भूधर-शतक ५७-से-६२
Author:
Language : Hindi
Rhythm:
Type: Bhudhar Shatak
Particulars: Paath
Created By: Shashank Shaha
५७- सुबुद्धि सखी के प्रतिवचन- मनहर कवित्त
कहै एक सखी स्यानी सुन री सुबुद्धि रानी!
तेरौ पति दुखी देख लागै उर आर है।
महा अपराधी एक पुग्गल है छहौं माहिं,
सोई दुख देत दीसै नाना परकार है।
कहत सुबुद्धि आली कहा दोष पुग्गल कौं,
अपनी ही भूल लाल होत आप ख्वार है।
खोटौ दाम आपनो सराफै कहा लगै वीर,
काहू को न दोष मेरौ भौंदू भरतार है॥८८॥
अन्वयार्थ: एक चतुर सखी बोली:- हे सुबुद्धि रानी! तुम्हारा पति बहुत दुःखी हो रहा है, लगता है उसके हृदय में कोई बड़ा शूल चुभा हो। हे सखी, सुनो ! इस लोक में जो ६ द्रव्य हैं, उनमें एक पुद्गल नाम का द्रव्य बड़ा अपराधी है/ लगता है, वही तुम्हारे पति को नाना प्रकार से कष्ट दे रहा है। प्रत्युत्तर में सुबुद्धि रानी कहती है:- हे सखी! इसमें पुद्गल का क्या दोष है? मेरा स्वामी स्वयं ही अपनी भूल से दु:खी हो रहा है/ हे सखी! जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो सर्राफ को क्या दोष दें? अत: वास्तव में पुद्गल आदि अन्य किसी का भी कोई दोष नहीं है, मेरा भरतार स्वयं ही भोंदू है।॥८८॥
५८- गुजराती भाषा में शिक्षा- करिखा
ज्ञानमय रूप रूड़ो सदा साततौ, ओलखै क्यों न सुखपिंड भोला।
बेगली देहथी नेह तूं शू करै, एहनी टेव जो मेह ओला॥
मेरने मान भवदुक्ख पाम्या पछी, चैन लाध्यो नथी एक तोला।
वळी दुख वृच्छनो बीज बावै अने, आपथी आपने आप भोला॥८९॥
अन्वयार्थ: हे भोले भाई! तुम सुख के पिण्ड हो। तुम्हारा रूप ज्ञानमय है, सुन्दर है, शाश्वत (सतत) है। तुम उसे पहिचानते क्यों नहीं हो? तथा शरीर तुमसे भिन्न है, पराया है, तुम उससे राग क्यों करते हो? उसका स्वरूप तो बरसात के ओले की भाँति क्षणभंगुर है। हे भाई! इस राग के कारण तुमने मेरु पर्वत के समान अपार दुःख झेले हैं, कभी एक तोला भी सुख प्राप्त नहीं किया, फिर भी तुम पुनः वही दुःखरूपी वृक्ष का बीज बो रहे हो और स्वयं ही अपने आपको भूल रहे हो।॥८९॥
५९- द्रव्यलिंगी मुनि- मत्तगयन्द सवैया
शीत सहैं तन धूप दहें, तरुहेट रहैं करुना उर आनैं।
झूठ कहैं न अदत्त गहैं, वनिता न चहैं लव लोभ न जानैं।
मौन वहैं पढ़ि भेद लहैं, नहिं नेम जहैं व्रतरीति पिछानैं।
यौं निबहैं पर मोख नहीं, विन ज्ञान यहै जिन वीर बखानैं॥९०॥
अन्वयार्थ: द्रव्यलिंगी मुनि यद्यपि शीत ऋतु में नदी-तट पर रहकर सर्दी सहन करता है, गर्मी में पर्वत पर जाकर शरीर जलाता है, और वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे रहकर बरसात भी सहन करता है; अपने हृदय में करुणाभाव धारण करता है, झूठ नहीं बोलता है, चोरी नहीं करता है, कुशील-सेवन की अभिलाषा नहीं करता है, और किंचित् लोभ भी नहीं रखता है; मौन धारण करता है, शास्त्र पढ़कर उनके अर्थ भी जान लेता है, कभी प्रतिज्ञा भंग नहीं करता, व्रत करने की विधि को समझता है; तथापि भगवान महावीर कहते हैं कि उसे आत्मज्ञान के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता।॥९०॥
*कुछ प्रतियों में यह पद नहीं मिलता।
६०- अनुभव-प्रशंसा- कवित्त मनहर
जीवन अलप आयु बुद्धि बल हीन तामैं,
आगम अगाध सिंधु कैसैं ताहि डाक है।
द्वादशांग मूल एक अनुभौ अपूर्व कला,
भवदाघहारी घनसार की सलाक है॥
यह एक सीख लीजै याही कौ अभ्यास कीजै,
याको रस पीजै ऐसो वीरजिन-वाक है।
इतनो ही सार येही आतम कौ हितकार,
यहीं लौं मदार और आगै ढूकढाक है॥९१॥
