अथ परमर्षि-स्वस्ति-मंगल-विधान

INDEX

Author:

Language : Hindi

इस विधान में परम-ऋषियों (परमेष्ठियों) में प्रकट आत्मा की चौंसठ (६४) ऋद्धियों का स्मरण कर पुष्प-क्षेपण किया गया है। ऋद्धि का अर्थ आत्मा की वह शक्ति है, जो प्रकट हो जाये। ये शक्तियाँ हम सभी की आत्माओं में अनंत हैं। और तप के बल से कर्मों का क्षयोपशम होने के कारण मुनीश्वरों में ये ऋद्धियाँ प्रकट होती हैं।
(प्रत्येक स्वस्ति-उच्चारण के साथ श्लोक के अंत में पुष्प-क्षेपण करें)

१८ बुद्धि-ऋद्धियाँ

नित्याप्रकंपाद्भुत-केवलौघाः,स्फुरन्मनःपर्यय-शुद्धबोधा:।
दिव्यावधिज्ञान-बलप्रबोधा:, स्वस्ति-क्रियासु: परमर्षयो न:।१।

अन्वयार्थ:
अविनाशी, अचल, अद्भुत केवलज्ञान, दैदीप्यमान मनःपर्ययज्ञान, और दिव्य अवधिज्ञान ऋद्धियों के धारी परमऋषि हमारा मंगल करें।१।

१. केवलज्ञान बुद्धि ऋद्धि- सभी द्रव्यों के समस्त गुण एवं पर्यायें एक साथ देखने व जान सकने की शक्ति।
२. मनःपर्ययज्ञान बुद्धि ऋद्धि- अढ़ाई (2½) द्वीपों के सब जीवों के मन की बात जान सकने की शक्ति।
३. अवधिज्ञान बुद्धि ऋद्धि- द्रव्य, क्षेत्र, काल की अवधि (सीमाओं) में विद्यमान पदार्थों को जान सकने की शक्ति।

कोष्ठस्थ-धान्योपममेकबीजं,संभिन्न-संश्रोतृ-पदानुसारि

चतुर्विधं बुद्धिबलं दधानाः, स्वस्ति-क्रियासु: परमर्षयो नः|२|

अन्वयार्थ:
कोष्ठस्थ धान्योपम, एक बीज, संभिन्न-संश्रोतृत्व और पदानुसारिणी-इन चार प्रकार की बुद्धि-ऋद्धियों के धारी परमेष्ठीगण हमारा मंगल करें। २।

४. कोष्ठबुद्धि ऋद्धि- जिसप्रकार भंडार में हीरा, पन्ना, पुखराज,चाँदी, सोना आदि पदार्थ जहाँ जैसे रख दिए जावें, बहुत समय बीत जाने पर भी वे जैसे के तैसे, न कम न अधिक, भिन्न-भिन्न उसी स्थान पर रखे मिलते हैं; उसीप्रकार सिद्धान्त, न्याय, व्याकरणादि के सूत्र,गद्य, पद्य, ग्रन्थ जिस प्रकार पढ़े थे, सुने थे, पढ़ाये अथवा मनन किए थे, बहुत समय बीत जाने पर भी यदि पूछा जाए, तो न एक भी अक्षर घटकर, न बढ़कर, न पलटकर, भिन्न-भिन्न ग्रन्थों को उसीप्रकार सुना सकें ऐसी शक्ति।
५. एक-बीजबुद्धि ऋद्धि- ग्रन्थों के एक बीज (अक्षर, शब्द, पद) को सुनकर पूरे ग्रंथ के अनेक प्रकार के अर्थों को बता सकने की शक्ति।
६. संभिन्न संश्रोतृत्व बुद्धि ऋद्धि- बारह योजन लम्बे नौ योजन चौड़े क्षेत्र में ठहरनेवाली चक्रवर्ती की सेना के हाथी, घोड़े, ऊँट, बैल,पक्षी, मनुष्य आदि सभी की अक्षर-अनक्षररूप नानाप्रकार की ध्वनियों को एक साथ सुनकर अलग-अलग सुना सकने की शक्ति।
७. पदानुसारिणी बुद्धि ऋद्धि- ग्रन्थ के आदि के, मध्य के या अन्त के किसी एक पद को सुनकर सम्पूर्ण-ग्रन्थ को कह सकने की शक्ति।

