INDEX
Author: Kavi Shri Nathuram Ji
Language : Hindi
इह विधि ठाड़ो होय के, प्रथम पढ़े जो पाठ।
धन्य जिनेश्वर देव तुम, नाशे कर्म जु आठ।१।
अनंत-चतुष्टय के धनी, तुम ही हो सिरताज।
मुक्ति-वधू के कंत तुम, तीन-भुवन के राज।२।
तिहुँ-जग की पीड़ा-हरन, भवदधि-शोषणहार।
ज्ञायक हो तुम विश्व के, शिवसुख के करतार। ३।
हरता अघ-अंधियार के, करता धर्म-प्रकाश।
थिरता-पद दातार हो, धरता निज गुण रास। ४।
अन्वयार्थ:
1. इस प्रकार से खड़े होकर पहिले मै यह पाठ पढ़ता हूँ!जिनेन्द्र देव आप धन्य है क्योकि आपने आठों कर्मों को नष्ट कर दिया है।
2. आप अनंत चतुष्टाय के स्वामी है, आप ही सर्वश्रेष्ठ है, आप मोक्षलक्ष्मी रुपी पत्नी के पति है, आप तीन लोक के स्वामी हैं।
3. आप तीनो लोक के जीवों के दुखो को हरने वाले हो, संसार रुपी सागर के शोषक हैं। आप संसार के समस्त पदार्थों के ज्ञायक है और मोक्ष सुख प्राप्त करवाने वाले है।
4. आप पाप रुपी अन्धकार के हरता हैं, धर्म रुप प्रकाश के करता हैं, मोक्षपद को देने वाले हो और आत्मा के गुणों को धारण करने वाले हो।
धर्मामृत उर जलधि सों, ज्ञानभानु, तुम रूप।
तुमरे चरण-सरोज को, नावत तिहुँजग-भूप। ५।
मैं वंदौं जिनदेव को, कर अति-निर्मलभाव।
कर्मबंध के छेदने, और न कछू उपाव। ६।
भविजन को भवकूपतैं, तुम ही काढ़नहार।
दीनदयाल अनाथपति, आतमगुण-भंडार।७।
चिदानंद निर्मल कियो, धोय कर्मरज-मैल।
सरल करी या जगत में भविजन को शिवगैल।८।
अन्वयार्थ:
5. आपका हृदय धर्मरुपी अमृत के समुद्र के सामान है । आपका स्वरुप ज्ञान रुपी सूर्य के सामान है । निरंतर ज्ञान रूपी प्रकाश से प्रकाशित करने वाला है । आपके चरण-कमल को तीनों लोक के राजा (ऊर्ध्व लोक के राजा इंद्र, मध्य लोक के राजा-चक्रवर्ती और अधो लोक के राजा-धरणेन्द्र) नमस्कार करते हैं, निरंतर वंदना करते है !
6. मै जिनेन्द्र देव की अत्यंत निर्मल भाव (राग-द्वेष छोड़कर) से वंदना करता हूँ क्योंकि आत्मा के साथ लगे कर्म बंध को नष्ट करने का अन्य कोई उपाय नहीं है ।
7. आप ही भव्य जीवों को संसार रुपी कुए से निकालने वाले हैं, दीनों पर दया करने वाले, अनाथों के स्वामी और आत्मा के गुणों के भण्डार हैं । आपने अपनी आत्मा पर लगे कर्ममल रुपी धूल को धोकर / पवित्र कर संसार के भव्य जीवों को मोक्षमार्ग बताकर सरल कर दिया है ।
8. आपने अपनी आत्मा पर लगे कर्ममल रुपी धूल को धोकर / पवित्र कर संसार के भव्य जीवों को मोक्षमार्ग बताकर सरल कर दिया है ।
तुम पद-पंकज पूजतैं,विघ्न-रोग टर जाय।
शत्रु मित्रता को धरै, विष निरविषता थाय। ९।
चक्री खगधर इंद्रपद, मिलैं आपतैं आप।
अनुक्रम कर शिवपद लहैं, नेम सकल हनि पाप।१०।
तुम बिन मैं व्याकुल भयो, जैसे जल-बिन मीन।
जन्म-जरा मेरी हरो, करो मोहि स्वाधीन । ११।
पतित बहुत पावन किये, गिनती कौन करेव।
अंजन से तारे प्रभु, जय जय जय जिनदेव । १२।
अन्वयार्थ:
9. आपके चरण कमलों को पूजने से
थकी नाव भवदधि-विषै, तुम प्रभु पार करेय।
खेवटिया तुम हो प्रभु, जय जय जय जिनदेव । १३।
राग-सहित जग में रुल्यो, मिले सरागी-देव।
वीतराग भेंट्यो अबै, मेटो राग-कुटेव। १४।
कित निगोद कित नारकी, कित तिर्यंच अज्ञान।
आज धन्य मानुष भयो, पायो जिनवर-थान। १५।
तुम को पूजैं सुरपति, अहिपति नरपति देव।
धन्य-भाग्य मेरो भयो, करन लग्यो तुम सेव। १६।
अन्वयार्थ:
13. हे भगवन, मेरी नाव संसार रुपी समुद्र में अटक गयी है आप ही इसे पार कर सकते हैं । आप ही मल्लाह हो, मुझे संसार सागर को पार लगाने वाले आप ही हो (अन्य देवी-देवता तो स्वयं संसार सागर में डूबे हुए हैं, वे नहीं पार लगा सकते) आपकी जय हो, जय हो, जय हो भगवन !