अन्वयार्थ: हे भाई! यह मनुष्यजीवन वैसे ही बहुत थोड़ी आयुवाला है, ऊपर से उसमें बुद्धि और बल भी बहुत कम है, जबकि आगम तो अगाध समुद्र के समान है, अत: इस जीवन में उसका पार कैसे पाया जा सकता है? अत: हे भाई! वस्तुतः सम्पूर्ण द्वादशांगरूप जिनवाणी का मूल तो एक आत्मा का अनुभव है, जो बड़ी अपूर्व कला है और संसाररूपी ताप को शान्त करने के लिए चन्दन की शलाका है। अत: इस जीवन में एकमात्र आत्मानुभवरूप अपूर्व कला को ही सीख लो, उसका ही अभ्यास करो और उसको ही भरपूर आनन्द प्राप्त करो। यही भगवान महावीर की वाणी है। हे भाई! एक आत्मानुभव ही सारभूत है- प्रयोजनभूत है, करने लायक कार्य है, और इस आत्मानुभव के अतिरिक्त अन्य सब तो बस कोरी बातें हैं।॥९१॥
६१- भगवत्-प्रार्थना- कवित्त मनहर
आगम-अभ्यास होहु सेवा सरवज्ञ! तेरी,
संगति सदीव मिलौ साधरमी जन की।
सन्तन के गुन कौ बखान यह बान परौ,
मेटौ टेव देव ! पर-औगुन-कथन की॥
सब ही सौं ऐन सुखदैन मुख वैन भाखौं,
भावना त्रिकाल राखौं आतमीक धन की।
जौलौं कर्म काट खोलौं मोक्ष के कपाट तौलौं,
ये ही बात हूजौ प्रभु! पूजौ आस मन की॥९२॥
अन्वयार्थ: हे सर्वज्ञदेव! मेरी अभिलाषा यह है कि मैं जबतक कर्मों का नाश करके मोक्ष का दरवाजा नहीं खोल लेता हूँ, तबतक मुझे सदा शास्त्रों का अभ्यास रहे, आपकी सेवा का अवसर प्राप्त रहे, साधर्मीजनों की संगति मिली रहे, सज्जनों के गुणों का बखान करना ही मेरा स्वभाव हो जावे, दूसरों के अवगुण कहने की आदत से मैं दूर रहूँ, सभी से उचित और सुखकारी वचन बोलूँ और हमेशा आत्मिक सुखरूप शाश्वत धन की ही भावना भाऊँ। हे प्रभो! मेरे मन की यह आशा पूरी होवे।॥९२॥
६२- जिनधर्म-प्रशंसा
दोहा
छये अनादि अज्ञान सौं, जगजीवन के नैन।
सब मत मूठी धूल की, अंजन है मत जैन॥९३॥
अन्वयार्थ: अनादिकालीन अज्ञान के कारण संसारी प्राणियों की आँखें बन्द पड़ी हैं। उनके लिए अन्य सब मत तो धूल की मुट्ठी के समान हैं, अज्ञानी जीवों के अज्ञान का ही पोषण करते हैं; लेकिन जैनधर्म अंजन के समान है, जो जीवों के अज्ञान का अभाव करने वाला है॥९३॥
भूल-नदी के तिरन को, और जतन कछु है न।
सब मत घाट कुघाट हैं, राजघाट है जैन॥९४॥
अन्वयार्थ: भ्रमरूपी नदी को तिरने के लिए जैनधर्म के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। जैनेतर सभी मत उस नदी के खोटे घाट हैं; एक जैनधर्म ही राजघाट है- सच्चा मार्ग है॥९४॥
तीन भवन मैं भर रहे, थावर-जङ्गम जीव।
सब मत भक्षक देखिये, रक्षक जैन सदीव॥९५॥
अन्वयार्थ: तीनों लोकों में त्रस और स्थावर जीव भरे हुए हैं। वहाँ अन्य सब मत तो उनके भक्षक हैं और जैनधर्म उनका सदा रक्षक है॥९५॥
इस अपार जगजलधि मैं, नहिं नहिं और इलाज।
पाहन-वाहन धर्म सब, जिनवरधर्म जिहाज॥९६॥
अन्वयार्थ: अहो, इस अपार संसार-सागर से पार होने के लिए जैनधर्म के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है, नहीं है। यहाँ अन्य सभी धर्म (मत/सम्प्रदाय) तो पत्थर की नौका के समान हैं, केवल एक जैनधर्म ही पार उतारने वाला जहाज है॥९६॥
मिथ्यामत के मद छके, सब मतवाले लोय।
सब मतवाले जानिये, जिनमत मत्त न होय॥९७॥
अन्वयार्थ: इस दुनिया में अन्यमतों को मानने वाले सब लोग मिथ्यास्व की मदिरा पीकर मतवाले हो रहे हैं। किन्तु जिनमत को अपनाने वाला कभी मदोन्मत्त नहीं होता – मिथ्यात्व का सेवन नहीं करता॥९७॥
मत-गुमानगिरि पर चढ़े, बड़े भये मन माहिं।
लघु देखें सब लोक कौं, क्यों हूँ उतरत नाहिं॥९८॥
