Author: Ganini Aryika Shri 105 Gyanmati Mataji Language : Hindi Rhythm:
Type: Baaees Parishah Particulars: Paath Created By: Shashank Shaha
देवशास्त्र गुरु को नमू, नमू जोड़ के हाथ द्वाविंशति परिषह लिखूं, लखूँ स्वात्म सुखनाथ॥ आप आप में नित बसूं, मिटे सकल परिताप निज आतम वैभव भजूं, संजू आपको आप॥
१. क्षुधा परिषह जय
अग्निशिखासमक्षुदावेदना, मुनिजन वन में सहते हैं बेला तेला पक्ष मास का, अनशन कर तप तपते हैं नरक पशुगति क्षुदा वेदना, का नित चिन्तन करते हैं इस विधि आतम चिंतनकर नित, क्षुदा परिषह सहते हैं॥१॥
अन्वयार्थ: १. क्षुधा (भूख) – आहार न मिलने, अन्तराय होने पर क्षुधा वेदना को समता पूर्वक सहन करना ‘क्षुधा परीषह जय‘ है।
२. तृषा परिषह जय
ग्रीष्मकाल में तन तपने से, प्यास सताती यतियों को तपा तपा तन कर्म खिपाते, चहुंगति पीर मिटाने को॥ प्यास पीर को चीर चीरकर, शांति नीर को पीते हैं इस विधि मुनिजन प्यास परिषह, ग्रीष्म ऋतु में सहते हैं॥२॥
अन्वयार्थ: २. तृषा (प्यास) – ग्रीष्म की तपन से, अंतराय होने से प्यास की वेदना को शांत भाव से सहना ‘तृषा परीषह जय‘ है।
३. शीत परिषह जय
कप कप कप कपती रहती, शीत पवन से देह सदा तथापि आतम चिंतवन में वे, कहते मम यह काय जुदा॥ शीतकाल में सरिता तट पर, ऋषिगण ध्यान लगाते हैं कर्मिंधन को जला जलाकर, शीत परिषह सहते हैं॥३॥
अन्वयार्थ: ३. शीत (ठंड) – भयंकर सर्दी पड़ने पर, शीत लहर चलने पर संतोष रूप से शीत वेदना को सहना ‘शीत परिषह जय‘ है।
४. उष्ण परिषह जय
तप्त धरातन अन्तरतल में, धग धग धग धग करती है उपर नीचे आगे पीछे, दिशि में तप तप तपता है॥ तप्तशिला पर बैठे साधुजन, तथापि तपरत रहते हैं निर्जन वन में अहो निरंतर, उष्ण परिषह सहते हैं॥४॥
अन्वयार्थ: ४. ग्रीष्म (गरमी) – गरम-गरम हवाएं चलने पर, विहार में मार्ग तप जाने पर, गले और तालू सूख जाने पर भी प्राणी मात्र रक्षा भाव से कष्टों को सहना ‘उष्ण परीषह जय‘ है।
५. डंसमक परिषह जय
दंश मक्षिका की परिषह को, मुनिजन वन में सहते हैं रात समय में खड़े-खड़े वे, आतम चिंत्तवन करते हैं॥ डांस मक्खियां मुनि तन पर जब, कारखून को पीते हैं नहीं उड़ाकर उन जीवों पर, समता रख नित सहते हैं॥५॥
अन्वयार्थ: ५. दंशमशक – मच्छर, मक्खी, खटमल, चींटी, बिच्छू आदि के द्वारा की गई पीड़ा को अशुभ कर्मों का उदय मानकर शान्त भाव से सहना।
६. नग्न परिषह जय
नग्न तन पर कीड़े निश दिन, चढ़कर डसते रहते हैं दुष्ट लोग भी नग्न मुनिश्वर, समता धर नित सहते हैं॥ इन सबको वे नग्न देखकर, खिलखिलकर हंसते रहते हैं निर्विकार बन निरालम्ब मुनि, नग्न परिषह सहते हैं॥६॥
अन्वयार्थ: ६. नाग्न्य – हिंसा आदि दोषों से रहित निष्परिग्रह रूप; जो मोक्ष का अनिवार्य साधन है, ऐसा बालकवत् सहज निर्विकार दिगम्बर रूप धारण करते हैं। अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। अज्ञानियों द्वारा अपशब्द कहने पर मन में किसी प्रकार का विकार नहीं लाते।
७. अरती परिषह जय
तन रति तजकर तपरत होकर, मुनि जब वन में रहते हैं क्रूर प्राणिजन सदा मुनि के, निकट उपस्थित रहते हैं॥ तथापि आगमरूपी अमृत, पी मुनि ध्यान लगाते हैं अमृत पीकर निर्भय होकर, अरति परिषह सहते हैं॥७॥
