भूधर-शतक ४३-से-४९
Author:
Language : Hindi
Rhythm:
Type: Bhudhar Shatak
Particulars: Paath
Created By: Shashank Shaha
४३- होनहार दुर्निवार- कवित्त मनहर
कैसे कैसे बली भूप भू पर विख्यात भये,
वैरीकल काँपैं नेकु भहौं के विकार सौं।
लंघे गिरि-सायर दिवायर-से दिपैं जिनों,
कायर किये हैं भट कोटिन हुँकार सौं॥
ऐसे महामानी मौत आये हू न हार मानी,
क्यों ही उतरे न कभी मान के पहार सौं।
देव सौं न हारे पुनि दानो सौं न हारे और,
काहू सौं न हारे एक हारे होनहार सौं॥७२॥
अन्वयार्थ: देखो तो सही! इस पृथ्वी पर ऐसे-ऐसे बलशाली व प्रसिद्ध राजा उत्पन्न हो गये हैं- जिनकी भौंहों के तनिक-सी टेढ़ी करने पर शत्रुओं के समूह काँप उठते थे, जो पहाड़ों और समुद्रों को लाँघ सकते थे, जो सूर्य के समान तेजस्वी थे, जिन्होंने अपनी हुंकार मात्र से करोड़ों योद्धाओं को कायर बना दिया था और अभिमानी ऐसे कि कभी मान के पहाड़ से नीचे उतरे ही नहीं, जिन्होंने कभी मौत से भी अपनी हार नहीं मानी थी, जो कभी किसी से नहीं हारे थे, न किसी देव से और न किसी दानव से, परन्तु अहो! वे भी एक होनहार से हार गये।॥७२॥
विशेष:- यहाँ कवि ने होनहार को अत्यन्त बलवान बताते हुए कहा है कि होनहार का उल्लंघन कोई भी कैसे भी नहीं कर सकता। सो अनेक पूर्वाचार्यों ने भी ऐसा ही कहा है। उदाहरणार्थ आचार्य समन्तभद्र के ‘स्वयंभू-स्तोत्र’ का ३३वाँ श्लोक द्रष्टव्य है- अलंघ्यशक्तिर्भवितव्यतेयं__
४४- काल-सामर्थ्य- कवित्त मनहर
लोहमई कोट केई कोटन की ओट करौ,
काँगुरेन तोप रोपि राखो पट भेरिकैं।
इन्द्र चन्द्र चौंकायत चौकस ह्वै चौकी देहु,
चतुरंग चमू चहूँ ओर रहो घेरिकैं॥
तहाँ एक भौंहिरा बनाय बीच बैठौ पुनि,
बोलौ मति कोऊ जो बुलावै नाम टेरिकैं।
ऐसैं परपंच-पाँति रचौ क्यों न भाँति-भाँति,
कैसैं हू न छोरै जम देख्यौ हम हेरिकैं॥७३॥
अन्वयार्थ: एक लौहमय किला बनवाइये, उसे अनेक परकोटों से घिरवा दीजिये, परकोटों के कंगूरों पर तोपें रखवा दीजिये, इन्द्र-चन्द्रादि जैसे सावधान पहरेदारों को चौकन्ने होकर पहरे पर बिठा दीजिये, किवाड़ भी बन्द कर लीजिये, चारों ओर चतुरंगिणी सेना का घेरा डलवा दीजिये तथा आप उस लौहमय किले के तलघर में जाकर बैठ जाइये, कोई चाहे कितनी ही आवाजें लगावे, आप बोलिये तक नहीं। इसी प्रकार के और भी कितने ही इन्तजामों (तामझाम) का ढेर लगा दीजिए, पर यह हमने खूब खोजकर देख लिया है कि मृत्यु कभी नहीं छोड़ती॥७३॥
अन्तक सौं न छूटै निहचै पर, मूरख जीव निरन्तर धूजै।
चाहत है चित मैं नित ही सुख, होय न लाभ मनोरथ पूजै॥
तौ पन मूढ़ बँध्यौ भय आस, वृथा बहु दुःखदवानल भूजै।
