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आचार्य मानतुंग कृत

"भक्तामरस्तोत्रम"

दिगंबर जैन विकी द्वारा प्रस्तुत

17. सर्व उदर पीडा नाशक

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नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति।

नाम्भोधरोदर-निरुद्ध महा-प्रभावः, सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र लोके ।।१७।।

अन्वयार्थ – (मुनीन्द्र) हे मुनियों के इन्द्र [त्वम्] तुम (कदाचित्) कभी (अस्तम्) अस्त को (न उपयासि) प्राप्त नहीं होते (राहुगम्यः) राहू से प्राप्त (न) नहीं [असि] हो (अम्भोधरोदर-निरुद्धमहाप्रभावः) बादलों के बीच में छिप जाता है महान तेज जिसका ऐसे (न) नहीं [असि] हो [च] तथा (जगन्ति) तीनों लोकों को (युगपत्) एक साथ (सहसा) सहज ही (स्पष्टीकरोषि) प्रकाशित करते हो [इति] इस प्रकार [सूर्यातिशायिमहिमा] सूर्य से अधिक महिमावान [अस] हो ।।१७।।

भावार्थ – हे मुनिनाथ! आपकी महिमा सूर्य से भी अधिक है। क्योंकि सूर्य सन्ध्या समय अस्त हो जाता है, परन्तु आप सदा प्रकाशित रहते हैं। सूर्य को राहु ग्रस लेता है, परन्तु आज तक वह आपका स्पर्श तक नहीं कर सका। सूर्य दिन में क्रम क्रम से केवल एक द्वीप के अर्धभाग को ही प्रकाशित करता है परन्तु आप समस्त लोक को एक साथ प्रकाशित करते हैं। सूर्य के प्रकाश को मेघ ढक देते हैं, परन्तु आपके प्रकाश (ज्ञान) को कोई भी नहीं ढक सकता ।।१७।।

Nastam kadachidupayasi na rahugamyah spashtikaroshi sahasa yugapajjaganti. Nnambhodharodara niruddha maha prabhavah suryatishayimahimasi munindra! loke

O Great one ! Your glory is greater than that of the sun. The sun rises every day but sets as well. The sun suffers eclipse, is obstructed by the clouds, but you are no such sun. Your infinite virtues and passionlessness cannot be eclipsed. The sun slowly shines over different parts of the world, but the glory of your omniscience reaches every part of the world, all at once.

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18. शत्रु सेना स्तम्भक

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नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं, गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम्।

विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति, विद्योतयज्जगद-पूर्वशशाङ्कबिम्बम् ।।१८।।

अन्वयार्थ – (नित्योदयम्) सदा उदित रहने वाला (दलितमोहम-हान्धकारम्) मोहरूपी महान् अन्धकार का नाशक (राहुवदनस्य) राहू के मुख के (न गम्यम्) ग्रास के अयोग्य (वारिदानाम्) मेघों के (न गम्यम्) ढकने के अयोग्य (अनल्पकान्ति) अधिक कान्ति वाला [च] तथा (जगत्) संसार को (विद्योतयत्) प्रकाशित करने वाला (तव) तुम्हारा (मुखाब्जम्) मुखकमल (पूर्वशाङ्कबिम्बम्) विलक्षण चन्द्र के बिम्बरूप (विभ्राजते) शोभित होता है ।।१८।।

भावार्थ – हे चन्द्रवदन! आपका मुखकमल एक विलक्षण चन्द्रमा है। क्योंकि प्रसिद्ध चन्द्र तो रात्रि में ही उदित होता है, परन्तु आपका मुखचन्द्र सदा उदित रहता है। चन्द्रमा साधारण अन्धकार का ही नाश करता है, परन्तु आपका मुखचन्द्र मोहरूपी महान् अन्धकार को नष्ट कर देता है। चन्द्रमा को राहू ग्रस लेता है और बादल छिपा देते हैं, परन्तु आपके मुखचन्द्र को न राहु ग्रस सकता है और न बादल छिपा सकते हैं। चन्द्रकी कान्ति कृष्णपक्ष में घट जाती है, परन्तु आपके मुखचन्द्र की कान्ति सदा सदृश रहती है। तथा चन्द्रमा रात्रि में क्रम क्रम से केवल अर्धद्वीप को ही प्रकाशित करता है, परन्तु आपका मुखचन्द्र समस्त लोक को एक साथ प्रकाशित करता है ।।१८।।

Nityodayam dalitamoha mahandhakaram gamyam na rahuvadanasya na varidanam. Vibhrajate tava mukhabjamanalpakanti vidyotayajjagadapurvashashanka bimbam.