अन्वयार्थ: ७. अरति (वीतरागता) – अपने तन से भी राग तजकर, अप्रतिकूल क्षेत्रादि मिलने पर, भूख-प्यास की वेदना होने पर संयम रखना।
८. स्त्री परिषह जय
काम वाण से उद्रेकित, यौवन वती वनिता आती है निर्जन वन में देख मुनि को, मधुर स्वरों में गाती है॥ तथापि अविचल निर्विकार मुनि, वनिता परिषह सहते हैं आत्म ब्रह्म में दृढतर रह मुनि, कर्म निर्जरा करते हैं॥८॥
अन्वयार्थ: ८. स्त्री – अपने ब्रह्मचर्य में अडिग रहना, एकान्त स्थान में स्त्रियों द्वारा अनेक कुचेष्टाएं करने पर भी राग में नहीं फंसना ‘स्त्री परीषह जय‘ है।
९. चर्या परिषह जय
कंकर पत्थर चुभकर पथ में, घाव बना कर पगतल में कमलपत्र सम कोमल पग से, खून बह रहा जंगल में॥ तथापि मुनिजन मुक्तिरमा से, रति रख चलते रहते हैं मुमुक्षु बनकर मोक्षमार्ग में, चर्या परिषह सहते हैं॥९॥
अन्वयार्थ: ९. चर्या (आचरण) – विहार करते समय कांटा चुभने पर, छाले पड़ने पर, पैर छिल जाने पर, कंकड़ आदि उपसर्ग समता भाव से सहना।
१०. आसन परिषह जय
गिरिगुफायाकाननमेंजब, कठिनासन पर ऋषि रहते कई उपद्रव होने पर भी, आसन विचलित नहि करते॥ अचलासन पर अपने मन को, स्थापित अपने में करते मुक्तिरमा पाने को मुनि, निषध्या परिषह को सहते॥१०॥
अन्वयार्थ: १०. निषद्या – भयंकर श्मशान, वन पहाड़, गुफा आदि में बैठकर ध्यान करते समय उपसर्गों को सहन करना, विचलित नहीं होना।
११. शयन परिषह जय
ध्यान परिश्रम शम करने यति, दो घड़ी निशि में सोते हैं तथापि मन को वश रख निद्रा, एक करवट से लेते हैं॥ तदा मुनि पर महा उपद्रव, वन पशु करते रहते हैं तथापि करवट अविचल रखकर, शय्या परिषह सहते हैं॥११॥
अन्वयार्थ: ११. शय्या (पलंग) – छह आवश्यक कर्म, स्वाध्याय, ध्यान आदि करने से उत्पन्न थकान दूर करने के लिए कठोर कंकरीले आदि स्थानों पर एक करवट से निद्रा लेना, उपसर्ग आने पर भी शरीर को चलायमान नहीं करना।
१२. आक्रोश परिषह जय
अज्ञानी जन गाली देकर, पागल कह कर हँसते हैं वचन तिरस्कार कह फिर नंगा, लुच्चा कहते रहते हैं॥ दुष्टों से मुनि गाली सुनकर, जरा भी क्लेश नहीं करते समता सागर बन मुनि इस, आक्रोश परिषह को सहते॥१२॥
अन्वयार्थ: १२. आक्रोश – क्रोधादि के निमित्त मिलने पर क्षमा धारण करते हुए शान्त रहना।
१३. वध-बंधन परिषह जय
सघन वनों में व शहरों में, जब मुनि विहार करते हैं दुष्ट जनों के वध बन्धन, ताड़न भी पथ सहते हैं॥ प्राण हरण करने वाले उस, वध परिषह को सहते हैं क्षमता रख मुनि मौन धार कर, कर्म निर्जरा करते हैं॥१३॥
अन्वयार्थ: १३. वध तलवार आदि शस्त्रों के द्वारा, कंकड़ पत्थर द्वारा, शरीर पर प्रहार करने वालों से भी द्वेष नहीं करना।
१४. याचना परिषह जय
अहोकलेवरसूखगयाहै, रोग भयानक होने से तथापि मुनिवर अनशन करते, भय नहीं रखते कर्मो से॥ ऐसे मुनिवर पुर में आ जब, अहो पारणा करते हैं औषधि जल तक नहीं याचना, करते परिषह सहते हैं॥१४॥
अन्वयार्थ: १४. याचना आवश्यकता होने पर भी औषधादि नहीं माँगना।
१५. आलाभ परिषह जय