छोड़ विचच्छन ये जड़ लच्छन, धीरज धारि सुखी किन हूजै॥७४॥
अन्वयार्थ: यह निश्चित है कि मृत्यु से बचा नहीं जा सकता है, तथापि अज्ञानी प्राणी निरन्तर भयभीत बना रहता है। वह सदा सुखसामग्री की इच्छा करता रहता है, किन्तु न तो उनकी प्राप्ति होती है और न कभी उसके मनोरथ पूरे होते हैं। परन्तु फिर भी वह भय और आशा से बँधा रहता है और व्यर्थ ही दुःखरूपी प्रबल आग में जलता रहता है। हे विचक्षण! तुम इन मूर्खता के लक्षणों को त्याग कर एवं धैर्य धारण कर सुखी क्यों नहीं हो जाते हो?॥७४॥
विशेष:- इसी प्रकार का भाव आचार्य समन्तभद्र ने भी स्वयंभू स्तोत्र, छन्द 34 में प्रकट किया है।
४५- धैर्य-शिक्षा- मत्तगयन्द सवैया
जो धनलाभ लिलार लिख्यौ, लघु दीरघ सुक्रत के अनुसारै।
सो लहिहै कछू फेर नहीं, मरुदेश के ढेर सुमेर सिधारै॥
घाट न बाढ़ कहीं वह होय, कहा कर आवत सोच-विचारै।
कूप किधौं भर सागर मैं नर, गागर मान मिलै जल सारै॥७५॥
अन्वयार्थ: थोड़े या बहुत पुण्य के अनुसार जितना धनलाभ भाग्य में लिखा होता है, व्यक्ति को उतना ही मिलता है- इसमें कोई सन्देह नहीं, फिर चाहे वह मारवाड़ के टीलों पर रहे और चाहे सुमेरु पर्वत पर चला जाए। वह कितना ही सोचविचार क्यों न कर ले, परन्तु उससे वह किंचित् भी कम या अधिक नहीं हो सकता। अरे भाई! कुएं में भरो या सागर में, जल तो सर्वत्र उतना ही मिलता है, जितनी बड़ी गागर (बर्तन) होती है।॥७५॥
४६- आशारूपी नदी- कवित्त मनहर
मोह से महान ऊँचे पर्वत सौं ढर आई,
तिहूँ जग भूतल मैं याहि विसतरी है।
विविध मनोरथमै भूरि जल भरी बहै,
तिसना तरंगनि सौं आकुलता धरी है।
परैं भ्रम-भौंर जहाँ राग-सो मगर तहाँ,
चिंता तट तुङ्ग धर्मवृच्छ ढाय ढरी है।
ऐसी यह आशा नाम नदी है अगाध ताकौ,
धन्य साधु धीरज-जहाज चढ़ि तरी है॥७६॥
अन्वयार्थ: आशारूपी नदी बड़ी अगाध- गहरी है। यह मोहरूपी महान् पर्वत से ढलकर आई है, तीनों लोकरूपी पृथ्वी पर बह रही है, इसमें विविध मनोरथमयी जल भरा हुआ है, तृष्णारूपी तरंगों के कारण इसमें आकुलता उत्पन्न हो रही है, भ्रमरूपी भँवरें पड़ रही हैं, रागरूपी बड़ा मगरमच्छ इसमें रहता है, चिन्तारूपी इसके विशाल तट हैं, और यह धर्मरूपी विशाल वृक्ष को गिरा कर बह रही है। अहो! वे साधु धन्य हैं, जिन्होंने धैर्यरूपी जहाज पर चढ़कर इस आशा नदी को पार कर लिया है।॥७६॥
४७- महामूढ़-वर्णन- कवित्त मनहर
जीवन कितेक तामैं कहा बीत बाकी रह्यौ,
तापै अंध कौन-कौन करै हेर फेर ही।
आपको चतुर जानै औरन को मूढ़ मानै,
साँझ होन आई है विचारत सवेर ही॥
चाम ही के चखन तैं चितवै सकल चाल,
उर सौं न चौंधे, कर राख्यौ है अँधेर ही।
