Gyaanaanubhooti Hee Paramaamrt hai-Shri-Vitarag-Pujan- Pandit-Ravindraji- Krut

श्री-वीतराग-पूजन-पण्डित-रवीन्द्रजी-ज्ञानानुभूति ही परमामृत है

Author: Pandit-Ravindraji

Language : Hindi

Rhythm: –

Type: Pooja

Particulars: Shri Veetrag-Pooja

शुद्धातम में मगन हो, परमातम पद पाय।
भविजन को शुद्धात्मा, उपादेय दरशाय॥
जाय बसे शिवलोक में, अहो अहो जिनराज।
वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, आयो पूजन काज॥

ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री ववीतराग देव! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री ववीतराग देव! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

ज्ञानानुभूति ही परमामृत है, ज्ञानमयी मेरी काया।
है परम पारिणामिक निष्क्रिय, जिसमें कुछ स्वांग न दिखलाया॥
मैं देख स्वयं के वैभव को, प्रभुवर अति ही हर्षाया हूँ।
अपनी स्वाभाविक निर्मलता, अपने अन्तर में पाया हूँ॥
थिर रह न सका उपयोग प्रभो, बहुमान आपका आया है।
समतामय निर्मल जल ही प्रभु, पूजन के योग्य सुहाया है॥

ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! जन्म-जरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

है सहज अकर्ता ज्ञायक प्रभु, ध्रुव रूप सदा ही रहता है।
सागर की लहरों सम जिसमें, परिणमन निरन्तर होता है॥
हे शान्ति सिन्धु ! अवबोधमयी, अदृभुत तृप्ति उपजाई है।
अब चाह दाह प्रभु शमित हुई, शीतलता निज में पाई है॥
विभु अशरण जग में शरण मिले, बहुमान आपका आया है।
चैतन्य सुरभिमय चन्दन ही, पूजन के योग्य सुहाया है॥

ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

अब भान हुआ अक्षय पद का, क्षत् का अभिमान पलाया है।
प्रभु निष्कलंक निर्मल ज्ञायक, अविचल अखण्ड दिखलाया है॥
जहाँ क्षायिक भाव भी भिन्न दिखे, फिर अन्यभाव की कौन कथा।
अक्षुण्ण आनन्द निज में विलसे, निःशेष हुई अब सर्व व्यथा॥
अक्षय स्वरूप दातार नाथ, बहुमान आपका आया है।
निरपेक्ष भावमय अक्षत ही, पूजन के योग्य सुहाया है॥

ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

चैतन्य ब्रह्म की अनुभूतिमय, ब्रह्मचर्य रस प्रगटाया।
भोगों की अब मिटी वासना, दुर्विकल्प भी नहीं आया॥
भोगों के तो नाम मात्र से भी, कम्पित मन हो जाता।
मानों आयुध से लगते हैं, तब त्राण स्वयं में ही पाता॥
हे कामजयी निज में रम जाऊँ, यही भावना मन आनी।
श्रद्धा सुमन समर्पित जिनवर, कामबुद्धि सब विसरानी॥

ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

निज आत्म अतीन्द्रियरस पीकर, तुम तृप्त हुए त्रिभुवनस्वामी।
निज में ही सम्यक दृष्टि की, विधि तुम से सीखी ज़गनामी॥
अब कर्ता भोक्ता बुद्धि छोड, ज्ञाता रह निज रस पान करूँ।
इन्द्रिय विषयों की चाह मिटी, सर्वांग सहज आनन्दित हूँ॥
निज में ही ज्ञानानन्द मिला, बहुमान आपका आया है।
परम तृप्तिमय अकृतबोध ही, पूजन के योग्य सुहाया है॥

ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

मोहान्धकार में भटका था, सम्यक प्रकाश निज में पाया।
प्रतिभासित होता हुआ स्वज्ञायक, सहज स्वानुभव में आया॥
इन्द्रिय बिन सहज निरालम्बी प्रभु, सम्यकज्ञान ज्योति प्रगटी।
चिरमोह अंधेरी हे जिनवर, अब तुम समीप क्षण में विघटी॥
अस्थिर परिणति में हे भगवन ! बहुमान आपका आया है।
अविनाशी केवलज्ञान जगे, प्रभु ज्ञानप्रदीप जलाया है॥

ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

निष्क्रिय निष्कर्ष परम ज्ञायक, ध्रुव ध्येय स्वरूप अहो पाया।
तब ध्यान अग्नि प्रज्जवलित हुई, विघटी परपरिणति की माया॥
जागी प्रतीति अब स्वयं सिद्ध, भव भ्रमण भ्रान्ति सब दूर हुई।
असंयुक्त निर्बन्ध सुनिर्मल, धर्म परिणति प्रकट हुई॥
अस्थिरताजन्य विकार मिटे, मैं शरण आपकी हूँ आया।
बहुमानभावमय धूप धरूँ, निष्कर्म तत्त्व मैने पाया॥

ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

है परिपूर्ण सहज ही आतम, कमी नहीं कुछ दिखलावे।
गुण अनन्त संपन्न प्रभु, जिसकी दृष्टि में आ जावे॥
होय अयाची लक्ष्मीपति, फिर वांछा ही नहीं उपजावे।
स्वात्मोपलब्धिमय मुक्तिदशा का, सत्पुरषार्थ सु प्रगटावै॥
अफलदृष्टि प्रगटी प्रभुवर, बहुमान आपका आया है।
निष्काम भावमय पूजन का, विभु परमभाव फल पाया है॥

ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

निज अविचल अनर्घ्य पद पाया, सहज प्रमोद हुआ भारी।
ले भावर्घ्य अर्चना करता, निज अनर्घ्य वैभव धारी।
चक्री इंद्रादिक के पद भी, नहीं आकर्षित कर सकते।
अखिल विश्व के रम्य भोग भी, मोह नहीं उपजा सकते॥
निजानन्द में तृप्तिमय ही , होवे काल अनन्त प्रभो!।
ध्रुव अनुपम शिव पदवी प्रगटे, निश्चय ही भगवंत अहो !॥

ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला

(छन्द-चामर)
प्रभो आपने एक ज्ञायक बताया,
तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया॥

यही रूप मेरा मुझे आज भाया,
महानंद मैंने स्वयं में ही पाया॥
भव-भव भटकते बहुत काल बीता,
रहा आज तक मोह-मदिरा ही पीता॥
फिरा ढूँढता सुख विषयों के माहीं,
मिली किन्तु उनमें असह्य वेदना ही॥
महाभाग्य से आपको देव पाया,
तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया॥

कहाँ तक कहूँनाथ महिमा तुम्हारी,
निधि आत्मा की सु दिखलाई भारी॥
निधि प्राप्ति की प्रभु सहज विधि बताई,
अनादि की पामरता बुद्धि पलाई॥
परमभाव मुझको सहज ही दिखाया,
तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया॥

विस्मय से प्रभुवर भी तुमको निरखता,
महामूढ दुखिया स्वयं को समझता॥
स्वयं ही प्रभु हूँ दिखे आज मुझको,
महा हर्ष मानों मिला मोक्ष ही हो॥
मैं चिन्मात्र ज्ञायक हूँ अनुभव में आया,
तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया॥

अस्थिरता जन्य प्रभो दोष भारी,
खटकती है रागादि परिणति विकारी॥
विश्वास है शीघ्र ये भी मिटेगी,
स्वभाव के सन्मुख यह कैसे टिकेगी॥
नित्य-निरंजन का अवलम्ब पाया,
तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया॥

दृष्टि हुई आप सम ही प्रभो जब,
परिणति भी होगी तुम्हारे ही सम तब॥
नहीं मुझको चिंता मैं निर्दोष ज्ञायक,
नहीं पर से सम्बन्ध मैं ही ज्ञेय ज्ञायक॥
हुआ दुर्विकल्पों का जिनवर सफाया,
तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया॥

सर्वांग सुखमय स्वयं सिद्ध निर्मल,
शक्ति अनन्तमयी एक अविचल॥
बिन्मूर्ति चिन्मूर्ति भगवान आत्मा,
तिहूँजग में नमनीय शाश्वत चिदात्मा॥
हो अद्वैत वन्दन प्रभो हर्ष छाया,
तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया॥

ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! अनर्घ्यपदप्राप्तये पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

(दोहा)
आपही ज्ञायक देव हैं, आप आपका ज्ञेय ।
अखिल विश्व में आपही, ध्येय ज्ञेय श्रद्धेय ॥
(पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् )

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