O Master! Your beautiful face transcends the moon. The moon shines only at night but your face is always beaming. The moon light dispels darkness only to a some level, your face dispels the delusion of ignorance and desire. The moon is eclipsed as well as obscured by clouds, but there is nothing that can shadow your face.

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19. जादू-टोना-प्रभाव नाशक

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कि शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा, युष्मन्मुखेन्दुदलितेषु तमःसु नाथ!

निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके, कार्य कियज्जलधरै जलभारनम्र: ॥१९॥

अन्वयार्थ – (नाथ) हे स्वामिन् (तमसु) अन्धकारों के (युष्मन्मुखेन्दुदलितेषु) आपके मुखचन्द्र से ही नष्ट हो जाने पर (शर्वरीषु) रात में (शशिना) चन्द्रमा से (वा) अथवा (अहिन) दिन में (विवस्वता) सूर्य से (किम्) क्या लाभ [अस्ति] है? [ यथा] जैसे (निष्पन्नशालिवनशालिनि) परिपक्वधान्य के खेतों से सुशोभित (जीवलोके) संसार में (जलभारनम्रः) जल के बोझ से झुके हुये (जलधरैः) मेघों से (कियत्) क्या (कार्यम्) प्रयोजन [अस्ति] है ॥१९॥

भावार्थ- हे त्रिलोकीनाथ! जिस प्रकार अनाज के पक जाने पर जल का बरसना व्यर्थ है; क्योंकि उस जल से कीचड़ होने के सिवाय और कोई लाभ नहीं होता, उसी प्रकार आपके मुखचन्द्र के द्वारा जहां अन्धकार नष्ट हो चुका है, वहां दिन में सूर्य से और रात्रि में चन्द्र से कोई लाभ नहीं ॥१९॥

Kim sharvarishu shashinanhi vivasvata va yushman mukhendu daliteshu tamassu natha! Nishpanna shalivana shalini jivaloke karyam kiyajjaladharairjalabhara namraih.

O God ! Your aura dispels the perpetual darkness. The sun beams during the day and the moon during the night, but your ever radiant face sweeps away the darkness of the universe. Once the crop is ripe what is the need of the cloud full of rain.

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20. संतान-लक्ष्मी-सौभाग्य-विजय बुद्धी दायक

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ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु।

तेजोमहामणिषु याति यथा महत्त्वं, नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि॥२०॥

अन्वयार्थ – (कृतावकाशम्) अनन्तपर्यायात्मक पदार्थों का प्रकाशक (ज्ञानम्) ज्ञान (यथा) जैसा (त्वयि) आपमें (विभाति) शोभायमान होता है (तथा) वैसा ज्ञान हरिहरादिषु) विष्णु और शङ्कर आदि (नायकेषु) देवों में (न विभाति) शोभायमान नहीं होता [यथा] जिस प्रकार (तेजः) प्रकाश (स्फुरन्मणिपु) स्फूरायमान मणियों में (यथा) जैसे (महत्त्वम्) गौरव को (याति) प्राप्त होता है (एवं तु) वैसा (किरणाकुले) चमकते हुये (अपि) भी (काचशकले) कांचके टुकड़े में (न) नहीं। ॥२०॥

भावार्थ – हे सर्वज्ञ ! निज और पर का प्रकाशक तथा निर्मल जैसा ज्ञान आप में सुशोभित होता है, वैसा ज्ञान ब्रह्मा, विष्णु, महेन आदि किसी अन्य देव में नहीं होता। क्योंकि तेज की शोभा महामणि में होती है; न कि कांचके टुकड़े में ॥२०॥

Jyanam yatha tvayi vibhati kritavakasham naivam tatha Hari Haradishu nayakeshu. Tejo sfuran manishu yati yatha mahattvam naivam tu kachashakale kiranakuleapi.

O Supreme God! The infinite and eternal knowledge that you have, is not possessed by any other deity in this world. Indeed,the splendour and shine of priceless jewels can not be seen in the glass pieces shining in the light.