पक्ष मास का अनशन कर मुनि, गमन नगर में जब करते अन्नादिक का लाभ नहीं होने, पर तब वापिस आते॥ उस दिन उदराग्नि की पीड़ा, क्षण-क्षण पल-पल में सहते अहोसाधना पथ पर इस विध, अलाभ परिषह मुनि सहते॥१५॥
अन्वयार्थ: १५. अलाभ (हानि) कई दिनों तक आहार न मिलने पर भी संतोष धारण करना।
१६. रोग परिषह जय
भस्म भगंदर कुष्ट रोग के, होने पर भी नहीं डरते सतत वेदना रहने पर भी, उसका इलाज नहीं करते॥ जन्म जरा जो महारोग का, निशिदिन इलाज करते हैं तन रोगों पर समता रख कर, रोग परिषह सहते हैं॥१६॥
अन्वयार्थ: १६. रोग अनेक प्रकार की व्याधि आदि होने पर इलाज नहीं कराना, समता भाव से कर्मों की निर्जरा करना।
१७. तृन-स्पर्श परिषह जय
शुष्क पत्र जल कण तन पर, गिरने से खुजली चलती रहती तथापि मुनिवर नहीं खुजाते, वह तो चलती ही रहती॥ कण-कण कंकर कंटक चुभते, गमन समय में जंगल में इस तृण स्पर्श परिषह सह मुनि, कर्म खिपाते पल-पल में॥१७॥
अन्वयार्थ: १७. तृण (तिनका) – कठोर स्पर्श वाले तृण से उत्पन्न पीड़ा को सहन करना ‘तृण स्पर्श परीषह जय’ है।
१८. मल परिषह जय
पाप कर्म मल विनाश करने, मल परिषह मुनि नित सहते जल जीवों पर दया धारकर, स्नान को हमेशा तजते॥ श्रुत गंगा में वीतराग जल से, स्नान किया करते तथापि मुनिवर अर्धजले, शव के सम निशदिन हैं दिखते॥१८॥
अन्वयार्थ: १८. मल शरीर पर मैल, पसीना जम जाने आदि पर मन में किसी प्रकार की ग्लानि नहीं रखना ‘मल परीषह जय‘ है।
१९. सत्कार-पुरस्कार परिषह जय
मुनि की स्तुति नमन प्रशंसा, करना यह सुन है सत्कार आगे रखकर पीछे चलना, पुरस्कार हैं गुण भंडार॥ परन्तु यदि कोई जग मे, स्तुति या विनयादिक नहीं करते पुरस्कार सत्कार परिषह को, नित तब मुनि है सहते॥१९॥
अन्वयार्थ: १९. सत्कार पुरस्कार – अपने गुणों में अधिकता होने पर भी यदि कोई सत्कार न करे, प्रशंसा न करे तो भी चित्त में व्याकुलता नहीं होना तथा प्रशंसा होने पर भी अधिक प्रसन्न न होना।
२०. प्रज्ञा परिषह जय
मैं पंडित हूं ज्ञानी हूं मैं, द्वादशांग का पाठी हूँ इस जग में महाकवि हूँ, सब तत्त्वों का ज्ञाता हूँ॥ इस विध बुध मुनि कदापि मन में, वृथा गर्व नहीं करते हैं निरभिमान हो मोक्षमार्ग में, प्रज्ञा परिषह सहते हैं॥२०॥
अन्वयार्थ: २०. प्रज्ञा (बुद्धि) – कदापि अपने ज्ञान का अभिमान नहीं करते ‘प्रज्ञा परिषह‘ सहते हैं।
२१. अज्ञान परिषह जय
अहो सुनो यह ज्ञानहीन मुनि, वृथा जगत में तप तपता कठिन तपस्या करने पर भी, श्रुत में विकास नहीं दिखता॥ इस विध मुनि को मूढमति जन, वचन तिरस्कृत कर कहते तदा कर्म का पाक समझ, अज्ञान परिषह मुनि सहते॥२१॥
अन्वयार्थ: २१. अज्ञान बार-बार अभ्यास करते हुए भी ज्ञान की उपलब्धि न होने पर लोगों के द्वारा किए गए तिरस्कार को समता पूर्वक सहन करना ‘अज्ञान परीषह जय‘ है।
२२. अदर्शन परिषह जय
मैं तप तपता दीर्घकाल से, पर कुछ अतिशय नहीं दिखता सुरजन अतिशय करते कहना, मात्र कथन ही है दिखता॥ इस विध दृगधारी मुनि मन में, कलुष भाव नहीं रखते हैं पर वांछा को छोड़ अदर्शन, परिषह नित मुनि सहते हैं॥२२॥
अन्वयार्थ: २२. अदर्शन बहुत समय तक कठोर तपस्या करने पर भी विशेष ज्ञान या ऋद्धियाँ प्राप्त नहीं होने पर भी दर्शन के प्रति अश्रद्धा भाव नहीं रखना ‘अदर्शन परीषह जय‘ है।