भूधर-शतक- १-से-७
Author:
Language : Hindi
Rhythm:
Type: Bhudhar Shatak
Particulars: Paath
Created By: Shashank Shaha
१ – श्री आदिनाथ स्तुति- सवैया
ज्ञानजिहाज बैठि गनधर-से, गुनपयोधि जिस नाहिं तरे हैं।
अमर-समूह आनि अवनी सौं, घसि-घसि सीस प्रनाम करे हैं।
किधौं भाल-कुकरम की रेखा, दूर करन की बुद्धि धरे हैं।
ऐसे आदिनाथ के अहनिस, हाथ जोड़ि हम पाँय परे हैं॥१॥
अन्वयार्थ: जिनके गुणसमुद्र का पार गणधर जैसे बड़े-बड़े नाविक अपने विशाल ज्ञानजहाजों द्वारा भी नहीं पा सके हैं और जिन्हें देवताओं के समूह स्वर्ग से उतरकर पृथ्वी से पुनः पुनः अपने सिर घिसकर इस तरह प्रणाम करते हैं मानों वे अपने ललाट पर बनी कुकर्मों की रेखा को दूर करना चाहते हों; उन प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ को हम सदैव हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं और उनके चरणों की शरण ग्रहण करते हैं॥१॥
काउसग्ग मुद्रा धरि वन में, ठाड़े रिषभ रिद्धि तजि हीनी।
निहचल अंग मेरु है मानौ, दोऊ भुजा छोर जिन दीनी।
फँसे अनंत जंतु जग-चहले, दुखी देखि करुना चित लीनी।
काढ़न काज तिन्हैं समरथ प्रभु, किधौं बाँह ये दीरघ कीनी॥२॥
अन्वयार्थ: भगवान ऋषभदेव कायोत्सर्ग मद्रा धारण कर वन में खडे हए हैं। उन्होंने समस्त ऐश्वर्य को तुच्छ जानकर छोड़ दिया है। उनका शरीर इतना निश्चल है मानों सुमेरु पर्वत हो। उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं को शिथिलतापूर्वक नीचे छोड़ रखा है, जिससे ऐसा लगता है मानों संसाररूपी कीचड़ में फंसे हुए अनन्त प्राणियों को दुःखी देख कर उनके मन में करुणा उत्पन्न हुई है और उन्होंने अपनी दोनों भुजाएँ उन प्राणियों को संसाररूपी कीचड़ से निकालने के लिए लम्बी की हैं॥२॥
करनौं कछु न करन तैं कारज, तातैं पानि प्रलम्ब करे हैं।
रह्यौ न कछु पाँयन तैं पैबौ, ताही तैं पद नाहिं टरे हैं।
निरख चुके नैनन सत्र यातैं, नैन नासिका-अनी धरे हैं।
कानन कहा सुनैं यौं कानन, जोगलीन जिनराज खरे हैं॥३॥
अन्वयार्थ: जिनेन्द्र भगवान को हाथों से कुछ भी करना नहीं बचा है, अत: उन्होंने अपने हाथों को शिथिलतापूर्वक नीचे लटका दिया है। पैरों से चलकर उन्हें कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहा है, अत: उनके पैर एक स्थान से हिलते नहीं हैं, स्थिर हैं; वे सब कुछ देख चुके हैं, अत: उन्होंने अपनी आँखों को नासिका की नोक पर टिका दिया है; तथा कानों से भी अब वे क्या सुनें, इसलिए ध्यानस्थ होकर कानन (वन) में खड़े हैं॥३॥
जयौ नाभिभूपाल-बाल सुकुमाल सुलच्छन।
जयौ स्वर्गपातालपाल गुनमाल प्रतच्छन।
दृग विशाल वर भाल लाल नख चरन विरजहिं।
रूप रसाल मराल चाल सुन्दर लखि लज्जहिं॥
रिप-जाल-काल रिसहेश हम, फँसे जन्म-जंबाल-दह।
यातें निकाल बेहाल अति, भो दयाल दुख टाल यह॥४॥