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21. सर्व-वशीकरण

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मन्ये वरं हरिहरादय एवं दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति।

कि वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः, कश्चिन्मनो हरति नाथ! भवान्तरेऽपि ॥२१॥

अन्वयार्थ – (नाथ) हे स्वामिन् (मन्ये) मैं मानता हूं [यत्] कि (दृष्टाः) देखे गये (हरिहरादयः) विष्णु और महादेव आदि देव (एव) ही (वरम्) अच्छे हैं (येषु) जिनके (दृष्टेषु सत्सु) देखे जाने पर (हृदयम्) चित्त (त्वयि) आपमें (तोषम्) सन्तोष की (एति) पाता है, किन्तु (वीक्षितेन) देखे गये (भवता) आपसे (किम्) क्या लाभ [अस्ति] है (येन) जिससे (भुवि) पृथिवी पर (कश्चित्) कोई (अन्यः) दूसरा (देवः) देव (भवान्तरे) जन्म जन्मान्तरों में (अपि) भी (मनः) चित्त को (न हरति) सन्तोष नहीं कर सकता ॥२१॥

भावार्थ – हे लोकोत्तम! दूसरे देवों के देखने से तो आप में संतोष होता है यह लाभ है, परन्तु आपके देखने से अन्य किसी देव की ओर चित्त नहीं जाता यह हानि है। अथवा हरिहरादिक देवों का देखना अच्छा है, क्योंकि वे रागी द्वेषी हैं; उन के दर्शन से चित्त सन्तुष्ट नहीं होता तब आपके दर्शन को लालायित होता है, क्योंकि आप वीतराग हैं। आपके दर्शन से चित्त इतना सन्तुष्ट होता है कि मृत्यु के बाद वह किसी दूसरे देव का दर्शन नहीं करना चाहता! यहां व्याजोक्ति अलङ्कार है ॥२१॥

Manye varam Hari Haradaya eva drishta drishteshu yeshu hridayam tvayitoshameti. Kim vikshitena bhavata bhuviyena nanyah kashchinmano harati natha ! bhavantareapi.

O Ultimate Lord ! It is good that I have seen other deities before seeing you.The dissatisfaction even after seeing them has been removed by the glance of your detached and serene expression. That I have seen the supreme I can not be satisfied with anything less.

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22. भूत-पिशाचादि व्यंतर बाधा निरोधक

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स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रा –नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।

सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मिं, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् ॥२२॥

अन्वयार्थं – [स्त्रीणां शतानि] सैकड़ों स्त्रियां (शतशः) सैकड़ों (पुत्रान्) पुत्रों को (जनयन्ति) पैदा करती हैं, किन्तु (त्वदुपमम्) आप जैसे (सुतम्) पुत्र को (अन्या) दूसरी (जननी) माता (न प्रसूता) उत्पन्न नहीं कर सकी [यथा] जैसे (भानि) नक्षत्रों को (सर्वाः) समस्त (दिशः) दिशाएं (दधति) धारण करती हैं, परन्तु (स्फुरदंशुजालम्) देदीप्यमान किरणसमूह सहित (सहस्ररश्मिम्) सूर्य को (प्राची) पूर्व (दिक्) दिशा (एव) ही (जनयति) प्रगट करती है ॥२२॥

भावार्थ – हे महीतिलक! जिस प्रकार सूर्य को पूर्व दिशा ही उत्पन्न करती है; अन्य दिशाएं नहीं, उसी प्रकार एक आपकी माता ही ऐसी हैं जो आप जैसे पुत्ररत्न को पैदा कर सकीं, अन्य किसी माता को ऐसे पुत्ररत्न को पैदा करने का सौभाग्य उपलब्ध नहीं हुआ ॥२२॥

Strinam shatani shatasho janayanti putran nanya sutam tvadupamam janani prasuta. Sarva disho dadhati bhani sahasrarashmim prachyeva digjanayati sphuradamshujalam.

O the great one! Infinite stars and planets can be seen in all directions but the sun rises only in the East. Similarly numerous women give birth to sons but a remarkable son like you was born only to one mother; you are very special.

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23. प्रेत बाधा निवारक

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त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस-मादित्यवर्णममलं तमसः परस्तात्।

त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्युं, नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः ॥२३॥

अन्वयार्थ – (मुनीन्द्र) हे मुनिनाथ [मुनयः] ऋषिगण (त्वाम्) तुम्हें (आदित्यवर्णम्) सूर्य के सामान तेजस्वी (अमलम्) निर्मल [च] तथा (तमसः परस्तात्) मोहरूप अन्धकार से रहित (परमं पुमांसम्) परमपुरुष (आमनन्ति) मानते हैं (त्वाम्) तुम्हें (एव) ही (सम्यक्) भली प्रकार (उपलभ्य) प्राप्त कर (मृत्युम्) मृत्यु को (जयन्ति) जीतते हैं, तथा (शिवपदस्य) मोक्षपद का (अन्यः) आपसे भिन्न कोई दूसरा (शिव) हितकर (पन्थाः) रास्ता (न) नहीं [अस्ति] है ॥२३॥

