दिगंबर जैन विकी द्वारा प्रस्तुत
अन्वयार्थ – (तव) तुम्हारा ( अस्तसमस्तदोषम्) निर्दोष (स्तवनम्) स्तवन (आस्ताम्) दूर रहे, किन्तु (त्वत्सङ्कथा) तुम्हारी पवित्र कथा (अपि) भी (जगताम्) प्राणियों के (दुरितानि) पापों को (हन्ति) नष्ट कर देती है [तथा] जैसे (सहस्रकिरणः) सूर्य (दूरे) दूर [तिष्ठति] रहता है, किन्तु (प्रभा) सूर्य की किरण (एव) ही (पद्माकरेषु) तालाबों में (जलजानि) कमलों को (विकासभाजि) विकसित (कुरुते) करती है ॥९॥
भावार्थ- हे जिनेश! आपके निर्दोष स्तवन में तो अचिन्त्य शक्ति है ही, परन्तु आपकी पवित्र कथा का सुनना ही प्राणियों के पापों को नष्ट कर देता है। जैसे सूर्य तो दूर ही रहता है, परन्तु उसकी उज्ज्वल किरणें ही सरोवरों में कमलों को विकसित कर देती हैं ॥९॥
Astam tava stavanam astasamasta dosham tvat samkathapi jagatam duritanihanti Dure sahasrakiranah kurute prabhaiva padmakareshu jalajani vikasha bhanji.
The mere utterance of the great Lord’s name with devotion, destroys the sins of the living beings and purifies them just like the brilliant sun, which is millions of miles away; still, at the break of day, its soft glow makes the drooping lotus buds bloom.
अन्वयार्थ – (भुवनभूषण) हे संसार के भूषण (भूतनाथ) प्राणियों के स्वामी (भूतैः) सच्चे (गुणैः) गुणों के द्वारा (भवन्तम्) आपकी (अभिष्टुवन्तः) स्तुति करने वाले पुरुष (भुवि) पृथिवी पर (भवतः) आपके (तुल्याः) समान (भवन्ति) हो जाते हैं (इदम्) यह (प्रत्यद्- भुतम्) विशेष प्राश्चर्य की बात (न) नहीं (अस्ति) है (ननु) अथवा (तेन) उस स्वामी से (किम्) क्या प्रयोजन है? (यः) जो (इह) इस लोक में (आश्रितम्) अपने अधीन व्यक्ति को (भूत्या) सम्पत्ति से (आत्मसमम्) अपने बराबर [न करोति] नहीं करता ॥१०॥
भावार्थ – हे भुवनरत्न यदि सत्यार्थ गुणों द्वारा आपकी स्तुति करने वाले मानव आपके ही सदृश हो जांय तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि संसार में उस स्वामी से लाभ ही क्या? जो अपने अधीन व्यक्तियों को अपने समान नहीं बना लेवे ॥१०॥
Natyadbhutam bhuvana bhushana ! bhutanatha bhutairgunairbhuvi bhavantam abhishtuvantah. Tulya bhavanti bhavato nanu tena kim va bhutyashritam ya iha natmasamam karoti
O Lord of beings ! O Ornament of the universe! It is no wonder that he who is engaged in praising your infinite virtues (imbibing the virtues in his conduct) attains your exhilarated position.It should not be surprising if a benevolent master makes his subjects his equals. In fact, what is the purpose of serving a master who does not allow his subjects to prosper to an elevated position like his ?
अन्वयार्थ – (अनिमेषविलोकनीयम्) बिना पलक झपाये टकटकी से देखने योग्य (भवन्तम्) आपको (दृष्ट्वा) देखकर (जनस्य) मनुष्यों के (चक्षुः) नेत्र (अन्यत्र) दूसरे देवों में (तोषम्) सन्तोष को (न उपयाति) प्राप्त नहीं होते [यथा] जैसे (दुग्धसिन्धोः) क्षीरसमुद्र के (शशिकरद्युति) चन्द्रसमान क्रान्ति वाले (पयः) जल को (पीत्वा) पीकर (जलनिधेः) सामान्य समुद्र के (क्षारम्) खारे (जलम्) जल को (रसितुम्) पीने के लिये (कः) कौन मनुष्य (इच्छेत्) चाहेगा? ॥११॥
भावार्थ – हे लोकोत्तम! जैसे क्षीरसागर के निर्मल और मिष्ट जल का पान करने वाला मनुष्य अन्य समुद्र के खारे पानी को पीने की इच्छा नहीं करता, उसी तरह आपकी वीतरागमुद्रा को निरख कर मनुष्यों के नेत्र अन्य देवों की सरागमुद्रा को देखने से तृप्त नहीं होते ॥११॥
Drishtava bhavantam animesha vilokaniyam nanyatra toshamupayati janasya chakshuh.Pitva payah shashikaradyuti dugdha sindhohksharam jalam jalnidhe rasitum ka ichchhet?