अन्वयार्थ: नाभिराय के सुलक्षण और सुकुमार पुत्र श्री ऋषभदेव जयवन्त वर्तो! स्वर्ग से पाताल तक तीनों लोकों का पालन करने वाले श्री ऋषभदेव जयवन्त वर्तो!! स्वाभाविक रूप से व्यक्त हुए उत्कृष्ट गुणों के समुदाय स्वरूप श्री ऋपभदेव जयवन्त वर्तो !!! श्री ऋषभदेव के नेत्र विशाल हैं, उनका भाल (ललाट) श्रेष्ठ या उन्नत हैं, उनके चरणों में लाल नख सुशोभित हैं, उनका रूप बहुत मनोहर है और उनकी सुन्दर चाल को देखकर हंस भी लज्जित होते हैं। – हे कर्मशत्रुओं के समूह को नष्ट करने वाले भगवान ऋषभदेव ! जन्म-मरण के गहरे कीचड़ में फंसकर हमारी बहुत दुर्दशा हो रही है, अत: आप हमें उसमें से निकालकर हमारा महादुःख दूर कर दीजिये॥४॥
२ – श्री चन्द्रप्रभ स्तुति- सवैया
चितवत वदन अमल-चन्द्रोपम, तजि चिंता चित होय अकामी।
त्रिभुवनचन्द पापतपचन्दन, नमत चरन चंद्रादिक नामी॥
तिहुँ जग छई चन्द्रिका-कीरति, चिहन चन्द्र चिंतत शिवगामी।
बन्दौं चतुर चकोर चन्द्रमा, चन्द्रवरन चंद्रप्रभ स्वामी॥५॥
अन्वयार्थ: जिनके निर्मल चन्द्रमा के समान मुख का दर्शन करते ही भव्य जीवों का चित्त समस्त चिन्ताओं का त्याग कर अकामी (समस्त इच्छाओं से रहित) हो जाता है, जो तीन लोकों के चन्द्रमा हैं, जो पापरूपी आतप के लिए चन्दन हैं, जिनके चरणों में बड़े प्रसिद्ध चन्द्रादिक देव भी प्रणाम करते हैं, जिनकी उज्ज्वल कीर्तिरूपी चाँदनी तीनों लोकों में छाई हुई है, जिनके चन्द्रमा का चिह्न है, मोक्षाभिलाषी जीव जिनका स्मरण करते हैं, जो बुद्धिमान पुरुषरूपी चकोरों के लिए चन्द्रमा हैं, और जिनका वर्ण चन्द्रमा के समान उज्ज्वल है; उन चन्द्रप्रभ स्वामी को मैं प्रणाम करता हूँ॥५॥
३- श्री शान्तिनाथ स्तुति- मत्तगयन्द सवैया
शांति जिनेश जयौ जगतेश, हरै अघताप निशेश की नांई।
सेवत पाय सुरासुरराय, नमैं सिर नाय महीतल तांई।
मौलि लगे मनिनील दिपैं, प्रभु के चरनौं झलकैं वह झांई।
सूंघन पाँय-सरोज-सुगंधि, किधौं चलि ये अलिपंकति आई॥६॥
अन्वयार्थ: जो पापरूपी आतप को चन्द्रमा के समान हरते हैं, सुरेन्द्र और असुरेन्द्र भी जिनके चरणों की सेवा करते हैं और उन्हें धरती तक सिर झुकाकर प्रणाम करते हैं, वे जगतस्वामी श्री शांतिनाथ भगवान जयवन्त वर्तो। हे शांतिनाथ भगवान! जिस समय आपको सुरेन्द्र और असुरेन्द्र धरती तक सिर झुकाकर प्रणाम करते हैं और उनके मुकुटों में लगी हुई दिव्य नीलमणियों की परछाई आपके चरणों पर झलकती है तो उस समय ऐसा लगता है मानों आपके चरण-कमलों की सुगन्ध सूंघने के लिए भ्रमरों की पंक्ति ही चली आई है॥६॥
४- श्री नेमिनाथ स्तुति- कवित्त मनहर
शोभित प्रियंग अंग देखें दुख होय भंग,
लाजत अनंग जैसैं दीप भानुभास तैं।
बालब्रह्मचारी उग्रसेन की कुमारी जादों-
नाथ ! तैं निकारौ कर्मकादो-दुखरास तैं॥
अन्वयार्थ: हे भगवान नेमिनाथ ! आपका शरीर प्रियंगु के फूल के समान श्याम वर्ण से सुशोभित है, आपके दर्शन से सारा दुःख दूर हो जाता है। और जिसप्रकार सूर्य की प्रभा के सामने दीपक लज्जित होता है, उसीप्रकार आपके सामने कामदेव लज्जित होता है। हे यादवनाथ ! आप बालब्रह्मचारी हैं। आपने सांसारिक कीचड़ के अनन्त दुःखों में से महाराजा उग्रसेन की कन्या (राजुल) को भी निकाला है।