संस्पर्शनं संश्रवणं च दूरादास्वादन-घ्राण-विलोकनानि |
दिव्यान् मतिज्ञान-बलाद्वहंतः स्वस्तिक्रियासुः परमर्षयो नः ॥३॥
प्रज्ञा-प्रधानाः श्रमणाः समृद्धाः, प्रत्येकबुद्धाः दशसर्वपूर्वै: |
प्रवादिनोऽष्टांग-निमित्त-विज्ञाः, स्वस्तिक्रियासुः परमर्षयो नः ॥४॥

अन्वयार्थ:
दूरस्पर्शन बुद्धि,दूरश्रवण बुद्धि, बुद्धि दूरास्वादन,दूरघ्राण बुद्धि,दूरावलोकन बुद्धि, प्रज्ञाश्रमणत्व बुद्धि, प्रत्येकबुद्ध बुद्धि, दशपूर्वित्व बुद्धि,चतुर्दशपूर्वित्व बुद्धि, प्रवादित्व बुद्धि, अष्टांग-महानिमित्त-विज्ञत्व बुद्धि – इनके धारक परम ऋषिगण हमारा मंगल करें। ३,४।

८. दूरस्पर्शन बुद्धि ऋद्धि- दिव्य मतिज्ञान के बल से संख्यात योजन दूरवर्ती पदार्थ का स्पर्शन कर सकने की शक्ति; जबकि सामान्य मनुष्य अधिक से अधिक नौ योजन दूरी के पदार्थों का स्पर्शन जान सकता है।
९ . दूर-श्रवण बुद्धि ऋद्धि- दिव्य मतिज्ञान के बल से संख्यात योजन दूरवर्ती शब्द सुन सकने की शक्ति; जबकि सामान्य मनुष्य अधिकतम बारह योजन तक के दूरवर्ती शब्द सुन सकता है।
१०. दूर-आस्वादन बुद्धि ऋद्धि- दिव्य मतिज्ञान के बल से संख्यात् योजन दूर स्थित पदार्थों के स्वाद जान सकने की शक्ति; जबकि मनुष्य अधिक से अधिक नौ योजन दूर स्थित पदार्थों के रस जान सकता है।
११. दूर-प्राण बुद्धि ऋद्धि- दिव्य मतिज्ञान के बल से संख्यात् योजन दूर स्थित पदार्थों की गंध जान सकने की शक्ति; जबकि मनुष्य अधिक से अधिक नौ योजन दूर स्थित पदार्थों की गंध ले सकता है।
१२ दूर-अवलोकन बुद्धि ऋद्धि- दिव्य मतिज्ञान के बल से लाखों योजन दूर स्थित पदार्थों को देख सकने की शक्ति; जबकि मनुष्य अधिकतम सैंतालीस हजार दो सौ त्रेसठ योजन दूर स्थित पदार्थों को देख सकता है।
१३. प्रज्ञाश्रमणत्व बुद्धि ऋद्धि-पदार्थों के अत्यन्त सूक्ष्म तत्व जिनको केवली एवं श्रुतकेवली ही बतला सकते हैं; द्वादशांग, चौदह पूर्व पढ़े बिना ही बतला सकने की शक्ति।
१४ प्रत्येक-बुद्ध बुद्धि ऋद्धि- अन्य किसी के उपदेश के बिना ही ज्ञान, संयम, व्रतादि का निरूपण कर सकने की शक्ति।
१५. दशपूर्वित्व बुद्धि ऋद्धि- दस पूर्वों के ज्ञान के फल से अनेक महा विद्याओं के प्रकट होने पर भी चारित्र से चलायमान नहीं होने की शक्ति।
१६. चतुर्दशपूर्वित्व बुद्धि ऋद्धि- चौदह पूर्वों का सम्पूर्ण श्रुतज्ञान धारण करने की शक्ति।
१७. प्रवादित्व बुद्धि ऋद्धि- क्षुद्रवादी तो क्या, यदि इन्द्र भी शास्त्रार्थ करने आए, तो उसे भी निरुत्तर कर सकने की शक्ति।
१८. अष्टांग महानिमित्त-विज्ञत्व बुद्धि ऋद्धि- अन्तरिक्ष,भौम,अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, छिन्न (तिल), स्वप्न-इन आठ महानिमित्तों के अर्थ जान सकने की शक्ति।