O Great one ! Your divine grandeur is enchanting. Having once looked at your divine form, nothing else enthrals the eye. Obviously, who would like to drink the salty sea water after drinking fresh water of the divine milk-ocean, pure and comforting like the moonlight?
अन्वयार्थ – (त्रिभुवनैकललामभूत!) हे तीनों लोकों के अद्वितीय शिरोभूषणरूप (शान्तरागरुचिभिः) रागादिरहित उज्ज्वल (यैः) जिन (परमाणुभिः) परमाणुओं से (त्वम्) तुम (निर्मापित:) बनाये गये हो (ते) वे (अणवः) परमाणु (अपि) भी (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (खलु) निश्चय से (तावन्तः) उतने (एव) ही [बभूवुः] थे (यत्) क्योंकि (ते) तुम्हारे (समानम्) समान (रूपम्) रूप (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (अपरम्) दूसरा (न) नहीं (अस्ति) है ॥१२॥
भावार्थ – हे लोकशिरोमणे! आपके शरीर की रचना जिन पुद्गल परमाणुओं से हुई है, वे परमाणु लोक में उतने ही थे, यदि अधिक होते तो आप जैसा रूप और का भी होना चाहिये था, किन्तु वास्तव में आपके समान सुन्दर पृथिवी पर कोई दूसरा नहीं है ॥१२॥
Yaih shantaragaruchibhih paramanubhistavam nirmapitastribhuvanaika lalamabhuta Tavanta eva khalu teapyanavah prithivyam yatte samanam aparam na hi rupam asti.
O Supreme Ornament of the three worlds! As many indeed were the atoms filled with lustre of non-attachment, became extinct after constituting your body, therefore I do not witness such out of the world magnificence other than yours.
अन्वयार्थ – (सुरनरोरगनेत्रहारि) देव, मनुष्य और नागों के नेत्रों को हरण करनेवाला [च] तथा (निःशेषनिर्जितजगत्रितयोपमानम्) सम्पूर्णरूप से जीती हैं कमल, चन्द्र और दर्पण आदि सभी उपमायें जिसने ऐसा (क्व) कहां तो (ते) तुम्हारा (मुखम्) मुख [च] और (क्व) कहाँ (निशाकरस्य) चन्द्रमा का (कलङ्कमलिनम्) कलङ्क से मलिन (बिम्बम्) मण्डल (यत्) जो (वासरे) दिन में (पलाशकल्पम्) ढाक के पत्ते के समान (पाण्डु) पोला (भवति) हो जाता है ॥१३॥
भावार्थ- हे प्रभो! आपके मुख को चन्द्रमा की उपमा देने वाले विद्वान् गलती करते हैं, क्योंकि आपके मुख की प्रभा कभी फीकी नहीं पड़ती, परन्तु चद्रमा की प्रभा दिन में फीकी पड़ जाती है। तथा चन्द्रमा कलड़ी है, किन्तु आपका मुख कलङ्क-रहित हैं ॥१३॥
Vaktram kva te sura naroraga netra hari nihshesha nirjita jagat tritayopamanam. Bimbam kalanka malinam kva nishakarasya Yad vasare bhavati pandu palasha kalpam
Comparison of your lustrous face with the moon does not appear befitting. How can your scintillating face, that pleases the eyes of gods, angels, humans and other beings alike, be compared with the spotted moon that is dull and pale, during the day, as the Palasa leaves. Indeed, your face has surpassed all the standards of comparison.
