Site logo

समुच्च-पूजा-बाल ब्रह्मचारी सरदारमलजी कृत-देव-शास्त्र-गुरु नमन

Author:Bal Brahmachari Sardarmal ji

Language : Hindi

Rhythm: –

Type: Pooja

Particulars: Samucch Pooja

देव-शास्त्र-गुरु नमन करि, बीस तीर्थंकर ध्याय I
सिद्ध शुद्ध राजत सदा, नमूँ चित्त हुलसाय॥

ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुसमूह! श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकर समूह! श्री सिद्ध परमेष्ठि समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुसमूह! श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकर समूह! श्री सिद्ध परमेष्ठि समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुसमूह! श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकर समूह! श्री सिद्ध परमेष्ठि समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

अनादिकाल से जग में स्वामिन, जल से शुचिता को माना
शुद्ध निजातम सम्यक् रत्नत्रय, निधि को नहीं पहचाना॥
अब निर्मल रत्नत्रय जल ले, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ॥

ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त-सिद्धपरमेष्ठिभ्यो जन्मजरामत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

भव-आताप मिटावन की,निज में ही क्षमता समता है
अनजाने में अबतक मैंने, पर में की झूठी ममता है॥
चन्दन-सम शीतलता पाने, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ॥

ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तान्तसिद्धपरमेष्ठिभ्य: संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

अक्षय पद बिन फिरा, जगत की लख चौरासी योनी में
अष्ट कर्म के नाश करन को, अक्षत तुम ढिंग लाया मैं॥
अक्षयनिधि निज की पाने अब, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ॥

ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त-सिद्धपरमेष्ठिभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

पुष्प सुगन्धी से आतम ने, शील स्वभाव नशाया है
मन्मथ बाणों से विंन्ध करके, चहुँगति दु:ख उपजाया है॥
स्थिरता निज में पाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ॥

ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तान्तसिद्धपरमेष्ठिभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

षटरस मिश्रित भोजन से, ये भूख न मेरी शांत हुई
आतम रस अनुपम चखने से, इन्द्रिय मन इच्छा शमन हुई॥
सर्वथा भूख के मेटन को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ॥

ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरु भ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त-सिद्धपरमेष्ठिभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

जड़दीप विनश्वर को अबतक, समझा था मैंने उजियारा
निज गुण दरशायक ज्ञानदीप से, मिटा मोह का अँधियारा॥
ये दीप समर्पण करके मैं, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ॥

ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त-सिद्धपरमेष्ठिभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

ये धूप अनल में खेने से, कर्मों को नहीं जलायेगी
निज में निज की शक्ति ज्वाला, जो राग-द्वेष नशायेगी॥
उस शक्ति दहन प्रकटाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ॥

ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त-सिद्धपरमेष्ठिभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

पिस्ता बदाम श्रीफल लवंग, चरणन तुम ढिंग मैं ले आया
आतमरस भीने निज गुण फल, मम मन अब उनमें ललचाया
अब मोक्ष महाफल पाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ॥

ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त-सिद्धपरमेष्ठिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

अष्टम वसुधा पाने को, कर में ये आठों द्रव्य लिये
सहज शुद्ध स्वाभाविकता से, निज में निज गुण प्रकट किये॥
ये अर्घ्य समर्पण करके मैं, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ॥

ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त-सिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला

देव शास्त्र गुरु बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु भगवान
अब वरणूँ जयमालिका, करूँ स्तवन गुणगान॥

नशे घातिया कर्म अरहन्त देवा।
करें सुर-असुर-नर-मुनि नित्य सेवा॥
दरशज्ञान सुखबल अनन्त के स्वामी।
छियालीस गुणयुत महाईशनामी॥

तेरी दिव्यवाणी सदा भव्य मानी।
महामोह विध्वंसिनी मोक्ष-दानी॥
अनेकांतमय द्वादशांगी बखानी।
नमो लोक माता श्री जैनवाणी॥

विरागी अचारज उवज्झाय साधू।
दरश-ज्ञान भण्डार समता अराधू॥
नगन वेशधारी सु एका विहारी।
निजानन्द मंडित मुकति पथ प्रचारी॥

विदेह क्षेत्र में तीर्थंकर बीस राजें।
विरहमान वंदूँ सभी पाप भाजें॥
नमूँ सिद्ध निर्भय निरामय सुधामी।
अनाकुल समाधान सहजाभिरामी॥

ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: अनन्तानन्तसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालामहार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

देव-शास्त्र-गुरु बीस तीर्थंकर, सिद्ध हृदय बिच धर ले रे
पूजन ध्यान गान गुण करके, भवसागर जिय तर ले रे ॥
(पुष्पांजलिं क्षिपेत्)

You cannot copy content of this page