बाहै बान तानकैं अचानक ही ऐसौ जम,
दीसहै मसान थान हाड़न कौ ढेर ही॥७७॥
अन्वयार्थ: यह जीवन वैसे ही कितना थोड़ा-सा है, और उसमें भी बहुत सारा तो बीत ही चुका है, अब शेष बचा ही कितना है; परन्तु यह अज्ञानी प्राणी न जाने क्या-क्या उलटे-सीधे करता रहता है, अपने को होशियार समझता है, और सबको मूर्ख समझता है। देखो तो सही! सन्ध्या होने जा रही है, पर यह अभी सवेरा ही समझ रहा है। अभी भी सारे जगत और उसके क्रिया-कलापों को अपनी चर्म-चक्षुओं से ही देख रहा है, हृदय की आँखों से नहीं देखता; हृदय की आँखों में तो इसने अभी भी अँधेरा कर रखा है। लेकिन अब अचानक (कभी भी) यमराज एक बाण ऐसा खींचकर चलाने वाला है कि बस फिर श्मशान में हड्डियों का ढेर ही दिखाई देगा॥७७॥
केती बार स्वान सिंघ सावर सियाल साँप,
सिँधुर सारङ्ग सूसा सूरी उदरै पर्यो।
केती बार चील चमगादर चकोर चिरा,
चक्रवाक चातक चँडुल तन भी धर्यौ।
केती बार कच्छ मच्छ मेंडक गिंडोला मीन,
शंख सीप कौंड़ी ह्वै जलूका जल मैं तिर्यो।
कोऊ कहै ‘जाय रे जनावर!’ तो बुरो मानै,
यौं न मूढ़ जानै मैं अनेक बार ह्वै मर्यौ॥७८॥
अन्वयार्थ: यद्यपि यह अज्ञानी कितनी ही बार कुत्ता, सिंह, साँभर (एक प्रकार का हिरण), सियार, सर्प, हाथी, हिरण, खरगोश, सुअर आदि अनेक थलचर प्राणियों के रूप में उत्पन्न हुआ है; कितनी ही बार चील, चमगादड़, चकोर, चिडिया, चकवा, चातक, चंडूल (खाकी रंग की एक छोटी चिड़िया) आदि अनेक नभचर प्राणियों के रूप में उत्पन्न हुआ है; और कितनी ही बार कछुआ, मगरमच्छ, मेंढक, गिंदोड़ा, मछली, शंख, सीप, कौंडी, ज्ञोंक आदि अनेक जलचर प्राणियों के रूप में भी उत्पन्न हुआ है; तथापि यदि कोई इसे ‘जानवर’ कह दे तो बुरा मानता है- खेदखिन्न होता है; यह विचारकर समता धारण नहीं करता कि जानवर तो मैं अनेक बार हुआ हूँ, हो-होकर मरा हूँ॥७८॥
४८- दुष्ट कथन- छप्पय
करि गुण-अमृत पान दोष-विष विषम समप्पै।
बंकचाल नहिं तजै जुगल जिह्वा मुख थप्पै॥
तकै निरन्तर छिद्र उदै-परदीप न रुच्चै।
बिन कारण दुख करै वैर-विष कबहुँ न मुच्चै॥
वर मौनमन्त्र सौं होय वश, सङ्गत कीयै हान है।
बहु मिलत बान यातैं सही, दुर्जन साँप-समान है॥७९॥
अन्वयार्थ: दुर्जन वास्तव में सर्प के समान है, क्योंकि उसमें सर्प की बहुत आदतें (विशेषताएँ) मिलती हैं। यथा : जिसप्रकार सर्प दूध पीकर भी जहर ही उगलता है, उसीप्रकार दुर्जन व्यक्ति भी गुणरूपी अमृत पीकर भी दोषरूपी भीषण जहर ही उगलता है। जिसप्रकार सर्प कभी अपनी टेढ़ी चाल को नहीं छोड़ता, उसी प्रकार दुर्जन व्यक्ति भी कभी मायाचार रूपी वक्रता का त्याग नहीं करता। जिसप्रकार सर्प के