दिगंबर जैन विकी द्वारा प्रस्तुत
अन्वयार्थ – (यस्य) जिस ( पुंसः) मनुष्य के (हृदि) चित्त में (त्वन्नामनागदमनी) आपके नामरूपी नागदमनी-नागदौन जड़ी [अस्ति] है [सः] वह मनुष्य (रक्तेक्षणम्) लालनेत्र वाले (समदकोकिलकण्ठनीलम्) मदोन्मत्त कोयल के कण्ठ की तरह काले (क्रोधोद्धतम्) क्रोध से उद्धत [च] और (उत्फणम्) ऊपर को फण उठाये (आपतन्तम्) डसने के लिए झपटते हुए (फणिम्) सांप को (निरस्तङ्कः सन्) निर्भय होता हुआ (क्रमयुगेन) अपने पैरों से (आक्रामति) लांघता है ॥४१॥
भावार्थ – हे भगवन् आपके पुनीत नाम के स्मरण से भक्तजनों को कुपित, काले, फण उठाये और झपटते हुये सर्प का भी भय नहीं होता ॥४१॥
Raktekshanam samadakokila – kanthanilam, krodhoddhatam phaninamutphanamapatantam akramati kramayugena nirastashankas tvannama nagadamani hridi yasya punsah
O Greatest of the greatest! A devotee who has absorbed the antibody of your devout name crosses fearlessly over an extremely venomous snake that has red eyes, black body, unpleasant appearance and raised hood. (Your devotee are not frightened of snakes.)
अन्वयार्थ- (आजौ) संग्राम में (बलवताम्) पराक्रमी (भूपतीनाम्) राजाओं का (बल्गत्तुरङ्गगजगजितभीमनादम्) उछलते हुये घोड़ों और हाथियों की गर्जना से भयानक शब्दयुक्त (बलम्) सैन्य (अपि) भी (त्वत्कीर्तनात्) आपके नाम के कीर्तन से (प्रोद्यद्दिवाकरमयूखशिखापविद्धम्) उगते हुये सूर्य की किरणों के अग्रभाग से भेदित (तमः इव) अन्धकार के समान (प्राशु) शीघ्र ही (भिदाम्) विनाश को (उपैति) प्राप्त होता है ॥४२॥
भावार्थ – हे पूतात्मन्! जैसे सूर्य की किरणों से अन्धकार का नाश हो जाता हैं, उसी प्रकार आपके यशोगान से प्रतापी राजाओं का सैन्य भी युद्धाङ्गण से भाग जाता है ॥४२॥
Valgatturanga gajagarjita – bhimanada-majau balam balavatamapi bhupatinam ! udyaddivakara mayukha – shikhapaviddham,tvat -kirtanat tama ivashu bhidamupaiti
O Victor of all vices ! As darkness withdraws with the rising of the sun, the armies of daunting kings, creating thunderous uproar of neighing horses and trumpeting elephants, recede when your name is chanted. (Your devotee not frightened of enemies.)
अन्वयार्थ – (कुन्ताग्रभिन्नगजशोणितवारिवाहबेगावतारतरणातुरयोभीमे) बरछी की नोक से विदारे गये हाथियों के रक्तरूपी जलवाह को वेगसे उतरने और तैरने में व्यग्र योद्धाओं से भयानक (युद्धे) युद्ध में (स्वत्पादपङ्कजवनाश्रयिणः) (विजितदुर्जयजेयपक्षाः) शत्रुपक्ष के दुर्जय सैनिकों को जीतते हुए (जयम) विजय को (लभन्ते) पाते हैं ॥४३॥
भावार्थ – हे प्रभो! भयङ्कर से भयङ्कर युद्ध में भी जो आपका पुनीत स्मरण करता है, वह नियम से विजय पाता है ॥४३॥
Kuntagrabhinnagaja – shonitavarivahavegavatara – taranaturayodha – bhime yuddhe jayam vijitadurjayajeyapakshas -tvatpada pankajavanashrayino labhante
O conqueror of passion ! In the battlefield, where bravest of all warriors are eager to trudge over the streams of blood coming out of the bodies of elephants pierced by sharp weapons, the devotee having sought protection in your resplendent feet embraces victory. (Your devotee is always victorious at the end.)
अन्वयार्थ – (क्षुभितभीषणनऋचक्रपाठीनपीठभयदोल्वणवाडवाग्नी) क्षोभ को प्राप्त भयङ्कर मकरसमूह, मत्स्य और पीठों से भयङ्कर और विकराल बडवानल सहित (अम्भोनिधी) समुद्र में (रङ्गत्तरङ्गशिखरस्थितयानपात्राः) चञ्चलतरङ्गों के शिखर पर जिनके जहाज स्थित हैं ऐसे मनुष्य (भवतः) आपके (स्मरणात्) स्मरण से (त्रासम्) भय को (विहाय) छोड़कर (ब्रजन्ति) यात्रा करते हैं । ।।४४।।
भावार्थ – विशाल समुद्र में यात्रा करते समय बड़वानल का तूफान आने पर जो मानव सत्यश्रद्धा से आपका स्मरण करते हैं वे निरापद यात्रा करते हैं ॥४४॥
Ambhaunidhau kshubhitabhishananakrachakra-pathina pithabhayadolbanavadavagnau rangattaranga – shikharasthita – yanapatras -trasam vihaya bhavatahsmaranad vrajanti
O Jina ! A vessel caught in giant waves and surrounded by alligators, giant oceanic creatures, and dangerous fire, the devotee by chanting your name surmount such terrors and crosses the ocean. (Your devotees are not afraid of water.)
