Author: Pandit Dyanatray Language : Hindi Rhythm: –
Type: Arghya Particulars: Arghya Created By: Shashank Shaha
देव–शास्त्र–गुरु
क्षण-भर निज-रस को पी चेतन, मिथ्या-मल को धो देता है । काषायिक-भाव विनष्ट किये, निज आनन्द-अमृत पीता है ॥ अनुपम-सुख तब विलसित होता, केवल-रवि जगमग करता है । दर्शन बल पूर्ण प्रगट होता, यह ही अर्हन्त अवस्था है ॥ यह अर्घ्य समर्पण करके प्रभु, निज-गुण का अर्घ्य बनाऊंगा । और निश्चित तेरे सदृश प्रभु, अर्हन्त अवस्था पाउंगा ॥
जल चन्दन अक्षत पुष्प दीप, नैवेद्य धूप फल लाया हूँ अबतक के संचित कर्मो का, मैं पुंज जलाने आया हूँ ॥ यह अर्घ्य समर्पित करता हूँ, अविचल अनर्घ्य पद दो स्वामी हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अन्तर्यामी ॥
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
नवदेवता
जल गंध अक्षत पुष्प चरू, दीपक सुधूप फलार्घ ले वर रत्नत्रय निधि लाभ यह बस अर्घ से पूजत मिले नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल पाय शिवकान्ता वरें ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योअनर्घ पद प्राप्ताये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा
सिद्ध-भगवान
जल-फल वसुवृंदा अरघ अमंदा, जजत अनंदा के कंदा मेटो भवफंदा सब दु:खदंदा, ‘हीराचंदा’ तुम वंदा ॥ त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी ॥
अष्टम वसुधा पाने को, कर में ये आठों द्रव्य लिये सहज शुद्ध स्वाभाविकता से, निज में निज गुण प्रकट किये ॥ ये अर्घ्य समर्पण करके मैं, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त-सिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
बाहुबली-भगवान
पुण्य भाव से स्वर्गादिक पद, बार-बार पा जाता हूँ निज अनर्घ्य पद मिला न अब तक, इससे अर्घ्य चढ़ाता हूँ ॥ श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर चरणों में शीश झुकाता हूँ अविनश्वर शिव सुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ ॥
जल फल आठों दरव चढ़ाय ‘द्यानत’ वरत करौं मन लाय परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
यह अरघ कियो निज हेत, तुमको अरपतु हों ‘द्यानत’ कीज्यो शिव खेत, भूमि समरपतु हों नन्दीश्वर-श्रीजिन-धाम, बावन पुंज करों वसु दिन प्रतिमैं अभिराम, आनंद-भाव धरों नंदीश्वर द्वीप महान, चारों दिशि सोहें बावन जिन मन्दिर जान सुर नर मन मोहें
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे द्विपंचाश ज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमाभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
निर्वाणक्षेत्र
जल गन्ध अच्छत फूल चरु फल, दीप धूपायन धरौं ‘द्यानत’ करो निरभय जगतसों, जोर कर विनती करौं ॥ सम्मेदगढ़ गिरनार चम्पा, पावापुरि कैलासकों पूजों सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवासकों ॥
सरस्वती
जल चंदन अक्षत, फूल चरु अरु, दीप धूप अति फल लावे पूजा को ठानत, जो तुम जानत, सो नर ‘द्यानत’ सुखपावे ॥ तीर्थंकर की ध्वनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई सो जिनवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवनमानी पूज्य भई ॥
शुचि निर्मल नीरं गंध सुअक्षत, पुष्प चरु ले मन हरषाय दीप धूप फल अर्घ सुलेकर, नाचत ताल मृदंग बजाय श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि बलि जाऊँ मन वच काय हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, यातैं मैं पूजों प्रभु पाय
ॐ ह्रीं आदिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्य पद प्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा
चन्द्रप्रभ-भगवान
सजि आठों दरब पुनीत, आठों अंग नमौं पूजौं अष्टम जिन मीत, अष्टम अवनि गमौं श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लसै मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ॥