अन्वयार्थ – (तव) तुम्हारे (सम्पूर्णमण्डलशशाङ्ककलाकलाप- शुभ्रा:) पूर्ण चन्द्रमण्डल की कलाओं के समान उज्ज्वल (गुणाः) गुण (त्रिभुवनम्) तीनों लोकों को (लङ्घयन्ति) उल्लङ्घन करते हैं [यतः] क्योंकि (ये) जो गुण (एकम्) अद्वितीय (त्रिजगदीश्वरनाथम्) तीनों लोकों के नाथों के नाथ को (संश्रिताः) आश्रित हैं (यथेष्टम्) इच्छा-नुसार (सञ्ञरते) विचरण करते हुये (तान्) उन गुणों को (क:) कौन (निवारयति) रोक सकता है ।।१४।।
भावार्थ – हे गुणाकर! जैसे किसी राजाधिराज के आश्रित व्यक्ति को जहां तहाँ इच्छानुसार घूमते रहते कोई रोक नहीं सकता, उसी प्रकार आपके आश्रित कीर्ति आदिक गुणों को त्रिलोक में कोई नहीं रोक सकता। अर्थात् आपके गुण लोकत्रय में व्याप्त हो रहे हैं ।।१४।।
Sampurna mandala shashanka kala kalapa shubhra gunastribhuvanam tava langhayanti Ye sanshritastrijagadishvara! nathamekam kastan nivarayati sancharato yatheshtam
O Master of the three worlds! Your innumerable virtues are radiating throughout the universe-even beyond the three worlds, surpassing the glow of the full moon; the hymns in praise of your virtues can be heard everywhere throughout the universe. Indeed, who can contain the movement of devotees of the only supreme Godhead like you?
अन्वयार्थ – (यदि) यदि (ते) तुम्हारा (मनः) मन (त्रिदशाङ्गनाभिः) देवाङ्गनाओं के द्वारा (मनाक्) लेशमात्र (अपि) भी (विकारमार्गम्) विकारमार्ग को (नानीतम्) नहीं प्राप्त हुआ [हि ] तो ( अत्र) इसमें (चित्रम्) आश्चर्य (किम्) क्या [अस्ति] है (यथा) जैसे (चलिताचलेन) पर्वतों को हिला देने वाली (कल्पान्तकालमरुता) प्रलयकाल की पवन से (मन्दराद्रिशिखरम्) सुमेरु पर्वत का शिखर (चलितं किम्?) हिलाया गया है क्या? ।।१५।।
भावार्थ – हे मनोविजयिन्! प्रलय की पवन से यद्यपि अनेक पर्वत कम्पित हो जाते हैं परन्तु सुमेरु पर्वत लेशमात्र भी चलायमान नहीं होता, उसी प्रकार देवाङ्गनाओं ने यद्यपि अनेक महान् देवों का चित्त चलायमान कर दिया, परन्तु आपका गम्भीर चित्त किसी के द्वारा लेशमात्र भी चलायमान नहीं किया जा सका ।।१५।।
Chitram kimatra yadi te tridashanganabhir nitam managapi mano na vikara margam. Kalpanta kala maruta chalitachalena kim mandaradri shikhiram chalitamkadachit
Celestial nymphs have tried their best to allure you through lewd gestures, but it is not surprising that your serenity has not been disturbed. Of course, is the great Mandara mountain shaken by the tremendous gale of the doomsday, that moves common hillocks?
अन्वयार्थ – (नाथ) हे स्वामिन् [त्वम्] तुम (निर्घूमवर्ती:) धूम तथा वाती रहित (अपवर्जिततैलपूर:) तेल से शून्य (चलिताच-लानाम्) पर्वतों को चलायमान करने वाले (मरुताम्) पवन के (जातु) कभी भी (न गम्यः) अगम्य [च] तथा (अपरः) अनोखे (दीपः) दीपक (असी) हो (तथा) और [त्वम्] तुम (इदम्) इस (कृत्स्नम्) समस्त (जगत्त्रयम्) त्रिभुवन को (प्रकटीकरोषि) प्रकाशित करते हो ।।१६।।
भावार्थ – हे विश्वप्रकाशक! आप समस्त संसार को प्रकाशित करने वाले अनोखे दीपक हैं। क्योंकि अन्य दीपकों की वर्ति (बाती) से घुआ निकलता है, परन्तु आपका वर्ति (मार्ग) निर्धून (पापरहित) है। अन्य दीपक तैल की सहायता से प्रकाश करते हैं, परन्तु आप बिना किसी की सहायता से ही प्रकाश (ज्ञान) फैलाते हैं। अन्य दीपक जरा भी हवा के झोक से बुझ जाते हैं परन्तु आप प्रलयकाल की हवा से भी विकार को प्राप्त नहीं होते। तथा अन्य दीपक थोड़े से ही स्थान को प्रकाशित करते हैं, परन्तु आप समस्त लोक को प्रकाशित करते हैं ।।१६।।
Nnirdhumavartipavarjita taila purah kritsnam jagat trayamidam prakati karoshi. Gamyo na jatu marutam chalitachalanam dipoaparastvamasi natha ! jagatprakashah
You are O Master, an irradiating divine lamp that needs neither a wick nor oil, and is smokeless, yet enlightens three realms. Even the greatest of storm that does not effect it.
References and Thanks
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