भीम भवकानन मैं आन न सहाय स्वामी,
अहो नेमि नामी तकि आयौ तुम तास तैं ।
जैसैं कृपाकंद वनजीवन की बन्द छोरी,
त्यौंही दास को खलास कीजे भवपास तैं ॥७॥
अन्वयार्थ:हे सुप्रसिद्ध नेमिनाथ स्वामी! अब मैंने यह भली प्रकार समझ लिया है कि इस भयानक संसाररूपी जंगल में मुझे आपके अतिरिक्त अन्य कोई शरण नहीं है, इसलिए मैं आपकी ही शरण में आया हूँ। हे कृपाकंद! जिस प्रकार आपने पशुओं को बन्धन से मुक्त किया था, उसी प्रकार मुझ सेवक को भी संसार-जाल से मुक्त कर दीजिये॥७॥
५- श्री पार्श्वनाथ स्तुति- छप्पय
जनम-जलधि-जलजान, जान जनहंस-मानसर।
सरव इन्द्र मिलि आन, आन जिस धरहिं सीस पर॥
परउपगारी बान, बान उत्थपइ कुनय-गन।
गन-सरोजवन-भान, भान मम मोह-तिमिर-घन॥
घनवरन देहदुख-दाह हर, हरखत हेरि मयूर-मन।
मनमथ-मतंग-हरि पास जिन, जिन विसरहु छिन जगतजन!॥८॥
अन्वयार्थ: हे संसार के प्राणियो! भगवान पार्श्वनाथ को कभी क्षण भर भी मत भूलो। वे संसाररूपी समुद्र को तिरने के लिए जहाज हैं, भव्यजीवरूपी हंसों के लिए मानसरोवर हैं, सभी इन्द्र आकर उनकी आज्ञा मानते हैं, उनके वचन परोपकारी और कुनय-समूह की प्रकृति को उखाड़ फेंकने वाले हैं, मुनिसमुदायरूपी कमल के वनों (समूहों) के लिए सूर्य हैं, आत्मा के घने मोहान्धकार को नष्ट करने वाले हैं, मेघ के समान वर्णवाले हैं, सांसारिक दुःखों की ज्वाला को हरने वालं हैं, उन्हें पाकर मनमयूर प्रसन्न हो जाता है, और कामदेवरूपी हाथी के लिए तो वे ऐसे हैं जैसे कोई सिंह।
विशेष:– प्रस्तुत पद में महाकवि भूधरदास ने तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की बड़े ही कलात्मक ढंग से स्तुति की है। पद का भाव-सौन्दर्य तो अगाध है ही, शिल्प-सौन्दर्य भी विशिष्ट है। यथा, इस पद का पहला कदम ‘जान’ शब्द पर रुका है तो दूसरा कदम पुनः ‘जान’ शब्द से ही शुरू हो रहा है, दूसरा कदम ‘सर’ पर रुका है तो तीसरा कदम पुनः ‘सर’ से ही प्रारम्भ हो रहा है, तीसरा कदम ‘आन’ पर रुका है तो चौथा कदम पुन: ‘आन’ से ही प्रारंभ हो रहा है। इसी प्रकार पद के अन्य सभी कदम अपने पूर्व-पूर्ववर्ती कदम के अन्तिम अक्षरों को अपने हाथ में पकड़कर ही आगे बढ़ते हैं। इतना ही नहीं, पद का प्रारंभ ‘जन’ शब्दांश से हुआ है तो अन्त भी ‘जन’ से ही हुआ है । यद्यपि ऐसी विशेषता ‘कुण्डलिया’ में पाई जाती है, पर महाकवि भूधरदास ने ‘छप्पय’ में भी यह कलात्मक प्रयोग कर दिखाया है। यमक अलंकार के विशिष्ट प्रयोग की दृष्टि से भी यह पद उल्लेखनीय है। यमक अलंकार के एक साथ इतने और वे भी ऐसे विशिष्ट प्रयोग अन्यत्र दुर्लभ हैं।
६- श्री वर्द्धमान स्तुति- सवैया
दोहा
दिढ़-कर्माचल-दलन पवि, भवि-सरोज-रविराय।
कंचन छवि कर जोर कवि, नमत वीरजिन-पाँय॥९॥
