अपूर्व-अवसर
Author: Shrimad RajchandraLanguage : HindiRhythm:
Type: Apurva AvasarParticulars: PaathCreated By: Shashank Shaha
अपूर्व अवसर ऐसा किस दिन आएगाकब होऊँगा बाह्यान्तर निर्ग्रंथ जबसंबंधों का बंधन तीक्ष्ण छेदकरविचरूंगा कब महत्पुरुष के पंथ जब॥१॥
उदासीन वृत्ति हो सब परभाव सेयह तन केवल संयम हेतु होय जबकिसी हेतु से अन्य वस्तु चाहूँ नहींतन में किंचित भी मूर्च्छा नहीं होय जब॥२॥
दर्श मोह क्षय से उपजा है बोध जोतन से भिन्न मात्र चेतन का ज्ञान जबचरित्र मोह का क्षय जिससे हो जायेगावर्ते ऐसा निज स्वरूप का ध्यान जब॥३॥
आत्म लीनता मन वच काया योग कीमुख्यरूप से रही देह पर्यन्त जबभयकारी उपसर्ग परीषह हो महाकिन्तु न होवे स्थिरता का अंत जब॥४॥
संयम ही के लिये योग की वृत्ति होनिज आश्रय से जिन आज्ञा अनुसार जबवह प्रवृत्ति भी क्षण-क्षण घटती जाएगीहोऊँ अंत में निज स्वरूप में लीन जब॥५॥
पंच विषय में राग-द्वेष कुछ हो नहींअरु प्रमाद से होय न मन को क्षोभ जबद्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव प्रतिबन्ध बिनवीतलोभ हो विचरूँ उदयाधीन जब॥६॥
क्रोध भाव के प्रति हो क्रोध स्वभावतामान भाव प्रति दीन भावमय मान जबमाया के प्रति माया साक्षी भाव कीलोभ भाव प्रति हो निर्लोभ समान जब॥७॥
बहु उपसर्ग कर्त्ता के प्रति भी क्रोध नहींवन्दे चक्री तो भी मान न होय जबदेह जाय पर माया नहीं हो रोम मेंलोभ नहीं हो प्रबल सिद्धि निदान जब॥८॥
नग्नभाव मुंडभाव सहित अस्नानताअदन्तधोवन आदि परम प्रसिद्ध जबकेश-रोम-नख आदि अंग श्रृंगार नहींद्रव्य-भाव संयममय निर्ग्रंथ सिद्ध जब॥९॥
शत्रु-मित्र के प्रति वर्ते समदर्शितामान-अपमान में वर्ते वही स्वभाव जबजन्म-मरण में हो नहीं न्यूनाधिकताभव-मुक्ति में भी वर्ते समभाव जब॥१०॥
एकाकी विचरूँगा जब श्मशान मेंगिरि पर होगा बाघ सिंह संयोग जबअडोल आसन और न मन में क्षोभ होजानूँ पाया परम मित्र संयोग जब॥११॥
घोर तपश्चर्या में तन संताप नहींसरस अशन में भी हो नहीं प्रसन्न मनरजकण या ऋद्धि वैमानिक देव कीसब में भासे पुद्गल एक स्वभाव जब॥१२॥
ऐसे प्राप्त करूँ जय चारित्र मोह परपाऊँगा तब करण अपूरव भाव जबक्षायिक श्रेणी पर होऊँ आरूढ़ जबअनन्य चिंतन अतिशय शुद्ध स्वभाव जब॥१३॥
मोह स्वयंभूरमण उदधि को तैर करप्राप्त करूँगा क्षीणमोह गुणस्थान जबअंत समय में पूर्णरूप वीतराग होप्रगटाऊँ निज केवलज्ञान निधान जब॥१४॥
चार घातिया कर्मों का क्षय हो जहाँहो भवतरु का बीज समूल विनाश जबसकल ज्ञेय का ज्ञाता दृष्टा मात्र होकृतकृत्य प्रभु वीर्य अनंत प्रकाश जब॥१५॥
चार अघाति कर्म जहाँ वर्ते प्रभोजली जेवरीवत हो आकृति मात्र जबजिनकी स्थिति आयु कर्म आधीन हैआयु पूर्ण हो तो मिटता तन पात्र जब॥१६॥
मन वच काया अरु कर्मों की वर्गणाछूटे जहाँ सकल पुद्गल सम्बन्ध जबयही अयोगी गुणस्थान तक वर्ततामहाभाग्य सुखदायक पूर्ण अबन्ध जब॥१७॥
इक परमाणु मात्र की न स्पर्शतापूर्ण कलंक विहीन अडोल स्वरूप जबशुद्ध निरंजन चेतन मूर्ति अनन्यमयअगुरुलघु अमूर्त सहजपद रूप जब॥१८॥
पूर्व प्रयोगादिक कारण के योग सेऊर्ध्वगमन सिद्धालय में सुस्थित जबसादि अनंत अनंत समाधि सुख मेंअनंत दर्शन ज्ञान अनंत सहित जब॥१९॥
जो पद झलके श्री जिनवर के ज्ञान मेंकह न सके पर वह भी श्री भगवान जबउस स्वरूप को अन्य वचन से क्या कहूँअनुभव गोचर मात्र रहा वह ज्ञान जब॥२०॥
यही परम पद पाने को धर ध्यान जबशक्तिविहीन अवस्था मनरथरूप जबतो भी निश्चय ‘राजचंद्र’ के मन रहाप्रभु आज्ञा से होऊँ वही स्वरूप जब॥२१॥
Reference:https://nikkyjain.github.io/jainDataBase/genBooks/jainPoojas
Shashank Shaha added more details to update on 15 November 2024.
You cannot copy content of this page