14. राग (अपने शरीर, घर, स्त्री, पुत्र आदि से) सहित होने के कारण मै संसार में भटक रहा हूँ (क्योंकि मैंने अपनी आत्मा का वास्तविक ज्ञाता-द्रष्टा स्वरुप, इन से भिन्न नहीं समझा) । मुझे अभी तक रागी देव ही मिले, उनकी ही पूजा करने लगा अब मुझे वीतराग देव मिले है, आप मेरी खोटी आदत को मिटा दीजिये ।
15. हे जिनेन्द्र भगवान मैने कितनी पर्याय निगोद की, कितनी पर्याय नारकी की, कितनी पर्याय तिर्यच की एवं कितनी पर्याय अज्ञानावस्था में व्यतीत की । आज यह मनुष्य पर्याय धन्य हो गई जो हे जिनेन्द्र आपकी शरण प्राप्त कर ली ॥
16. हे जिनेन्द्र भगवान आपकी पूजा इन्द्र, नागेन्द्र, चक्रवर्ती आदि करते है । आपकी सेवा-पुजा करने से मेरा भाग्य भी धन्य हो गया है ॥
अशरण के तुम शरण हो, निराधार आधार।
मैं डूबत भवसिंधु में, खेओ लगाओ पार। १७।
इन्द्रादिक गणपति थके, कर विनती भगवान्।
अपनो विरद निहार के, कीजै आप समान ।।१८।
तुमरी नेक सुदृष्टितैं, जग उतरत है पार।
हा हा डूब्यो जात हौं, नेक निहार निकार। १९।
जो मैं कहहूँ और सों, तो न मिटे उर-भार।
मेरी तो तोसों बनी, तातैं करौं पुकार। २० |
अन्वयार्थ:
17. हे जिनेन्द्र देव अशरण को शरण देने वाले हो । जिनके जीवन का कोई आधार नही है उन्हे आधार देने वाले हो । हे भगवान मै भव रूपी समुद्र में डूब रहा हूँ । आप मेरी नाव चलाकर पार ला दीजिए ।
18. हे जिनेन्द्र भगवान, आपकी स्तुति विनती करते-करते गणधर, और इन्द्र आदि भी थक गये है तब मैं कैसे आपकी विनती कर सकता हूँ । आप अपने यश को देखकर मुझे अपने समान बना लीजिए ।
19. हे नाथ आपकी एक अच्छी दृष्टि से ही जीव संसार समुद्र के पार हो जाता है । हाय, हाय मै संसार समुद्र में डूब रहा हूँ एक बार सुदुष्टि से देखकर मुझे निकाल लीजिए ।
20. हे भगवान यदि मै अपने अन्तर्मन की वेदना किसी और से कहूँ तो वह वेदना मिटने वाली नही है, मेरी बिगड़ी तो आप ही बना सकते हो अत: मै आप ही से अपने दुखों को मिटाने की पुकार कर रहा हूँ ।
वंदौं पाँचों परमगुरु, सुर-गुरु वंदत जास।
विघनहरन मंगलकरन, पूरन परम-प्रकाश।२१।
चौबीसों जिन-पद नमौं, नमौं शारदा माय।
शिवमग-साधक साधु नमि, रच्यो पाठ सुखदाय । २२।
अन्वयार्थ:
21. गणधर भी जिनकी वंदना करते हैं उन पांचों परमेष्ठी (पंच परमगुरु) की वदना करता हूँ । आप पूर्ण उत्कृष्ट आत्म ज्योति (ज्ञान ज्योति) से प्रकाशित हो, आप विघ्नों का नाश करने वाले हो, और मंगल के करने वाले हो ।
22.चौबीसों तीर्थकरों को नमन करता हूँ जिनवाणी माता को नमन करता हूँ और मोक्ष मार्ग की साधना करने वाले सर्व साधु को नमन कर सुख को देने वाले इस पाठ की रचना करता हूँ ।
Created By : Sou Tejashri Wadkar And Shri Shashank Shaha
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