अन्वयार्थ – (उद्भूतभीषणजलोदरभारभुग्नाः) उत्पन्न हुये भयङ्कर जलोदर रोग के भार से झुके हुये (शोच्याम्) शोचनीय (दशाम्) अवस्था को (उपगताः) प्राप्त [च] और (च्युतजीविताशा) जीवन की आधारहित (मर्त्याः) मनुष्य (त्वत्पादपङ्कजरजोमृतदिग्धदेहाः) आपके चरणकमलों की धूलिरूप अमृत मे लिप्तशरीर [सन्तः] होते हुये (मकरध्वज तुल्यरूपाः) कामदेव के समानरूप वाले (भवन्ति) हो जाते हैं ॥४५॥
भावार्थ – हे पूज्यपाद! जैसे अमृत के लेप से मनुष्य निरोग और सुन्दर हो जाता है, उसी प्रकार आपके चरणकमल के रजरूपी अमृत के लेप (चरणों की सेवा) से भीषण जलोदर आदि रोगों से पीड़ित मनुष्य भी कामदेव के समान सुन्दर हो जाते हैं ॥४५॥
Udbhutabhishanajalodara – bharabhugnah shochyam dashamupagatashchyutajivitashah tvatpadapankaja-rajoamritadigdhadeha, martya bhavanti makaradhvajatulyarupah
O the all knowledgeable one ! An extremely sick person, deformed due to dropsy and maladies incurable, having lost all hopes of recovery and survival, when he rubs the nectar-like dust taken from your feet, fully recovers and takes form like cupid sweet.
अन्वयार्थ – (अनिशम्) निरन्तर (आपादकण्ठम्) पैर से लेकर कण्ठपर्यन्त (उरुशृङ्खलवेष्टिताङ्गाः) बड़ी बड़ी सांकलों से जकड़े हैं शरीर जिनके ऐसे [च] और (गाढं यथा स्यात्तथा) अत्यन्तरूप से (बृहन्निगङकोटिनिघृष्टजङ्घाः) बड़ी बड़ी बेड़ियों के किनारों से घिस गई हैं जायें जिनकी ऐसे (मनुजाः) मनुष्य (त्वन्नाममन्त्रम्) आपके नामरूपी मन्त्र को (स्मरन्तः) स्मरण करते हुये (सद्यः) तत्काल (स्वयम्) अपने आप (विगतबन्धभयाः) बन्धन के भय से रहित (भवन्ति) हो जाते हैं ।।४६।।
भावार्थ – हे भगवन्! जो निरन्तर आपके नामका स्मरण करता है वह कठिन कारागृह से भी शीघ्र मुक्त हो जाता है ||४६||
Apada – kanthamurushrrinkhala – veshtitanga, gadham brihannigadakotinighrishtajanghah tvannamamantramanisham manujah smarantah, sadyah svayam vigata-bandhabhaya bhavanti
O Liberated one ! Persons thrown in prison, chained from head to toe, whose thighs have been injured by the chain, gets unshackled and freed from enslavement just by chanting your name.
अन्वयार्थ – (यः) जो (मतिमान्) बुद्धिमान् (तावकम्) तुम्हारे (इमम्) इस (स्तवम्) स्तोत्र को (अबीते) पड़ता है (तस्य) उसका (मत्तद्विपेन्द्रमृगराजदवानलाहिसङ्गावारिधि-महोदरबन्धनोत्थम्) मत्त हाथी, सिंह, वनाग्नि, सर्प, युद्ध, समुद्र, महोदररोग और बन्धन से उत्पन्न (भयम्) भय (भिया इव) डर से ही (आशु) शीघ्र (नाशम्) विनाश को (उपयाति) प्राप्त होता है ॥४७॥
भावार्थ – हे प्रभो! जो मानव आपके इस स्तोत्र का निरन्तर पाठ किया करता है, वह विशाल भयों से भी शीघ्र विमुक्त हो जाता है ॥४७॥
Mattadvipendra – mrigaraja – davanalahi sangrama – varidhi – mahodara-bandhanottham tasyashu nashamupayati bhayam bhiyeva, yastavakam stavamimam matimanadhite
O Tirhankara ! The one who recites this panegyric with devotion is never afraid of wild elephants, predatory lions, forest inferno, poisonous pythons, tempestuous sea, serious maladies, and slavery. In fact, fear itself is frightened of him.
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Stotrastrajam tava jinendra ! gunairnibaddham, bhaktya maya vividhavarnavichitrapushpam dhatte jano ya iha kanthagatamajasram, tam manatungamavasha samupaiti lakshmi
O the greatest Lord ! With great devotion, I have made up this string of your virtues. I have decorated it with charming and kaleidoscopic flowers. The devotee who always wears it in the neck (memorises and chants) attracts the goddess Lakshmi.
References and Thanks
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