Artist – ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
Language : Hindi
Rhythm: –
अक्षय तृतीया पर्व है मंगलमय अविकार।
ऋषभदेव मुनिराज का हुआ प्रथम आहार ।।
दीक्षा लेकर ऋषभ मुनीश्वर छह महीने उपवास किया।
फिर आहार निमित्त ऋषीश्वर जगह जगह परिभ्रमण किया ।।१।।
कोई हाथी घोड़े वस्त्राभूषण रत्नों के भर थाल।
ले सन्मुख आदर से आवें, देख साधु लौटें तत्काल ।।२।।
नहीं जानें आहार-विधि, इससे सब ही लाचार हुए।
अन्तराय का उदय रहा, तेरह महीने नौ दिवस हुए।।३।।
धन्य मुनीश्वर धन्य आत्मबल आकुलता का लेश नहीं।
तृप्त स्वयं में मग्न स्वयं में किंचित् भी संक्लेश नहीं ।।४।।
उदय नहीं हो दुःख का कारण, यदि स्वभाव का आश्रय हो।
निज से च्युत हो दु:खी रहे, तो फिर उपचार उदय पर हो ।।५।।
दोष देखना किन्तु उदय का, कहीं अनीति जिनागम में।।
उदय उदय में ही रहता है, नहिं प्रविष्ट हो आतम में ।।६।।
भेदज्ञान कर द्रव्यदृष्टि धर, स्वयं स्वयं में मग्न रहो।।
स्वाश्रय से ही शान्ति मिलेगी, आकुलता नहिं व्यर्थ करो ।।७।।
अशरण जग में अरे आत्मन् ! नहीं कोई हो अवलम्बन ।
तजकर झूठी आस पराई, अपने प्रभु का करो भजन ।।८।।
इन्द्रादिक से सेवक चक्री कामदेव से सुत जिनके ।
देखो एक समय पहले भी नहिं आहार हुए उनके ॥९॥
हुई योग्यता सहजपने ही सर्व निमित्त मिले तत्क्षण।
मंगल स्वप्नों का फल सुनकर श्री श्रेयांस थे हर्ष मगन ।।१०||
देखा आते ऋषभ मुनि को जातिस्मरण हुआ सुखकार ।
नवधा भक्ति पूर्वक नृप ने दिया इक्षुरस का आहार ।।११।।
पंचाश्चर्य किये देवों ने रत्न पुष्प थे बरसाए।
पवन सुगंधित शीतल चलती, जय जय से नभ गुंजाए ॥१२॥
धन्य पात्र हैं धन्य हैं दाता, धन्य दिवस धनि हैं आहार।।
दानतीर्थ का हुआ प्रवर्तन, घर-घर होवे मंगलाचार ।।१३।।
तिथि वैशाख सुदी तृतीया थी अक्षय तृतीया पर्व चला।
आदीश्वर की स्तुति करते सहजहि मुक्ति मार्ग मिला ।।१४।।
ऋषभदेव सम रहे धीरता आराधन निर्विघ्न खिले।
भोजन भी न मिले फिर भी नहिं आराधन से चित्त चले ।।१५।।
थकित हुआ हूँ भव भोगों से लेश मात्र नहिं सुख पाया।
हो निराश सब जग से स्वामिन् चरण शरण में हूं आया ।।१६।।
यही भावना स्वयं स्वयं में तृप्त रहूँ प्रभु तुष्ट रहूँ।
ध्येय रूप निज पद को ध्याते ध्याते शिवपद प्रगट करूं ।।१७||
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