भावार्थ- हे योगीन्द्र! मुनिजन आपको परमपुरुष, कर्ममलरहित होने से निर्मल, मोहान्धकार का नाशक होने से सूर्य के समान तेजस्वी, आपकी प्राप्ति से मृत्यु न होने के कारण मृत्युञ्जय तथा आपके अतिरिक्त कोई दूसरा निरुपद्रव मोक्ष का मार्ग नहीं होने से आपको ही मोक्षमार्ग मानते हैं ॥२३॥

Tvamamanati munayah paramam pumamsham adityavaranam amalam tamasah purastat. Tvameva samyagupalabhya jayanti mrityum nanya shivah shivapadasya munindra ! panthah.

O monk of monks ! All monks believe you to be the supreme being beyond the darkness, splendid as the sun. You are free from attachment and disinclination and beyond the gloom of ignorance. One obtains immortality by discerning, understanding, and following the path of purity you have shown. There is no path leading to salvation other than the one you have shown.

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24. शिर-पीडा नाशक

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त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसङख्यमाद्यं, ब्रह्माणमीश्वर-मनन्त-मनङ्गकेतुम्।

योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं, ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥२४॥

अन्वयार्थ – (सन्तः) विद्वज्जन (त्वाम्) तुम्हें (अव्ययम्) अक्षय (विभुम्) विभु (अचिन्तयम्) अचिन्त्य (असंख्यम्) असंख्य (आद्यम्) आदिपुरुष (ब्रह्माणम्) ब्रह्मा (ईश्वरम्) योगीश्वर (अनन्तम्) अनन्त (अनङ्गकेतुम्) अनङ्गकेतु (योगीश्वरम्) योगीश्वर (विदितयोगम्) विदितयोग (अनेकम्) अनेक (एकम्) एक (ज्ञानस्वरूपम्) ज्ञानस्वरूप [च] और (अमलम्) अमल (प्रवदन्ति) कहते हैं ॥२४॥

भावार्थ – हे गुणार्णव! आपकी आत्मा का कभी नाश नहीं होने से अव्यय अथवा (अविनाशी), ज्ञान के लोकत्रय व्यापी होने से अथवा कर्मनाश में समर्थ होने से स्वरूप से अचिन्त्य संख्यातीत या अद्भुत गुणयुक्त होने से असंख्य युगादिजन्मा या वर्तमान चौबीसी के प्रथम होने से आद्य (प्रथम), कर्मरहित या निवृत्तिरूप होने से ब्रह्मा, कृत्कृत्य होने से ईश्वर, अन्तरहित होने से अनन्त कामनाश के लिए केतुग्रह के उदय समान होने से अनङ्गकेतु, मुनियों के स्वामी होने से योगीश्वर, रत्नत्रयरूप के ज्ञाता होने से विदितयोग, गुणों और पर्यायों की अपेक्षा अनेक, तीर्थङ्करीय भेद की अपेक्षा एक, केवलज्ञानी होने से ज्ञानस्वरूप तथा कर्ममलरहित होने से अमल कहे जाते हैं। अर्थात् ऋषिगण पृथक गुणों की अपेक्षा आपको अव्यय आदि कहकर स्तुति पृथक् पृथक करते हैं ॥२४॥

Tvamavayam vibhumachintya masankhyamadyam Brahmanamishvaramanantamanangaketum. Yogishvaram viditayogamanekamekam jnanasvarupamanmalam pravadanti santah.

O God ! After having seen you in different perspectives, monks hail you as: Indestructible and all composite, All pervading, Unfathomable, Infinite in virtues, Progenitor (of philosophy), Perpetually blissful,Majestic, having shed all the karmas, eternal, Serene with respect to sensuality, Omniscient in form, and free from all vices.

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References and Thanks

  1. Bhaktambar Stotra – Acharya Mantung
  2. Audio : Bhaktambar Stotra by Ravindra Jain – Link
  3. English Translation – Wikipedia – Link
  4. Images : Bhaktambar book by Muni Shri 108 Akshay Sagarji Maharaj – Link
  5. Yantra Details Reference : Bhaktambar book by Mohan Lal Shastri, Jabalpur – Link
  6. Incredible support for creating the stotra page online : Shashank Shah ( Daund), Mahavir Bhaiya (Jaisinghpur) Anuja Akash Modi ( Pune),

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