नौ चारण ऋद्धियाँ

जंघा-वह्रि-श्रेणि-फलांबु-तंतु-प्रसून-बीजांकुर-चारणाह्वाः |
नभोऽगंण-स्वैरविहारिणश्च स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥५॥

अन्वयार्थ:
जंघा, वह्नि (अग्निशिखा), श्रेणी, फल, जल, तन्तु, पुष्प, बीज-अंकुर , तथा आकाश में जीव हिंसा-विमुक्त विहार करनेवाले परम ऋषिगण हमारा मंगल करें। ५।

१९ . जंघा चारण ऋद्धि- पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर आकाश में, जंघा को बिना उठाये सैकड़ों योजन गमन कर सकने की शक्ति।
२०. वह्नि (अग्नि-शिखा)चारण ऋद्धि- अग्निकायिक जीवों की विराधना किये बिना अग्निशिखा पर गमन सकने की शक्ति।
२१. श्रेणीचारण ऋद्धि- सब जाति के जीवों की रक्षा करते हुए पर्वत श्रेणी पर गमन कर सकने की शक्ति।
२२. फलचारण ऋद्धि- किसी भी प्रकार से जीवों की हानि नहीं हो, इस हेतु फलों पर चल सकने की शक्ति।
२३. अम्बुचारण ऋद्धि- जीव हिंसा किये बिना पानी पर चलने की शक्ति।
२४. तन्तुचारण ऋद्धि- मकड़ी के जाले के समान तन्तुओं पर भी उन्हें तोड़े बिना चल सकने की शक्ति।
२५. पुष्पचारण ऋद्धि- फूलों में स्थित जीवों की विराधना किये बिना उन पर गमन कर सकने की शक्ति।
२६. बीजांकुरचारण ऋद्धि- बीजरूप पदार्थों एवं अंकुरों पर उन्हें किसी प्रकार हानि पहुंचाये बिना गमन कर सकने की शक्ति।
२७.नभचारण ऋद्धि-कायोत्सर्ग की मुद्रा में पद्मासन या खड़गासन में गमन कर सकने की शक्ति।


तीन बल ऋद्धियाँ एवं ग्यारह विक्रिया ऋद्धियाँ

अणिम्नि दक्षाः कुशलाः महिम्नि,लघिम्नि शक्ताः कृतिनो गरिम्णि |
मनो-वपुर्वाग्बलिनश्च नित्यं, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥६॥

अन्वयार्थ:
अणिमा , महिमा, लघिमा, गरिमा , मनबल, वचनबल, कायबल ऋद्धियों के अखण्ड-धारक परम ऋषिगण हमारा मंगल करें। ६।

२८. अणिमा ऋद्धि- अणु के समान छोटा शरीर कर सकने की शक्ति।
२९ . महिमा ऋद्धि- सुमेरु पर्वत से भी बड़ा शरीर बना सकने की शक्ति।
३०. लघिमा ऋद्धि- वायु से भी हल्का शरीर बना सकने की शक्ति।
३१. गरिमा ऋद्धि- वज्र से भी कठोर शरीर बना सकने की शक्ति।
३२. मनबल ऋद्धि- अन्तर्मुहूर्त में ही समस्त द्वादशांग के पदार्थों को विचार सकने की शक्ति।
३३. वचनबल ऋद्धि- जीभ, कंठ आदि में शुष्कता एवं थकावट हुए बिना सम्पूर्ण श्रुत का अन्तर्मुहुर्त में ही पाठ कर सकने की शक्ति।
३४. कायबल ऋद्धि- एक वर्ष, चातुर्मास आदि बहुत लम्बे समय तक कायोत्सर्ग करने पर भी शरीर का बल, कान्ति आदि थोड़ा भी कम न होने एवं तीनों लोकों को कनिष्ठ अंगुली पर उठा सकने की शक्ति।

सकामरुपित्व-वशित्वमैश्यं, प्राकाम्यमन्तर्द्धिमथाप्तिमाप्ताः |
तथाऽप्रतीघातगुणप्रधानाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥७॥

