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देव-शास्त्र-गुरु -बाल ब्रह्मचारी रवीन्द्र जी आत्मन कृत-देव-शास्त्र-गुरुवर

Author:Child Bal Brahmachari Ravindra

Language : Hindi

Rhythm: –

Type: Pooja

Particulars: Dashlakshan Pooja

देव-शास्त्र-गुरुवर अहो! मम स्वरूप दर्शाय।
किया परम उपकार मैं, नमन करूँ हर्षाय॥
जब मैं आता आप ढिंग, निज स्मरण सु आय।
निज प्रभुता मुझमें प्रभो! प्रत्यक्ष देय दिखाय॥

ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं


जब से स्व-सन्मुख दृष्टि हुई, अविनाशी ज्ञायक रूप लखा।
शाश्वत अस्तित्व स्वयं का लखकर, जन्म-मरणभय दूर हुआ॥
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो।
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो॥

ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

निज परमतत्त्व जब से देखा, अद्भुत शीतलता पाई है।
आकुलतामय संतप्त परिणति, सहज नहीं उपजाई है॥
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो।
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो॥

ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

निज अक्षयप्रभु के दर्शन से ही, अक्षयसुख विकसाया है।
क्षत् भावों में एकत्वपने का, सर्व विमोह पलाया है॥
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो।
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो॥

ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

निष्काम परम ज्ञायक प्रभुवर, जब से दृष्टि में आया है।
विभु ब्रह्मचर्य रस प्रकट हुआ, दुर्दान्त काम विनशाया है॥
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो।
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो॥

ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

मैं हुआ निमग्न तृप्ति सागर में, तृष्णा ज्वाल बुझाई है।
क्षुधा आदि सब दोष नशें, वह सहज तृप्ति उपजाई है॥
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो।
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो॥



ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधा-रोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

ज्ञान-भानु का उदय हुआ, आलोक सहज ही छाया है।
चिरमोह महातम हे स्वामी, इस क्षण ही सहज विलाया है॥
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो।
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो॥

ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

द्रव्य-भाव-नोकर्म शून्य, चैतन्य प्रभु जब से देखा।
शुद्ध परिणति प्रकट हुई, मिटती परभावों की रेखा॥
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो।
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो॥

ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अष्ट कर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

अहो पूर्ण निज वैभव लख, नहीं कामना शेष रही।
हो गया सहज मैं निर्वांछक, निज में ही अब मुक्ति दिखी॥
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो।
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो॥

ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

निज से उत्तम दिखे न कुछ भी, पाई निज अनर्घ्य माया।
निज में ही अब हुआ समर्पण, ज्ञानानन्द प्रकट पाया॥
श्री देव- शास्त्र -गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो।
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो॥

ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला

(दोहा)
ज्ञान मात्र परमात्मा, परम प्रसिद्ध कराय।
धन्य आज मैं हो गया, निज स्वरूप को पाय॥

(हरिगीता छन्द)
चैतन्य में ही मग्न हो, चैतन्य दरशाते अहो।
निर्दोष श्री सर्वज्ञ प्रभुवर, जगत्साक्षी हो विभो॥

सच्चे प्रणेता धर्म के, शिवमार्ग प्रकटाया प्रभो।
कल्याण वाँछक भविजनों, के आप ही आदर्श हो॥

शिवमार्ग पाया आप से, भवि पा रहे अरु पायेंगे।
स्वाराधना से आप सम ही, हुए, हो रहे, होयेंगे॥

तव दिव्यध्वनि में दिव्य-आत्मिक, भाव उद्घोषित हुए।
गणधर गुरु आम्नाय में, शुभ शास्त्र तब निर्मित हुए॥

निर्ग्रंथ गुरु के ग्रन्थ ये, नित प्रेरणाएं दे रहे।
निजभाव अरु परभाव का, शुभ भेदज्ञान जगा रहे॥

इस दुषम भीषण काल में, जिनदेव का जब हो विरह।
तब मात सम उपकार करते, शास्त्र ही आधार हैं॥

जग से उदास रहें स्वयं में, वास जो नित ही करें।
स्वानुभव मय सहज जीवन, मूल गुण परिपूर्ण हैं॥

नाम लेते ही जिन्हों का, हर्षमय रोमाँच हो।
संसार-भोगों की व्यथा, मिटती परम आनन्द हो॥

परभाव सब निस्सार दिखते, मात्र दर्शन ही किए।
निजभाव की महिमा जगे, जिनके सहज उपदेश से॥

उन देव-शास्त्र-गुरु प्रति, आता सहज बहुमान है।
आराध्य यद्यपि एक, ज्ञायकभाव निश्चय ज्ञान है॥

अर्चना के काल में भी, भावना ये ही रहे।
धन्य होगी वह घड़ी, जब परिणति निज में रहे॥

(दोहा)
अहो कहाँ तक मैं कहूँ, महिमा अपरम्पार ।
निज महिमा में मगन हो, पाऊं पद अविकार ॥
॥पुष्पाजलिं क्षिपामि॥

ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

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