अन्वयार्थ: प्रबल कर्मरूपी पर्वत को चकनाचूर करने के लिए जो वज्र के समान हैं, भव्यजीवरूपी कमलों को खिलाने के लिए जो श्रेष्ठ सूर्य के समान हैं और जिनकी प्रभा स्वर्णिम है; उन भगवान महावीर के चरणों में मैं हाथ जोड़ कर प्रणाम करता हूँ। विशेष:- यहाँ कवि ने ‘दिढ़ कर्माचल दलन पवि’ कहकर भगवान के वीतरागता गुण की ओर संकेत किया है, ‘भवि-सरोज-रविराय’ कहकर हितोपदेशीपने की ओर संकेत किया है और ‘कंचन छवि’ कहकर सर्वज्ञता गुण की ओर संकेत किया है। तात्पर्य यह है कि जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हैं, उन वर्द्धमान जिनेन्द्र के चरणों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ॥९॥
रहौ दूर अंतर की महिमा, बाहिज गुन वरनन बल का पै।
एक हजार आठ लच्छन तन, तेज कोटिरवि-किरनि उथापै॥
सुरपति सहसआँख-अंजुलि सौं, रूपामृत पीवत नहिं धापै।
तुम बिन कौन समर्थ वीर जिन, जग सौं काढ़ि मोख मैं थापै॥१०॥
अन्वयार्थ: हे भगवान महावीर! आपके अन्तरंग गुणों की महिमा तो दूर, बहिरंग गुणों का वर्णन करने की भी सामर्थ्य किसी में नहीं है। एक हजार आठ लक्षणों से युक्त आपके शरीर का तेज करोड़ों सूर्यों की किरणों को उखाड़ फेंकता है अर्थात् आपके शरीर के तेज की बराबरी करोड़ों सूर्य भी नहीं कर सकते हैं। देवताओं का राजा इन्द्र हजार आँखों की अंजुलि से भी आपके रूपामृत को पीता हुआ तृप्त नहीं होता है। हे वार प्रभो! इस जगत् में आपके अतिरिक्त अन्य कौन ऐसा समर्थ है, जो जीवों को संसार से निकालकर मोक्ष में स्थापित कर सके?॥१०॥
७- श्री सिद्ध स्तुति- मत्तगयंद सवैया
ध्यान-हुताशन मैं अरि-ईंधन, झोंक दियो रिपुरोक निवारी।
शोक हर्यो भविलोकन कौ वर, केवलज्ञान-मयूख उघारी॥
लोक-अलोक विलोक भये शिव, जन्म-जरा-मृत पंक पखारी।
सिद्धन थोक बसैं शिवलोक, तिन्हैं पगधोक त्रिकाल हमारी॥११॥
अन्वयार्थ: जिन्होंने आत्मध्यानरूपी अग्नि में कर्मशत्रुरूपी ईंधन को झोंककर समस्त बाधाओं को दूर कर दिया है, भव्य जीवों का सर्व शोक नष्ट कर दिया है, केवलज्ञानरूपी उत्तम किरणें प्रकट कर ली हैं, सम्पूर्ण लोक-अलोक को देख लिया है, जो मुक्त हो गये हैं और जिन्होंने जन्म-जरा-मरण की कीचड़ को साफ कर दिया है; उन मोक्षनिवासी अनन्त सिद्ध भगवन्तों को त्रिकाल- सदैव हमारी पाँवाढोक मालूम होवे॥११॥
तीरथनाथ प्रनाम करैं, तिनके गुनवर्णन मैं बुधि हारी।
मोम गयौ गलि मूस मँझार, रह्यौ तहँ व्योम तदाकृतिधारी॥
लोक गहीर-नदीपति-नीर, गये तिर तीर भये अविकारी।
सिद्धन थोक बसैं शिवलोक, तिन्हैं पगधोक त्रिकाल हमारी॥१२॥
अन्वयार्थ: जिन्हें तीर्थंकरदेव प्रणाम करते हैं, जिनके गुणों का वर्णन करने में बुद्धिमानों की बुद्धि भी हार जाती है, जो मोम के साँचे में मोम के गल जाने पर बचे हुए तदाकार आकाश की भाँति अपने अंतिम शरीराकाररूप से स्थित हैं, जिन्होंने संसाररूपी महा समुद्र को तिरकर किनारा प्राप्त कर लिया है और जो विकारी भावों से रहित शुद्ध दशा को प्राप्त हुए हैं; उन अनन्त सिद्ध भगवन्तों को त्रिकाल- सदैव हमारी पाँवाढोक मालूम होवे॥१२॥
Shashank Shaha added more details to update on 10 November 2024.
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