अन्वयार्थ:
कामरूपित्व:, वशित्व, ईशत्व, प्राकाम्य , अन्तर्धान, आप्ति तथा अप्रतिघात ऋद्धियों से सम्पन्न परम ऋषिगण हमारा मंगल करें।७।

३५. कामरूपित्व ऋद्धि- एक साथ अनेक आकारोंवाले अनेक शरीरों को बना सकने की शक्ति।
३६. वशित्व ऋद्धि- तपके बल से सभी जीवों को अपने वश में कर सकने की शक्ति।
३७. ईशत्व ऋद्धि- तीनों लोकों पर प्रभुता प्रकट सकने की शक्ति।
३८. प्राकाम्य ऋद्धि- जल में पृथ्वी की तरह और पृथ्वी में जल की तरह चल सकने की शक्ति।
३९ . अन्तर्धान ऋद्धि- तुरन्त अदृश्य हो सकने की शक्ति।
४०. आप्ति ऋद्धि- भूमि पर बैठे हुए ही अंगुली से सुमेरु पर्वत की चोटी, सूर्य, और चन्द्रमा आदि को छू सकने की शक्ति।
४१. अप्रतिघात ऋद्धि- पर्वतों, दीवारों के मध्य भी खुले मैदान के समान बिना रुकावट आवगमन की शक्ति।

दीप्तं च तप्तं च तथा महोग्रं, घोरं तपो घोरपराक्रमस्थाः |
ब्रह्मापरं घोरगुणाश्चरन्तः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥८॥

अन्वयार्थ:
दीप्त,तप्त, महाउग्र, घोर, घोरपराक्रमस्थ, परमघोर तथा घोरब्रह्मचर्य इन सात तप-ऋद्धियों से सम्पन्न परम ऋषिगण हमारा मंगल करें |८।

४२. दीप्त तप ऋद्धि- बड़े-बड़े उपवास करते हुए भी मनोबल, वचन बल, कायबल में वृद्धि, श्वास व शरीर में सुगंधि, तथा महा कान्तिमान शरीर होने की शक्ति।
४३. तप्त तप ऋद्धि- भोजन से मल, मूत्र, रक्त, मांस, आदि न बनकर गरम कड़ाही में से पानी की तरह उड़ा देने की शक्ति।
४४. महा उग्र तप ऋद्धि- एक, दो, चार दिन के, पक्ष के, मास के आदि किसी उपवास को धारण कर मरणपर्यन्त न छोड़ने की शक्ति।
४५. घोर तप ऋद्धि- भयानक रोगों से पीड़ित होने पर भी उपवास व काय क्लेश आदि से नहीं डिगने की शक्ति।
४६. घोर पराक्रमस्थ तप ऋद्धि- दुष्ट, राक्षस, पिशाच के निवास स्थान, भयानक जानवरों से व्याप्त पर्वत, गुफा, श्मशान, सूने गाँव में तपस्या करने, समुद्र के जल को सुखा देने एवं तीनों लोकों को उठाकर फेंक सकने की शक्ति।
४७. परमघोर तप ऋद्धि- सिंह-निःक्रीड़ित आदि महा-उपवासों को करते रहने की शक्ति।
४८. घोर ब्रह्मचर्य तप ऋद्धि- आजीवन तपश्चरण में विपरीत
परिस्थिति मिलने पर भी स्वप्न में भी ब्रह्मचर्य से न डिगने की शक्ति।

आमर्ष-सर्वौषधयस्तथाशीर्विषाविषा दृष्टिविषाविषाश्च |
स-खिल्ल-विड्ज्जल-मलौषधीशाःस्वस्ति-क्रियासुः-परमर्षयो नः ॥९॥

अन्वयार्थ:
आम
षौषधि, सर्वौषधि, आशीर्विषौषधि, आशीरविषौषधि,दृष्टिविषौषधि, दृष्टि-अविषौषधि, क्ष्वेलौषधि, विडौषधि,जलौषधि तथा मलौषधि ऋद्धियों से सम्पन्न परम ऋषिगण हमारा मंगल करें। ९।