अन्वयार्थ: अन्यमतों को माननेवाले सब लोग अपने-अपने मत के अभिमानरूपी पहाड़ पर चढ़कर अपने ही मन में बड़े बन रहे हैं, वे अपने आगे सारी दुनिया को छोटा समझते हैं, कभी भी कैसे भी अभिमान के पहाड़ से नीचे नहीं उतरते॥९८॥
चामचखन सौं सब मती, चितवत करत निबेर।
ज्ञाननैन सौं जैन ही, जोवत इतनो फेर॥९९॥
अन्वयार्थ: जैनमत और अन्यमतों में इतना बड़ा अन्तर है कि अन्यमतों को मानने वाले तो चर्मचक्षुओं से ही देखकर निर्णय करते हैं, किन्तु जैन ज्ञानचक्षुओं से देखता है॥९९॥
ज्यौं बजाज ढिंग राखिकैं, पट परखैं परवीन।
त्यौं मत सौं मत की परख, पावैं पुरुष अमीन॥१००॥
अन्वयार्थ: जिसप्रकार बजाज अनेक वस्त्रों को पास-पास रखकर श्रेष्ठ वस्त्र की परीक्षा (पहचान) कर लेता है; उसीप्रकार सत्यनिष्ठ पुरुष विभिन्न मतों की भलीभाँति तुलना करके श्रेष्ठ मत की परीक्षा (पहचान) कर लेता है॥१००॥
दोय पक्ष जिनमत विषैं, नय निश्चय-व्यवहार।
तिन विन लहै न हंस यह, शिव सरवर की पार॥१०१॥
अन्वयार्थ: जिनमत में निश्चय-व्यवहार नय रूप दो पक्ष हैं, जिनके बिना यह आत्मा संसार-सागर को पार कर मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं कर सकता।॥१०१॥
सीझे सीझैं सीझहौं, तीन लोक तिहुँ काल।
जिनमत को उपकार सब, मत भ्रम करहु दयाल॥१०२॥
अन्वयार्थ: हे दयाल! तीन लोक तीन काल में आज तक जितने भी सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं, और भविष्य में होंगे; वह सब एकमात्र जिनमत का ही उपकार है। इसमें शंका न करो॥१०२॥
महिमा जिनवर-वचन की, नहीं वचन-बल होय।
भुज-बल सौं सागर अगम, तिरे न तिरहीं कोय॥१०३॥
अन्वयार्थ: अहो! जिनेन्द्र भगवान के वचनों की महिमा वचनों से नहीं हो सकती ।अपार समुद्र को भुजाओं के बल से तैरकर न कभी कोई पार कर पाया, न कर पायेगा॥१०३॥
अपने-अपने पंथ को, पौखे सकल जहांन।
तैसैं यह मत-पोखना, मत समझो मतिवान॥१०४॥
अन्वयार्थ: हे बुद्धिमान भाई! हमारी उक्त बातों को, जिनमें अन्यमतों से जिनमत की श्रेष्ठता बताई गई है, वैसा ही मतपोषण करना मत समझना, जैसा कि दुनिया के सब लोग अपने-अपने मतों का पोषण करते हैं॥१०४॥
इस असार संसार मैं, और न सरन उपाय।
जन्म-जन्म हूजो हमैं, जिनवर धर्म सहाय॥१०५॥
अन्वयार्थ: अहो! इस असार संसार में जैनधर्म के अतिरिक्त अन्य कोई शरण नहीं है, साधन नहीं है। हमें जन्म-जन्म में जिनधर्म की ही सहायता प्राप्त होवे॥१०५॥
आगरे मैं बालबुद्धि भूधर खंडेलवाल,
बालक के ख्याल-सो कवित्त कर’ जानै है।
ऐसे ही कहत भयो जैसिंह सवाई सूबा,
हाकिम गुलाबचन्द रह तिहि थानै है।
हरिसिंह साह के सुवंश धर्मरागी नर,
तिनके कहे सौं जोरि कीनी एक ठानै है।
फिरि-फिरि प्रेरे मेरे आलस को अंत भयो,
उनकी सहाय यह मेरो मन मानै है॥१०६॥ कवित्त मनहर
अन्वयार्थ: मैं, भूधरदास खण्डेलवाल, आगरा में बालकों के खेल जैसी कविता-रचना करता हूँ। ये उक्त छन्द मैंने जयपुर के श्री हरिसिंहजी शाह के बंशज धर्मानुरागी हाकिम श्री गुलाबचन्द्रजी के अनुरोध से एकत्रित किये हैं/ उन्हीं की पुनः-पुनः प्रेरणा से मेरे आलस्य का अन्त हुआ है। मैं उनका हृदय से आभार मानता हूँ॥१०६॥
दोहा
सतरह सै इक्यासिया, पोह पाख तमलीन।
तिथि तेरस रविवार को, शतक सम्पूर्ण कीन॥१०७॥
अन्वयार्थ: यह शतक पौप कृष्णा त्रयोदशी रविवार विक्रम संवत् १७८१ को पूरा किया॥१०७॥
Shashank Shaha added more details to update on 10 November 2024.
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