मुँह में दो जीभ होती हैं, उसीप्रकार दुर्जन भी दोगला होता है, वह कभी किसी को कुछ कहता है, और कभी किसी से कुछ और ही कहता है। जिसप्रकार सर्प सदा बिल की खोज में रहता है, उसीप्रकार दुर्जन भी सदा बुराइयों की ही खोज में रहता है । जिसप्रकार सर्प को जलता हुआ दीपक पसन्द नहीं होता, उसीप्रकार दुर्जन को दूसरे की उन्नति पसन्द नहीं होती। जिसप्रकार सर्प दूसरों को अकारण ही दुःखी करता है, उसीप्रकार दुर्जन भी दूसरों को अकारण ही परेशान करता है। जिसप्रकार सर्प जहर को कभी नहीं छोड़ता, उसीप्रकार दुर्जन भी बैररूपी जहर को कभी नहीं छोड़ता। जिसप्रकार सर्प मंत्र से वशीभूत हो जाता है, उसीप्रकार दुर्जन भी मौनरूपी श्रेष्ठ मन्त्र से वशीभूत हो जाता है । जिसप्रकार सर्प की संगति से व्यक्ति की हानि होती है, उसीप्रकार दुर्जन की संगति से भी व्यक्ति की हानि होती है।॥७९॥
४९- विधाता से तर्क- कवित्त मनहर
सज्जन जो रचे तौ सुधारस सौ कौन काज,
दुष्ट जीव किये कालकूट सौं कहा रही।
दाता निरमापे फिर थापे क्यौं कलपवृक्ष,
जाचक विचारे लघु तृण हू तैं हैं सही॥
इष्ट के संयोग तैं न सीरौ घनसार कछु,
जगत कौ ख्याल इन्द्रजाल सम है वही।
ऐसी दोय-दोय बात दीखैं विधि एक ही सी,
काहे को बनाई मेरे धोखौ मन है यही॥८०॥
अन्वयार्थ: हे विधाता! इस जगत् में एक जैसी ही दो-दो वस्तुएँ दिखाई देती हैं, अतः मेरे मन में एक शंका है कि तुमने ऐसा क्यों किया? एक जैसी ही दो-दो वस्तुएँ क्यों बनाईं? जब तुमने सज्जन बना दिये तो फिर अमृत बनाने की क्या आवश्यकता थी? और जब तुमने दुर्जन बना दिये थे तो फिर हलाहल जहर बनाने की क्या आवश्यकता रह गई थी? तथा जब तुमने दाता बना दिये थे तो कल्पवृक्ष बनाने की क्या आवश्यकता थी? और जब याचक बना दिये तो तिनके बनाने की क्या आवश्यकता थी? याचक तो वस्तुतः तिनके से भी छोटे हैं। इसीप्रकार जब तुमने इष्टसंयोग बना दिया था तो चंदन बनाने की क्या आवश्यकता थी? चन्दन कोई इष्टसंयोग से तो अधिक शीतल है नहीं। और जब तुमने जगत् का विचित्र स्वरूप बना दिया तो इन्द्रजाल बनाने की क्या आवश्यकता थी? जगत् का विचित्र स्वरूप तो वैसे ही इन्द्रजाल के समान है। तात्पर्य यह है कि सज्जन अमृत से भी उत्तम होते हैं, दुर्जन कालकूट विष में भी बुरे होते हैं, दाता कल्पवृक्ष से भी बड़े होते हैं, याचक तिनके से भी छोटे होते हैं, इष्टसंयोग चंदन से भी अधिक शीतल होता है और इस जगत का स्वरूप इन्द्रजाल से भी अधिक विचित्र है।॥८०॥
Shashank Shaha added more details to update on 10 November 2024.
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