४९ . आमर्ष औषधि ऋद्धि – समीप आकर जिनके बोलने या छूने से ही सब रोग दूर हो जाएँ-ऐसी शक्ति।
५०. सर्वौषधि ऋद्धि – जिनका शरीर स्पर्श करनेवाली वायु ही समस्त रोगों को दूर कर दे-ऐसी शक्ति।
५१. आशीर्विषाऔषधि ऋद्धि – जिनके (कर्म उदय से क्रोधपूर्वक) वचन मात्र से ही शरीर में जहर फैल जाए-ऐसी शक्ति।
५२. आशीर्विषा औषधि ऋद्धि- महाविष व्याप्त अथवा रोगी भी जिनके आशीर्वचन सुनने से निरोग या निर्विष हो जाये-ऐसी शक्ति।
५३. दृष्टिविषा ऋद्धि- कर्मउदय से (क्रोध पूर्ण) दृष्टि मात्र से ही मृत्युदायी जहर फैल जाए ऐसी शक्ति।
५४. दृष्टिअविषा (दृष्टिनिर्विष) ऋद्धि- महाविषव्याप्त जीव भी जिनकी दृष्टि से निर्विष हो जाए-ऐसी शक्ति।
५५. क्ष्वेलौषधि ऋद्धि- जिनके थूक, कफ आदि से लगी हुई हवा के स्पर्श से ही रोग दूर हो जाए-ऐसी शक्ति।
५६. विडौषधि ऋद्धि- जिनके मल (विष्ठा) से स्पर्श की हुई वायु ही रोगनाशक हो-ऐसी शक्ति।
५७. जलौषधि ऋद्धि- जिनके शरीर के जल (पसीने) में लगी हुई धूल ही महारोगहारी हो ऐसी शक्ति।
५८. मलौषधि ऋद्धि- जिनके दांत, कान, नाक, नेत्र आदि का मैल ही सर्व रोगनाशक होता है, उसे मलौषधि ऋद्धि कहते हैं।

क्षीरं स्रवंतोऽत्र घृतं स्रवंतः, मधु स्रवंतोऽप्यमृतं स्रवंतः |
अक्षीणसंवास-महानसाश्च स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥१०॥

अन्वयार्थ:
क्षीरस्रावी, घृतस्रावी, मधुस्रावी, अमृतस्रावी , अक्षीण-संवास , तथा अक्षीण-महानस ऋद्धियों से सम्पन्न परम ऋषिगण हमारा मंगल करें। १०|

५९ . क्षीरस्रावी ऋद्धि- जिससे नीरस भोजन भी हाथों में आते ही दूध (दोहा) के समान गुणकारी हो जाए अथवा जिनके वचन सुनने से क्षीण-पुरुष भी दूध-पान के समान बल को प्राप्त करे ऐसी शक्ति।
६०. घृतस्रावी ऋद्धि- जिससे नीरस भोजन भी हाथों में आते ही घी के समान बलवर्धक हो जाए अथवा जिनके वचन घृत के समान तृप्ति करें ऐसी शक्ति।
६१. मधुस्रावी ऋद्धि- जिससे नीरस भोजन भी हाथों में आते ही मधुर हो जाए अथवा जिनके वचन सुनकर दुःखी प्राणी भी साता का अनुभव करें ऐसी शक्ति।
६२. अमृतस्रावी ऋद्धि- जिससे नीरस भोजन भी हाथों में आते ही अमृत के समान पुष्टि कारक हो जाए अथवा जिनके वचन अमृत के समान आरोग्य कारी हों ऐसी शक्ति।
६३. अक्षीणसंवास ऋद्धि- ऐसी ऋद्धिधारी जहाँ ठहरे हों, वहाँ चक्रवर्ती की विशाल सेना भी बिना कठिनाई के ठहर सके-ऐसी शक्ति।
६४. अक्षीण महानस ऋद्धि- इस ऋद्धि के धारी जिस चौके में आहार करे-वहाँ चक्रवर्ती की सेना के लिये भी भोजन कम न पड़े-ऐसी शक्ति।

॥इति परमर्षि-स्वस्ति-मंगल-विधान पुष्पांजलि क्षिपामि।।

INDEX

Updated By : Sou Tejashri Wadkar And Shri Shashank Shaha

You cannot copy content of this page