He siddha tumhare vandana-Siddha Puja-Pandit-Rajmal-Pavaiya Krut

सिद्धपूजा-पण्डित-राजमल-पवैया कृत-हे सिद्ध तुम्हारे वंदन

Author: Pandit Rajmal Pavaiya

Language : Hindi

Rhythm: –

Type: Pooja

Particulars: Siddha Pooja

हे सिद्ध तुम्हारे वंदन से उर में निर्मलता आती है।
भव-भव के पातक कटते हैं पुण्यावलि शीश झुकाती है॥
तुम गुण चिन्तन से सहज देव होता स्वभाव का भान मुझे।
है सिद्ध समान स्वपद मेरा हो जाता निर्मल ज्ञान मुझे॥
इसलिये नाथ पूजन करता, कब तुम समान मैं बन जाऊँ।
जिसपथ पर चल तुम सिद्ध हुए, मैं भी चल सिद्ध स्वपद पाऊँ॥
ज्ञानावणादिक अष्टकर्म को नष्ट करूँ ऐसा बल दो।
निज अष्ट स्वगुण प्रगटें मुझमें, सम्यक् पूजन का यह फल हो॥

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

कर्म मलिन हूँ जन्म जरा मृतु को कैसे कर पाऊँ क्षय।
निर्मल आत्म ज्ञान जल दो प्रभु जन्म-मृत्यु पर पाऊँ जय॥
अजर, अमर, अविकल अविकारी अविनाशी अनंत गुणधाम।
नित्य निरंजन भव दुख भंजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम॥

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा

शीतल चंदन ताप मिटाता, किन्तु नहीं मिटता भव ताप।
निज स्वभाव का चंदन दो, प्रभु मिटे राग का सब संताप॥
अजर, अमर, अविकल अविकारी अविनाशी अनंत गुणधाम।
नित्य निरंजन भव दुख भंजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम॥

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने संसारतापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा

उलझा हूँ संसार चक्र में कैसे इससे हो उद्धार।
अक्षय तन्दुल रत्नत्रय दो हो जाऊँ भव सागर पार॥
अजर, अमर, अविकल अविकारी अविनाशी अनंत गुणधाम।
नित्य निरंजन भव दुख भंजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम॥

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

काम व्यथा से मैं घायल हूँ कैसे करूँ काम मद नाश।
विमलदृष्टि दो ज्ञानपुष्प दो, कामभाव हो पूर्ण विनाश॥
अजर, अमर, अविकलअविकारी अविनाशी अनंत गुणधाम।
नित्य निरंजन भव दुख भंजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम॥

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामबाणविध्वंसनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा

क्षुधा रोग के कारण मेरा तृप्त नहीं हो पाया मन।
शुद्धभाव नैवेद्य मुझे दो सफल करूँ प्रभु यह जीवन॥
अजर, अमर, अविकल अविकारी अविनाशी अनंत गुणधाम।
नित्य निरंजन भव दुख भंजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम॥

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा

मोहरूप मिथ्यात्व महातम अन्तर में छाया घनघोर।
ज्ञानद्वीप प्रज्वलित करो प्रभु प्रकटे समकित रवि का भोर॥
अजर, अमर, अविकल अविकारी अविनाशी अनंत गुणधाम।
नित्य निरंजन भव दुख भंजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम॥

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा

कर्म शत्रु निज सुख के घाता इनको कैसे नष्ट करूँ।
शुद्ध धूप दो ध्यान अग्नि में इन्हें जला भव कष्ट हरूँ॥
अजर, अमर, अविकल अविकारी अविनाशी अनंत गुणधाम।
नित्य निरंजन भव दुख भंजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम॥

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा

निज चैतन्य स्वरूप न जाना, कैसे निज में आऊँगा।
भेदज्ञान फल दो हे स्वामी स्वयं मोक्ष फल पाऊँगा॥
अजर, अमर, अविकल अविकारी अविनाशी अनंत गुणधाम।
नित्य निरंजन भव दुख भंजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम॥

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा

अष्ट द्रव्य का अर्घ्य चढ़ाऊँ, अष्टकर्म का हो संहार।
निजअनर्घ पद पाऊँ भगवन्‌, सादि अनंत परम सुखकार।
अजर, अमर, अविकल अविकारी, अविनाशी अनंत गुणधाम।
नित्य निरंजन भव दुख भंजन, ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम॥

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जयमाला

मुक्तिकन्त भगवन्त सिद्ध को मनवच काया सहित प्रणाम।
अर्ध चन्द्र सम सिद्ध शिला पर आप विराजे आठों याम॥

ज्ञानावरण दर्शनावरणी, मोहनीय अन्तराय मिटा।
चार घातिया नष्ट हुए तो फिर अरहन्त रूप प्रगटा॥

वेदनीय अरु आयु नाम अर गोत्र कर्म का नाश किया।
चऊ अघातिया नाश किये तो स्वयं स्वरूप प्रकाश किया॥

अष्टकर्म पर विजय प्राप्त कर अष्ट स्वगुण तुमने पाये।
जन्म-मृत्यु का नाश किया निज सिद्ध स्वरूप स्वगुण भाये॥

निज स्वभाव में लीन विमल चैतन्य स्वरूप अरूपी हो।
पूर्ण ज्ञान हो पूर्ण सुखी हो पूर्ण बली चिद्रूपी हो॥

वीतराग हो सर्व हितैषी राग-द्वेष का नाम नहीं।
चिदानन्द चैतन्य स्वभावी कृतकृत्य कुछ काम नहीं॥

स्वयं सिद्ध हो, स्वयं बुद्ध हो, स्वयं श्रेष्ठ समकित आगार।
गुण अनन्त दर्शन के स्वामी तुम अनन्त गुण के भण्डार॥

सिद्ध स्वगुण के वर्णन तक की मुझ में प्रभुवर शक्ति नहीं।
चलूँ तुम्हारे पथ पर स्वामी ऐसी भी तो भक्ति नहीं॥

देव तुम्हारी पूजन करके हृदय कमल मुस्काया है।
भक्ति भाव उर में जागा है मेरा मन हर्षाया है॥

तुम गुण का चिन्‍तवन करे जो स्वयं सिद्ध बन जाता है।
हो निजात्म में लीन दुखों से छुटकारा पा जाता है॥

अविनश्वर अविकारी सुखमय सिद्ध स्वरूप विमल मेरा।
मुझमें है मुझसे ही प्रगटेगा स्वरूप अविकल मेरा॥

ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

शुद्ध स्वभावी आत्मा निश्चय सिद्ध स्वरूप।
गुण अनन्तयुत ज्ञानमय है त्रिकाल शिवभूप॥
(पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)

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