शैलीमें गुम्फित किये गये हैं। पुनर्जन्म, आत्माका अमरत्व, कर्मसंस्कारोंका प्रभाव, आत्म-साधना आदिका भी चित्रण किया गया है।
इस प्रकार तुतीय खण्डमें आचार्यों द्वारा पुराण और काव्योंका गुम्फन भी हुआ है । वास्तबमें प्रबुद्धाचार्योने प्राचीन आगमोंसे आख्यानतत्व ग्रहण कर प्रथमानुयोगसम्बन्धी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ लिखी हैं ।
परम्परापोषक आचार्यों में भट्टारकोंकी गणना की गयी है । इन्होंने मन्दिर मूर्ति-प्रतिष्ठा, साहित्य संरक्षण और साहित्यप्रणयन द्वारा जैन संस्कृतिका प्रचार प्रसार करने में अद्वितीय प्रयास किया है। बृहत् प्रभाचन्द्र, भास्करनन्दि, ब्रह्मदेव, रविचन्द्र, अभय चन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती, पचनन्दि, सकलकोति, भुवनकोति, ब्रह्म जिनदास, सोमकोति, ज्ञानभूषण, अभिनव धर्मभूषण, विजयकीर्ति, शुभ चन्द्र, विद्यानन्दि, मल्लिभूषण, सुमतिकोति, श्रुतसागर, ब्रह्मनेमिदत्त, श्रुतकीर्ति, मलयकीति प्रभृति भट्टारकोंने मन्त्र-तन्त्र, आचारशास्त्र, काव्य, पुराण विषयक रचनाएँ लिखकर शालीन पगागों और लाडो प्रालिन लिया है। इसमें सन्देह नहीं कि परम्परापोषक आचार्याने बाङ्मयके प्रणयनमें अभूतपूर्व कार्य किया है । ह्रासोन्मुस्ली प्रतिभाके होनेपर भी सकलकीति, ब्रह्म जिनदास, श्रुत सागरसूरि, रत्नकीति आदि ऐसे भट्टारक हैं, जिन्होंने विपुल ग्रंधराशिका निर्माण कर वाङ्मयको अभिवृद्धि में अपूर्व योगदान किया है ।
इस तृतीय खण्डमें भट्टारकीय परम्परा द्वारा प्राप्त सामग्रीका सर्वांगीण विवेचन करनेका प्रयास किया गया ।
चतुर्थ खण्डमें संस्कृत, अपभ्रश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल और मराठी भाषाके जैन कवियों द्वारा लिखित साहित्यका लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है । इन भाषाओंके शताधिक कवियोंने रस, गुण समन्वित काव्योंकी रचना की है। यह खण्ड कवियोंके इतिवृत्तको अवगत करनेकी दृष्टि से उपादेय है। इस प्रकार प्रस्तुत 'तीर्थकर महाबीरकी आचार्यपरम्परा' ग्रन्थमें ऐसे आचार्यों और लेखकोंके इतिवृत्तोपर प्रकाश डाला गया है, जिन्होंने बाङ्मयकी सेवा की है।
Sanjul Jain Created Article On Date 10 June 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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